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जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ पर- पहले यक्ष चढा था, इसलिए घोर हत्यारा बनकर मैंने बहुत पाप किये। इन पर अज्ञान का भूत चढा है, इसलिए ये ऐसा करते है। जव अपना आपा नही रहता, तब ऐसा ही हुआ करता है। इसलिये मुझे खेद नही होना चाहिए। मुझे तो मेरा अपना पाप देखना चाहिए। मैं १.४१ स्त्री-पुरुपो की हत्या का निमित्त बना। यदि मैं मिथ्यादेव की श्रद्धा-भक्ति-पूजा न करता, तो इतनी हत्याएँ क्यो होती? इत्यादि विचारो के साथ मुझे समता रखनी चाहिये। इसमे मेरे कर्मों की निर्जरा
होगी।'
मोक्ष इस प्रकार निर्जरा की भावना करते हए और उन उपसर्गो को सहन करते हुए अर्जुनमुनिजी को साढे पाँच महीने हो गये। उन्होने जितने दिनो मे पाप कमाये, प्राय उतने ही दिनो में उनकी निर्जरा भी कर डाली। जब उनका शरीर थक गया, तो उन्होने भगवान् की अनुमति लेकर सथारा कर लिया। सथारा १५ दिन चला। अन्तिम श्वासोच्छवासो मे उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न हया, बाठ। कर्म क्षय हुए। अन्तिम समय मे काल करके अर्जुनमुनि मोक्ष पधार गये।
कहाँ सदोषी सरागी मुद्गरपाणि यक्ष | जिसने स्वयं व्यर्थ ११३४ हत्याएं की और निष्पाप अर्जुन को भी पापो बनाया
और कहाँ निर्दोप वीतराग अरिहत देव | जिनके उपदेश ने पापी अर्जुन को नाप से उबारा।
धन्य है, ऐसे अरिहतदेव भगवान् महावीर । धन्य है, ऐसे अरिहत-उपदेशानुसार चलने वाले अर्जुनमुनि ! और धन्य है, ऐसे अरिहत पर श्रद्धा रखने वाले सुदर्शन श्रावक ||| ॥ इति ५. श्री अर्जुन-माली (अनगार) को कथा समाप्त ॥
-श्री प्रतकृत सूत्र, वर्ग ६, अध्ययन ३ के प्राधार से ।