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१७६ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ मार कर लुढका देते थे। कोई रात्रि मे उन्हे कायोत्सर्ग मे खडे देखकर पूछते कि 'तू कौन है ?' जब इस प्रश्न का भगवान् से
उत्तर नही मिलता, तो वे उन्हे कोडे आदि से मारते और वॉध “भी देते थे। कोई उन्हे गुप्तचर समझ कर कष्ट देते। परन्तु - भगवान् 'वहाँ गीत, ताप, भूख, प्यास, अपशब्द, वध आदि सभी प्रकार के स्पसर्ग समतापूर्वक सहते रहे।
संगम द्वारा इन्द्र-प्रशंसा का विरोध
छद्मस्थकाल के ग्यारहवे वर्ष की बात है। भगवान 'पेढाला' नगरी के 'पोलास चैत्य' में तेले की रात्रि को एक ही अचित्त पुल पर दृष्टि जमा कर खडे हुए थे। उस समय गक्रेन्द्र ने देवसभा मे भगवान् की उपसर्ग-दृढता की प्रशसा करते हुए कहा कि 'भगवान् को देव-दानव कोई भी नहीं डिगा सकता। तव शक्रन्द्र का सामानिक (समान ऋद्धि वाला) 'संगम' नामक अभव्य (कभी भी मोक्ष 'मे न जाने वाला) देव वोला 'भगवान के प्रति राग (ममता) के कारण ही देवेन्द्र इस प्रकार वर्धमान की मिथ्या प्रशसा कर रहे है, अन्यथा कौन ऐसा मनुप्य है, जो देव से विचलित न हो? मैं अभी वर्धमान को विचलित करके बताता हूँ।'
'मैं यदि इसे रोकंगा तो, 'भगवान् के रागो भगवान् की मिथ्या प्रशसा करते है'-यह भाव अधिक दृढ हो जायगा'-यह सोचकर हृदय को वहुत दुख पहुँचने पर भी, भगवान् को उपसर्ग देने के लिए जाते हुए सगम को इन्द्र रोक न सके।
संगम द्वारा एक रात्रि में बोप उपपर्ग
भगवान् के पास पहुँच कर सगम ने पहला १ चूलि-वर्षा का उपसर्ग दिया, जिमसे भगवान् का गरीर, कान, अाँख, नाक