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२२२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ करती थी। शय्या-भवन मे २ अगर-तगर की सुगन्ध चारो ओर मँडराती रहती । दासियो के द्वारा ३ पड़ो से मन्द-मन्द वायु भी प्राप्त होती रहती। किसी भी आवश्यकता के होने पर उसे पूरी करने के लिए ४ दास भी पैरो पर जगे खडे रहते थे।
किन्तु अाज सब मे परिवर्तन था। भगवान् जहाँ बिगजे थे, वही १ वगीचे के स्थान मे सोना पड़ा, वह भी धरती पर । आज २ सुगन्ध के स्थान पर धूल थी और ३ वायु के झोको के स्थान पर थी ठोकरे। सयोग की वात है, ४ किसी साधू ने उनसे इस सम्बन्ध मे सुख-दुख भी न पूछा। उन्हे वह दीक्षा की पहली रात वहुत ही वडो लगी। वे अपने-अापको मानो 'मैं नरक मे हूँ'-ऐसा अनुभव करने लगे।
गृहस्थ बनने का निर्णय
उन्होने विचार किया कि- 'जव में गृहस्थवास मे था, तव सभी साधु मेग आदर करते थे। मधुरता से प्रश्नोत्तर करते थे। शिष्ट व्यवहार करते थे। पर आज मै ठुकराया जा रहा हूँ । मेरी कूडे-कर्कट के ढेर-सो अवस्था वनाई जा रही है । जब प्रथम ही दिन की यह अवस्था है, तो आगे और न जाने क्या होगा? यह जीवन भर का प्रश्न है और मुझसे सदा ऐसा सहन न होगा। अच्छा है, प्रातःकाल होते ही मै भगवान् से पूछ कर पुनः गृहस्थ वन जाऊँ।' इस प्रकार विचार करके बडे कष्ट के साथ उन्होने उस वैरिणी रात्रि को पूरी की।
__प्रात काल होने पर 'मेघमुनि भगवान् महावीरस्वामी के चरणो मे पहुँचे। उन्होने भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। अव भी उनके हृदय मे रात्रि मे किया हया निर्णय दृढ था । , जब उन्होने माता-पिता से आज्ञा माँगी थी, तब उनके हृदय