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१७० ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
__ भगवान की वाणी से उसका उद्धार हो गया। क्रोध छोडकर क्षमा अपनाने से वह पशुगति से देवगति मे पहुंच गया। इस प्रकार भगवान् पशुयो के भी उद्धारक थे।
सामुद्रिक पुष्य की प्राशापूर्ति एक बार बालू में चलते हुए भगवान् 'स्थूणा' सन्निवेश (उपनगर) के बाहर पधारे और उन्होंने वहाँ कायोत्सर्ग किया। उनके बालू मे बने हुए अत्यन्त सुलक्षणयुक्त पैर के चिह्नों को देख कर 'पुष्य' नामक सामुद्रिक (अग-रेखा का जानकार) उन पर-चिह्नो के सहारे-सहारे भगवान् के पास पहुँचा। उसे विश्वास था कि 'ऐसे पैर वाला चक्रवर्ती होता है। वह अकेला कुमार-अवस्था में इधर से गया है। उसकी सेवा मे पहुँचने से मुझे धन-राज्यादि की प्राप्ति होगी। परन्तु उसे भगवान् को पूर्ण नग्न देखकर पूरी निराशा हुई और उसका सामुद्रिक विद्या पर विश्वास उठ गया। तव गक्रन्द्र ने पाकर उसे मनोवांछित धन दिया, सामुद्रिक विद्या पर विश्वास जमाया और 'भगव न चक्रवर्ती से भी बढकर त्रिलोकीनाथ हैं-सका परिचय दिया।
गौशालक की प्रार्थना अस्वीकार वहाँ से विहार करके भगवान् दूसरे, चातुर्मास के लिए राजगृह पवार यार वहाँ 'नाला ' नामक मतिविग की तनुवार (वुनकर) की गाला मे बाजा लेकर व्हरे। वहाँ पर मवलो पिता और भद्रा माता का पुत्र 'गोगालक' भी मख (चित्रपट) से ग्राजीविका करता हुया चातुर्मास के लिए आया और ठहरा।
उस चातुर्मास मे भगवान ने मास मास क्षमण (तय) किया। प्रथम मासक्षम्मा के पारणे के लिए भगवान् विजय