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________________ २८४ ] जन सुवाष पाठमाला-भाग १ ५ देह भी अपना नहीं है जग मे, ६ तथा अशुचि ही भरी है इसमे। ७ पाश्रव सवको सदा रुलाता, ८ संवर उस पर रोक लगाता ।। ह एक निर्जरा से ही सुख है, १० और लोक मे कहीं न सुख है। ११ अति दुर्लभ सम्यक्त्व रत्न है, १२ जहाँ अहिसा वही धर्म है ।। 'केवल' कहते 'पारस' सुन रे, सदा भावना वारह भा रे। भरतादिक ने इनको भाई, भा कर गीघ्र ही मुक्ति पाई ।। चार भावना १ सब जीवो से रखू मित्रता, २ दृष्टो की मैं करूँ उपेक्षा । ३ दुखियो के प्रति अनुकपा हो, ४ अधिक गुणी मे हर्प सदा हो । अट्ठारह पाप-त्याग १ कभी न प्राणी हिसा करना, २ कभी न भूठी वाते कहना। ३ नही किमी की वस्तु अंगना, ४ कभी न गाली गुप्ता करना। ५ इच्छायो को नही बढाना, ६ कभी न आँखे लाल वनाना। ७ नही किसी मे अकडे रहना, ८ कभी न मन मे जाल बिछाना। ६ कभी किसी का लोभ न करना, १० राग मोह मे कभी न पड़ना। ११ नही किसी से वैर वसाना, १२ नही लडाई झगडा करना। १३ झूठ कलक न कभी चढाना, १४ नही वैरी को चुगली खाना । १५ निता से बचते ही रहना, १६ विषयो मे रति अरति न करना। १७ माया रखकर भूठ न कहना, १८ झूठे मत मे कभी न पडना । 'केवल' कहते 'पारस' सुनना, यो तूं पाप अठारह तजना। पिछोड़ निष्पापी बनना, यदि तूं चाहता दु ख न पाना ।। काव्य विभाग समाप्त जैन सुवोध पोठमाला-भाग १ समाप्त
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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