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________________ कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर [ १६६ दिया, पर भगवान् को विष चढा नही, परन्तु दूध-सा सफेद लोही निकला। यह देखकर वह आश्चर्य और ईर्ष्या के साथ भगवान् को देखने लगा । भगवान् की सौम्य देह-काति से- उसकी आँखों का विष बुझ गया। भगवान् ने उसे उपदेश दिया"चडकौशिक | क्रोध का उपशम कर।" यह सुन कर व विचार करते-करते उसे पूर्व भव का स्मरण हुआ और 'तीर्थंकरो का लोही सफेद होता है'- इस लक्षण को स्मरण कर वह भगवान् को 'पहचान गया। उसने भगवान् को भाव-वदना कर क्षमा मागी। उसे अपनी क्रोध-वृत्ति पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। 'स्वय से हुई मेढकी की विराधना को स्वीकार न कर शिष्य पर क्रोध करने से मैं जैनमत से गिरकर अन्य मत मे पहुँचा और वहाँ भी 'क्रोध करने से मैं मनुष्य गति से गिरकर अव तियञ्चगति मे पहुँचा। विकार है मुझे । धन्य है, तरण-तारण भगवान् को, जिन्होने मेरे उद्धार के लिए स्वय उपसर्ग सहा।' उसने अपने पापो को नष्ट कर डालने के लिए सलेखना करके अनशन किया। 'मेरी दृष्टि मे पहले विष था, वह अब यद्यपि नष्ट हो गया है, पर लोगो को इसकी जानकारी न होने से चे अब भो मुझ से भयभीत होगे-यह सोचकर उसने अपना मुंह बाबी मे डाल दिया।' ऐसी दशा देख ग्वालो के बच्चे कुतूहलवश उसे दूर से कंकरादि फेक कर मारने लगे। फिर भी वह निश्चल तथा क्षमाशील रहा। यह बात उन बच्चों ने बडो को जाकर कही। तब बड़े लोगो ने उसकी ऐसी सुन्दर दगा देखकर घी, मिठाई, फल, फूल आदि से उसकी पूजा की। उन वस्तुओं की गध से उसके शरीर पर चढकर कई कीडियाँ उसे काटने लगी। तब भी वह निश्चल तथा क्षमाशील रहा । अन्त मे पन्द्रह दिनो मे कान करके वह ८ वें देवलोक में .देवरूप से उत्पन्न हुआ।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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