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पाठ १८ ---तस्सउत्तरी : उत्तरीकरण का पाठ
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भग्गो श्रविराहिलो हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥३॥ जाव प्ररिहंताणं भगवंतारणं गमोक्का रेगं न पारेमि ॥४॥ ताव कार्य, ठाणे मोरगं झापोरगं, अप्पारगं वो सिरामि ॥ ५ ॥
शब्दार्थ :
किसके लिए ?
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९. तस्स = उसकी ( उस पाप सहित आत्मा की ) । उत्तरी == विशेष उत्कृष्टता । करणे = करने के लिए । २. पायच्छित्त = प्रायश्चित्त । ३. विसोहि = विशुद्धि तथा ४. विसल्लो = शल्य ( काँटे ) रहित । करण = करने के लिए । ५. पावारणंश्राठो या (अठ्ठारह ही ) पाप । कम्मारणं = कर्मों का । निग्घायरणट्टाए = नाश करने के लिए 1
क्या करता हूँ ?
काउसर्ग = कायोत्सर्ग । ठामि करता है ।
किन गारो को छोड़ कर ?
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१. ऊस सिएरणं = उच्छ्वास ( ऊँचा श्वास ) । २. नीससिए निश्वास ( नीचा श्वास ) | ३. खासिए = खाँसी 1 ४ छोए गं छौंक | ५ जंभाइएरणं = जभाई ( उबासी) । ६ उड्डुए = उगाल ( डकार ) । ७. वायनिसग्गेणं = अधोवायु ८. भमलीए - भ्रम (पित्त के उठाव से होने वाला चक्कर ) । 2 पित्तमुच्छाए - पित्त विकार की मूर्च्छा । १०. सुहुमेहि = सूक्ष्म ( थोडा, हल्का ) 1 ११. अंगसंचालेह - प्रंग का संचार ( अगो का फड़कना, रोमाच होना, हिलना) । १२ खेल =