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कथा - विभाग - ३ महासती श्री चन्दनबालाजी
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घोषणा की कि - 'तुम इस चम्पानगरी मे जहाँ, जो पात्रो, वह ले सकते हो। वह ली गई वस्तु तुम्हारी समझी जायगी ।' सैनिक और सुभटो ने यह घोषणा सुनकर चम्पानगरो को तेजी से लूटना आरंभ कर दिया ।
माता की मृत्यु
महारानी धारिणी और वसुमति ने देखा कि 'महाराजा वन मे भाग गये हैं और नगरी तेजी से लूटी जा रही है, तो हमे भी अपनी रक्षा के लिए यहाँ से भागकर चला जाना चाहिए । अब यहाँ ठहरना शील के लिए ठीक नही होगा ।' यह विचार कर वे राजप्रासाद को छोडकर भाग ही रही थी कि, एक नाविक ( श्रथवा सारथी या ऊँटवाले) ने उन दोनो को पकड लिया और वह अपने साथ ले जाने लगा । मार्ग मे उसने अपने साथ चलने वाले लोगो से कहा कि 'इन दोनो मिली हुई स्त्रियो मे से इस बडी सुन्दरी को तो मैं अपनी पत्नी बनाऊँगा तथा इसकी इस कन्या को कही बाजार में बेच कर पैसा कमाऊँगा ।'
धारिणी को यह सुनकर हृदय मे बडा आघात लगा - 'जिस पुत्री को जीवन-धन की भाँति पाली, वह राजप्रासाद मे रहने वाली पुत्री मार्ग मे खडी करके बेची जायगी' - यह उसे सहन न हुआ । फिर शील- नाश की शका ने तो उसका हृदय पूरा कपा दिया । पुत्री के भावी दुख की चिन्ता और अपने शील-नाश की आशका से उसे हृदयाघात हो गया और उसके प्राण छूट गये ।
बाजार में बिक्री
वसुमति अब अपने आपको अनाथ अनुभव करने लगी । १ पिताजी छोड़कर चले गये । २. राजप्रासाद छूट गया ।