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________________ कथा - विभाग – ४ श्री मेघ - कुमार (मुनि) [ २२१ बहुमूल्य सार - वस्तुएँ निकाल लेता है, उसी प्रकार मैं इस जलते हुए ससार मे से अपनी आत्मा को बचा लेना चाहता हूँ । अत. आप कृपा करके स्वयं अपने हाथो से मुझे दीक्षा दे और स्वय अपने श्री मुख से सयम योग्य शिक्षा दे । भगवान् ने मेघकुमार की प्रार्थना स्वीकार कर के उसे स्वय दीक्षा- शिक्षा दी । । रात्रि का दुःखद् प्रसंग रात्रि का समय हुआ । भगवान् के सभी साधुप्रो ने छोटे-बडे के क्रम से सथारे ( बिछौने) लगाये । मेघमुनि का सबसे अन्तिम सथारा (विछौना) द्वार पर श्राया । रात्रि को समय होने पर मेघमुनि सोये, परन्तु उन्हे नीद नही आया । क्योकि सन्तो का द्वार पर से आना-जाना होता रहता था | कभी कोई सन्त दूसरे स्थान पर रहे हुए किसी अन्य सन्त से कुछ सोखने के लिए बाहर निकलते, तो कोई सुनाने को निकलते, तो कोई पूछने को निकलते, तो कोई सन्त शरीर के कारण से भी बाहर निकलते । सन्त ध्यान रख कर आते-जाते थे, फिर भी अन्धकार और द्वार मे ही सथारा होने के कारण कुछ सन्तो के द्वारा मेघकुमार मुनि को ठोकर लग ही जाती थी । किन्ही सन्त के द्वारा सयारे को, तो किन्ही के द्वारा पैर को, तो किन्ही के द्वारा हाथ को, तो किन्ही सन्त के द्वारा मेघकुमार के मस्तक तक को ठोकर लग जाती थी। साथ ही सन्तो के गमनागमन से मेघकुमार के सथारे मे और शरीर पर धूल भी भरती रही । इसलिए मेघमुनि की आँखो की पलके क्षण भर भी सुखपूर्वक आपस मे मिल न सकी । 'तब और ब' मेघकुमार ससार मे राजप्रासाद मे सोते थे । वहाँ उनके लिए १. राजशय्या मक्खन-सी चिकनी और फूलो-सी कोमल हुआ
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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