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१८६ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १ (काश्यप गोत्र वाले भगवान् काश्यप गोत्र वाले थे।) तेरा गिप्य गोगालक तो मर चुका है और में दूसरा जीव हूँ, परन्तु गोगालक के शरीर को दृढ समझकर, मैं उममे प्रवेश करके रह
भगवान ने कहा-'गोगालक तू इन भूठी वातो से अपने प्रापको जीते जी दूसरा बताना चाहता है, परन्तु तू छुप नहीं सकता।' यह मुन वह अत्यन्त क्रोध में आकर असभ्य वचन कहने लगा। तब 'सर्वानुभूति' नामक मनि ने उससे कहा : 'गोगालक ! गुरु से एक भी आर्य-वचन (शिक्षा) पानेवाला गुरु को वन्दना-नमस्कार करता है, पर्युपासना करता है। जब कि तुझ पर भगवान् का अपार उपकार हे, तू भगवान् के विपरीत गत्रु बन गया है " इन वचनो से गोगालक ने शिक्षा न लेते हए तेजोलेल्या का प्रयोग करके उन मुनि को ही जला डाला। और फिर से भगवान् के प्रति असभ्य वचन वोलने लगा। नत्र दूसरे 'सुनक्षत्र' नामक मुनि ने उसे समझाया, परन्तु उन्हें भी उसने जला डाला और भगवान् के प्रति फिर से असभ्य वचन बोलने लगा।
भगवान् पर तेजोलेश्या का प्रयोग
तब भगवान् ने पुनः उसे गिक्षा के रूप मे कुछ, कहा। तब उसने इस बार पूरी शक्ति के माथ भगवान् पर ही तेजोलेश्या डाली। भगवान् तो जले नहीं, पर वह लेश्या भगवान् की प्रदक्षिणा करके लौटकर मोगालक के हा शरीर मे प्रवेश कर, गोगालक को जलाने लगी।
ऐसा होने पर भी गोगालक ने न सुधरते हुए भावान् से कहा--'तु मेरे तप, तेज द्वारा छह महीने के भीतर ही छद्मस्थ (केवलुजान रहित) अवस्था में मर जायगा।' भगवान् ने कहा