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कथा-विभाग-४. श्री मेध कुमार (मुनि) [ २२३ में ज्ञान-वैराग्य की ज्योति तेजी से चमक रही थी। मातापिता ने सासारिक १. शरीर, २ स्त्री, ३ धन-सत्कार आदि का प्रलोभन बताया, तो ज्ञान-वैराग्य के कारण निप्पृह (इच्छारहित) होकर उन्हे ठुकरा दिया। इसी प्रकार जब माता-पिता ने दीक्षा के दु ख बताये, तो ज्ञान-वैराग्य के कारण धेर्य धारण कर उन्हे सह लेने का साहस प्रकट किया। परन्तु इस रात्रि मे ज्ञान-वैराग्य की ज्योति मन्द हो जाने से उन्हे राजप्रासाद के सुख स्मरण आ गये तथा रात्रि का नगण्य कष्ट भी नरक-सा लगा।
जघन्य पुरुष और उत्तम पुरुष जान-वैराग्य की ज्योति जब मन्द हो जाती है, तब ऐसा ही होता है। जघन्य पुरुष (हीन कक्षा के प्राणो) ऐसी अवस्था मे दूसरो को देखकर उसके ज्ञान-वैराग्य का उपहास करते हैं। उसकी को हुई प्रतिज्ञा पर हँसी करते है। ऐसा करने से ज्ञानवैराग्य की मन्द हुई ज्योति चमकती नहीं है, पर और अधिक मन्द पड जाता है। कुछ जघन्य पुरुष ऐसे भी होते है, जो ऐसे उदाहरणो को लेकर व्रतादि को लेने वाले का उत्साह मन्द कर देते है। 'चले हो दीक्षा लेने ! ज्ञान-वैराग्य की बाते छॉटना सरल है, परन्तु उसे निभाना हँसी-खेल नहीं है।' उनकी ऐसी बाते भी दीक्षार्थी को हानि पहुंचाती है।
भगवान् तो उत्तम पुरुष ही नही, सबसे अधिक उत्तम पुरुष थे। उन्होंने मेघकुमार को उपालम्भ भी दिया, पर मधुर उपालम्भ दिया, जिसमे मेघमुनि की मन्द हुई ज्ञान-वैराग्य की ज्योति फिर से तेज हुई और जीवन भर के लिए तेज हो गई।
उन्होने मेघमुनि को मधुर स्वर मे कहा-'मेघ । क्या साधुनो के आवागमन आदि के कारण तुम्हे आज नीद नही