________________ मुद्रागत भावनाएं 1. है वीर ! मैसे स्वस्तिक पौद्गलिक-मंगलों में श्रेष्ठ है, वैसे ही प्राप मात्मिक मंगलो मे श्रेष्ठ हैं। प्रतः हम अापकी शरण से 'प्रात्म-मंगल' प्राप्त करें। 2. हे वीर! जैसे सूर्य पौद्गलिक प्रकाशकों में श्रेष्ठ है, वैसे ही आप प्रात्म-ज्ञान-प्रकाशकों मे श्रेष्ठ हैं। प्रत हम अापकी शरण से 'प्रात्म-प्रकाश प्राप्त करें। 3. हे वीर ! जैसे सूर्य की किरणे अगणित वस्तुओं को प्रकाशित करती हैं, वैसे ही आपकी द्वादशागी वाणी अनत भावों को प्रकाशित करती है। अतः हम अापके अर्थागम को समझे। 4. हे वीर ! प्रापके उस विशाल अर्थागम को प्रार्य सुधर्मा ने थोडे मे प्रथित कर शन्दागम (ग्रथ) बनाया; अतः हम उस शब्दागम को कठस्थ करें। 5. हे वीर! उन अर्थागम और शब्दागम से प्राचार्य स्वयं ज्योतिमान दीप बनते हैं और शिष्यों को भी ज्योतिमान दीप बनाते हैं। प्रत हम प्राचार्य के शिष्य बनें। 6. हे वीर ! हम प्रापकी वाणी के कुभ वत् पूर्ण पात्र बनें / 7. हे वीर ! प्रापको दूध समान वागी मे कोई अन्य जल समान वारणी मिलाकर दे, तो हम वहां हस-वत् विवेकी बनें। 8. हे वीर ! प्रापको वाणी से वैराग्य प्राप्त कर हम कामभोग के / कीच से कमल-वत् ऊपर उठे। 6 हे वीर ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के पांचों प्राचार हममे कमल को विकसित पाँच पखुरिमो के समान विकसित बनें।