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काव्य-विभाग-गुरु वन्दनादि । २७७ जग ममता तज कर्म क्षय हित, जिनने सयम धारा । तोड दिये घनघाति बन्धन, दीर्घ उग्रतप द्वारा ।। हुए स्वय सम्बुद्ध केवली, अत 'श्रमण' नामी को ।। नमन ...।२। नव तत्व पड्द्रव्य आदि, त्रिविध श्रुत धर्म प्ररूपा । अनगार व आगार द्विविध यो चारित्र धर्मनिरूपा ।। करी चतुर्विध सघ प्रतिष्ठा, जैन संघ स्वामी को ।। नमन ..।३। द्वितीय देशना मे ही लखकर अतिशय अपरपारा । गौतमादि ने शीश झुका, सर्वज्ञ तुम्हे स्वीकारा ।। हुए सभी ग्यारह ही गणधर, भविजन अभिरामी को।।नमन ।४। वैदिक बौद्धादिक धर्मों का मिथ्यापन समझाया | जैनधर्म ही सत्य अनुत्तर, अद्वितीय वतलाया ।। गौशालक से सहे परीषह, धन्य क्षमाधामी को ।। नमन...१५॥ धन्ना जैसे श्रमण तुम्हारे, श्रमणी चन्दनबाला । शख पुष्कली से श्रावक, श्राविका जयन्तिबाला ।। श्रेरिणक रेवति लाखो ने ही, धारा शुभकामी को ।। नमन .. १६। दीपावलि को दीप अलौकिक, तुम लोकाग्र पंधारे । ' अब आगम ही है अवलम्बन, भवदधि तारन हारे !! ' 'पारस' मन वच तन से चाहे, मिलं मोक्ष गामी को नमन ::।७।
. . ६.गुरु चन्दनादि . . __ . - [ तर्ज-घर पाया मेरा परदेशी.....] गुरुवर । वन्दन अनुमति दो, चरण कमल मे आश्रय दो ॥ध्रुव पाप क्रियाएँ तजे आये, सचित द्रव्य भी तज आये। यथाशक्ति विधि वन्दनें लो ।। चरण कमल मे ..... ||१]