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जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
चौथा बोल : 'पाँच इन्द्रिय'
इन्द्रिय : १. जिससे गव्द आदि जानने की सहायता मिले
या २. जिससे प्रात्मा-रूप इन्द्र की पहचान हो। ऐसा प्रात्मा का ज्ञान-गुण (भावेन्द्रिय) तथा पुद्गलो का स्कंध (द्रव्येन्द्रिय)। १ श्रोत्रेन्द्रिय : कान, कर्णेन्द्रिय । २. चक्षुरिन्द्रिय : अाँख, नेन्द्रिय । ३. प्रारणेन्द्रिय : नाक, नासिकेन्द्रिय । ४. रसेन्द्रिय : जिह्वा, जिह्वेन्द्रिय ।
५. स्पर्शेन्द्रिय : शीत-ऊण आदि स्पर्श को जानने वाली चमडी।
इन पाँच इन्द्रियो मे से स्पर्गेन्द्रिय सभी (छमस्थ) जीवो को होती है। एकेन्द्रियो को केवल यही स्पर्गेन्द्रिय होती है। यदि किसी को दो होगी, तो पाँचवी और चौथी होगी। जैसे द्वीन्द्रिय को। यदि किसी को तीन होगी, तो पाँचवी, चौथी और तीसरी होगी-जैसे त्रीन्द्रिय को। यदि किसी को चार होगी, तो पाँचवी, चौथी, तीसरी और दूसरी होगी-जैसे चतुरिन्द्रिय को। पाँच वाले को तो पॉचो होती ही हैं, जैसे पञ्चेन्द्रिय को। अर्थात् पहले की इन्द्रियाँ जिसे है, उसे पिछली २ इन्द्रियाँ अवश्य होगी। पिछली २ इन्द्रियाँ जिसे है, उसे पहले २ की इन्द्रियाँ हो भी सकती है और नही भी हो सकती।
पाँचवाँ बोल : 'छह पर्याप्ति' पर्याप्ति : शरीरादि के योग्य पुदलो को ग्रहण करके उन्हे रसादि
रूप में परिणत करने वाली आत्मा की शक्ति-विशेष ।