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पाठ १७-इच्छाकारेण प्रश्नोत्तरी [६६ उन्हे पूंज कर एक स्थान से दूसरे सुरक्षित स्थान पर हटाना ही चाहिए। इससे उन्हे कष्ट तो होता ही है, पर इसके लिए दूसरा उपाय नही है। जो इससे थोडी विराधना होती है, उसके लिए 'मिच्छा मि दुक्कड' देना
(कहना) चाहिये। प्र० . क्या किसी का मन दु खाना तथा कटु वचन बोलना
विराधना नही है ? । उ० : है। इसलिए किसी का मन दु खे ऐसा काम भी नही
करना चाहिए तथा ऐसी वाणी भी नहीं बोलनी चाहिए। इस पाठ मे यद्यपि शरीर को कष्ट पहुँचाने से होने वाली १० प्रकार की विराधना का ही 'मिच्छा मि दुक्कड' दिया है (कहा है), पर उससे मन-वचन की विराधना का
मिच्छा मि दुक्कड भी समझ लेना चाहिए। प्र० : क्या 'मिच्छा मि दुक्कड' कहने से ही पाप निष्फल हो
जाता है (धुल जाता है) ? उ० : नही। बिना मन केवल जीभ से कहने से पाप निष्फल
नही हो जाता। मन के पश्चाताप के साथ कहने से अवश्य ही निष्फल होता है। अत 'मिच्छा मि दुक्कड'
मन के पश्चाताप के साथ कहना चाहिए। प्र० : जीव-विराधना न हो-इसका उपाय क्या है ? उ० : 'यतना रखना' । प्र. : 'यतना' किसे कहते है ? उ० : १. जीव-विराधना का प्रसग न आवे-इसका पहले से
ही ध्यान रखना तथा २. प्रसग आने पर जीव-विराधना टालने का प्रयत्न करना।