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________________ कथा-विभाग-४ श्री मेघ-कुमार (मुनि) [ २१६ माता-पिता ने कहा--'२. बेटा ! ये आठ तेरो नवविवाहिता सुन्दरी स्त्रियाँ है, उन्हे पहले भोग ले, पीछे दीक्षा लेना।' मेघकुमार ने कहा-'माता-पिता । मनुष्य के काम-भोग अत्यन्त अशुचिमय है और कौन जानता है कि कुछ वर्षों तक इन स्त्रियो के काम-भोगो को भोग कर मैं इन्हे छोड़ सकूँगा या ये पहले ही मुझे छोड़कर चली जायेगी ?' माता-पिता ने कहा '३ बेटा। हमारे पास सात पीढियो तक चले - इससे भी अधिक धन है और जनता मे हमारा आदर-सत्कार भी बहुत है। पहले तू इस धनसत्कार को भोग ले, फिर दीक्षा ले लेना।' मेघकुमार ने कहा-'माता-पिता। यह धन, अग्नि, वाढ, चोर आदि किसी से भी कभी भी नष्ट हो सकता है और राजा सदा राजा ही बने नही रहते। कौन जानता है कि, कुछ ही वर्षों तक धनसत्कार भोगकर मैं इन्हे छोड सकूँगा या ये पहले हो मुझे छोड़ कर चले जायेगे?' जब माता-पिता सासारिक सुखो से मेघकुमार को लुभा नही सके, तो उन्होने उसे दीक्षा के कष्टो को बताया। उन्होने कहा-'मेघ । दोक्षा पालना कोई खेल नही है। वह १ लोहे के चने चबाने के समान कठिन है। २. बालू फाँकने के समान नीरस (स्वादरहित) है। ३. महासमुद्र को भुजानो से तैरने के समान अशक्य है। ४. खड्ग की धार पर चलने के समान दुखद् है। उसमें पाँच महाव्रत पालने होते है। रात्रि-भोजन त्यागना होता है। बावीस परीषह सहने होते हैं। उपसर्ग आने पर समता रखनी होती है। केश-लोच करना पड़ता है। नगे पैर चलना होता है। अपने लिए बना भोजन काम मे नही आता। रोग उत्पन्न होने पर सदोष औषधि नही ली
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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