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कथा-विभाग-८ श्री सुबाहु-कुमार (मुनि)
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अहोदान
१ सुमुख गृहस्थ मुनिराज को अपने घर गोचरी पधारे हुए देखकर बहुत ही हर्षित हुआ। २. वह आसन छोडकर नीचे उतरा। ३ पगरखी छोडी। ४ मुंह पर उत्तरासग लगाया और ५ मुनिराज का स्वागत करने के लिए सात-पाठ पैर (कुछ पैर) सामने गया। ६ तीन बार प्रदक्षिणा करके वदन-नमस्कार किया। ७ फिर अपने रसोईघर मे वहुमान सहित ले गया और ८ अपने हाथो से अपने घर मे जो मुनियो के योग्य निर्दोष भोजन के उत्तम से उत्तम पदार्थ थे, वे मुनिराज को बहुत मात्रा मे बहराये (दान मे दिये)।
सुमुख को १ दान देने के पहले 'मैं मुनिराज को दान दंगा'-~-इस विचार से वहुत प्रसन्नता थी। २ दान देते हुए 'मुनिराज को दान दे रहा हूँ'-इस विचार से भी वहुत प्रसन्नता थी तथा ३ दान देने के पश्चात् 'मुनिराज को दान दिया'इस विचार से भी बहुत प्रसन्नता थी।
दान का फल
सुवाह ने १ निर्दोष दान दिया था, २ शुद्ध भाव से दिया था तथा ३ महातपस्वी जैसे शुद्ध पात्र को दान दिया था। इस प्रकार १ दान, २ दाता और ३ पात्र तीनो उत्तम थे और दान के समय सुबाहु के १ मन २ वचन और ३. काया ये तीनो भी शुद्ध थे। इस कारण सुबाहु ने सम्यक्त्व प्राप्त की व ससार घटाया (मोक्ष को निकट बनाया)।
मुमुख के इस दान से प्रसन्न होकर देवताओ ने ये पाँच दिव्य बाते प्रकट की-१ सुवर्ण (सोना) बरसाया । २ पाँचो रग