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________________ कथा-विभाग-८ श्री सुबाहु-कुमार (मुनि) [ २६१ उपदेश दिया। २ दूसरे मे 'जीव जो भी पुण्य या पाप-कर्म करता है, उसका फल अवश्य भोगना पडता है'--यह बताया। ३ तीसरे मे 'जैन धर्म का स्वरूप और उसके पालन का फल' बताया। ४ चौथे मे 'जीव चार गति मे कैसे भटकता है और सिद्ध कैसे बनता है' यह बताया। ५ पाँचवे मे 'साधु-धर्म और 'श्रावक-धर्म' बतलाया। भगवान ने बहुत ही मधुर, मनोहर, प्रभावशाली शैली से देशना दी। श्रावक व्रत धारण सुबाहकुमार ने ऐसी उस देशना को सुनकर देशना समाप्त होने के पश्चात् भगवान् को वदन-नमस्कार करके कहाभगवन् । मैं आपकी वाणी पर श्रद्धा करता हूँ। मुझे आपकी वाणी बहुत रुचिकर लगी। आपने जो देशना दी, वह सत्य है। धन्य है, वे राजा-महाराजा आदि जो आपकी वाणी आदि सुनकर ऋद्धि, वैभव, परिवार आदि सब छोडकर दीक्षित बनते हैं, पर मैं उस प्रकार दीक्षा लेने में असमर्थ हूँ। इसलिए मैं आपके पास श्रावक व्रत धारण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने कहा- 'जैसा सुख हो, वैसा करो, पर इसमे प्रतिबन्ध मत करो। तब सुबाहुकुमार ने भगवान् को वन्दन-नमस्कार करके श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किये । उसके पश्चात् पुन वन्दननमस्कार करके वे अपने राजभवन को लौट गये। पूर्व भव विषयक प्रश्न उनके लौट जाने पर श्री गौतमस्वामी ने भगवान् को वन्दन-नमस्कार करके पूछा कि-'भन्ते । यह सुबाहुकुमार बहुत लोगो को बहुत ही प्रिय लगता है। यहाँ तक कि, यह
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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