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तत्त्व विभाग-ग्यारहवां बोल 'सम्यक्त्व के छह स्थान' [ १४१
६. अनुप्रदान : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या आचार से अन्य मती बने हुए जैन-साधुनो को बार-बार भी न दान दे। (अनुकपा बुद्धि से किसी को भी पालापाद करने या किमी को भी दानादि देने का तीर्थकर भगवान् द्वारा निषेध नही है।
___ उपरोक्त पालापादि छहो बोल सुदेव, सुगुरु तथा स्वधर्मी । बन्धुग्रो के साथ अवश्य करे ।)
ग्यारहवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के छह स्थान'
स्थान : (जसे स्थान होने पर ही मनुष्य ठहर पाता है, वैसे
ही) जिस सेद्धान्तिक सत्य मान्यता के होने पर ही सम्यक्त्व ठहरे (रहे), उसे 'सम्यक्त्व का स्थान' कहते है।
१. जीव है : चेतना लक्षण वाला जीव द्रव्य सत् है, असत् नहीं है। अर्यान् जीव वास्तविक सत्य पदार्थ है, परन्तु काल्पनिक झूठा पदार्थ नहीं है।
२. जीव नित्य है : जीव द्रव्य आदि (उत्पत्ति) अत (विनाश) रहित सदा काल शाश्वत है। परन्तु शरीर की उत्पत्ति से जीव की उत्पत्ति और शरीर के नाश से जोव का नाश नही होता है।
३. जीव कर्ता है : जीव आठ कर्मों का कर्ता है, परन्तु अकर्ता नही है। अथवा ईश्वर जीव से कर्म कराता हो या जीव कर्म करता हुआ भी कर्म से निर्लेप रहता हो-यह बात भी नही है।
४. जीव भोक्ता है : जीव आठ कर्मों का भोक्ता है, पर अभोक्ता नहीं है। अथवा ईश्वर जीव का कर्म का फल