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________________ २४६ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ पर कई दश दिये। उससे भी कामदेव को वहुत कष्ट पहुंचा, फिर भी कामदेव उस कठिन वेदना को बहुत शाति से ही सहन करते रहे। यह देखकर देव पूरा निराश हो गया। वह पिशाच, हाथी और सर्प के तीन-तीन बडे-बडे उपसर्ग करके भी कामदेव __ को धर्म और व्रत से डिगा नहीं सका। तब वह पौषधगाला से बाहर निकला। इस बार उस देव ने अपना वास्तविक देव का ही रूप बनाया। चमकता सुनहग गरीर, उज्ज्वल वहुमूल्य वस्त्र, भाँति-भाँति के उत्कृष्ट कोटि के हार आदि प्राभूपणयुक्त तथा दसो दिशामो को प्रकाशित करनेवाला दिव्य वह देव-रूप था। फिर उसने पौषवशाला मे पाकर कहा देव-प्रशंसा 'हे कामदेव । श्रमणोपासक । (माधु की उपासना करने वाले । ) तुम धन्य हो। तुम बडे पुण्यवान हो, तुम कृतार्थ हो, तुम सुलक्षण हो, तुम्हारा जन्मना और जोना सफल है, क्योकि तुम्हारी निग्रन्थ प्रवचन (जनधर्म) मे ऐसी दृढ श्रद्धा है कि, देवता भी तुम्हे डिगा नहा सकते। 'हे देवानुप्रिय । (यह आर्य सम्बोधन है) पहले देवलोक के इन्द्र ने अपनी लम्बी-चौडी सभा के बीच तुम्हारी प्रशसा करते हुए कहा था कि, कामदेव श्रमणोपासक निर्ग्रन्थ प्रवचन मे इतने दृढ हैं कि, उन्हे देव-दानव कोई भी धर्म से डिगा नहीं सकता।' परन्तु मुझे उस बात पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए मै तुम्हारी धर्म-दृढता की परीक्षा लेने के लिये यहाँ आया था। तीन वडे-बडे उपसर्ग देकर अव मैंने आज प्रत्यक्ष ही देख लिया ह कि, अापकी निर्गन्थ प्रवचन (जैनधर्म) मे अचल श्रद्धा है। हे
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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