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कथा-विभाग---४ श्री मेघ कुमार (मुनि) [ २२५ उत्पन्न हुए और युवक होने पर स्वय ७०० हथिनियो के स्वामी बन गये।
एक बार वहाँ भी उष्ण ऋतु मे वन मे आग लगी। उसे देखकर विचार करते-करते तुम्हे जाति-स्मरण(पूर्व भव का स्मरण) हो पाया। तब भविष्य मे आग से बचने के लिए, तुमने एक क्षेत्र चुना और हथिनियो की सहायता से वहाँ के सभी वृक्ष और घास का तिनका-तिनका उखाड डाला । वर्षा से जब-जब वहाँ पुन वनस्पति उगती, तो पुन तुम हथिनियो से मिलकर उन्हे उखाड़कर एक ओर डाल देते।
उसके बाद पुन एक बार वन मे आग लगी। तब तुम और तुम्हारी हथिनियाँ आदि उस आग से बचने के लिए पहले बनाए हुए तृण-काप्ठहित सुरक्षित स्थान पर पहुँचे। वन के दूसरे-- सिह से शृगाल तक-अनेक पशुप्रो ने भी वह स्थान पहले देख रक्वा था। वे तुम सभी से पहले आग से बचने के लिए वहाँ पहुँच गये थे। उन सवसे वह क्षेत्र बहुत भर चुका था। सभी छोटे-से बिल मे लूंस-ठूसकर भरे हुए चूहो की भॉति वहाँ सिकुड़ कर बैठे हुए थे। तुम भी किसी भाँति हथिनियो के साथ वहाँ एक ओर स्थल बनाकर आग से सुरक्षित खडे हो रहे ।
शश (खरगोश) को रक्षा
वहाँ खडे रहते-रहते तुम्हारे शरीर मे खुजाल चली। तव तुम अपना एक पैर उठाकर शरीर खुजालने लगे। इसी बीच एक शश (खरगोग) दूसरे-दूसरे बलवान पशुत्रो से धक्के खाता हुआ, तुम्हारे पैर के उठाने से खाली हुए स्थान पर आकर बैठ गया। शरीर खजलाकर तुम जब पैर रखने लगे, तो वहाँ नीचे तुमने वह शश (खरगोश) बैठा पाया। उस समय तुम्हे जीव