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२३० ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
अर्जुनमाली की सातो पीढियाँ और दूसरे भी सहस्रो लोग उसे वर्षों से पूजते चले आ रहे थे। अर्जुनमाली भो वचपन से ही उसे पूजता चला पा रहा था। उसकी मुद्रपाणि यक्ष पर बहुत श्रद्धा-भक्ति थी। वह उसे भगवान् मानता था। नित्य प्रात काल वह सुन्दर-सुन्दर बडे-बडे बहुत सुगन्धित फूनो के ढेर से पहले उसको पूजा करता और फिर वाजार मे फूलो को वेचने जाता था।
उत्सव का दिन ___ एक बार जव अगले दिन राजगृह मे उत्सव होनेवाला था, तब अर्जुनमाली को लगा कि 'कल फूलो की बहुत विक्री होगी।' इसलिए वह दूसरे दिन सूर्य उदय से पहले अंधेरा रहते-रहते वगाचे मे पहुँचा। फूल अधिक-से-अधिक चूंटे जा सके-इसलिए वह अपना स्त्री बन्धुमनी को भी साथ ले गया। पहले वह यक्ष-पूजा के योग्य फूल चूंटकर यक्ष की पूजा करने चला। वन्धुमती भी उसके साथ हो गई।
ललितागोष्ठी का दुर्व्यवहार उस राजगृह नगरी मे ललिता नामक एक मित्रमण्डली रहती थी। उस मण्डली के सदस्य नाग जैसे दुष्ट स्वभाववाले बहुत हो क्रोधी, भयावने और विपैले थे। उनके माता-पिता और राजगृही की जनता भी उनसे बहुत भय खाती थी। कोई उन्हे कुछ कह-सुन भी नही पाता था। वे जो कुछ करते, सब उसे सुकृत (अच्छा किया, यो ही) मानते थे। कुछ लोग कहते है कि, उन्हे बचपन मे राजा से वरदान मिला था कि 'तुम जो कुछ करोगे, वह अच्छा माना जायगा।' इस वरदान के बाद वे बिगड गए थे।