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कथा-विभाग-१. भगवान महावीर . [ १७३ से खिसका, तिल-पौधे के पास पहुंचा और उसने उसे मिट्टी के ढेले सहित समूल उखाड कर एकान्त मे फेक दिया। फिर वह भगवान् से जा मिला।
तत्क्षण ही आकाग मे बादल घुमड़ आये। बिजली व कडाके के साथ वर्षा हुई। पानी और कीचड को पाकर वह पौधा पुन. प्रतिष्ठित हो गया (जम गया)। कालान्तर से उस पौधे के सात तिल-फूल के जीव मर कर उसी की एक फली मे सात तिल के रूप मे उत्पन्न हो गये।
गोशालक की रक्षा
इधर भगवान् गोगालक के साथ 'कूर्म गांव के बाहर पहुंचे। वहाँ निरन्तर बेले-बेले (दो-दो उपवास), करने वाला, 'वैश्यायन' नामक बाल-तपस्वी सूर्य के सामने खडे होकर, आँखे खोलकर तथा भुजाओ को ऊँची उठाकर आतापना ले रहा था। गर्मी से घबराकर उसके मस्तक की जटा से बहुत-सी जुएँ नीचे गिर जाती थी। वह उनकी रक्षा के लिए उन्हे उठाकर फिर से अपने मस्तक मे रख देता था।
चचल गोशालक उसे इस प्रकार देखकर भगवान् के पास से खिसका और उससे जाकर बोला • 'अरे, तू मुनि है या , राक्षस है या जूओ का शय्यातर (घर) है ?' गोशालक के द्वारा एक, दो और तीसरी बार भी ऐसा कहे जाने पर वैश्यायन क्रुद्ध । हो गया। उसने गोशालक पर उष्ण तेजोलेश्या फेकी। (भस्म कर देने वाले तैजस शरीर से निकलने वाले जड-पुद्गल फेके) तब अनुकम्पाशील भगवान् ने गोशालक को बचा लेने के लिए अनुकम्पा करके शीतल तेजोलेश्या द्वारा उस उष्ण तेजोलेश्या को नष्ट कर दी।