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कथा-विभाग-६ श्रो कामदेव श्रावक [ २४५ होकर सचमुच ही कामदेव को संड से पक्ड वर पोपधशाला से बाहर निकाला, आकाश में उछाला, तीखे-तीखे दांतो पर भेला और भूमि पर डालकर तीन बार परो से बहुत रौदा । उमसे भी कामदेव को वहुत कष्ट पहुँचा। फिर भी कामदेव उस कठिन वेदना को बहुत शाति से ही सहन करते रहे।
सप का तीसरा उपसर्ग
यह देख कर उस देव को बहुत निराशा हुई। उसका दूसरा उपसर्ग भी कामदेव को डिगा नही सका। तब वह पौषधशाला से बाहर निकला। तीसरी बार उसने मसी (स्याही) सा काला, चोटी-सा लम्बा, लपलपाती दो जोभ वाला, लोही-सी आँखो वाला, बहत बडी फण वाला, आँखो मे भी विषवाला, महा फूंकार करता, भयकर सर्प का रूप बनाया और पौषधशाला मे आकर कहा-'अरे । कामदेव । मृत्यु के चाहने वाले 1-इत्यादि। यदि तू धम से नही डिगता, व्रतो को नही छोडता, तो मैं अभी सर-सर करता तेरी काया पर चढ जाऊँगा। पिछली अोर से फॉसी के समान तीन बार तेरी ग्रीवा (गले) को लपेट्रगा। फिर विष वाली तीखी दाढो से तेरे हृदय पर ही कई दश दूंगा। जिससे तूं अकाल मे ही बहुत दुख पाता हुआ मर जायगा।
कामदेव सर्प के इन वचनो को सुनकर भी पहले के समान ही निर्भय और निश्चल हो चुपचाप धर्म-ध्यान करते रहे। यह देखकर उस सर्प-रूपधारी देव ने अपनी उपयुक्त बात दूसरी और तीसरी बार भी कही, परन्तु कामदेव के तन-मन मे कोई अन्तर नही आया। तब देव क्रुद्ध होकर सचमुच ही सर-सर करता कामदेव की काया पर चढा। पिछली ओर से फांसी के समान ग्रीवा को तीन बार लपेटा, फिर विष वाली तीखी दाढो से हृदय