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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर [ १८६ भगवान् पर और जैनधर्म पर बडी ही श्रद्धा हुई। 'धन्य है ऐसे भगवान्, जो घट-घट के अन्तर्यामी है । धन्य है ऐसा धर्म, जिसके देवाधिदेव भी निर्दोष आहार लेते है ।' उसने बड़ी ही श्रद्धापूर्वक उत्कृष्ट भाव से दान दिया। उससे उसे सम्यक्त्व प्राप्त हुई और तीर्थकर नामकर्म जैसी पुण्य प्रकृति का बध भी हुआ।
मुनिराज ने वह बिजौरापाक लाकर भगवान् के हाथो मे दिया। उसका उपभोग कर भगवान् नोरेग बने। तब चतुर्विध सघ मे छाई उदासी दूर होकर हर्प छा गया। उसके पश्चात् १५॥ वर्ष और गधहस्ती के समान विचर कर भगवान् ने बहत जीवो का उद्धार किया। अरिहत उपसर्ग की घटना भी अनन्त काल से होती है।
निर्वाण लगभग तीस वर्ष तक केवली अवस्था भोग कर ७२ वर्ष की आयु मे 'पावापुरी में' 'हस्तिपाल' राजा की लेखशाला मे सोलह प्रहर तक चतुर्विध सघ को अन्तिम देशना(वाणी) सुनाकर भगवान् कार्तिकी कृष्णा अमावस्या की रात्रि जब दो घडी शेष थी, तब बेले के तप सहित काल करके मोक्ष पधार गये। उस समय सम्पूर्ण लोक मे कुछ समय के लिए अन्धकार हो गया और देवता भी दुखमग्न बन गये। अन्त मे देवताओ ने भगवान् के शरीर की बहुत श्रेष्ठ द्रव्यो से दाह-क्रिया की।
भगवान का परिवार और परम्परा
भगवान् के सन्तो की ऊँची सख्या १४,००० चौदह सहस्र पर पहुँची। सतियो की ऊँची सख्या ३६,००० छत्तीस सहस्र तक पहुँची। भगवान् के शख, कामदेव आदि श्रावको की