SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्य - विभाग - बारह भावना [ २८३ 3 हिसादिक पाप अठारह है, सावद्य योग कहलाते है । सावद्य योग तज सवर धर शुभ योगो का सचालन हो ॥५॥ हिसा असत्य चोरी मैथुन, अरु परिग्रह ये दुर्गत कारण । यदि जीवन भर छोड न पान तो, एक घडी भी वारण हो ||६|| पाप' न करना, 'न कराना है, मन जो करें, न उनका 'वचनो से, या प्रात. सध्या सामायिक हो, व्याख्यान मे भी सामायिक हो । कम से कम एक मुहूर्त समय, का, नियम सदा ही धारण हो ||८|| कुछ ज्ञान बढे, श्रद्धान बढे, चारित्र बढे तप 'वीर्य बढे । स्वाध्याय प्रमुख तब ऐसी करो, जिससे सामायिक पावन हो || ६ || सामायिक 'सबका भय हरती, सबके प्रति अनुकम्पा भरती । वच काया शुद्ध रखना है । काया से अनुमोदन हो ||७|| उनतीस शेष घडियो मे भी, अति तीव्र भाव से पाप न हो ॥१०॥ वे धन्य धन्य मुनि महासती है, जो यावज्जीवन दीक्षित है । यदि आजीवन दीक्षा न बने तो, एक घडी साधुपन हो ||११|| 'केवल' कहते 'पारस' सुन रे, सब मे सामायिक रस भर रे । जिससे सब गुरण की रक्षक, इस, सामायिक का सरक्षरण हो ||१२|| तोन मनोरथ दोहा १ आरम्भ परिग्रह अल्प हो, २ महाव्रत हो स्वीकार । ३ सथारा हो अन्त मे तीन मनोरथ सार ॥१॥ 1 बारह भावना १ तन धन कोई नित्य नहीं है, २ दुख मे देव भी शररण नहीं है । ३ यह संसार चक्र है भारी, ४ यहाँ अकेले सब नर नारी ॥
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy