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१६२ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १
दो वर्ष और गृहवास माता-पिता के स्वर्गवास हो जाने पर भगवान् का गर्भावस्था मे कर्मो के उदय से ममतावश लिया हुया अभिग्रह पूरा हो चुका था। तब विनयशील भगवान् ने वडे भाई से दीक्षा की अनुमति मांगी। दीक्षा की बात सुनकर नन्दिवर्धन को आँसू
आ गये। उन्होने कहा-'भाई | अभी माता-पिता का स्वर्गवास हुआ ही है। हम अभी उनका वियोग भूल भी नही पाये कि 'तुम यह क्या कह रहे हो?' भगवान् ने कहा -'भाई सभी जीव सभी जीव के साथ सभी नाते अनन्त वार कर चुके है, अत इसको लेकर गृहवास में रहना उचित नहीं।' तव नन्दिवर्धन बोले-'भाई ! यह सब मैं भी जानता हूँ, परन्तु मुझे तुम प्राणो से भी अधिक प्यारे हो, अतः तुम्हारा विरह का गव्द भी मुझे बहुत पीडित करता है । इसलिए अधिक नहीं, तो कम-से-कम मेरे कहने से दो वर्ष और गृहवास में ठहरो। तव भगवान् ने कहा-'तथास्तु, परन्तु मैं आज से भोजन-पान अचित ही करूँगा तथा लौकिक कार्यों में भी मेरी कोई सम्मति अादि नहीं होगी।' नन्दिवर्धन ने इसको स्वीकार किया । भगवान् अपने कहे अनुसार उपर्युक्त अभिग्रह सहित तथा ब्रह्मचारी होकर रहे ऐसा करके भगवान ने-'वैरागी को ससार मे रहना पडे, तो कैसा रहे'इसका आदर्श प्रकट किया।
वाषिक दान इस घटना को लगभग एक वर्ष हो जाने पर भगवान ने एक वर्ष पश्चात् दीक्षा लेने का विचार कया। तब लोकान्तिक देवो ने उपस्थित होकर भगवान् से धर्मतीर्य प्रवर्तन (चालू) करने की प्रार्थना की। भगवान् ने तभी से नित्य प्रातःकाल