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कथा-विभाग-५. श्री अर्जुन-म ली (अनगार) [ २३५
अरिहंत-भक्त 'सुदर्शन' उसी राजगुह मे सेठ 'सुदर्शन' नामक एक अरिहत के श्रावक रहते थे। उन्हें प्राण से धर्म अधिक प्यारा था। वे जानते थे कि-'प्रारण तो अनन्त वार लुट चुके हैं। प्राणो की रक्षा करते-करते कभी प्राणो की रक्षा नही हुई। अन्त मे मृत्यु आ ही जाती है। धर्म ही हमारी वस्तुत रक्षा कर सकता है और मोक्ष पहुँचाकर पूर्ण अमरता दे सकता है।' उन्होने माता-पिता से हाथ जोडकर कहा-"माता-पिता भगवान् महावीरस्वामी अपने नगर के बाहर ही पधार गये है। मैं उनके दर्शन करने जाना चाहता हैं।" माता-पिता बोले- "बेटा तुम्हारी भावना बहुत उत्तम है, हम भी भगवान् का दर्शन करना चाहते हैं, पर बाहर हत्यारा अर्जुनमाली घूमता है। तुम दर्शन के लिए बाहर जाते हुए कही उससे मारे न जानो, अतः तुम यही से भगवान् को वदन-नमस्कार कर लो।"
सुदर्शन ने कहा-'माता-पिता ! भगवान् तो अपनी नगरी मे पधारे और मैं घर ही बैठा रहूँ ? यही से वन्दन करूँ? यह कैसे हो सकता है ? आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे मैं भगवान् की सेवा मे साक्षात् पहुँच कर दर्शनामृत को
आँखो से पीऊँ और चरणो मे मस्तक झुका कर विधि सहित वन्दना करूँ।'
माता पिता ने उन्हे बहुतेरा समझाया, पर सुदर्शन दृढ रहे, कायर न बने। तब विवेकी माता-पिता ने उन्हे इच्छा न होते हुए भी जाने की आज्ञा दे दी।
सुदर्शन की श्रद्धा-दृढ़ता माता-पिता की आज्ञा पाकर विनयी सुदर्शन भगवान् के सु-दर्शन करने चले। कुछ लोग उनकी प्रभु के प्रति श्रद्धा-भक्ति