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कथा-विभाग--७ श्री सुलसा श्राविका [.२५३ कई बार देवता तक आकर हाथ जोडकर प्रार्थना करते है कि, __'धन्य हैं, आप मुझे कुछ सेवा का अवसर दीजिए।' ऐसे
अवसर पर उनसे सहायता मागी जा सकती है। इससे पूजा आदि को पाप भी नही लगता और कार्य-पूर्ति भा हो जाती है।' नाग ने इस कथन को सहर्ष स्वीकार किया।
. धन्य है, सुलसा ! जिसने बॉझ रहना स्त्रोकार किया, _ अपने ऊपर सौक का आना स्वीकार किया, पर मिथ्यात्व को प्रवृत्ति करना स्वीकार नहीं किया। स्वय ने मिथ्यात्व त्यागा और पति को भी मिथ्यात्व से दूर हटाया।
+ शक्रेन्द्र द्वारा प्रशंसा ,
सुलसा की इस दृढ़ता और तत्वज्ञान की देवलोक मे भी प्रशसा हुई। शक्रं नामक पहेले देवलोक के इन्द्र ने देवतायो की भरी सभा के बीच कहा-'राजगृई नगर के नाग सारथी की पत्नी 'सुलसा श्राविका धन्य है | क्योकि' उसकी सम्यक्त्व बहुत ही दृढ है। कोई देव-दानव भी उसे सम्यक्त्व से नही डिगा सकता।
"वह अरिहतदेव, निर्ग्रन्य गुरु और केवलि-त्ररूपित धर्म : मे इतनी दृढ है कि, वह ससार का सुख छोड देती है, पर। मिथ्यात्व की प्रवृत्ति कभी नही अपनाती। । । ।
• अरिहत को ही देव, 'निर्ग्रन्थ कों ही गुरु तथा' केवलीप्ररूपित तत्त्व को ही धर्म मानते हुए यदि उसे कितनी भी हानि पहुँचे, कितना भी कष्ट - पहुँचे, फिर भी वह श्रद्धा से नही डिगती। उसके मन मे थोडी भी चचलता नही आती। 3 ऐसी सुलसा श्राविका को बारम्बार नमस्कार है।'