Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *NGH NEW HEN KERNE KESH REY REx भी शाखेश्वरपानाथाय नमः ॥ 4876 शास्त्रवार्ता-समुच्चय उसकी व्याख्या स्याद्वाद-कल्पलता हिन्दी विवेचन (स्त क २-३) मूल ग्रन्थ कार- . व्यायाम्यहार१५४४ प्रथमणेता विवद्र्धन्य ग्याषिशारण-न्यायाचार्य जनशासनान जैनाचार्य श्रीहरिभद्रसूरि महाराज महोपाध्याय श्रीयशोविजय महाराज : सिन्दीविवेचन शार हिन्दी विवेचन प्रमिधीक्षक म्पाय-वमन्ताचाये हितराज जैनाचार्य न्यायदर्शन त्या-तपारलरहोवधि श्रोबररोनाथशुक्ल श्रीमद मियभुवनभानुसूरिमहाराज [वाइकांसलर-संपूर्णानंद संस्कृत विश्वषिष्यालय] वाराणसी . . -प्रकाशक - दिव्यदर्शन ट्रस्ट कुमारपास पि. शाह-गुलालधारो-मुबई ४ . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशकीय निवेदन * " जैनाचार्य श्री प्रेमसूरीश्वराय नमः ।। पाठक यां समक्ष हिम्वी विवेचनालंकृतस्यावादकल्पलताटीका सहित यो शास्त्रवासिमुचय प्रश्परस्म का प्रथमस्तक प्रस्तुत हो जाने के बाव विरप्रतीक्षा के अनुसंधान में यह द्वितीय-तृतीयस्तबक' कप दूसरा बंश प्रकाशित करते हुये हम भसीम आनंद की अनुभूति करते। इम मत्यषिक मी हे स्यायनतरवल जनाचार्य श्रीमद विनय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के जिन्होंने चिरमाल से परकी सी.बह म सलो मध्यपनक्षत्र में ले आने का परप श्रेय प्राप्त किया है, अन्यथा जम वर्शन और भारतीय शास्त्र के अभूल्य रत्ननियामतुल्य प्राय के प्रकाश से सामान्यजन अनमिझ ही रह जाते। स्यापवेवामत प्राचार्य पंसिराज श्री नवरीनाप शुक्ल महोदयने भी इस प्राचरन अन्तर्गत उच्चकोटि के मुक्ति संभं से अकृष्ट होकर मूलपायकार ओर म्यायाकार के सही तात्पर्य को उपासित करने के लिये बहविध अन्य प्रवृत्तियों में से अवकाश लेकर हिन्बी विवेचन के सर्जन में अधक पश्चिम उवाया है वह भी बहुत ही सराहनीय है। प्रथमस्तबक चौखम्बा मोरियन्टालिया [ पाराणसी] से दो वर्ष पूर्व प्रकाशित होने के बाद मुद्रणावि व्यवस्था संबम्भो कठिनाईयों को दूर करने के लिये शेषस्तकों के प्रकाशन का कार्यभार हमारी संस्था को प्राप्त हुआ है जिसे हम हमारा परम सौभाग्य समान कर निष्ठा से पूर्ण करने की उम्मोच रखते हैं-आशा है अन्य सबको का भो पमा शोन प्रकाधाम का श्रेय परमात्मा को कृपा से हमें प्राप्त हो। इस मंस के समन मुणमय में प० पू० भुमिराज भो हेमचन्द्रविजयजी म.को पुनीत प्रेरणा से जोषण अवनीशान मदिर-मातु गा और सोचिन्तामणि पाश्वनाथ मंदिर-अपामय-विलेपासे के बन इघेताम्मर मृतिपूजक तपागरुक संघ के मान वध्य का को धन्यवावाहं विनियोग हमर है एतवर्थ हम उन्न के प्रति सम है। प्रायका माण भिन्न भिन्न टाइप में मवेशीय पिंडवास नगर स्थित ज्ञानोवप प्रणालय में गुआ है और मुद्रण को सर्वाग सुन्दर बनाने के लिये मुगणालय के व्यवस्थापक एवं कार्यकरों ने परस्पर मिलकर निष्ठा से परिषम किया है पतवर्ष भी अवश्य धन्यवाद के पात्र है। पन्ध में कोई त्रुटि रहने म पाये इसलिये हिन्दी विवेचनकार भी पंक्तिमा और जियो विवेचन अभिवीक्षणकार पू. आचार्य बेखने पर्या परिषम किया है और मुद्रण में कोई त्रुटि म रह माय इसलिये पू. मुनिराम श्री जयसन्दरविजयजी म. ने भी पर्याप्त ध्यान रखा गया है फिर भी मुबमारि छमस्वसामूलक कोई टिष्टिगोचर हो तब उसका परिमार्जन करने के लिये अध्येता वर्ग को हमारी प्रार्थना है। मुमुक्षु और विज्ञासु मधिकारी सज्जन इस अम्पालका अध्ययन करके सनिश्चित वरमों के आधार से मुक्तिमार्ग को ओर प्रगति करे मही एक अन्तिम मंगल कामना। लि दिग्य दर्शन ट्रस्ट के ट्रस्टीगण का विनीत कुमारपाल पि. शाह . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** प्रस्तावना * श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः समग्र विश्व को जलाशय की उपमा दी जाय तो यह निस्संदेह कहा जा सकता है नवर्यान सीमा वृद्धि करने वाला कमल है जो अहिंस तुस्य मुमुक्षु वर्ग की निरंतर उपासना का विषय बना रहता है और योगिवृष्य का मनोमधुकर रात-दिन जहां लीन रहता है। कमल की पडियां जितनी मनोहर होती है, जैन दर्शन के सिद्धान्त उनसे भी बहुगुणित सत्य को मुनि ने सुवासित और स्वाद्वाब की मनोहर आकृति से प्रति होने से किसी भी निर्मल बुद्धि अध्येता के लिये सदा सर्वदा विनते रहे हैं। जैन और जैनेनर दर्धन ] जैसे एक ही लता पर सुमन भी बोल उठते है और पसे भी उसी प्रकार जिन सिसारसों की मी पष्ट जैम वर्शन की मारत चुनी हुई है उन्हीं सिद्धान्तों में से किसी एक या कोर को पकड कर और अन्य का परित्याग कर कुछ अपनी ओर से भी ओड कर जनेतर दर्शनों की भी अपनी अपनी इमारत चुन ली गयी है और यही कारण है अन्य सभी दर्शनों के सिद्धान्तों में परस्पर वधस्य होने पर भी जंन घर्शन के साथ उनका कुछ न कुछ अंग में साम्य बना रहता है। आशिक साम्य होने पर भी दूसरे अनेक अंगा में उनका अत्यधिक बंद हो जाने के कारण हो जैन दर्शन और बनेसर दर्शन के मध्य महवस्तर बन जाता है। ( अन्य रचना का उद्देश) आचार्य श्री हरभरि महाराज ने शास्त्रवास समुचय प्रत्य के रूप में एक ऐसे से की रचना की है जिसके माध्यम से जंतर दर्शन के विद्वान अपने दर्शन कर अभि होने पर स से जनवन को सिद्धान्त भूमि पर आकर यहां बहती सरप को सरिता के जल में न कर सके। ऐसी पवित्र भावना से रखे गये इस ग्रन्थ में माचाभी ने अनेन दर्शनों के सिद्धान्तों का प्रामाणिक निरूपण के साथ जैनवर्शम के मौलिक सिद्धान्तों का प्रमाणिक परिचय वे कर जिस ढंग से दर्शनों के सिद्धान्तों कान के साथ समन्वय सम्भावित है यह प्राञ्जल और वयंगम है जो सत्यताओं के लिये अवयमेव उत्सव तुल्य है। raft इस प्रत्य का उद्देश्य मुख्य रूप से जनेतर दर्शनों का खंडन और अनवन का मण्डल हो रहा है किन्तु अन्य दर्शनों के खण्डन करते समय प्राचार्य श्री ने तर्क र युक्तियों का जिस ढंग से प्रतिपावन किया है उससे यह सहज पता चल सकता है कि यह खंडन-मंडन की प्रवृति स्वदर्शनग और पर बर्शन द्वेष सूक नहीं है किन्तु शुद्ध व अन्वेषणमूलक है । इस प्रभ्य के प्रथम स्तंबंक में प्रारम्भ में मोक्षायों के लिये उपयोगी भूमिका बताया गया है और बाद में अन्य अभ्यवनों के शास्त्र-सिद्धान्तों की समीक्षा और आलोचना का उपक्रम किया गया है। उसमें सबसे पहले मोक्ष और मोक्षोपयोगी सामना का ही विशेषी चाक-माहिक सिद्धान्तों का सविस्तर प्रतिकार किया गया है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [। प्रस्तावना [वितीय स्तमकान्तर्गत विषयष ] प्रस्तुत पश्य में वितीय और तृतीय स्तबक का समावेश किया है-fnसमें द्वितीय तपक के भारम्भ में हिंसा जूठ मावि असत्प्रवृत्तियों से पापमय और महिसावि के पालन से शुभ पुष्प बन के उपार्जन' सिमास की प्रतिष्ठा की गयी है। व्याख्याकार महषि ने महां शारप्रमाण का अनुमान में ही अन्तर्भाव करने वाले शेषिकावि के मतको आलोचना करके स्वमात्र शमप्रामायका व्यवस्थापन किया है। पुण्य पाप के कारणों की व्यवस्था करने पर जोशका उहायी गयो है कि अशुभ अनुष्ठान से भी सुखप्राप्ति कभी होतो तो वह कैसे? इसका मामिक उत्तर कारिका में दिया गया है । मिस आगम से पुष्प पाप के मियम को सिद्धि हो रही है वह भी तो प्रतिपक्ष अम्गम से बाधित होने से बह नियम कैसे सिख होगा? इस प्रश्न के उत्तर में प्रतिपक्षी आगर्मों की दुर्बलता इस आधार पर बलामो गयी है और इष्ट जभय से विश्व होने का जरिये आप्त पिचित नहीं है । कैसे ४ा और स से बिरुद्ध है यह भी सीसवीं कारिका से लाया है । यह मस्याम भाव के साघम पर विचार किया गया है और प्रग से श्री पायाकार ने मध्यस्पभाष उत्पादक पाताल प्रक्रिया का वर्णन किया है । पागे चलकर संसारमोनक मत का भी यहाँ प्रतिकार किया गया है । मुक्ति सायक कमबाप के सम्मवित चार प्रकार का विमर्श किया गमा है । अत में यह स्थापित किया है मुक्ति साधक कर्मक्षयमानयोग का फल है और महिमाधि के उत्कर्ष विना लामपोग सिन हो होता। इससे यह मो फलित हो जाता है वास्त्रों में निहित होने पर भी हिसा सस्थत पापममक हो है। यह मशीय हिंसा के बचाव में मोमांसक कुमारिस भट्ट. प्रभाकर मिश्र और नेयाविकों के अभिप्राय की व्याख्याकार ने सरत शालोबना कोई और महाभारत मनुस्मान योगशिष्ट आदि ग्रन्थों का भी हिसामय यज्ञ-यागों के प्रति विशेष नट्टाछुत किया गया है। पीय हिमा के विरोध उपरांत ग्याल्याकार ने जैन वन अनुसार हिंसा का समय' प्रस्तुत कर अन्त में बेवशास्त्र के अप्रामाण्य का प्रमासिब उसोष कर दिया है। सपनातार इस स्तबक में गुभाशुभ सर्व कर्म के कर्ता के रूपमें आस्मा को दोखा कर वह पों अपने ही अहित में भी प्रवृत्त होता है ।म प्रश्न का उत्तर मह दिया गया है किम जनित बना हि माहितकर करयों में आत्मा को प्रबुत करती है। यही कमवार को प्राधान्य मिल जाता है सब उसके सामने कालबादी अमो दृष्टि से कालिक कारणता की घोषणा करता है Fभाववादो स्वभाव की कारणता को प्रस्तुत करता है, नियतिवादी निर्यात को ही सर्वभावकमयित्री के रूपमें उपस्थित करता है। इन पापों के सामने कर्मपाणी कर्म कारणताको सुरक्षित रखना चाहता है। सिंबाम्तो इन सभी एकान्तवादों में आग अलग पुषण भारोपित करके अन्त में यह म्यापित करता है काममात्र में कालादि में से कोई एक हो कारण नहीं है और उनको स्तम्ब कारगता भी नहीं है किन्तु उनका समवाय (समुवाया ही भावमा का कारण है-द्वितीय स्तबक यहां पूर्ण होता है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना — [ तृतीय स्तरकाम्तर्गत विषय ] उतीय स्तनक में १ से १७ कारिका तक ईश्वरक स्ववाद को समालोचना की गयी है। इस में पूर्व भाग में साक्ष्यमान-पासजलमत मोर ग्याय-बशेविक वाविषों की और से विस्तृत पूर्वपक्ष में विशेषत: उज्यमाचार्य की कुसुमाञ्जलि कारिका का विरूपण करने के बाद उत्तर भाग में उन सभी का सविता प्रतिकार किया गया है। विशेषतः यो सपा में पक्ष-प्रतिपक्ष रुप मध्यन्याय की ली को परम सोमा प्राप्त हुई है। जन दर्शन में कतत्वबाव औपचारिक या वास्तविक रीति से किस प्रकार संगत हो सकता है या भी अन्त में विखाया गया है। विषयानुक्रमणिका में विस्तार से प्रमगत सभी विषयों का निषा किये जाने से यहां विस्तार महीं किया है। कारिमा से सत्यवोमिक्षातों के प्रर्वपक्षहप में निवर्शन किया है। म.पी कारिका मेसात्यमा के प्रतिकार का आरम्भ है और उसमें प्रतिविम्बवाव पर गहन बर्षा मही प्राप्त होती है। कारिका में साल्पमत में जिस रीसे से जितमा संगनिरूपण है उसके प्रति पंगुलीनिधी किया या है। श्रत में मृत और श्रम का परम्पर marपावि संबंध की संगति पर विचार किया गया है। प्रकृतिवार को सायता के हेतु देकर मायामत का उपसंहार किया है। फुलपयकार और प्याख्याकार वोनों महषि का परिचम प्रथमस्तक में विपासा, ता. तिरिक्त उनके बनाये पन्धों का भी वहा परिषय दिया हया सलिये यहां अधिक विस्तार म कर प्राम्स में नहीं गुमै माछा स्यात बरमा चित है-जिज्ञासु अधिकारी मुमुक्ष वर्ग इस प्राय का प्राययम कर मुक्ति मंशिरको शीघ्र प्राप्त करने का सामध्य प्राप्त करें। मुनि जयसूवर विजय श्रीषालनगर, मुबई-६ जनयामासनम Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक द्वितीय- तृतीयस्तवक विषयानुक्रम स्वपक- २ 12 विषय कारमंगल 3। पुण्यपाप के नियम में आपका पुण्यपाप का नियामक प्रामाण्य ५ संवाद से परोक्षवस्तु में मी आगम का प्रामाण्य ४ भागमेक्यादि से प्रामाण्य का समर्थन ५. आयमेकल्प का निश्वयक पापक्षय ६ परीक्षा परीक्षा उभय के अयोग से संद्ध शब्दमा मन्त्र नहीं है-पूर्वपक्ष अनुमान से राम मरण व्यर्थ नहीं है-उत्तरपक्ष ८ योग्यता आत घटित हेतु की मशक्ति "ताहरू आकांक्षा का तु में प्रवेश व्यर्थ अनुमान से शब्दनितो की मनुरपति अनुमतिपक्ष में शाकतबोधानुमय की आपत्ति पृथक् अनुमिति की दुर्घटना ० ११ शाब्दम' मनुष्यवसाय से स्वतन्त्र शुरुव प्रमाण की मिद्धि भयपक्ष में गौरव तुल्य " "हिंसादि से पाप और पहिंसादि से पुण्य - नियम की सिद्धि १२ मन्त्र मोक्ष का कारण जीवस्थमाथ १३ स्वभाव और आगम अमि वारण्य १४ सप्रतिपक्ष स्वभाव-मसर कैसे ? २५ प्रमाणवाचित स्पमा कल्पना के अयोग्य १६ मग्न है- पूर्वप अface में हिम का एटा 33 १७ अग्निशीष पक्ष में अतिप्रसंग उत्तरपक्ष एम श्वमाष के अन्योन्य संक्रम आपति 18 कार्यं साधारण कारण आपसि का मिवारण १६ कार कार्यसापेक्ष होती है २० 'शुभकर्म से ही सुख' इसमें क्या प्रमाण ? क विषय ० पप से सुख होने पर सुबहुलता की आपति २५ लोक मेंदुला होने मे पुण्य मे सुख की सिद्धि २२ आगम ही शुभ में सुधारनाबोधक मतीन्द्रिय पदार्थ बोध आगमविदुः 11 २४ दुष्ट के बाय से प्रसंग साधन की 1. शक्यता दुख के वाक्य का भगम ममाग में अन्तभाव अशुमानुष्ठान से सुखमा वस्तुतः जन्माल रीय कर्म का फल दलाम का कारण नहीं है २६ २७ जैतर शास्त्र प्रामाणिक क्यों है ? दृष्ट २६ अागमन से DC 11 "P J1 में प्रत्यभवाध अगम निर्बल क्यों है ? ३० तु के अम्मा से मुक्ति का बाध ३१ अगम्यागमनादि से मध्यस्थमा प्राप्ति द्वारा मोक्ष- पूर्वपच ३२ अगम्यागमनादि से मध्यय की अनुपपतिउत्तरपक्ष ३३ पान से माध्ययम किम ३४ बासना का स्वरूप ओर भेष ३५ मध्य उदय के पूर्व गम्यागम्य में तुल्य ३६ छोकशास्त्र कथित साधु हे १ प्रवृत्ति से इच्छा अभंग रहने से अप्रवृधिमाध्यस्य का अनुष भगम्यादि में महात्मा का भौवासीम्य प्रवृत्ति में विषयपरः सुखतर असम्भव ८ मंसारमोचक्रमण के दूषय उपकार प्रयुक्त हिंसा का मनोविश्व Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय | ६] মিথযদিন: पृष्ठांक पृष्ठांक विपय २६ मुक्ति का पाय एकमात्र कर्मक्षय ६। मरणेच्छाजन्येमाऽविषयष की भनुपपत्ति ४. मक्षवले सम्भाविस चार हेतु १२ मरणफलस्वोधविधियोचितकर्तव्यताका४१, मरिसारि उत्कर्ष से साध्य ___ यस्वरूप मष्टाऽद्वारकत्व से भी मनिम्तार माशाजनन . नजद का दिमाठमण ४३ "न विस्शत सर्वभूनाति' ऐनमायार्थ , प्रमावोस अनिल प्राणविषोग हिंसा है ४४ व्याधिानवतेबा के समान सोचता ६३ अपमत पशा जास हिसा मे अतिध्याग्निका ४५ फलास्तरप्राप्ति के माय मौत्मनिकषादिन । निधारण भविहिन हिंसा महोय है-पूर्वपश्वशंका बेन- ५ अनशन भाभि में अतिग्यामिनिषारण पिडित हिंसा भापवाधिक नहीं है मत्तरपक्ष ६४ देर के सयभाग्य का हेतु - अयोतिष्टोम मादि या सीव है-मांस्य है। भाजाधम भाषिकुमान देशविरुद्ध है ४८ महाभारत-मनुस्मृति और व्यास का मत ६५ अत्मा ही सभी कर्म का कसा है यीय हिमा के पात्र में भीमांमक मट्ट 5 कमजनिममूढता से महित में प्रवृत्ति Ya विशेष विधान से सामाग्यविधि की बाध शंका कामानि की तुल! का प्रासनिक बिोचन भग्निष्टोम और श्येन याग में भेद मीमशंका ६८ कालबादी का युक्तिसंपर्म ५० परिय साविषय में प्रभाकर मत ६६ साष्ट स्थिति-व्यय कालजनित है ४१ भट्ट और प्रमाकर मत में ऐश्य और भन्तर ., पिना मूग दात परिपाक की भराक्यता ११ विधिविषय में भी निषेध मावकाश-उत्सरपा ७० काम अन्यभामिदि का विरोध १२ श्येनागरे विषय में प्रमाकरमत का खंडन * अणरूप अतिरिक्त कामा पानी का नव्यमत 1.३ पनीयाहिंसा के प्रचार में नैयायिक मत ७२ स्वमाषवादी का युरुिससंदर्भ ,, नयायिक मत का वशन ७३ बमाभिमपदार्थकारणता का अपोष ५५ गुणपिधि मौर अधिकार विधि का प्रसंग By विना स्वभाव कन्टुकारि के पाक को ५५ सामाग्यविधि यथारूप में मक्षण मशवथना ५४ सामान्य विधिसंकोच में अन्य युक्ति का स्वइन । * सामग्रीपाद प्रयुक्त आपत्ति का समाधान ५६ सामाम्बयिपि संकीम के लिये शपयार्य त्याग ७६ समान सामान से भी मिमिनकायों की के अनावश्यकता की भार्शका का बंधन उपपति फल प्रति अग्निटीमाश्येनयाग का माम्य ७६ वीजत्व को अपेक्षा गानुकूल परिणति५८ भरष्ट द्वारकम जोहायक व्यापार ही दिमा स्वमासे कार्योत्पाद में भौचित्य है-पूर्पक्ष ७७ सहकारी चक्र की व्यर्थ कल्पना ५६ भरष्टाहार विशेषणानुपति-उत्तरपक्ष । , कायें से कारणानुमान मंगापत्ति प्रसिकार ___षजनमरणमछ। विशेष्यष सम्माध की नियसिषावा यक्तिसंदर्भ मनुपपत्ति ७५ जिसकीजवाधिपसे-बिसरूप में सत्पत्ति २० बयाभपसंयुकासंयोगरूप परम्परा संबंध की नियति से अनुपपति ८. पचनस्यमान होने पर भी पार की मशक्यता ६१ मरणवनकाष्टाजनकन्या के निवेश से । ६५ कार्य माध्यमात्र का सम्पक निश्रय भसम्मव | , नियति बिमा कार्य में स्मिकस्यापत्ति .. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुकमा पृष्ठांक विषय दुनीयस्तबक पर तदुग्यक्तिलप कार्यसिद्धि के लिये मी | पृष्ठांक विषय झिया मनावश्यक १ व्याख्याकार मंगलाचरण , कमेबाट का युक्तिसंपर्भ " निष्कलंक ईश्वर को प्रणाम ॥ मोम्य मोक्ता सौर कृत का भोग २ ईदघर जगत्का सवार प्रारम्म ८३ कर्मविरह मैं मग पाकमधाम्य ३ पातचल मयानुसार सर का स्वरूप कर्मविचित्रता से मोरवषिविधता , प्रफुनिक भाषिसीन कष प्रकार * नियातहेततापक्ष में कार्यसमानतापति ৮ কাহা- মীর বিষাক্ত কর বস ५६ निमिषेधिष्य नियति से भनुपपक्ष ५ क्लेश की जन्मभूमि अषिचा ४५ नियति से मित्र को भेगक्रमानने में भापति , षर का सहजसिद्ध चतुक्षय " विशिष्ट रूप से कार्य-कारणमात्र की बसंगति ६ मणिमा भावि मा प्रकार का एश्वर्य का कार्य कारणावतक नहीं हो सकता पानजनमत में ईश्वर जगतकाईव पर नितिमात्र को मानने पर शास्त्रव्यर्थता जगरकत्व में यायिकों का मभिगम ५० अमापवाद में विश्व की अनुपपत्ति कायदा जानु । " एकास में समस्त विश्व की उत्पत्ति का "मामत्व प्रागभाषप्रतियोगि सस्वरूप है मनिट । सफकत्व कसाहित्य या कर जन्यत्व ? १ कालका माधार लेने पर स्षमावषाव का १० शरीरजभ्यत्व अपराध की शंका का समाधान पाग । ११ स्पोपामानगोधरस्वजनकाटायनपत्य१२ कुर्वदरूपता का खंडन मावि अन्यत्वरूप मास्करब ३ स्वभावान का निरसन १२ 'उपमहानगोचर' पक्ष की सायरा 1, विना हेतु मावोत्पत्ति मानने में सवपन- २३ बजनकाशाजनक पत्र की सार्थकता व्याघात समनत्य और कन्यस्य का पितनिषेश १४ कारखाव का निरसन, पक साप सर्वकार्यो । १४ कृति मैं खोपादानगीपराव का निवेश स्पारका मनि १५ व्यग्मक कायपत्ता हेतुक भनुमान ५५ तन्तु में घटोत्पति का पूषण १६ मीसित या पृथक भानापिकी सभ्यता ६ एकान्स कर्मवाद का निराकरण पर माक्षेप , कर्मक्षय का हे मानपोग १५ विस्थादिपक्षक अनुमान Garg की अष्टमकारणासापेक्षता १८ भायोजन-यणुका नक्रियाहेक भनुमान ९८ निर्यात और म्यमाष की तुता में मास्तर भारत से परमाणुक्रिया की पसि की शंका ६६ परिशिष्ट १-द्वितीयस्तमकमूलगामा-मकार- १६ चेष्टास्व पाधि की माशंका पनुक्रम २० माइतिपतनामाषपक्षक अनुमान १.५ परिशिष्ट २-दीका में उच्च पापांक्ष २१ इन्द्रादि देववाओं से सिरसाधनता की , शुद्धिकरण मार्शका २२ प्रयाप्रक्षय से विरसिद्धि मनुमान २५ व्यवहार प्रवर्तकरूप में ईश्वरसिदि द्वितीयस्ता समाप्त .. कलाकारि से ही मन्यासिद्धि की शंका Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +1 विषयानुक्रमः पृष्ठांक विपयं पृष्ठांक विषय १४ पेरके प्रमारमकमान से पता ईसपर की ४२ व्यापकरूप से कारणता सिद्धि का पूर्वपक्ष सिद्धि, पेष किसी भसंसारिपुरुषजन्य है। ॥ ॥ उत्तरपक्ष २५ पास्यपक्षक अनुमान ४४ सामान्य कार्यकारणभाष कल्पना में गौरष " इचणुक परिमाणोत्पादक सरन्याजनक अपमा- ॥ अन्यत्व या भवकिल नरय का व्ययं निवेश पुद्धि में ईश्वर मिथि , सामावामाष त्रिभोषामायकूट से मनग्य २६ तयणक परिमाण के संख्याजभ्यस्य पर शंका ४५ खणाघट में ईश्वरकर ख-दीधितिकार २७ कार्यायोजन' कारिफा की अन्यथा योजना 1. सण्डघन यानी पूर्णतापीयन यूत्ति जनमत की ययार्थव्याख्या ईश्वर प्रयुक्त है। ४६ पाकक्रिया से मन्यघट सत्पत्तिप्रक्रिया की २८ वेविषयक विशिष्टनामरूप धृति से मनुमान भालोचना "वामानुष्ठान से अनुमान ५ शेषिकमतानुमारी पाकक्रिया की मानोचन। -हम-ईश्वर आदि पद से अनुमान । ४८ ईश्वर में लौकिक प्रत्यक्षमान का अमाव २६ 'यजेन' इत्यादि में विभ्यर्थ प्रत्यय से , ४. सर्वया या सर्पज्ञाता रूप में मी ईश्वरसिद्धि ५ विध्य इश्वमाषमता या प्राप्ताभिप्राय की वाक्यता ३१ इष्टसम्बनतापक्ष में समस्या ५० द्वषणुकाविप्रत्यक्ष निरामय भी हो सकता सात सत्य से विधिकास्य का अनुमान ५१ ईयर में जम्यानको आपत्ति ३२ सिमस्यर के नियम " : INR में भेद नहीं है निरोध की अनुपपति ४२ प्रवृत्ति से ईश्वर में दूध का मतिप्रसंग ३५ वेवगन इमर निरुपण से ईश्वरसिद्धि ५३ कंटकाविधिनाश मौरव का सम्बन्ध ३४ प्रशंसापरक और निंदापरक देशपायों से , ईश्वर की इच्छा से देश-काम नियम की ईश्वर मिद्धि पपत्ति करने का प्रयास । , पुसमपुरुषीय मण्यात प्रत्यय से ईश्वरसिद्धि ५४ पामलोगों के अभिप्राय का संक्रमण ३५ ईश्वर कगरकतत्वप्रतिकार-सत्तरपक्ष ५५ चिनीयाको कारणताबमछेदकना में गौरव पोतराम ईश्वर का नहीं हो सकता | , कारणता श्वगनुमति अधीन नहीं है ,, नरकादिफसककल्प में ईश्वर प्रेरणा ५६ भषस्थ केषजी केबान से नियमन समक्ष | তা ঋষি ५७ ईषर साधक शेषानुमानों की दुर्बलता ३६ बुद्धि का वपक्ष में ईश्वत्व निरक। श्क क्षित्यादि पक्षक पंचम अनुमान में बाधोप १७ में ही ईश्वराधीनता का प्रतिकार. , ईश्वर के जिस्य पारीर में पटापनि भाक्य २८ गोवराग शिक्षा को विश्वरचना क्या ५६ मष्ट पाचपरमाणुक्रिया की पति प्रयोजन । ६. मरष्ट के बिलम्ब से कार्यघिसम्म शमय है ३॥ नियोजन पेशा से पोवरागता की हानि |, 'परमाणुक्रिया' भनुमान में पेष्टाल पारि ४० सांपयमय में जानादि का आश्रय ईश्वर ६१ घृतिहितक मनुमान में भने कातित्व ४कार्यसामान्य प्रति उपापामप्ररयक्षकारमा ६२ प्रतिबन्धकामावरसामपीकालीनस्य का की मालोचना । व्यर्थ निषेरा कृषि और कार्य का भी सामान्यतः कार्य | ६५ निरासम्म पृथ्वी का माघार धर्मी। कारणमाष नहीं है , सिरक खमस मै पाणपवनामाप्रसंग Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक विषय ६४ प्रलय के अम्बीकार से ईश्वर असिद्धि पूर्व की व्याि महोरात्र में १७ ६५ कित्ष की व्यात्रि शंका में सर्फर $1 ६६ एकनाथ समस्त फर्म का चिनिरोध मश E [सद की अमिद्धि से 11 सर्ग के प्रारम्भ में व्यवहार की मि ६८ मजाकिय ईश्वर शिक्षा-पुर्वप ६६ ईश्वर के शरीर महल का असम्म प्रतरप ७० ईश्वर अश्वैश से शरी ७२ आवेश पवार्थ समीक्षा उत्तरपक्ष , ईश्वराधेश और भूतावेश समान नहीं है। ७१ मान्य के कोन विकास से भूला देश ७२ नैयायिकमान्य कार्यकारणभाव में गौरव ht ਵਿਸਥਾਰ ਸ निकथन श्री व्ययंता शरीर प्रयत्न कार्यकारणमा अशक्य भष्यष में कियाजनक प्रयत्न इच्छानियत है ७१ योगिजन के कायल की प 31 , आवेश से प्रवृत्ति, वादिना व्यर्थ ७४ लोकप्रसिमानार्थं 75 ७५ 3. ד सीधेकर ब्रह्मादिदेवतशरीर में चेष्टा पर प्रभ विष्ठा की उ१पति काय वरिष्ठविरोध की आपत्ति नाचार्य के कथन की अमारता संकेत आदि सब मायाजाल है युग की आदि में व्यवहार " प्रस्थादि प्रमाणों । व्यर्थ उपन्यास जयप्रस के प्रति प्रमा की का खंडन अपेक्षायुद्धि से त्यिादिव्यवहार की उपपति ० ईश्वर का कथंचि नयर्थन १ आता पावन द्वारा ईश्वर रेव पर चिन्तामणि जैसे ईश्वरमति से सिद्धि निर्थंक प्रथाम बाबाविलोपन द्वारा भर्तृ ईश्वर भक्ति में वृद्धि के लिये कर्तृत्वोपदेश ६४ भारमा ही परमात्मा होने से साक्षात स्व | पृष्ठांक विषय ८५ निःस्पृहाकार धुतमात्री नहीं होते दोनी से शास्त्रकार के " युक्ति और भाग अभिप्रायका अन्ज ۱ [ केोधका उपाय वर्षानुसंधान ८० ईश्वर का का रडार सांधमतान प्रारम्भ ७न के सिद्धान्त ७७ पुरुष और प्रकृति के प्रमाण सहकार्य में सुप १०और कार्य सम्बन्ध की अनुपि ३१ सहकार्यबाव में नियत शक्ति का सम्भव ६२ मत से चैतन्याषच्छेद और दवासादि का नियमन " बुद्धिगत कालादि धर्मो का निरूपण १३ पुरुष रद्धि का सात्विक भे 1, पुरुष-विषयाकार का बुद्धि सम्बन्ध ४. बुद्धि से कार की पति -मनुवचन # 11 अहंकार से मां लक्ष्यों की उत्पति २६ शन्द्रियकर्मेन्द्रिय-समयेन्द्रिय भाषि 'बाघ है यह स्थाप्तिक प्रमीति की अहंकार से उपपति का विवरण प्रकृति मावि स के चार वर्ग प्रधानमद्दतुकार इश्यि समान्य भूत फा सांस्यम में आत्म शून्य है ९८ युक्ति से समय की आलोचना ३६ प्रकृति - एका नित्यसका खंडन १०० प्रकृति की निश्यता के बचाव की शंका १०१ जननाजननोभयस्यभाव मे अन्योन्याश्रय १०२ मकवि को मह का उपादान मानने में मनित्यस्त्र की भवचि १०३ दि कार्य पृथ्वी आदि के परिणाम मात्र से जन्म नहीं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुकमा पृष्ठांक विषय | प्रश्नांक १०४ मात्मा हीर-नीर न्याय से देहाभिन । १२० सांस्यसिमास में मी पुरुष का ही मोक्ष । ॥ युधि में पुरुष प्रतिबिम्ब से भोगोजगार मान्य है १०५ पुरुष बुद्धि के प्रतिबिम्ब से विकृतिका १२१ मांरूपमत में तथ्यांस सूचन प्रसंग । १ सरकार्यवाकविरोधी भूप १०६ आत्मसंनिधाम से भरकरण में औपाधिक । १२२ मत्कायेषाव में पूर्वोपलब्धि का प्रसंग वन्य १२३ प्रकृसियानोय कर्म से बन्ध भौर मोक्ष १-७ घुद्धि में पुरुषोपराग ही माल्मा का मोग । १२४ मूर्ग और अमू के अन्यान्य परिवर्शन की ॥ अमूर्त प्रात्मा का प्रतिविम्ब मसंगत १०८ छायाय न मायर मूर्त इष्य का प्रतिबिम्प १२४ मूर्म-अमुल परिवर्तन की उपपति , सर्पण से प्रतिविम्ब भिन्न है १२५ सांरूपमतमें देवात्म अविभाग की अनुपपास २०५ स्वतन्त्र प्रतिबिम्न द्रश्य की पति १२६ मन्योन्यानुगत में विभाग की अयुक्तता ११. भम्त द्रश्य के प्रतिषिय की माशका १. विषों के वाणान्तरविभाग अनुपतिकी १११ मसम पुरुषोपराग की उत्पत्ति में सस्कार्यबाद शंका का बिसय १२८ सम्मतिमन्म की चार कारिका और उसका ११२ मपरिणामी आस्मा प्रतिमिम्बोषयस्त्रमाव __नहीं हो सकता १. मून और ममत के सम्मान की पत्ति ११ नह-यात्म भेव पक्ष में प्रात्या की अनुषपत्ति १३. आम-विभुत्य की शंका का पतिार १९४ हत्या भास्म-मनासयोगनाशव्यापार रुप ११ भारम-विभुत्ववाद में सीर्धाटनादिकिया का मंग ११५ दिन्न भषयष में पृथक, भात्मप्रसंग का । १३२ प्रकृतिका की मापेक सत्यता का अनुमोदन निषारण १३३ मुसीयस्तबक का उपहार ११६ पन्ध विनापद्ध-मुक्त भेव की मनुस्पति १३४, , शोक का अकागरिकम ११५ प्रकृति के अग्ध और मोक्ष की का १३५ । टीका में उड़त मासिपाठ ११८ निम्य एकस्वरूप प्रकृति में पन्ध-मोम समय १२६ ॥ शुद्धिपत्र ११६ जीप काही प्रकृतिषियोगात्मक मोधरे। भर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्मीविवेचविशीकृत स्यावादकल्पलताटीकाविभूषित शास्त्रवार्तासमुच्चय द्वितीयः स्तबकः (ही)-प्रतीपाय दीपाय सतामान्सरचक्षुप । नमः स्याद्वादिनन्त्राय स्वतन्त्राय शिवस्त्रये ॥२॥ वातान्तरमाहमूलम्-हिंसादिभ्योऽशुभ कर्म तदन्येभ्यश्च तच्छुभम् । जायते नियमो मानात कुतोऽयमिति चापरे ॥ १ ॥ हिंसाविधः अत्रिरस्यादिहेतुभ्यः, अशुभ-पापं कर्म भवति । नवन्येभ्यध-विर. त्यादिहेतुभ्यः, शुभं पुण्यं, तत्-कर्म भवति । अयं नियमः प्रतिनियतहेतुहेतुमदायनिश्चया, कता-कस्मात, मानान-प्रमाणान् । इति बापरे सन्दिहाना वादिनः प्राहुः । अभ्युत्पन्नाना चेपमाशङ्का धर्माधर्मपदवाच्यत्वावरि मधर्मिनाका, अन्यथा धर्मियाइकमानेनोक्तनियमोपरक्तपोरेव धर्मावर्मयोः सिद्धावीशशानुदयादिति ध्येयम् ॥१।। [टीका के मङ्गलालोक का भावार्थ ] पाठवियों का शास्त्र प्रस्तुतस्य को प्रशित करने वाला ऐसा प्रवीप है जिसके प्रभाव को मिल करने वाला कोई नहीं है। यह सत्पुरुषों की अन्तविजिससे बम से कम तस्वदेने का सकते हैं, वह स्वतन्त्र सूर्य है जिसका उपय किसी अन्य कारण को अपेक्षा नहीं रखता और जिससे समस्त पदार्थ बेरोकटोक प्रकाशित होते रहते हैं। ऐसा महान शास्त्र सबका बसनीय है। [ पुण्य-पाप के नियम में प्राशङ्का ] यहाँ प्रणाम कारिका में अदृष्ट के सम्बन्ध में एक दूसरी बात कही गयी है, वह यह किएछ संपायमस्त वारियों को यह वाला है कि-'अविरति प्राणि हेतुओं से पाप होता है मौर विरति आदि हेतुओं से पुण्य होता है-स प्रकार के निपत हेतुहेतुमाप में कोई प्रमाण नहीं है, अतः कभी अपिरति मावि से पुण्य का और विरति आदि से पाप का भी जन्म होना चाहिये। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाम्याग्निमुफमय-न० २ इल्लोक: २ इदमेवाभिप्रेत्य व्युत्पत्निपुरस्कारेणैव ममाधानवामिाहमूलम-आगमाख्यासदन्ये तुमच प्यायपाधितम । __सर्याविषय नित्यं व्यक्तार्थ परमात्मना ॥२|| सवन्ये तुअदिदानास्तववादिनः, आगमारूया मानात् नियम बनने' इति पानयरोगः । अयमेनदन्त्र मानम् ? इत्यत आह नचागमास्य, दृष्टायाधितम= दृष्टेष्टाभ्यामविरुदम् । मनेन पयसा मिश्चति' इत्यादान बाधितनिरासः । तथापि बाऽत्रिपये प्रमनिपमे कथं जाना 5 मार-समाशिषः पारदभिलाग्यविषयम् , प्रज्ञापनीयभाषानामनन्तभागस्य श्रुनिबद्धत्येप सदस्पन्न भृनया मत्या निवद्धानामपि नेपां ग्रहणअषणा नानुपपन्न मेनन् । कृत्रिमत्यान् कथमीशमत १ इन्थन आइ.नि:प्रवाहापेक्षयाऽनादिनिधनम, भरसादौ चिक्छेदकालेपि महात्रि विन्द्रदान , नथाप्यमानानात्वादनाशमेत स्याह-परमात्मनाक्षीणदोषण भगवता ध्यतार्थ अनिपादितार्थम । अगर करें,-'यह पाता धर्म अथक अष्टमिक है । शा में मिजान कारण होता है. अतः जिस प्रमाण से धर्म प्रचामरूप धर्मी का माम होगा, उस प्रमाण से अविरत आ हो पाप होने और विरति प्रावि से ही पुण्य होने के नियम का भी नाम हो पाने से या वाखा नहीं हो सकती' -यह कहना होक महीं है, क्योंकि जिन्हें धर्म अधर्म वाग्ध का पाख्यायं विशेष रूप में ज्ञास नहीं है, उन्हें धर्म-अधर्मपावास्यस्वरूप से धर्म-अधमरूप धमों में उक्त शङ्का होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। [पुण्य-पाप के नियामक प्रागम का प्रामाण्य ] द्वितीय कारिका में पूर्वकारिका में उठायो गयो कारका का समाधान किया गया है. और यह समाधान अहम सब की व्युत्पत्ति के आधार पर इस अभिप्राय से सम्भव हुआ है कि R को सत्ता में प्रत्यक्षादि प्रमाण नहीं है, पक्ष आधि से घर न होने से ही वह अष्ट है। कारिका की अब इस प्रकार है बष्ट की प्रामाणिकता के विषय में संशमहीम तत्वारियों का कहना है कि 'अष्ट' या आगम प्रमाण से सिव है, और मागम हर तथा पट से अधिमय होने के नाते पमाण है। जिस प्रकार जलकरणक सिधन इष्ट एवं से अविस्मने से सद्योषा 'पयसा मिति' यह वाक्य वाषित नहीं होता, उसी प्रकार अशष्टबोधक आगम भो बाधित नहीं हो सकता । 'अदिति आदि से ही पाप और विराति आदि से ही पृष्य होता है यह नियम भामम का विषय भी नहीं है. बयोंकि जितने भी मिलापोभ्य पदायें हैं वे सब InH के विषय ।। आमय यह है कि प्रसापनीय भावों का मनन्तमाग यद्यपि नियमशास्त्रप्रतिपाधववापिस के अन्तगत मतिज्ञान से धूत में अनिबद्ध भावों का भी प्रहण होने से उस मावों को सत्ता में भी आगमा प्रामाण्य अक्षण कृत्रिम अर्थात किमी एक मानव से रचित होने से पीआरमको अप्रमाण नही कहा जा सकता, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्याक टीका और हिन्दी विवेचन | नन्दि स्वगृहवात्तमात्रम् अप्रत्यक्षे पापादौ तत्प्रामाण्यग्राह कमाना भावादित्याशङ्का यामाह मूलम् - चन्द्र सूर्योपरा गावस्ततः संवाददर्शमात् 1 तस्याप्रत्यक्षेऽपि पापादौ न प्रामाण्यं न युज्यते || ३ || I + नतःतद्भोधितात् पन्द्रसूर्यपरागादेरर्थात् तमाश्रित्य इनि म्यलोपे पञ्चमी, संवाददर्शनाद् = अभिवादितिजनकत्वनिश्वयात् तस्य शब्दस्य, अप्रत्यक्षेऽपि श्रोत्रप्रत्यक्षेपि पापादौ प्रामाण्यं तद्वद्विशेष्यकन्ये सति तत्प्रकारकज्ञानजनकत्वम्, न युज्यत इनिन निधीयत इति न किन्तु निश्चीयत एवेत्यर्थः ||३|| , [2 यदि नाम क्यविद् दृष्टः संवावोऽन्यत्र वस्तुनि | तद्भावस्तस्य तच धा कथं समवसीयते ! ॥ ४ ॥ P = परमभिप्रायमाह यदि नाम क्वचित् चन्द्रोपगगादायर्थे मंगादो, सदा तदभि घायकरात्रयस्य प्रामाण्यं सिध्यतु, अन्यत्रः पापादौ वस्तुनि लङ्गावः संवादभावः त पापाद्यभिधायकवाक्यस्य तस्वं वा प्रमाणत्वं वा कथं समयमीयते ! प्रामाण्यव्याप्यसंवादित्वाभावात् पापाद्यभिधायकवाच्ये प्रामाण्यनिश्रयो दुर्घटइति समुदायार्थः ||४|| क्योंकि प्रारूप से मित्थ है। एकत्र भरतायि क्षेत्र में उसके विकाल में भी अपरत्र महाविदेह क्षेत्र में वह अविच्छिन्न रहता है। वह अनामत भी नहीं है क्योंकि जिसने समस्त अप कर खाला है ऐसे भगवान ने उसके अर्थों का प्रतिपान किया है || २ || का [ संवाद से परोक्ष वस्तु में भी आगम का प्रामाण्य ] "अदृष्ट के अस्तित्व में आगम प्रमाण है' मे सत्र पूर्व कारिका में कही गयी बातें केवल अपने घर की बाते हैं परीक्षा करने पर उनकी वास्तविकता नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि पाप आणि अष्ट प्रत्यक्षसिद्ध नहीं अतः उम में आगम प्रमाणन है। इस बात में कोई प्रमाण नहीं हो सकता इस शङ्कर का प्रस्तुत तीसरी कारिका में समाधान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है सूर्य का प्रण आगमगम्य है और उस का संवाद प्रत्यक्ष प्रमाण से अवगम देखा जाता है, तो जैसे प्रत्यक्षदृश्य चन्द्रग्रहण आणि अर्थ में आगम प्रमाण है इसे ही वह श्रोता को प्रत्यक्ष हृदय न मेवाले पाप आदि अष्ट में भी प्रमाण हो सकता है। इसलिये 'अष्ट में आगम को शेय सप्रकारकज्ञानरूप प्रपर की जनता नहीं है। यह बात सलंगल नहीं हो सकती, किन्तु आगम अष्ट में भी प्रमाण का जनक है।' यही युक्तिसंगत है ॥३॥ आदिजिन कारिका में बाबी का अभिप्राय स्वव किया है, जो इस प्रकार हैअर्थों में आगम का अन्य प्रमाण से संवाद समर्थन देखा जाता है उन सब में आगम का प्रामाण्य ठीक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मारनपातममुनग एल० २-श्लो०५ अत्र समाधानमाइ आगमैकन्चातस्तच्च वायादेस्तुल्यतादिना । सुवृद्धसम्मवान नया पापक्षण का ॥५॥ आगमकन्यतः=ष्टाऽदृष्टसंवाद्यागमारकत्यात , 'सम्य तथान्यं समवसीयते' इति योजना, स्यादित्वात् संवादिजातीयत्वस्यापि प्रामाण्यन्यायशात् । अत एव जलादिक्षाने हएसंवादजातीयत्वेन प्रागेच प्रामाण्यनिश्चयाद निष्कम्पा प्रवृत्तिर्घटस इति भावः । भागपैकत्यमेव कश्यम् ? इत्याह -तकनगमैऋत्वं च वाक्पा माश्यपदगाम्भीर्यादेः, तुम्यतादिना ममत्रसीयने । नन्विदमयुक्तम् आगमानुकारेशा पठयमानेऽन्यत्रादि मत्तन्यतासचान , अनन्तार्थम्वादेश्च दुग्रहन्षाद , इत्थन आह-सुवसम्प्रदायेनसान चरणसम्पमगुरुपरम्परया । नन्वियमपि मियोविवादाक्रान्ता, सुशुद्धलप्रमापकहेन्वन्तरानुसरणे च तदेवागमकत्यग्राहकमस्तु, इत्यत आहतथा पापक्षयेण च सम्यक्त्वप्रतिवन्धककर्मक्षयोपशमेन च । 'अयं हि सर्वत्र यथावस्थितत्वआहे मुख्यो हेतुः, लब्धीन्द्रियरूरतदभिव्यक्तयवान्योपयोगात् , तदमिष्यक्ति व्यापारफतयेव तथा मृत्यमेन हेत्वन्तरसमुच्चयात' इति वदन्ति ||५|| है, किन्नु पाप आदि जिन वस्तुओं में उसका प्रमाणातर से सवाद का बॉम सम्भव नहीं है, उन वस्तुओं में उसका प्रमाणान्तर से संवाद मानना अथवा उन वस्तुप्रों में उस को प्रमाण मानना ठीक नहीं है। पापाय यह है कि प्रमाणान्तर से संवारितामयित होना प्रामाण्य का व्याप्प है, और आगम में चप्सका ग्रहण सम्भव नहीं है, अतः पापादियोधक आगम में प्रामाण्य का प्राहक संवाब न होने से उस में प्रामाण्य का निस्मय भय हैं | [प्रागमक्यावि से प्रामाण्य का समर्थन ] पाम कारिका में पूर्वकारिका में उठायी गयो शङ्का का समाधान किया गया है, जो इस प्रकार है लिम आगमों में प्रमाणातर का संबाब हरुट हैं और बिन मामों में प्रमाणान्तर का सबष्ट मही हैं, ये दोनों एक हो आगमई । प्राप्त. यह उचित नहीं है कि एक ही आगम का एक भाग प्रमाण हो और दूसरा भाग अन्नमाण हो। आशय यह है कि प्रमाणान्तरसंवा विस्व प्रामाम का ग्याथ्य है, से ही प्रमाणामारसंवाविजातीयस्क भी प्रामाण्य का व्याप अतः सिम आगमवचनों में प्रमाणान्तर का संघाव हण्ट नहीं है उन में प्रमागास्तरसंवादी आगमके सजातीयत्व से प्रामाण्य का अनुमान हो जायगा । इस प्रकार का अनुमाम अमित्र कृष्ट भो है, जैसे पहले पीए जल में पिपासाणामकस्म का निप्रय होने से तरक्षासोयत्व हेतु से बीम जल में पिपासाणामकाब का अनुमान हो कर उसके कान में पिपासको निर्वाध प्रतिमोतीहै। उक्त दोनों प्रागमो में एकत्वका निश्चय उम दोनों के बायो, पलों की गम्भीरता रखमाशेली आदिहीसमानता से सम्पन्न होता।शकाको जाप "आगम का अनुकरण करके रखेगमे नबीन बाययों में उक्त समानता हेतु तो एकागमस्व का पमिधारी है क्यों Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका-हिन्दी विवेचन ] पिये पाधकमाह मलम् - अन्यथा वस्तुतचस्प परीक्षेव न युज्यते । आशङ्का सर्वगा ग्रस्माच्छ्रप्रस्थस्योपजायते ॥६॥ अन्यथा-उक्तरीत्या वंशपाऽविच्छेदे, वस्तुतस्यस्य परीक्षेव = सद्विचार एव न युज्यते यस्माद् हेतोः, छद्मस्थस्य = अक्षीणखानावरणीयस्य सर्वगा - सर्वार्थनियिणी, आशङ्का जायते ॥ ६॥ - [ x fus वश् तो अप्रमाणभूत परस्त्रों में भी मिलता है जहां एकागमश्य नहीं है। मगर का से एकागम का निर्णय करेंगे असे हृष्टसवाय आगम में अनन्तार्थता हैं इसे अनुवाद आगम में भो हैं तब भी वह अनसार है। अतः इस मे आग का अनुमान उचित न होने से दोनों में एकारामश्वय है" यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त हेतुओं से अनुमान सम्भव न होने पर भो जस्त विवि आगमों में एकत्व का शिव ज्ञान-वारित्र्य से सम्पन्न गुरुओं की परम्परा से हो सकता है । [ पापक्षय भी आगमकत्व का निश्चायक है ] fe यह शंका की जाय कि "गुरुओं को सुद्धता, मान-चारियता विवादग्रस्त है. उसके वयार्थ अन्य हेतु का पञ्चा पढने पर उसी से उक्त विविध आगमों में एकागमा नियम सभ में होने से गुरुपरम्परा को उसका निश्चायक मानना बिलगत नहीं है। अभिप्राय यह है कि गुरुपरम्परा मानसंपन्ना का निश्चायक कोई समोवीन हेतु सुलभ न होने से उस द्विधि अगमों में ऍrner का oar कर है तो आप का विषयक अभ्य हेतु म है कि पक्ष से अर्थात् समय के प्रसिध्धक कर्मों के योपाम से उक्त द्विविध ग्रामों में एकागमस्य का या जिन आगमों में प्रमाणाश्र का संवाद हट नहीं है उन में सम्यक्त्व का अर्थात् प्रामाण्य का दृढ निश्चय होने में कोई बाधा नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष दुष्कर्मों से आकान्स होते है उन्हीं को जनस प्रकार के आगम वभ्रमों में प्रामाण का मिय नहीं होता किन्तु जिसके कर्मो का गुरुपरंपरा के प्रति श्रद्धा गुरुपदेश इत्यादि से योषम हो जाता है उन्हें उक्त प्रकार के आगम बचन में अनायास हो प्रामाप्य का विजय हो जाता है। वस्तुतस्ववादी विद्वानों का कहना है कि सके प्रति कमों का क्षयोपशम ही सर्वत्र वस्तु के यथावस्थितरण (सत्य स्वरूप) वास्तविकता के शान का मुख्य हेतु होता है. अन्य हेतु का उपयोग उक्त क्षयोपशम जिसको भी कहते है-को अभि के पावनार्थ ही होता है। कारिका में तथा शब्द से भोजन हेस्वन्तर का हो समुचय इसो घाशय से किया था है || २ || कारिका में पूर्व कारिका में उक्त अर्थ के विपरीत पक्ष में बाधक का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है समय के प्रतिक कर्मों के क्षयोपशम से पवि अष्ट प्रमाणावर संचानाले आगमों में अमामायके कोमल न सामी जायेगी तो वस्तुतस्य की परीक्षा- यह वस्तु सत् और यह असत् है'इस प्रकार के चिन्तन को अब ही न हो सकेगा क्योंकि जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं हुआ है उसको सभी वस्तुओं को बास्तविकता में वांकर स्वभावतः होती ही रहती है ॥६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शापा समुच्चय न. २-इलो अन्तु महंशपरीक्षेत्र, इत्यत आह अपरीक्षापि मो युक्ता गुणदोषाऽविकतः । महत्संकटमायातमाशा न्यायशधिनः ॥ ७ ॥ अपरीक्षापिअविचारयेऽपिनाव, युक्ता । कम्मत ? इत्या-गुणादापा. विधेकतानि कम्पनलि-मिसिप्रयोजकानिश्श्यात । तम्मान परीक्षा परीझामयाऽयोगात , न्यायपाविना ताधिकस्य महत संकटमापानमित्याशहक । पतन 'वप्रधानन्यात शब्दम्याऽग्रामण्यम्' इत्याप निरस्तम , गुणबदफाकन्येन तस्य प्रामाण्यव्यवग्थिनेः 1 अनपाय अनुमानादस्य विशेषः, शानदनमायां वनपथार्थवाश्यार्थज्ञानम्य गुणाधात . इन गुणवक्तअयूक्तशब्दप्रभवन्वादेय शाब्दमनुमानमामाद् विशिष्पने' इति वदतां मम्मनितीक नामाशयः | अत्रेदमबंधयम्-गते पदार्थास्तापर्यविपर्यामधःशाना, आकाक्षादिमत्पदम्मातिस्वात, 'दण्डेन गामभ्याज' इति यदस्मान" एपिथगामि , अनासोक्तपरस्मारिते घ्यभिचागत् । आमाक्तत्वेन विशेषणीयो हेतुगिन' चेत् ? न, आम [ परीक्षा-परीक्षा उभय के प्रयोग से संकट] पूर्व कारिका में कहा गया है कि सम्मकस्म के प्रतिवन्धक कमी के क्षयोपशम से समय की मिति म मामले पर पस्तुत की परीक्षा न हो सकेगी, उस पर यह कहा जा सकता है 1क 'परीक्षा म हो. पया हामि है-प्रस्तुत Bाय कारिका में इसो कयम का उसर दिया गप! ।।। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-'वस्तस्वकी पौक्षा न हो तो मरे, कोई हानि महीं हैं:कहना ठीक नहीं है क्योंकि वस्तुरस्त्र की परीक्षा न हो सको पर गुणदोष के अधिक से अर्थात् निधि प्रत्रात्त और मिति के प्रयोजक का निश्चय न हो सकने से मनुष्य को प्रति निवृत्ति की उपपत्ति न हो मकेगी । परिणाम यह होगा कि मानावरणीय कर्म के प्रायोपशाम से संमाय को निमित मामले पर समाप को निति होने से वस्तुनाव की परीक्षा न हो सकेगी। स एवं प्रति निवृत्ति के प्रधाअफ का नियम हो सकमे के भय से ग्रस्तुतस्य की परीक्षा भी स्वीकार्य न हो सकेगो, तर तो ताकि को महान संकट उपस्थित हो जायगा। पूसरी करिका में जो या कहा गया था कि-अधिति आदि हेतुओं से पापका और विरति आदि हेतुओं से पुष्प का उयम होता है-इस नियम में आगम प्रमाण है। उसके विषय मह कहा जा सकता है कि "मागम तो पारदात्मक हैं और शव क्षता के प्राधीन होता है अत: यता के दोष से कार में दोष सम्भव होने से शब्दको प्रमाण नहीं माना जा सकता'-किन्तु पहकन बधित नहीं है. क्योंकियोष एस्ता बाद अममाण होने पर भी गुणवान वसा के शमन में प्रामा मामले में कोई बाधा नहीं हो समाती । “अनुमान से काम का यही शिष्टम है कि आप से होने वाली प्रम में वक्ता का वाक्याथविषयकममार्थशान रूप गुण कारण होता है । गुणवान् बपता के कार से उत्पन्न होने के कारण ही र. शाम मनुमिति से विलक्षण होता है सम्मति प्राय के टीकाकार का भी यहो आपाय है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्य' का टीका-हिन्दी विवेचन ] स्वस्य पूर्व दुहत्त्वात् । अत एक योग्यताया हेतुप्रवेशेऽपि न निर्वाहः, एकपदार्थेऽपरपदार्थवाचरूपायास्तस्याः प्रागनिश्चयात् , निधये का सिद्भसाधनात् । आकाङनापि ममाभिव्याहतपदस्मारितजिज्ञामारूपा म्वरूपमत्येव हेतु, न तु ज्ञाता । योग्यतामहिनाऽऽमतिर्गप न नियामिका, 'अपमति पुत्री गनः पुन्धोपसायताम्' इत्यत्र मात्रः पुरुषः' इति भाग व्यभिचारान् । एलेन-गनानि पदानि सानपघवषयरमान्तिपदार्थमसर्मप्रमापू काणि, आकाशादिमत्पदन्वान , इत्यनुमानशरीरे उक्तयोग्यताया हेतुविशगोऽपि न सिमाधनम्-इत्युक्तायपि न निस्तारः। [शब्द प्रमाण स्वतन्त्र नहीं है-वावस्थल-पूर्वपक्ष ] वैशेरिक आदि कतिरप दर्शन शव को अनुमान से भिन्न प्रमाण और शास्त्रज्ञान को अनुमति से मित्र प्रमाण नहीं मानसे । उनका कहना कि वाय का श्रवण होने पर जब वाक्य घटक पदों से नमत अर्ष को समति हो जाती है तब उन अर्थों में यात्रा के मभिमत परस्परसम्बग्य का अनुमान हो जाता है। अनुमान का आकार इस प्रकार होता है-"अमुक अमुक पदार्थ बक्ता के अभिमत परस्पर सम्माध के आभय है-कमोंकि आकाक्षा आदि से युमन पत्रों से स्मारित है-जो पदार्थ आकांक्षा आदि से युक्त पों से स्मारित होते हैं वे वरता के अभिमत परस्पर सम्बन्ध के आश्रय होते हैं, मे पण्डेन गामभ्याज' इस वामय के पव. तृतीमायिपित, गो पब. बिलीया विभक्ति. अभ्याम सोपसर्ग वान और लोट प्रत्यय, इन पदों से मारक adकरमता, फतः, अ ति है कि करता के साथ वा का और ममता के साथ गोका निवस्वतम्बन्ध, एव अपसारण के साथ कर. गाना-कर्मता का निरूपार सम्बत्य तथा अपसारण के साथ कृति का सामस्व सम्बम्ब पास को अभिमत है, और वे वे पदार्थ जम सम्बन्धों के प्राभय है। [अनुमाम से शचप्रमाण की निरर्थकता नहीं हो सकती-उत्तरपक्ष] जाम को मात्र प्रमाण मानने वाले मर्माधियों का कहना है कि-उत अनुमामाहार से बतान को गतार्थ (नियमोजना नहीं किया जा सकता पोंकि अनामत पुरुष से उवर पोंजारा स्मारित प्रामा में परस्पर सम्बन्ध न होने से आकांक्षाविमस्मारितत्व हेतु में जबत साध्य कामयभिचार होने से कारण अनुमान का उक्त आकार सम्भव ही नहीं है । हेतुघटक पत्र में प्राप्तीक्तस्व विशेषण वेने से भी इस घोष का मिकरण नहीं किया जा सकता, क्योकि वाद प्रान के पूर्वबायघटक पक्षों में आरोक्तस्त्र का निश्चय नहीं हो सकता. कारण कि शासन का प्रवृति आदि के साथ संबाब सोने पर हो उसके प्रयोजक वाक्य में प्राप्तीक्तत्व को जामकारी हो सकती है. उससे पूर्व नहीं होती। हेतु के शरीर में योग्यमा का प्रवेश कर के भी इस दोष से मुक्ति नहीं पायी जा सकती, क्योंकि एक पदार्थ में अगर पदार्थ का समय हो योग्यता है जो शवमान से ही महील हो सबने के कारण उस से पूर्व निश्चित नहीं हो सकती, जबकि उस के हेतघटक होने पर शादमानात्मक अनुमिति के पूर उस का निश्चय आवश्यक होगा और घाव कमा से अतिरिक्त किसी अन्य साश्रम से शाबशाम के वर्ष धोग्यता का मिश्चम हो भी नाबमा नो योग्यताटित हेतु से अनुमान हो सकेगा. पोंकि शम स्थिति में अनुमान से पेविताय एक पार्थ में अपर पार्थ के सम्मम का निश्चय पहले ही हो जाने Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ] शामा समुच्चय-स्तम्-श्लो०७ __ अथ तात्पर्यरूपाफाझा हेतुप्रविष्टनि न ब्याभधारः । न र कर्मवादी घटादसमर्गासिद्धाचपि कर्मवादी निरूपितत्त्वसम्बन्धेन घटादिकप्रकारकपोधीन जान इति याश्य, 'कर्मत्वादिकं घटादिमाव , घटाकाक्षादिमत्पदस्मास्तित्वात् ,' इत्यनुमानस्यापि सम्भवात् । इनि चत न अनुमानाद् नियतपोधानुपपत्तेः । 'प्रदान्मकविलक्षणानुमिती व्युत्पञ्चेपि तन्प्रत्यास्त्र दोप' इति वेत् १, न व्युत्पः पदम्प शम्दहेतुत्वगत्वात । से सिजसाचन दोष हो जायगा, और यह सर्वसम्मत है कि भनुमान प्रमाण से सिद्ध का माधन नहीं होता, क्योंकि सिखि से अनुमति का प्रतिबन्ध हो जाता है। आकांक्षा को को हेतु का पटक बनाया गया है. यह मी ठीक नहीं है कि हेतु का पटक होने पर उसकेनाम की अपेक्षा होगा. जब कि माकमा 'समभियानुसबाश्यासर्गत पद से स्मारित पवावं की जिला कप होने से यह स्वरूदेव-सम् होकर हो शायनाम को सम्पाधिका होती है. लात हो कर मही होतो। [पोरयता मोर ग्रासप्ति से घरित हेतु भी असमर्थ] 'पाक्षिाविमत्यवस्मारितस्व' हेतु में आदि पर से योग्यता माहित आसक्ति भी विवक्षित है, सोनियोग्य और वासत्तिहीम पवों से स्मारित पयों में वाक्य से परस्पर समन्धका बोध नहीं होता । परंतु योग्यता सहित प्रासति से धरित मी हेतु उक्त अनुमानाकार को सम्पन्न करने में मसमर्थ है, क्योंकि यह राजा का पुत्र पल रहा है मागं में से ममुधों को हटाया जाय' इस अर्थ के बोषक 'अयमेनि पुत्रो राक्षा पुषयोऽपसाताम्' इस चाय के घटक 'रामः पुरुषः स भाग में भी योग्यता सहित आसक्ति विद्यमान है किन्तु इस माग से स्मारित अर्षों में समा का प्रनिमत सम्पत्य मही है क्योंकि 'राम'का सम्बन्ध 'पुत्रः' के साप विवक्षित हैन कि 'पुरुष' के साथ 1 अत: कक्षायोग्यतामातातिमत्त्वस्मारितत्व हेतु ४ा बामय रामः पुरुष स भाग से स्मारित अर्थों में बरता के सभिमत परस्परसम्बाबल्य साध्य का म्पभिवारी है, और व्यभिवारी हेतु साध्य का अनुमापः क नहीं होता। योग्यताको जैतुषक्षक मानने पर सिरसायन दोष दिया गया है। उस का परिहार अनुमानाकार को ववल वेने से हो सकता है, से अनुमान का आकार यदि यह कर दिया जाय कि "अमुक अमुक पर मारित पार्यों के विवक्षित सम्बन्धको प्रमा से प्रयुक्त है, पयोंकि बाकांक्षा योग्यता और साप्तत्ति से युक्त पर है. जैसे 'दोन गामयाज' इस वाक्य के घटक पक्ष' तो इस अनुमान के पूर्व हेतुपटक योग्यता का निश्चय होने पर भी सिससाधन नहीं होगा क्योंकि इस पे अनुमान में पार्यो का परस्पर सम्बाध रूप योग्यता साध्य नही हैं किन्तु शासम्बन्ध प्रमापूर्वकस्वा साध्य है, और बहसमत अनुमान से पूर्व पक्ष में निति नहीं है -किरतु अनुमानाकार के इस परिवर्तन से भी कोई काम नहीं हैपयोंकि उस 'रामः पुरुषः' इस माग में व्यभिचार बोच अबारित है। रहता है। [तात्पर्य रुप आकांक्षा का हेतु में प्रवेश निरर्थक है) यपि यह परिहार किया जाय कि “सारपयं बप आकाक्षा को हेतु का घटक बनाने पर उस पसमिधार नहीं होगा, क्योंकि 'अपति पुत्रो रामः पुरषोऽपसायतरम' इस वास्य के रासः पुरुषः' इस Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या कटीक और हिन्दी विवेचन ] किन, एवं प्रत्यक्षादिना मिदायपि विन कहा शादरोधानुदयः स्यात् । न च पाताया लिङ्गभेदभिषन्येम तसविझकामिनी नहेतुन्वादेव नानुपसिरिति वाच्यं, तथाप्यन्धि सान्वयवारणाय लिगकतदनुमिनी ननिक्षाकनदनुमित्यमावस्य हेतुत्वापेक्षया घटपदजन्यशाम्दोधे घटपदजन्यशान्दबोधस्यैत्र प्रतिबन्धकवे लाघवाद् अतिरिक्तशामिद्धेः। भाग का राजकीय पुरुष' अर्थ में तात्पर्य न होने से उस माग के अप में 'आकासला. योग्यता, आमति तथा तात्पयंपुषतपरस्मासिस्व' सेतु का अभाव है, अत: उक्त भाग के अर्थ में नास्पविषयमिय:संसर्ग रूप साध्य का अभाव होने पर मो हेनु में मायावृत्तिस्वरूप व्यभिचारको सम्भावना नहीं है। इस पर वांका हो सकती है कि उक्त मानुमान से कर्मस्व आदि में घट आदि का संसर्ग सिब होने पर भी कामेस्व आदि में निरुपितत्व सम्बम्म से घटाविप्रकारक बोध को उपपत्ति उक्त अनुमान से नहीं हो सकती। अत. उप्त बोषनिहाशावको तापावोषके प्रति कारण मानना आवश्यक होने है शश्व को स्वतन्त्र प्रमाण समा जाम को विपक्षण प्रमा मानना आवश्यक है।-किन्तु यह चाकु उचित नहीं है, क्योंकि 'घनाकामाविमापदम्मारित हैन से 'कमेवादिकं घटा विमत इस आकार का कर्मस्व प्राधि में निरूपितर सम्बन्ध से घटावितकारक अनुमिति का पो जन्म हो सकता है, अतः पाविज्ञान को अनुमिति से विलक्षण प्रमा और शाम को अमुमान भिन्न प्रमाण मानसे की आवश्यकता नहीं है। (अनुमान से मारवषत नियत बोध को अनुपपत्ति) इस परिहार के विरुद्ध शम्बप्रमाणवादियों का कहना है कि शम्न श्रवण के अनन्तर शव से अपस्थापित अर्थ काही बोथ होता है, उप्स मोथ में वापसे अनुपस्थापित अर्थ का भान नहीं होता, किन्तु उस गेधको परि अनुमितिरूप माना जायगा तो उस में पशमशविषयोमूत समानुपस्थित मर्थ का मो भान होने लगेगा, अत: शा से नियतयोष की हो उपपत्ति के लिये उसे अनुमान के भित्र प्रमाण मानना आवश्यक है।-भस्य अनुमिति में नहीं किन्तु शाग्दशानात्मक अनुमिति में प्युत्पत्ति पदनिष्ठतासमान से जय पदार्थ की उपस्थिति-को कारण मानने से यह दोष नहीं होगा'-यह कपात ठीक नहीं है क्योंकि पुस्पति के स्वरूप में पशिष्ठ शानशानकारणता प्रविध रहती है। अतः शास्वशान में व्युत्पत्ति को प्रयोजक तभी मामा प्रा सकता है नापमानरूप विलक्षण प्रमा के प्रति शव को विलक्षण प्रमाण के रूप में कारण मामा जाप । साधाय यह है कि 'अमुक पर अमुक अप के शावयाय का बनकहो, या अमुक अर्थ अनुरूपवजय शारदोध का विषय हो' इस प्रकार के संकेत का नाम या उस से होने वाली पायपस्थिति हो व्युत्पत्ति है। इसलिये जब उसे शायज्ञान का प्रयोजक माना जाएगा तब शाग्यशान को नुमिति भागने का अवारही मही उपस्थित हो सकता क्यो कि शाम्दज्ञान को विलक्षण प्रमा मानने पर हो सयुत्पत्ति बन सकती है। (अनुमितिपक्ष में शाम्बयोधानुक्य की प्रापत्ति) पावशाम को मनुमिति मानने में एक और भी बाधा है, वह यह कि प्रत्यक्ष प्रावि प्रमाणे हे पवायो मियसंसर्ग का निश्चय स्वरूपमित रहने पर भी पाक में रख पसंमर्गनाम की उत्पति होता है, उसके लिये पदाथसंसग वामशान की अपेक्षित नहीं होती, किन्तु परि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा वा० समुच्चय मत २-इलो०० ___एवं पदजन्यविशिष्टवैशिष्ट्यवोधे पदजन्यविमोषणतावच्छेदकप्रकारकशानहेतुत्वादिनापि ससिद्धिः । अपि च 'घटात् पृश्यम्' इत्यन्वये शाब्दसमानाकारानुमिति घंटा, पृथक्त्वपक्षकानुमितों ततोऽभानापतेः, तदनः पक्षात्वे च तत्रैव पञ्चम्यर्थभानापनेः । घस्तुतः 'नानुमिनोमि किन्तु शाद पामि' इनि विपयनाविशेषसिया शाब्दस्यानिरकः । न च शाम्दानुमितिसामग्रीसमाहारे . . शाम्बान को भमुभिप्ति माना जायगा सो अनुमति के प्रति अनुमितामानिरहविशिष्ट सिक्षपभावरूप पक्षसा के कारण होने से जपत निमम एवं शामजानकी का अभाव हम वोनों के पहने पर पक्षसान होने के कारण भाग्यवान की उत्पत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि"अमितीमावि विशिष्टसिपमाघ को पक्षता नहीं मामा जा सकता, क्योंकि एक सिका परामक श्री सिसि के रहने पर पलिङ्गक अभुमिति की या होने पर अनुमितीकमाविषहविशिष्टसिद्धपभाव रहने पर भी अनुमिति नहीं होती, अत: तहिलङ्गकतापक्षकतत्साध्या अनुमिति के प्रति तल्लिक गकतस्पक्षक-सस्साध्य कानुमितीच्याविरहविनिष्ट पत्पक्षमिक-तस्साध्यप्रकारकसिंघमान को ही पक्षताविषया कारण मानना मावश्यक है, तो इस प्रकार लिपमेव से पक्षता का मेव होने से आकाक्षाविमस्पयस्मारितत्व हेतु से होने वाली पदार्थसंसर्गानुमिति के प्रति पक्षताको कारण म मानने से वात रोष को प्रसविस महीं हो सकती-तो यह तक नहीं है, क्योंकि यह स्तुस्थिति है कि अम्वित का अन्यबोध नहीं झोता अर्थात माग्दोष को पाग महीं होती किन्तु अनुमितिपक्ष में प्रथम अन्वयबोध के उत्पादक कारणों के विद्यमान रहमे पर उन्हीं कारणों से दूसरे सीसरे भावयमोध को या हती. अत: उसके वारणायें शाबशान को क्षमितिकप मानने वालोंको तल्लिगक भमिति में तल्जिसगफ अनुमिति के अभावको कारण माममा होगा और शासन को विलक्षण प्रमा मानने वालों को घट आधिपों से होनेवाले वामपनाम क प्रति उसो HERBान को प्रतिबन्धक मामना होगा, जिस में प्रपेिक्षया लाया है, इसलिये शारशाम को धनुमिति से भिन्न माना हो उचित । ___पवजन्य विशिष्ट शिक्षविषयक कोष में पवनयविशेषणतावच्छेवाप्रकारकशान कारण होता है। इस कार्यकारणभाव से भी अनुमिति सं भिन्न शायनान को सिजि अमिताये है, क्योंकि परजन्य बोध पचि अनुमितिहप होगा तो उसके मम्म में परजन्य विशेषणताबनवकप्रकारक शाम को अपेक्षा न होगी। ('घटात् पृथक् अनुमिति की पुर्घटता) शाबोध को समिनि मानने में एक और भी संकट है. यह यह कि 'पटात गृषक एस वाक्य #शाहवयोधावीके मत में 'घटावधिक पृषवावधाम' काबोधहोता जो शायदोष को अनसिसि मानने पर न हो सकेगा, क्योंकि अनुमिति में पृममत्वको पक्ष मामले पर पृपक्षाव के आश्रम का भाम नहीं होगा, ओर पृथक्त्व के आश्रय को पक मामले पर "घटातास पल्ययात शाम के अर्थ घटावधिकस्य का घुयवस्व में भान न हो कर पृथक्रपके आश्रय में सप्स के भान ही भापास होगी। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० १० टीका-हिन्दी विषन ] युगपहुभयोत्पत्तियारणायसामग्रश्रा अपरत्र प्रतिभन्धत्वकल्पने गौरवम् , चहन्यादेशाब्दानुमितेः अपरस्य शाम्दानुमितेरचैकदोत्पत्तिवारणाय तथापि शान्दानुमितेः शादतरानुमितिप्रतिबन्धकत्वकल्पनाबश्यकत्वात् , इत्यन्यत्र विस्तारः ॥७॥ निगमयमाह मूलम्-तस्माद यथादितासम्गागमालयात प्रमाणतः । हिंसादिभ्योऽशुभाानि नियमोऽपं व्यवस्थिमः ||८|| तस्माद्-उक्तोपपत्ते, गधाविमात्-पृथक् प्रमाणत्वेन व्यवस्थापितात , सम्यगागमाख्यात-आमोक्तशब्दाभिधानात् प्रमाणता, हिंसादिभ्या-हिंसाऽइिंसादिभ्यः, पशभापोनि-पायपुग्यानि, बहुवचनाद् दुःखमुखादिसंग्रहः, अयं नियमा=नियतहेतुहेतुमझाया, व्यवस्थित सिद्भः॥८॥ ('शाश्वयामि' अनुव्यवसाय से शल्यस्वतन्त्रप्रमाण की सिद्धि) वास्तविक बात तो यह है कि सभ्य बोध का अनुभव अनुमितिस्वरूप से न होकर सामरवहाराही होता । पाक पर श नानुमिनोमि किन्तु माश्यपामि-मुझे शम्द से पर्थ कि अनुमति नहीं है किन्तु शास्ता है इस प्रकार का मुध्यवसाय होता है, इस अनुम्यवसाय से अनुमिति विषपता से शाम्यमान को विलमग विषयता सिद्ध होने से भासमान में अनुमितिभिन्नता की सिद्धि अनिवार्य है। (उभयपक्ष में गौरव तुल्यता) 'शाबोध को अनुमिति से भिन्न मानने पर किसी एक विषम के शासबोध और उसी विषय की अनुमिति को मानबियों का एक काल में सविधान होने पर एक हो समय उस विषय के नाम्दयोष और अनुमति की उत्पसिका वारण करने के लिए एक की सामग्री को अग्य के प्रति प्रतिवरषक मानने से गौरव हागास प्रकार बायपोध के अनुमितिभिन्नता पक्ष में गौरव सोष का बापावन उचित नहीं हो सकता, क्योंकि शायदोष के अनुमितिरूपता पक्ष में भी इस प्रकार का दोष अनिवार्य है. बंस बलि की मशालय अनुमिति और अन्य वस्तुको बारूद अनुमिति की सामग्रियों का एक काल में सन्निधान होने पर दोनों अमितियों की एक साथ उत्पत्ति न होकर पहले पाय अनुमिति की ही उत्पत्ति होती है, अत: अशाच्य अनुमिति के प्रति हाम्च अनुमिनिकी सामग्रीको प्रतिबन्धक मानना भावाषक हो जायगा। इस विषप का विस्तृत विचार अन्यत्र किया गया है । (हिसादि से पाप और अहिंसापि से पुण्य'-नियम को सिवि) साठवीं कारिका में पूर्वोक्त विचार का उपसंहार करते हमे यह कहा गया है कि उम्तयुक्तिमों से यह सिद्ध है कि शव एक स्वतन्त्र प्रमाण है और अनागम भाप्सोक्त शब्द होने से असन्दिग्ध प्रमाण ह । इस प्रमाण से हिंसा आधि का पाप आदि के साथ यह नियत हेतु तुमाद्भाव सिद्ध हक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [साम्त्रवातोनमुरूपय स्त०२-खो० ९.१० बिलहिंसाधनुष्टानान प्राप्ति: क्लिष्टस्य फर्मणः । यथाऽपश्यभुजी व्याक्लिष्टस्य विषयपान ॥९॥ एतदेव भावयन्नाह-क्लिष्टात गोशमा ज्यान हिंसाधनुष्टानान् क्लिष्टम्यशानाधरणादिप्रकृतिस्थ, कोण मानिर्भवति, यथा अपथ्यभुजः निरुद्धमोजिनी व्याधे-रोगस्य प्राप्तिः । तथा विपर्ययात-अक्लिष्याहिमाद्यनुष्ठानात् अक्लिष्टस्य मानवेदनीयादिशुभप्रकृतिकस्य कर्मणः, प्रामिभयप्ति, यशापयमोजिमो व्याधिविगमान सुखस्य प्रामिति ॥९॥ अागमा नियममुक्त्वा स्वभावाइ त व्यवस्थायितमाहमलम- स्वभाव एष जीपस्य गाथा परिणामभाक । बध्यते पुण्यपापाभ्यां माध्यस्थ्याग्नु विमुच्यते ॥१॥ एप जीवस्य-चैतमस्य स्वभावो य तथापरिणाममाफ ,हिमादिपरिणतः पुण्यपापाभ्यां वश्यते, माध्यस्थ्यात्तुब राम्यानु विमुच्यतेशीणकर्मा भवति । इत्थं चैतदयगमगीकतव्यम् , अन्यथा 'दण्डादरेय घटजनकत्वं, न बेमादेः' इति कृतः । इति प्रश्न किमुत्तरमभिघानीयमायुष्मता न १ प्रश्नस्य वानुपपत्तिः, 'पर्वते वक्षः कृतः । इत्यनेध वापर हेतु जिज्ञासपा नदपपत्तः । न चैवे स्वभावेऽपि वरनापनिः, तत्र व्यापातन शङ्काया एवानुदयादिति ॥१०॥ हिसा आमि निषिद्ध कम पाप . और उसके प्रारा दुःख पावि के कारण हैं. एवं अहिंसा आदि विहित कम पप्य के और उसके द्वारा सुख आदि के कारण हैं। ___खों कारिका में उक्त विषम कोही उदाहरण पारा स्पष्ट किया गया है। कारिका का अचं इस प्रकार है सिष्ट भाचरण पानी संशा पूर्ण हिसा आदि कार्यो के मरने से बिलाष्टकर्म अर्थात नानाविका नावरण करने वाले कम की रामबहोती है, यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार विश्व भोमन करनेवाले रोगी को रोग की प्राप्ति हती है। इसी प्रकार अविलय-किलविपरीत प्रापरण से पानी सवलशाहीन हिसा आदि कार्यो के करने सातवेदोय सुषोत्पावक मा. शुभपरिणामी म की प्राप्ति होती ही यह भी ठीक उसी प्रकार से पम्य मोजो मनुष्य को रोग की निवृति होम से सुन की प्राप्ति होती है | (बन्ध और मोक्ष का कारण जौवस्वभाव है) ___ हिंसा बाधिका पाप आदि के साथ एवं अहसा आदि का पुण्य भाविक माय हेतु हेतुमानाब का नियामक आगम हबहकाने कमा सभा भी उसका नियामक पह बात दसबी कारिका में बतायी गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fथा का टीका-हवी विवेचन ] उक्त मेघागी कार यतिमूलम्-सुदूरमपि गत्वेह विहितामुपपलिपु । का स्वभावागमावन्ने शरणं न प्रतिपयी ? ||११|| ह-शास्त्रे, सरमपि गत्या-बहन्यपि प्रमाणानि परिगृम, उपनिषु मुश्मयुक्तिधु, पिहितासु-प्रकटीकृतामु, को वादी. अन्ते-बाधकतकोपस्थिनी, म्वभावागमो शरणं न प्रनिपग्रते ? स्वपक्षमाधनार्थ बलवश्वेन नाङ्गीकुरुते । मर्व एय तथा प्रतिपद्यत इत्यर्थः । पौटेनाऽहेनुकस्य कार्यस्य स्वभावेन कादाचिकत्वसमर्थनात , मीमांसकेन च यागीयहिंसायामधर्मजनकन्वाभाये 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादिवेदवाक्यस्यैव प्रमाणपेनाऽऽअयणादिति ॥१॥ - -. घेसन प्राणी का यह स्वभाव ही है कि वह हिसा आदि के कर्ता रूप में परिणत होकर पुण्यपाप के बन्धन को प्राप्त करसाई और मापत्य अर्थात् हिसा आविस विरत होकर उस मधम से यवतप्रोता. अपने पूर्व प्राप्त कर्मों का क्षय करता एस स्वभाववाव का अबगीकार परमाएक.अन्यथा वादि घटक उत्पादक होते हैं. वेमा आदि परशारण घर का उत्पावन क्यों नही करतेस प्रदन का कोई इश्चित उतरन बियाबामगा। यहां यह माना कि "अमक कारण ही अमककार्यका नमक होता इमरा क्यों नहीं होता? प. प्रश्न ही नहीं हो सकता पयों कि जिस कार्य का जो कारण होता है उसी से उस का जाम होना लोकनित होक नहीं, क्योंकि जसे 'पर्वत में वह किस हेतु में शेयह? इस प्रकार सापक हेतु की मिशासा होती है. बसे हो 'बण्ड आदि में ही घटको कारमता क्यों है?' इस प्रकार सापक हेतुको मिशासा होने में कोई बाधा नहीं है। सापक शेतु को उक्त शिक्षासा क समान, यमन के भी हापक की जिज्ञासा होने से स्वभाव-करूपमा में HARAT होगी यह शहका मही की जा सकती क्योंकि रबमा को आंकाका विषय नहीं बनाया जा सकता, कारण कि उस काम्का का विषय बनाने की पेश करने पर शंका कारणों भी मान्का का विषय हो जान से भरका का जन्म ही बंद हो जायगा ॥१०॥ (स्वभाव और प्रागम अंतिम पारण्य है) इस कारिका में पूर्वकारिका में उबत स्वभाववास और आगममा को अशोकार करने को विवशता बतायो पपी कारिहा का अर्थ इस प्रकार है शास्त्र में कोसो पक्ष का समर्ष करन के लिए भनक प्रमाण पुरा मयुक्तियों का प्रशांत करन पर अब उनके वाषक उपस्थित होते हैं तब किस बावों को स्वभाव और आगम का सहारानीलेना पाता? अर्थात समस्तवादियों को अपने पक्षका मन करन स्वभाव और भागमोहोबलबान प्रमाण के रूप में प्रहण करता पाता।बौनकायको अशेतक मानते ये भी काबाचिक-कासपियोद में ही होने वाला, सालान्तर में होने वाला मानते हैं। काम के सहेतुकस्व पक्ष में तो हेतु के काबाचिरक होने से कार्य का काराणिक होना युक्तिसंगत है, पर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ परः पर्यनुयुङ्क्ते - [ शास्त्रवातसमुच्चय-०२ श्लोक १२ मूलम् - प्रतिपक्षस्वभावेन प्रतिपक्षागमेन बाधितत्वात्कथं तो शरणं युक्तवादिनाम् ? ||१२|| = · प्रतिपक्षस्वमावेन उक्त विपरीत स्वभावेन प्रतिपक्षागमेन उक्तविपरीतागमेन च यातित्वान् हि निश्चितम् एतौ उक्तस्वभावागमों, युक्तिवादिनाम् = युक्तिप्रधानवादिनाम्, न तु श्रद्धामाश्रवताम् कथं शरणम् कथमर्थमिद्धिम १ न कथंचिदित्यर्थः ॥ १२॥ , , + t कार्य के अहेतुक पक्ष में कार्य की उत्पत्ति में किसी हेतु की अपेक्षा न होने से उस का सार्वविक होना ही युतिसंगत प्रतीत होता है कहाकि ना तो थर सम्भव नहीं है किन्तु बोस ही है कि वह का ही हो, उपारकर साविक न हो। इसी प्रकार 'याग में होनेवाली हिंसा पापजनक नहीं होती। इस पक्ष का समर्थन करने के लिये मीमांसकों को भी कोई दूसरा प्रमाण नहीं मिलता, विवश होकर उन्हें यही कहना पता है कि "ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकाम यजेत स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को क्याष्टिोम पाग करना चाहिये। इस आशा का देववाक्य ही इस बात में प्रमाण है कि हिंसायुक्त भी याग से पाप का उदय न होकर स्वद पुष्प का ही उदय होता है ॥११॥ [ प्रतिपक्ष के होने पर स्वभाव - आगम भरण्य कैसे ? ] १२ श्री कारिका में स्वभाव और आगम की प्रमाणता के विरुद्ध प्रतिवादी का प्रश्न प्रस्तुत किया गया है, जो इस प्रकार है एक वाटी किसी एक स्वाभिमत पक्ष का समर्थन करने के लिये जिस स्वभाव में शासन का सहारा लेता है, मध्यवायी उस पक्ष के विरोधी पक्ष के समर्थन के लिये उक्त स्वभाव और उक्त आगम से विपरीत स्वभाव और विपरीत आगम को भी प्रस्तुत कर सकता है। मंसे चाक आदि नास्तिक कि यह कह सकते हैं कि किसी धनपतिको हिंसा से लोकसुखसम्यानक प्रर पत्र को प्राप्ति हो सकती है, असः सवयं अन्य प्रयास अनपेक्षित है, हिंसा का यह स्वभाव ही है या समझवार पूर्वपुदवों का यही कथन है कि हिंसा से सुख हो राप्त होता है, किसी प्रकार का अहित नहीं होता ।" तो इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा विरुद्ध स्वभाव और विरुद्ध आराम प्रस्तुत करने पर बादी द्वारा प्रस्तुत किये गये स्वभाव और आगम से उसके अभिमत पक्ष की सिद्धि किस प्रकार हो सकेगी ? जो बारी अामा को महत्व न दे कर युक्ति को ही प्रधानता प्रधान करते हैं। स्वभाव और आगम से उसे सष्ट किया जा सकता है, नियुक्ति के बिना किसी भी पक्ष को उनके गले के कसे उतारा जा सकता है ? स्पष्ट है कि स्वभाव और आगम के बल पर युक्तिवादियों के समक्ष किसी पक्ष का समर्थन कपमपि नहीं किया जा सकता ॥ २ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिनी विवेचन ] मूखम-प्रतीत्या बाध्यते यो यत्स्वभावो न स युज्यने । वस्तुनः कल्प्यमानोऽपि वह यादेः शीततादिवत् ॥१३॥ ममाधत्ते-गद = यस्मान् कारणात् । यः बभावः प्रतीत्या = प्रमाणेन, चाप्यते स कस्थ्यमानोऽपि तस्वमावस्येन बन्यादेः शीततादिया जात्याऽऽपायमानोऽपि वानः सबमावो न युज्यतेन सतर्कविषयो भवति । तथा म 'बहन्यादेयदि उष्णत्वादिस्वभावः स्पात् , शीतवाद्यपि स्याद् इतिवत् 'हिमादेगंधधर्मजनकत्वादिस्वभावः स्याद् , धर्मजनकस्वापि स्याद्' इति न बाधमिति भावः ॥१३ । । मूलम्-बहने शीनाम्पमस्येय, तत्कार्य किं न दृश्यते । दृग हि हिमासन्ने, कामिनी स्वभाषतः ॥१४॥ पर आर-बहनः शीतत्वमस्त्येव - स्वाभाविकमेव मृगष्णिकादिवद । नत्राइ-यदि प्रमादुपलभ्यमानमपि शीतत्वं वशिस्वभावः, तदा तरफार्य = तत्सोन गेमाश्वाविर्भावादि, किं न दृश्यते ? | पर आइ-हिनिश्चितम् । हिमासन्ने वही, शीतकार्य रोमाचादि दृश्यते, तत्राचार्य आह-इत्थं कथम् । हिमामान एय बहिः शीतकार्य जनयति, मान्यदा' इनि कथम् ।। पर आइ-स्वभावतः, यथा दण्डादेश्यकादिसंयुक्तस्यैव कार्यजनकत्वस्वभावः, तथा यह नहिमामन्त्रम्यव गेमानजनकत्वस्यभाय इत्यर्थः ॥१५॥ [ प्रमाण से बाधित हो वह स्वभाव कल्पनायोग्य नहीं ] १३ वो कारिका में पूर्व कारिका में उठाये गये प्रश्न का समाधान किया पया है, जो इस प्रकार है को म्यभाव लिप्त अस्तु में प्रमाण से बाधित होता हो वह उस वस्तु का स्वभाव नहीं माना जा सकता, जैसे यदि यह सामान किया जाप कि विस प्रकार जण स्पर्श अग्नि का समाव है उसी प्रकार पनि स्पा को मी अग्नि का स्वभाव होना पाहिले, क्यों कि उष्ण और शरत बोनों हो पशजातीय है. और इस में कोई तर्क नहीं है कि जिस प्राति का एक पदार्थ किसी वस्तु का स्वभाव हो उसो जाति का दूसरा पचास का स्वमापन हो तो इस आपाबकतर्फ पीतस्पर्श अग्नि का स्वभाव नहीं बन सकता, क्योंकि अतिशीत स्पेशे प्रत्यक्ष-प्रमाण से बाधित। ठीक उसी प्रकार यविया मापारन किया नाय कि प्रभमननकस्व यदि हिसा का स्वभाव है तो धर्मजनकत्व को भी हिता का स्वमाव होना चाहिये, क्यों कि अपमं और धर्म मोनों हो भदष्ट है, अतः इस में कोई तर्क नहीं है कि रिसा में अधर्मरूपमा बनश्वस्वभावही और धर्मरुप दसरे सष्ट का कृष्ट का जनकक्ष स्वभाव महो.-तो इस आपावकत से मीधर्मजनका हिसाका स्वभाव नहीं बन सकता, क्योंकि महापाचमान स्वभाव आगमप्रमाण से बाधित है। निटक मह है कि जैसे प्रस्पक्ष बाधित होने से शीसस्पर्श अग्नि का स्वभाव नहीं होता उसी प्रकार मागम बाधित होने से धर्मजनकस्य हिंसा का स्वभाव नहीं हो सकता | १३| Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा मा समुच्चय-०२-मो० १५ एतदेव दृष्टान्तेन दृढयतिमृलम्-हिमभ्यापि स्वभावोऽयं नियमाद यहि सन्निधौ । करोति वाहमित्येवं घहन्यादे. शीतता न किम् ? ।।१५।। हिमस्याप्ययं स्वभावो या नियमात अवश्यं, चहिसाधौ पहिलममीप एप, दाई करोति, सामीप्य एवायम्कान्तयन् नागदमनीयत कार्यकारित्वाद् , इनि हेतो, एवं हिमस्थ दाइजनकत्यवत् , बहन्यादेः शीतता न कि पकिं न स्वभावः ॥१५॥ [परिन शोत है-पूर्षपक्ष ] १४ पो कारिका में पूर्व कारिका में किये गये समाधान का वावी द्वारा प्रतिवाद किया गया है, जो इस प्रकार है समो कभी अग्मि में भी शीता को अति होती है अत: जसे मृगतृरिणका में जल की वृद्धि होने से बुद्धिकाल में जल का अस्तिवमहतों को मान्य है, बसे हो अगन में शीतस्पर्क को बुद्धि होने से अग्नि में भी उसका अस्तिस्व माम्म है. इस प्रकार शीतस्व अनि का स्वाभारिक झोपर्म है। यह प्रश्न उठामा कि.ग्नि में शोहरम का उपसम्म मममूलक है, और यदि भ्रम से अपलभ्य माम बस्तु का मो अस्तित्व माना जायगा तो बाग्नि के सम्पके से' शोतपर्श को अमुभूति रोमाका नाम आधि काप भी होना चाहिये-अवसरोचित नहीं है क्योंकि हिम के समिधान में अग्मि के सम्पर्क से ज्ञातानुभव और रोमान अदम आदि कार्य का होना समान्य है। यह प्रश्न भी उठाना कि यसि गीतस्य अग्नि का स्थाभाविक धर्म है तो हिम के सन्निधाम में ही अग्निसम्पर्कले उक्त कार्य क्यों होते है. हिम के अमनिधान में भी गयों नहीं होते ? उचित नहीं है, क्योंकि ये बातें के स्वभाव पर निर्भर होती है अत: जैसे चावि से संयुक्त व आदि काही घरगनकर स्वभाव होता है, केवल पप आदिका महाँ होता बसे हिमसग्निहित अग्नि का हो शीतकार्यजनकत्वस्वभाव है बस तिन का नहीं। इस समाव के कारण ही केवल अग्नि से शोत का माय न होकर हिमालय अनि मे हो होता है |॥१४॥ (हिम के दृष्टान्त से अग्नि में शेस्म का समर्थन ) पूर्व कारिका में कही गयो बात को हो १५ वी कारिका में हटान्त द्वारा पुष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मैसे अपकारतमणि समीपस्म ही लौह का पाकरण करता है और मागबमनो समीपस्थ हो नाग का दमन करती है. उसी प्रकार अनि के समीप में होहीम साह का अाक होता है, अग्नि से पूर रत् कर वाह का जनक नहीं होता, तो फिर आंगन के समीप में ही बाह का जनक होने पर भी जसे वाहजनक हिम का स्वभाव से ही हम मनिषाम में हो शीतकाय का मनन करने वाले अग्निका पॉस्म समाव क्यों नहीं हो सकता ? उस में विधायका क्या अबसर है || Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० ० टीका-हिन्दी विदेवन ] अनोत्तरमाह मूलम् व्यवस्थाभावको ह्येवं या स्वबुजिरिशी । कार्यं नत् स्वतस्तत्स्वभावतः ॥ १६॥ सालोटा = " r एवम् उक्तरीत्या व्यवस्थाभावनः सुम्पहूनियामकाभावात हि निश्चितम् या इह विचारे, ईणी स्वभावान्यथात्वकरूपनात्मिका, स्वद्वृद्धिः सा लोटात पाषाणाव समीपस्थेत स्ववर्यक्रमात् तथा अस्य लोष्टम्य यत्कार्यम्, अभिघातादिकम्, तत्त्वतः सकाशात् लोष्टसमीपस्थस्य तब तत्स्वभावतः = लोटस्वभावात् ॥ १६॥ = ► 1 + ततः किम् ? इत्याह- मूलम्-एवं सुबुद्विशुन्यन्यं भवतोऽपि प्रसज्यते । [ १ अस्तु चेत् को विधादो नो वुशून्येन सर्वधा ॥१७॥ = ! एवं लोम्वभावस्ये, भवनलोष्टवत् सुबुद्धिशून्यत्वं = मध्यम्बुद्धिरहित, ज्याह-अस्तु न्यायानुगतं तत्स्वभावन्यमिति चेत तदा सर्वथा त्रिशून्न भवता सह नः अस्मार्क, को fears: 2 एवं चाster नियतपूर्ववर्तिनो हिंसादेरेव रोमाञ्चादिकार्यसम्भवे नमःतस्य लग्न्यथासिद्धत्वात् न तज्जनकत्वं न वा तदनुरोधेन शीतस्वभावत्वमिति प्रकृतेऽप्यर्थं व्यवस्था मावनीया | 1 अथैवं कारणत्वस्य स्वाभाविकत्वे नीलादियत् साधारण्यं स्यादिति चेत् स्यादेव सस्तन प्रतीयमानत्वरूपम् अन्यग्रहानधीनग्रहविषयत्वरूपमपि तद् हेतु शक्तायस्येव, , P [ अग्नि शोत होने पर प्रतिप्रसङ्ग- उत्तरपक्ष ] 'शय अधिन का स्वभाव है' इस कथन का उत्तर देने के लिये १६ वो कारिका की रचना हुयी है। अर्थ इस प्रकार है: जिस प्रकार समीचीन नियामक के अभाव में भी अति के सामीप्य मात्र से हिम में वाकव स्वभाव और हम के सामीप्यमा से अग्नि में हस्यस्वभाव को कल्पना आप करते हैं, उसी प्रकार यह कल्पना निरूप से पाचाण को भी होनी चाहिये, क्योंकि सामीप्यमात्र से ही यदि एक बस्तु का स्वभाव दूसरी वस्तु में संक्रान्त होगा तो आप के समीपस्थ पाषाण में आप को वृद्धि का भी सक्रमण आवश्यक है। इसी प्रकार पाषाण से होने वाले अभिघात आणि कार्य आप से भी होने चाहिये, क्योंकि पाषाण के सनिधान में उस के स्वभाव का संक्रमण आप में भी होना अनिवार्य है ||१६|| ३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] [ शा या समुच्चय-स्त २-पो०१७ --- कायमस्वभाव वन्यटिमत्यादेव नास्ति । न च पगपेक्षवादलीत्यापतिः, तथा नियमाऽभावात् , अभ्यधि-महि च भाषारहस्पे-॥ श्लिो०-३०] ने होमि परायेक्षा पंजपमुहसिगा ति ण य तुम्छा । घिमिणं पचिसं सगनकरपूरगंधाणं ॥ इति, अधिक ताण दिवसेएन । - ( स्वभाव के अन्योन्य संक्रम को प्रापत्ति) वो कारिका में पूर्व कारिका में उद्भावित प्रथ का निकष सताते हुये किसी वस्तु के अस्थाभाविक हो उस का स्वभाव बसाने का निराकरण किया गया है। कारिकाका अये इस प्रकार है, भाप में पाषाणस्वभाव का पंचामण होने पर आप अचम्म हो जायेंगे और पाषाण में अन्य के स्वभावका संक्रमण होने पर पाषाण बुद्धिमान हो जायगा-यक्तिगत होने से पहबार यदि RIARI जाम्रगी तो जिशून्य व्यक्ति से हमारा विवाद हो पा रह जायगा ? अति उस स्थिति में आप मे कोई विवाद करना सम्भव ही न होगा । MA: अन्ततो गत्वा यही कहना होगा कि जब रोमात्रोद्रम आमिपातकाय की उपपत्ति के लिये हिम का सन्निधान अनिवार्य है तो अवश्यसानियतपूवती शोमें से ही उस कार्य का जनक है और अग्नि अवश्याप्त नियतबासी से निहाने के कारण वन काम के प्रति अन्ययासित होने से उक्त कार्य का जनक नहीं। अत: जातकार्यजनके आधार पर जस में रिपस्वभाव को कल्पना नहीं हो पकली । यहाँ दृष्टि प्रकृत विषय हिंसा atia के अधमाकमनकरभाव और अहिंसा आदि के धाविजमकत्यस्वभाव के विषय में भी उपादेय है। (सकार्यसाधारण फारए.ता की प्रापत्ति का निवारण) जमतोट अपनाने पर यह कं उठ सकता है कि- कार स्व यदि स्वाभारिक होगा, नसे. साधारण होना चाहिये अर्थात जो वस्तु किसी एक कार्य का कारण है जमे सम वस्तु का कारण होना चाहिये पोंकि मिस सातु का जो स्वमाय होता है वह किमी के प्रति उत्त का स्वभाव हो और कली के प्रति बस का स्वभाव न हो ऐसा नहीं होता किन्तु यह सभी के प्रति इस का स्वभाव होता है। जसे कोई वस्तु यदि नौलस्वभाव है तो वह पृष्ठ लोगों के प्रति नोल और कुछ लोगों के प्रति अनीत न होकर सम के प्रति नी ही होती है उसी प्रकार यो वस्तु कार मस्वभाव होगी ससे किसो एक हो कार्य का कारण होकर मक कार्यों का कारण होना कायसंगत है- किन्तु यह तक उचित नहीं है. क्योंकि कारणस्य नौलाव के समान किसी बात का निरपेक्ष मावन होकर कापसापेक्षस्वभाव है अर्थात् समायत. कारण किसी वस्तु का स्वभाव नहीं होता अपि तु ततःकायकारणत्व वस्तु का स्वभाव होता है, और बह सवसाधारण होता ही है, क्योंकि जो वस्तु किसी एक मनुष्य की होम से FRस कायको कारण होती है वह सभी को दृष्टि से उस कार्य को कारण होता है। आहाय यह है कि कारणष में जिस साधारण्य का आपाम वाचो को करना उसका वो प्रकार हो सकता है। सब ममुगयों द्वारा कारण कशायमाहोमामा कारमरपेन शायमानचं] १-ते मम्ति परापेथा व्याकमुखवशिन इति न च तुम्का । समिदषिऽयं शरायस्गिन्धयोः ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का दीका-हिन्दी विवेचन ] [" एवं प्रतिपक्षम्यभात्रो निराकृतः, ततः प्रतिपक्षागमनिराकरणे प्राप्तेऽप्यागमशरणार्थ प्रसङ्गादू वान्निामुत्थापयनिमलम-अन्यस्वाहेक सिऽपि हिंसादिभ्योऽशुभाषिके। शुभायरेष सीरूपादि केन मानेन गम्यते ! ॥ १८ ॥ अत्रापि प्रपने केचित् सर्वथा युक्तिवादिनः। प्रतीनिगर्भया युकन्या किल्लतदवसीयते ॥ १९॥ अन्यस्तु बादी आह, न्याय लोके च, हिंसादिम्प एवाशुभादिक सिद्धेऽपि, शुभा. दरेच-पुण्यस्मादरेन मास्यादि भवति न पापादः, इति केन मानन गम्यते ।।१८।। और अन्य ज्ञान की अपेक्षा न करने वाले मान का विषम होना (पन्यज्ञानाममोनमानवियर, किन्तु इन दामों ही का आपाधान नहीं हो RAI, क्योंकि ये दोनों प्रकार का साधारण कारणव में विद्यमान है, जसे, जिस वस्तुको एक मनुष्य जित कार्यका कारण समझता है. सभी मनुष्य उस वस्तु को उस कार्य का कारण मानते है, एवं किसी वस्तु को किसी कार्य के कारणरूम में जानने के लिये किसी अन्यज्ञान को अपेक्षा नहीं होती। (कारणता कार्यसापेक्ष होती है) पूरे प्रश्न का अभिप्राय यह है कि 'कारणव' कायनिरपेक्ष न होकर कार्यसापेक्ष होता है, किन्तु . काय विशेष के बिना भी यदि सामान्य कारणत्व का निवधन किसी प्रकार हो सके तो उस में भी उक्त घोमों प्रकार का साधार०५ विद्यमान है. हो, सरकार्यकारणव के मन में तस्कार्यज्ञान की अपेक्षा होने से उस में वूमरे साधारणपकी उपपत्ति में बाधा आपाततः अवश्य प्रोत होती है, परन्तु विचार करने पर वह बाधा भी नहीं हो सकती मोंकि काय ताकार्यकारणत्व का स्यज्ञक है. और पलक में घटित वस्तु के विषय में दूमरे प्रकार का साधारण्य सामान्यतः अन्यपहानषीमग्रहविषयमरूप, होकर व्ययकान्यानाहानबीनमानविषयस्वरूप होता है, और यह ध्यासापेक्ष वस्तु में अक्षण होता है। शंका-कारणत्व पदि परापेक्ष होगा तो अलोक-अवास्तविक हो जाएगा. स्पोकि की परापेक्ष होता है वह असोक होता है। अत: से स्फटिकान में प्रतीत होनेवाली रक्तता कपामुपके सन्निधाम को सापेक्ष होने से अलोक होती है, उसी प्रकार कायंसापेक्ष होने से कारणव मो भलोक हो जायमा"यह का उचित नही कही जा सकती, क्योंकि 'यो परापेक्ष होता है बसलीक होता है. यह नियम मही है. यह तथ्य व्याख्याकारने 'भावारणम्म' नामक ग्रन्थ में से होम्सि'इस गाथा वारा अभिहित किया है। गापा का अयं इस प्रकार है-परापेक्ष वस्तु में मजाक सापेज होती है. अलोक नहीं होती, प्रामाणिक वस्तुभों में मह वैचित्र्य रेखा जाता है जिसम में कोई बस्तु किप्तो पाक की अपेक्षा किये बिमा हो अभियरत होती है जैसे कपूर का गम्य, मोर कोई वस्तु ग्यश्क में समिधाम में ही अभिव्यक्त होती है जैसे धाराव=मिट्टो के पके नये वर्तन-फा पन्ध । इस विषय की अधिक जागनारी उपतगाषा के विवरण से प्राप्तव्य है ।।१७॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा०पा० समुदय००२० अत्र केचित्समाधानबार्तामाह-अत्रापि उक्त पूर्वपक्षेऽपि केचित सर्वशक्ति घादिनः आगमनिरपेचयुक्तिप्रणयिनः बते । किं व इल्वाह- मसीतिगर्भया-अनु भसकना, शुक्रस्याण, 'किल' इति सन्ये, एतत् प्राक् पर्यनुयुक्तम् अमसी प= निश्रयते ||१९|| मलम् - तयार्नाशुभात सोयं तङ्गतः । हवः पापकर्माणो विरलाः शुभकारिणः ।। २० ।। तन्यतमेवाह - ते वादिन आयेद अशुभान पापकर्मणः श्रयं न भवति । कः ? इत्याह-तापसनः = मुखभृगस्यप्रसङ्गात् इदमपि कुतः इत्याह- - पापकर्माणः - हिंसादिकारिणो बहवो व्याश्रादयः, शुभकारिणा: हिंसादिनिवृत्ताः माधुप्रभृतयः विरलाः= स्नोकाः । एवं 'खं यदि पापजन्यं स्थान यावत्पापकर्मनि स्थान दुखं यदि पुण्यजन्यं स्थात् पुण्यसमानाधिकरणं न स्थात्' इति तर्कश बोध्यम् ॥२०॥ , २०] } [ 'शुभकर्म से ही मुख' इसमें क्या प्रमाण ? ] प्रतिपक्षी स्वभाव का निराकरण करने के बाद यद्यपि प्रतिपक्षी आगम का हो गिराकरण करा उचित है, तथापि आगम का शरण लेने के लिये प्रसङ्ग एक नय विषयको चर्चा एक बी कारिका में की गयी है। जो इस प्रकार है एक अम्म दादी का यह प्रश्न है कि न्याय और लोक के अनुसार यह यद्यपि सिद्ध है कि हिसा अवि सिद्धित कमी से हो अशुभ आदि कान्होप सुख आदि का उदय शुभ- पुण्य कर्मों से ही होता है' इस में क्या प्रमाण है ? १८ इस १९ को कारिका में कुछ लोगों द्वारा उक्त प्रश्न के समाधान को चर्चा की गयी है। प्रकार है- जो बात अभय को साम्यता न दे कर केवल मुक्तियों का हो करते हैं. उन को ओर से उस प्रश्न के समाधान में यह कहा जाता है कि पाप कर्म से सुख नहीं होता, किन्तु पुण्य कर्म से ही सुख होता है इस बात का निश्रय अनुभव और तर्क से सम्पन्न होता है यह सत्य है इस में कोई संशय नहीं है ||१६|| [ पाप से सुख होने पर सुखीजनबहुलता की प्रापत्ति ] २० कारिका में दिवादियों का ही मत स्पष्ट किया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैपुतिमात्रवादी वन का यह कहना है कि पापकर्म से सुख का अन्य नहीं माना जा सकता. क्योंकि यदि पापकर्म से सुख का जन्म होगा तो ससार में हिंसा आदि पापकर्म करने वाले या आदि की अधिक होने से कम की अधिकता के कारण अधिक को उत्पति होगी। फल समार के दुःखों को अपेक्षा सुखी जयों की बहुलता होनी चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं है, ससार में तो सुख प्राणियों को अपेक्षा दुःख प्राणी हो अधिक है। इसी प्रकार पुण्य कम से यदि दुख का जन्म Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या कटी-हिना विवेचन ] [२१ अन्नापाद्यविपर्ययप्रदर्शनेन शुद्धल्यमाहमुलम न चैन इयाने लोके मुम्बशाहस्गदर्शनान् । शुभात सौभयं तत: सिद्धमनोऽनाच्याप्यमान्यतः ॥२१॥ अतो पुनरि माला सामेन ये शुभादरेय सौमादि गम्गत नान्यतः क्वचित् ॥२२॥ न तद् आपाद्यमान, लोके जगति दृश्यते । कुतः ? इत्याह दुग्याबाहुल्गदर्शनात दुग्यम्य पूण्याऽयमानाधिकरणास्त्रदशनात् । इदमुपलमणं सखे यावत्यापन नित्याभावस्य । ननःशभात् = पुण्याच साम्यम् , अतः सारख्याद् अन्य दुई चापि, अतः = पुण्याद् अन्यतः = पापान , सिद्धम् ।।२।। नेदं स्वतन्त्रमाधनं, किन्न्यापातनः प्रमजापादन, नाच न माधकम् , इन्यन्येषा वाना-- न्तरमाइ-'अन्ये पुनरिति । अन्ये पुनः प्रामाः = आगमें श्रद्धावन्तः इदं वक्ष्यमाणं प्रवते । किम ! इत्याह-व-निश्चिनम् , शमायरेव = पुण्यादेरेव, माग्न्यादि फलमित्यागमेन गम्यते क्वचित् = कुत्रापि, अन्यतः = अभ्यंम मानेन न गम्यते ॥२२॥ होगा तो हिंसा श्रावि से निषप्त रहकर पुण्य कर्म करने वाले साधुपुरुषों को सख्या कम होने से पुण्यकर्म को अस्पता के कारण दुःख की उत्पत्ति अल्प होगी, फलत: ससार में मुख जनों की अपेक्षा दुःखी जनों की ससघा अल्प होना चाहिये, जब कि ऐसा नहीं है। इसलिये पाप कम से मुख की उत्पत्ति मानना यह तकसगत नहीं है। सक कारोर इस प्रकार तासप - मुगम यति पाप से उत्पन्न होगा तो उसे समी पापमा जीपों में रहना चाहिये । इसी प्रकार वि पुण्य से उत्पन्न होगा तो उसे भी सभी पुण्यकर्मो जीवों में रहना चाहिये । और उस स्थिति में म सो कोई पायो दुःखी हो सकेगा और न कोई पुष्पवान सुना हो सकेगा ॥२८॥ [लोक में हुःखबहुलता होने से पुण्य से सुख को सिति ] कीसवीं कारिका में पूर्वोक्त तक को विपरीतानुमानपवसामो साकर उस्ल को शुखता असायी गया है। कारिका का अधंस प्रकार है पूष फारका मे पाप कर्म को सुन का बत्पादक मानने पर ससार में अधिक मुख की उत्पत्ति का मापावान किया गया था, जिस से यह विपरीत अनुमान फलित होता है कि पापम मुसका उत्पादक नहीं है, क्योंकि संसार में मुख को अधिकता नहीं देखी जाती, प्रत्युत दुण को ही अधिकता बेश्रो जाता है। देखने में यही आता है कि दुका पुण्य का असमानाधिकरण होता है, पुण्यवान को नहीं होता। यह इस बात का उपसमग सुकभी पापकर्मी जीवों को नहीं होता। इसलिये यह सिद्ध क पुष्प गुम का मोर पुष्प मित्र पाप से मुख से भिन्न का जन्म होता है ।।२१।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१] [शाचा समुच्चय-स्त. २. लोग २३-२४ कुतः । इत्याहमूलम-मातीन्द्रिये लागत प्राय गर्दनिधए, यद । छानस्थस्याऽविसंगादि मानमन्यात विद्यते ॥२॥ यच्चायतं कुम्वधारल्यदर्शनं तन्न साधकम् । क्वचित्त थोपलम्भेऽपि सर्वत्राऽदर्शनादिति ॥२४॥ प्रायः चाहरूयेन, एवं विधए उक्त जातीयेस, अतीन्द्रिये - एन्द्रियकमयोपशमाऽग्राह्य पू, मावेषु, यत्-यस्मात् कारणात् , छमस्थस्य अक्षीणघातिकर्मणः, अविसंवादि अप्रामाण्यशकादिविरहितम् , अन्यत्-शझातिरिक्तम् , मान-प्रमाणं, न चिश्यते । प्रतिभादिना योगिभिस्नग्रहणात प्रायोग्रहणम् । अत्र च यमप्यतीन्द्रियार्थे पूर्वमागमस्य प्रमाणान्तसनधिगनवस्तुप्रतिपादकन्वेनादेतपादन्य, तथाप्यये नदुपजीव्यप्रमाणप्रकृती हेतुबादत्वेऽपि न ध्यरस्थाऽनुपपतिः, आघदशा पेशयेष व्यवस्थाभिधानात् । अतो यदन्यत्रोक्तम् ' 'आगमचोपपत्तिश्च' इत्यादि, तनु नानेन मह विरुध्यते, अपूर्वन्य चारष्ट्रस्योपपद्यत इनि ध्येयम् ॥२३॥ .. . - -. . - - - - [प्रागम ही शुभ में सुखकारणता का बोधक है ] बापखणे कापिका में यह बताया गपाकि तमं स्वतन्त्र साधन म होने से उक्त अर्थ का साधक महीं हो सकता मत: उपत अर्थ की सिद्धि अन्य सामान से करती होगी, और यह अन्य साधन होगा 'आम'। कारिका का अस प्रकार है मागम में श्रद्धा रखने वाले पुण्यात्मा मनोविषों का मह कहना है कि पुण्यकर्म से हो मुख होता है और पापकर्म से ही कुछ होता है, यह बात निश्चित रूप से 'मागम प्रमाण हेही सिद्ध हो सकती है. किसी अन्य प्रमाण से कवापि नहीं सिद्ध हो सकती। केवल तक से स बात को सिद्धि को आशा करना व्यर्थ है क्योंकि तक कोई स्वतन्त्र प्रमाग महीं है, वह तो प्रमाणातर का उपोलक (पोषक) मात्र ३. भतः उपस बात की सिद्धि के लिये कोई प्रमाण होना आवश्यक और वह प्रमाण मागम होझो सकता है. अभ्य कुछ मही, उस तकका उसी आगम को परिचर्या में विनियोग हो सकता है || [प्रतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान प्रागम विना दुःशश्य ] इस ईसबों कारिका में उक्स विषय में एक मात्र आगम हो प्रमाण श्यों है । इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है. जो इस प्रकार है उक्त विषम जैसे असोम्निय नियमान्य भयोपशम से अपान) पदार्थों के समय में छपस्थ. धातीसमों से मास पुरुष से अतिरिक्त ऐसा कोई प्रमाणही प्रस्तुत कर सकते, 'जो योगी के प्रालिम शाम से भिन्न हो तपा अप्रामाशा माधि से कवलितो , तिलिपे पल विषय में हिंसा रिण- भागमायोपत्ति सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । मतीन्द्रियानामर्धानां सावप्रतिपक्षये ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थावर टीका-हिन्दी विवेचन ) F! .. उक्त काम E कम्पादकमपि नः कुतः १ इत्याह- श्चमि भरतादी, नथोपलम्भेऽपि दुःख पाहून्यदर्शने - ऽपि सर्वत्र महाविदेहादी, अदर्शनाद्-दुःखाल्यानुपलम्भात् । इतिः हेतु समाप्त्यर्थः ॥ २४ ॥ लम्- सर्वत्र दर्शनं यस्य ताक्यात् नि साधनम् ? साधर्न त अवश्यंभागमान्तु न भियते ॥२६॥ अथ यस्य सर्वत्र सर्वक्षेत्रेषु पाहुन्यदानं तत्रयात् दुःखान्ये आपाचव्यतिरेके नियमाप्राज्य, इति · [ ३ दर्शनं लान्त्रा साधनम् = उक्तप्रसङ्ग किन भने 56 7 तत्यानं भवत्येव तु पुनः एवम् उक्तप्रकारंण, आगया न भिद्यते श्रुतानुसारि मतेः श्रुतान्यभूतत्वात् । अत एव भन्यामध्यादिभावानां पूर्वम् तत्थ माओ मवियामयादओ भावा" इति गाधाप्रतीकेनाहेतुवादविषयत्वमुक्त्वापि भविओ सम्म गणना रिपबित्तिसम्पणो । णिश्रमादुक्तकडो नि लक्खणं हेवायम् ||" इति गाथानन्तरमागमोपगृहीन हेतुप्रवस्या हेतुवादयत्वमुक्तं भगवमा सम्मतिकृता इत्यव श्रेयम् ||२५|| मावि के धनकाय और अहिंसा आदि के धर्मानिकरण में एकमात्र आगम से प्रमाण है । अषियों के सम्बन्ध में आगम पहले यद्यपि प्रमाणाम्तर से अनधिगत वस्तु का ही प्रतिपन करता है। अतः आगमतिमालवस्तु हेतुभाव पर निर्भर नहीं हांसी तथापि याग में आगम के आधार पर प्रमाणान्तर को भी प्रवृत्त होने से वह वस्तु हेतुवाद पर भी आषिस हो जाती है. फिर भी 'जनत विषय में एकमात्र अगम ही प्रमाण है। इस व्यवस्था की अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि आद्य प्रतिपादन की अपेक्षा हो यह व्यवस्था की गयी है। इसलिये जो अन्य गम और पुक्ति दोनों को अयार्थी का सायक बताया गया है उसका उतथ्यबस्था से कोई विरोध नहीं होता और अदृष्ट में को उपपति भी हो जाती है क्योंकि आरंभिक द्यप्रतिपादन के पूर्व उसमें अन्य कोसी प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं हो सकतो २३ | चौथ कारिका में उक्त तक से उस विषय की सिद्धि में बाधक बनाकर आगम की साथकाका उपपादन किया गया है, वह इस प्रकार कि उक्त तर्क के अ सुख को अपेक्षा डु: महाक्षेत्र में बहुलता । बेल की को बात कही गयी है. यह भी मरतक्षेत्र में देखे जाने पर में उप न होने से उक्त विषय की सिद्धि में सहायक नहीं हो सकती ||२४|| सम्बादर्शन चामादो मामाभाव: (सम्प्रतिसूत्रे गाथा १४० ) ९ ज्ञानचारित्रप्रतिपत्तिसम्पन्न । नियभाग दुःखान्तकृत, इनि लक्षणं हेतुषः स्म ॥ सम्प्रतिगामा १४९) ३ भरमौर महाविदेहक्षेत्र के परिचय के लिये क्षेत्रमा बृहत् पणी हैं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श यार समुभ अग्रस्त० २ श्लो: २६ नन्यागमेनापि कथमयं नियमो बोवनीयः, पापादपि सुग्वदर्शनन व्यभिचारीनश्चया ? इत्यत आह मूलम् अशुमावगनुष्ठानात सौरूपप्रापितश्च या कवयित् । फलं विपापविरसा सा तथाविधकर्मणः ॥३॥ अशुभादा नुहानात् अदेयताविशेषोशन भूतप्रधानाचारादपि, या क्वचित सौख्यप्राप्तिः पुत्रप्राप्यादिजन्या, सा पिपाकविरसा आयाहनानुबम्धिनी, तथाविध. कर्मणप्राचीनपापानुमान्धपुण्यस्य फलम् । न व तत्कर्मानपंसा स्यात् । पापजनकव्यापारमपेश्श्य व तम्योदेश्यफलजनकन्त्रात्, तद्विपाकजनकनया नदपेक्षणान् । अन एव 'क्वचित इत्यनेन व्यभिचारवचनान् नन्कर्मणस्तस्कलजनकत्वमारा-तम । न हिफतत्तत्फनोदशेन नत्ताकर्म [ दुखबहुलतादृष्टा के वाक्य से प्रसंगसाधन शक्य है ] पूर्व कारिका में इस बात का संकेत किया गया है कि "सुव पति पाप से उत्पन्न हो तो उसे युःस्त्र से अधिक होना चाहिये' इस प्रसङ्गापादन के लिये सुन से तु गप के चहल होने का मान अपेक्षित है, जो उक्त प्रसङ्ग के उद्भग्वक भयवित को गुलभ नहीं है, अतः उक्त प्रसङ्गपावन सुरुशार है। प्रस्तुत २५ वी कारिका में इस संमेल के विषबात कही गयो । कारिका का अथ इस प्रकार हैं जिस व्यक्ति की सभी क्षेत्रों में मुख की अपेक्षा दुःख माहस्य का दर्शन प्राप्त है, उसके बचन में उक्स प्रमण के उद्भावक ग्यापन को भी दुसवाइल्य का बान शो सकता है, अत: उक्त प्रसङ्नानादन में कोई कठिनाई नहीं हो सकती, पोंकि संसार में हाप को अपेक्षा बु:साहस्य का जान रहने पर उपन आपादान का पर्यवसान इस प्रकार के विपरीतामुयाम में मनामा सम्पन्न हो सकता है कि सुज पापमय नहीं हो सकता क्योंकि संसार में मुखको अपेक्षा बुष अधिक है, जब कि सुख को पापजन्य मानने पर पापाधिक्य के कारण उसों को अधिक होना चाहिये। ( चुखबाहुल्यदृष्टा के वाक्य का प्रागमप्रमाण में अन्तर्भाव ) प्रसङ्गापादन के इस समर्थन के सम्बन्ध में प्रागमवावी का कहना है कि यह ठीक है कि सभी क्षेत्रों में दुःख मास्या के पचन से दु.सबाल्य का मान करके उसमे द्वारा उक्त प्रसङ्गापावन सुकर हो सकता है किन्तु तब 'मुख पापजन्य नहीं हो सकता इस बात का निश्चायक सक न हो सकेगा किन्तु मागम ही होगा, क्योंकि तक के लिये अपेक्षित वु वधाहस्य का मान समस्त क्षेत्रों में दुःखा. माहरूष के दा पुरुषपचम से होता है जो आज से भिन्न ही महा जा सकता, क्योंकि यतका मानुसरण करने वालो मति का श्रुत में ही अन्तर्भाव उचित है। __यही कारण है कि भगान सम्मतिसूचकार ने पहले 'सत्य अहेवाओ सगाथा से भक्ष्यस्य अभपस्म मावि मावों को अनुवाद का विषय साया और बाप में भागमानुमोदित हेनु को प्रवृत्ति को सृष्टि में रखकर अमियो सम्मइसण स दूसरो गाथा से उन भाषों को हतुवाब का भी विषय बताया है ॥२५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी यिवेचन ] [ २५ विधानादगादिव कल्यप्रयुक्तो व्यभिचार इति न दोष इति वाच्यं, साङ्गादपि पुष्टयादे। चत्रचित् पृप्राधनुषाददर्शनान । पलंग प्रतिबन्धकाराष्ट्रध्वम एव पवेष्टवादिफलं. प्रनिवन्धकाभावमहकनदृष्ट कारणसमाजाच्य पुत्राद्युत्पनिनि न दोष' पनि निरस्तम , प्रतिकूलकर्माभाववदनुकूलकणारेऽष्यवश्यमनणात । ततिपकार्थमेव नत्कान्यामिद्धेः ॥२३॥ इदमेव रवानेन इलयात (अशुभानुष्ठान से मुख्य प्राप्ति वस्तुतः जन्मान्तरोयकर्म का फल है) पाप से भो सुको उत्पत्ति धेयो जाती है, अतः पुत्र के अभाव में भी लुल का जन्म होने से ग्यतिरेक व्यभिचार होने के कारण 'पूप से सुख होता है। इस नियम का निश्चय मागम से सो कैसे हो सकता है ? २६वीं कारिका में ग्रो प्रश्न का उत्तर दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है___यह सही है कि देवता के प्रोपर्थ प्राणिवध जसे लिप्रदान आदि अशुभ कमों के करने से कमी कभी पुत्र प्राषि का लाभ होने में सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु वह मुख प्रारित भविष्य में अहित का जनक होती है अतः वह पूर्वकृत पापानुबन्धो पुण्य का ही फल होता है कि श्वेवतोद्देश्यक प्राविध आवि से होने वाले पाप का फल होता है। उन कर्मों की अपेमातोशमलिये होतो है कि पापानमन्धी पुण्य पापकृत्यों के सहयोग से हो अमोण्ट फर नमक होते हैं. अतः उक्त पुण्य के मिपाकाथ ही उस कृत्यों की आवश्यकता होती है। इसीलिये उक्त पाप कृश्यों सेवित हो सुख प्राप्ति होने की बात कह कर उन्हें सुख का व्यभिचारी बता कर उन को मुजनकता का निराकरण बित किया गया है। यह कहा जा सकता है कि-"इस जन्म में होनेवाले तत्तत् फलों के लिये ही सतत कमी का विधान है। अत: तत्तत् कर्म सतत फल के कारण तो हैं ही, कभी कभी यदि उन कर्मों से उन फलों की प्राप्ति नहीं होती तो यह बात जर को बनविकरलता के कारचा होती हैं। अतः अङ्गसम्पन्न को को तत्तत् फल का कारण मानने में ज्यभिचार शो हो सकप्ता क्रिम्स यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण अङ्गों से सम्पन्न मी पुत्रेष्टि आदि याग से पति-पत्नी को शारीरिक अक्षमता के कारण पुत्र को 'उत्पत्ति नहीं होती, अत: अङ्गसम्पम कर्मों को मो तत्तत् फल का कारण मानने में श्यभिचार का होना निषिताव है। इस पर यह कहना कि-"पुत्रेष्टि का फल पुत्रोत्पत्ति नहीं है किन्तु पुत्रोत्पत्ति के प्रतिबन्धक अशष्ट का विनाश है. पुत्रोत्पसि सो प्रतिबन्ध का अभाव हो जाने पर पुष जन्म के कारणों से हो सम्मान होती है वह ठीक नहीं है, क्योंकि फलोत्पत्ति में प्रतिकूल कम के अभाव समान अनुकुल कर्म का होना भी आवश्यक है। अतः अनुकूल कम के ताधिष्यसम्पादनाथं ही अवातर कमों की अपेक्षा होने से, अवान्सरकम अनुकुलकर्म के फल के प्रति अपमासिस होते हैं। इसलिये यह मिक मरिमना सात है कि रेसा उदम से किये जानेवाले प्राणिषय आदि कर्म की अपमोगिता पूर्वकृत पापानुसन्धी पुण्य को फलोन्मुख बनाने मात्र में है, फलोदय तो उस पुण्य का ही कार्य होता है ।।२६।। अशुभ कर्मों के अनुमान से होनेवाला इष्टलाभ उन कर्मों का फल होकर पूर्वहस पापानुबन्धी पुषध का ही फल होता है, इस पूर्वमारिकोषत विषय को ५७ वीं कारिका में सातारा पृट किया या कारिका का भय इस प्रकार है Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [शा वा० समुच्चय न. ९-लो०-२७ मूलम-बमहत्यानिदेशानुमान प्रामाभिधामाद । ____ न मस्ता पर्वतशगमादेव' गम्यते ॥२७॥ ब्रह्महत्याया निवेश:न्य ब्राह्मणं च्यापादय, तनोऽहं नव ग्रामादि दास्यामि' इति गजात्रा, ननोऽनुष्ठानम-ग्रामइत्याकरणम् , नसी ग्रामादिलाभवत्स प्रामादिलाभो यथा प्राचीन पापानुबन्धिपुण्यादव, न पूनस्तन एवम्यानहल्याया पत्र, नया प्रकृतम्पीति भावः । ननु ब्रह्महत्यायास्नालबोधको न विधिः, इतरत्र तु तादावधिश्रवणा वगम्यम् , इत्यात आह एसइ-उपपादिनम् , आगमादंष गम्यत-आगम एव हि हिंसासामान्ये दुःखजनक बोधयति, तत्कथं स एवं हिंसाविशेषस्य सुग्यजनकत्व बोधयेत ! ति भावः । अधिकमने विचयिष्यामः । इत्थे चतदचश्ययम् , अन्यथा श्रोत्रियेणापि ग्तेमछादिकृतकर्मविशेपान फलविशेषदर्शनात किं तत्र ममाधान विधेयम् ? ॥२७॥ नन्यागमाऽपि प्रतिपक्षागमचापित एघेन्युक्तमेव, इत्यतस्तेषा निर्मलत्यनाऽप्रतिपक्षममवसरपंगत्याऽऽई (बह्महत्या प्रामाविलाभ का कारण नहीं हो सकती) क्रितो रामाने अपने किसी कर्मचारी को श्राशा दी कि "तुम ब्राह्मण का वध करो, में इस कार्य के पम्फारस्वरूप तुम्हे प्रामगर कर्मचारी ने धाक्षा मान कर प्राह्मण का किया. राजाने उसे पाम दिया। तो जिस प्रकार महप्रामलाभ पूर्वकृप्त पापातुबन्धो पुण्य का ही फल है.. कि ब्रह्महत्या का फल उसी प्रकार अन्य अशुभ कर्मों के अनुष्ठानसे होने वाला इष्टलाभ भी पूपात पापानवाची पुण्य का ही फल होता है, न कि उन अशुभ कर्मों का.-यहो मानना उचित है । अगर कहं बहाहाया करने से पाम लाभ होता हंस बात की तो बोध कोई शास्त्रीयविधिवाक्यही है किन्सु 'अमुक देवत। को अमुक बलि प्रधान करने से पुत्रादि को प्रर्ग होती है स बात का बोधक पास्त्रीय विविधामा है अतः इस विषमता के कारण उक्त दाम्त से प्रकृत कर्म के विषय में निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता'-तो बहू कयन ठीक नहीं है. क्योकि आगम हो हिंसामात्र में दुखजनकता का पोधात करता है। फिर वही हिसाबिशेष में मुखजनकम का बोधन कैसे कर सकता है। इस विषय का विस्तृत विवेचन आगे किया जामगा। इस प्रकार अशुभ कर्मों के ममुण्ठान से होनेवाले प्रष्टलाम के विषय में जोपास हो गया है, उसे स्वीकार करमा बावश्यक है, अश्यया किसी श्रोत्रिय को मलेठोचित कम करने से होनेवाले प्रष्टसाभ के सम्बम्ध में जब यह प्रश्न उठेगा कि यहाटलाभ म्लेच्छोषित कर्म का फल है? पापूर्वकृत किसी पुण्य का ? होस प्रश्न का क्या समाधान हो सकेगा? ॥२मा ___ हिसा वि से पाप और दुःख होता है तथा अहिसा आदि पुष्प और मुश होता है इस बात का प्रतिपादक आगम हिसाविशेष से सुन्नादि के जन्म का प्रतिपादन करने वाले प्रतिपक्षी आगम से बाधित ई-यह आक्षेप पहले किया गया है। अब उसके समाधान का अवसर प्रा है. अतः :-धी कारिका में प्रतिपक्ष भागमों को निर्वल बताते हुये उन्हें अभिमत आगमका अविरोथी मनाया गया है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका-हिली विवेचन | मलम् - प्रतिपक्षागमानां ष्टा वितः । तथाऽनासप्रणीतत्वात्रागम न युज्यते ॥ २८ ॥ प्रतिपक्षागमानां जनातिरिक्तदर्शनानी, टेष्टाभ्यां विशेषतः अाधिनप्रत्यचादिस्वाभ्युपगमविरुद्धार्थामिधायकत्वात् इति यथार्थवाक्यार्थज्ञानशून्यवक्तुकत्वाद आगमत्वं प्रमाणदन्यं न युज्यते ॥१२ } 1 [ २७ " अत्रोमयन्वभिधानेऽपि द्वितीयऽपि प्रथम एव हेतुः इत्युपजीव्यत्यात् तस्यैवाश्रावणं युक्तमित्युपदर्शयन् तदुपदर्शनमेव प्रतिज्ञानीते मूलम् दृष्टेष्टाभ्यां विरोधाच्च तथां नासीत्तना । नियमाद्गम्यते यस्मात् मदसावेच दश्यते ॥ २९॥ तेषां विप्रतिप्रभागमान हप्टेष्टायां विरोधाच नाप्रणीता नामपदस्य नाकादिम ध्वनिवेशाश्रमणादनाप्रणीननेत्यर्थः । 'आसवणीतता' इत्युत्तरं नत्रो योजनात् नत्र क्रियान्वये तात्पर्यादाप्रणीतस्वाभाव निरार्थः । नियमात् ==पाविलात् गम्यते = अनुमीयते यस्माद्, तत्तस्मात् हेतोः असावेच दृष्टेष्टा विरोध एवं शब्देन श्रतां बोध्यते ॥ २६ ॥ ( जनेतर मात्र अप्रामाणिक क्यों हैं ? ) कारिका का अर्थ इस प्रकार है जैन दर्शन से अतिरिक्त सभी वर्णन का आगम वर्शन के प्रति आगम हैं किन्तु उन आगमों में जनवर्शन का विशेष करने की क्षमता नहीं है, क्योंकि वे हट और इष्ट से विरुद्ध होने के कारण निक हैं। और नागम और से अविरुद्ध होने के कारण है। अंतर आगमों में जातिप्रत्यक्ष अनुमान आदि से विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन होने से विशेष और उन्हीं भागमों में एकत्र स्वीकृत अर्थका विरोध होने से विरोध स्पष्ट है. जब किसानों में ऐसा कुछ नहीं है। कारिका में तथा शब्द से अन्य हेतु कर भी समुच्चय किया गया है. यह हेतु है 'अनाप्तप्रणीतव' नेतर सभी आगम अमाप्त = वाक्यार्थ के यथार्थमान से शून्य पुरुष द्वारा रचित है, अतः उन्हें आगम यानी प्रमाणभूत मानना उचित नहीं है ||३८|| [जनेतर शास्त्र दृष्टेष्टविरुद्ध है ] पूर्व कारिका में जैनागम से भिन्न आगमों के प्रमाण न होने में हो हेतु बसाये गये हैं- एक हण्टविशेष तथा विशेय और दूसरा अनाणोसत्व आसपुरुष से रचित होता किन्तु ये दोनों सम्मान नहीं हैं. इस में पहला हेतु जनातिरिक्त आगमों के अप्रमाणस्व का हेतु होने के साथ ही दूसरे हेतु का भी हेतु होता है, अतः उपजोष्य होने के कारण प्रथम हेतु का हो भाग लेना उचित है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] [ शा० प्रा० समुच्चय-स्स० ३-श्रोः २१ २. वो कारिका में इस तस्य का प्रतिपारन करते हुये प्रथम हेतु के हो प्रसिपायन की प्रतिमा को गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है विप्रतिपन्न आगम-वे आगम जिन के प्रामाण्य में जनों की विमति है, आपतपुरुष से चिल नहीं है। योकि उन में विशेष तथा इष्टविरोष है, और यह मियम है कि जिस में दृष्टविरोध एम इटावशेष होता है वह आरसपुरुष से रचित नहीं होता। उन आगमों में विराध और अष्टविरोध किस प्रकार है, यह बात हो अब बलामी हैं। (प्रासङ्गिक 'नाप्त'पदसाधुता विचार) प्रस्तृत कारिका में अंतर आगों को 'नाप्तप्रणवत' कहा गया है। भ्यासपाकारत उसकेको अर्थ बताये है, कtinारत' अनास्त से रचित होना, और दूसराहन आप्त-ii) मारत से वित महाना धन में पहला अर्थ 'नाम' पक्ष को नत्र, और आप्त पद के रामास से निप्पल मानने पर फलित होता है, किम्म ऐसा मापने पर प्रति 'नाप्स' शा को निष्पत्ति संकटग्रस्त मालुम पडती है. बयोंकि मजा पारद समासघटक होने पर न लोपोना . इस पागि व सत्र 1 से 'न' का लोप और 'सस्मासन्निपात्र E-1.5 से 'म और भारत के बीच नद् (न) का आगम हाने से-और सिद्धहम सूत्र 'अव स्वरे ।।२।१६९ से सीधा हो नत्र का अन आयेश होकर प्रमारत'शम्न हो 'अनादि' 'अनन्त' 'अमगार' आदि शारदों के समान सिद्ध हो सकता है 'नाप्त' वाम्ब नहीं, तापिणिमोयम से माकादिगणए'ठ में माता का प्रदा PTA में कोई सकट महीं कि जहां उक्त सत्रय लागूनों हति में सुरूत प्रयोग निपातन से सिव होते है । उमप्रयोगोंको 'आकृतस्य विधि: 'प्राप्त जाधमम्' अधिकाविपक्षा' इन तीन निमित्त पाकर यारणलो मिपासनरूप से घोषित करते है एवं इसके लिए आकृतिसंशक गणपा देते हैं। सिव स्यापारण में तो 'नखावमः' ।३-२-१८ मूत्रही दिया गया है। यही नख भावि' शबद से बावचन भाकृतिगण का सूचक है। प्राकृतिगण सूचक सत्र में जहां आदि शब्द एकवचनात होता है, बहसोमित अर्थात उस गणपाठ में जितने दिलिप्त ई उतने ही शव लिये जाते है. और वहां अपचनास 'आविशय होता है, जैसे कि 'नसाबमः' वहां धमा संशयाका नियम नहीं है। इसलिये प्रजम् अस्प इसि पन्नः' ' भ्रामले मभ्राट् । 'त अस्य कुलम् अम्ति ति नकुम: मासस्यम् 'तकम् स्पाविषत् 'अनाप्सअर्थ में 'नाप्स' सम्ब प्रयोग भी साधु है। तात्पर्य, पाणिनीय.याकरणामुमार नाकादिगणपाठ संव सिहमव्याकरणानुसार ममादिक्षाकृतिगण समिबेश से भारत' प्रयोग साधु सिद्ध होता है। अधया अलबत्ता मा से समास नकर के, निषेधार्थक '' अश्यप के माप ही समाप्त कर देने से "कया 'मेकत्र 'म' प्रयोगों के समान प्राप्त साम्दप्रयोग सिह हो सकता है तथापि ध्यायाकार ने गम के साथ समास करने हेनु नाकावि गण को ही गतिविधि प्रस्तुत कर 'नाप्त' काय को साधुला का समचम यह कहते हुए किया है कि जिस प्रकार 'न अकं यस्मिन् ममाफ' इस अर्थ में 'म' और अका का समास होकर नाक वारद बनसा हा जसो प्रकार 'म' और 'आम्त' पाद समास से 'माता शम्ब भी बन सकता है। दूसरा अर्थ साप्तप्रणीतता' मास्वको आप्त प्रणीता' स कप में योजित करने से और ना पाप अभाव में प्रणयम क्रिया का अन्वय करने से 'झापामगोतता का मभाव' ऐसा भी लाप Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका-हिन्दी ]ि, साद मण्डलादिवादिमते तं प्रदर्शयति मूलम् - अगम्यगमनादीनां धर्मसाधनता क्वभित् । उमा लोकप्रसिद्धेन प्रत्यक्षेण चिरुध्यते ॥३०॥ अगम्यगमनादीनां -लोकशास्त्र निषिद्ध भगिन्या दिगमनमममश्रणप्रभृतीनाम्, कश्चित = मण्डलस्यादिन्ये श्रमसाधना उक्त | मा लोकप्रसिद्धेन विनादिसिर्द्धन 'महिन्यादिगमनादिकं न धर्मजनकम्' इत्याकारेण श्रमनिश्रितादिमतिज्ञानरूपेण प्रत्यक्षेण [विरुध्यते = ]वाध्यते । न मोक्तान किं तद्भावकत्वमिति प्राच्यम् वहमिदवेनास्यैव पलवस्यात् । न च 'शतमन पर्याधिमियोजक उपन्य जातीयत्यात्, अनुकूलतर्कसहकृतत्वात्ययम् । उक्तो लोकविरोधः । F [२ 1 हो सकता है। अतः इस अर्थ में' पर 'आप्तप्रणो के साथ नाशका समास मानने की आवश्यकता होने से 'ना' या 'माप्तप्रणीता' ठान् के सत्य को लेकर कोई प्रश्न हो नहीं ऊ सकता, क्योंकि कारिका में उक्त प्रकार के शब्द का निवेश हो न मान कर 'न' पत्र को असमस्त एवं 'आप्तप्रणीतता' पद के उत्तर योजनाएं मान सकते हैं । (अगम्यागमन से धर्मोत्पत्ति में प्रत्यक्ष माष) जनेतर सभी आगमों में स्ष्टविशेष बताना है : ३० वी कारिकाद्वारा सर्वप्रथम मण्डल आदिवादियों के मत में ष्टविशेष प्रशित किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है लोक और शास्त्र दोनों में भगिनों आदि को अगम्य- सम्पर्क के अयोग्य' मान कर उनके सम्पर्क का निषेध किया गया है। मांसभक्षण जसे कार्य भी छोक-शास्त्र दोनों में ही वमाये हैं। किन्तु मण्डलम् अवि प्रत्यों में उस सिन्ध कर्मों को भी धर्म का साधन बताया गया है। किन्तु उन कर्मों को धर्म हा साघन मानना ठोक नहीं है क्योंकि विज्ञान पुरुष से लेकर अशिक्षित नारी तक के लोगों को मिश्रित आदि मतिज्ञान के रूप में यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि भगिनीगमन जैसे गत मे धर्म के साधन नहीं होते। अतः मण्डल से अन्य के बल पर लोकशास्त्र गति कम मैं अबाधित एमसाधनता को स्वीकार करना उचित नहीं है । ( मण्डलतन्त्रीय श्रागम निर्बल क्यों है ?) यदि यह शंका की जाय कि मण्डलतन्त्र आगम को ही उपत प्रत्यक्ष का बाधक क्यों न माना फाय" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त प्रत्यक्ष बहुजनमान्य होन के कारण उक्त आगम से बलवान है। इस पर यह कर करना कि बहुजन मान्यता से किसी को बलवान् नहीं सिद्ध किया जा सकता, tfs संकटों अरबों का बचन एक सा के वचन से दुर्बल माना जाता है। अतः जो बहुजन माम होता है बाम होता है-इस नियम में कोई प्रयोजक नहीं है" ठीक नहीं क्योंकि मण्डलतन्त्र भाग से प्रत्यक्ष बलवान है। यह बात केवल बजायला पर ही आधारित नहीं है. अपितु उपलब्धता पर भी आधारित है। कहने का आशय यह है कि आगम वास्येन पक्ष Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथेष्टविरोधमाह मूलम्-पर्मोद तथा मुक्तिरपीष्यते [सं० २१ 1 स्वभावेन तद्भाव नित्य इष्टन बाध्य ॥३१॥ E मार्वादिभिः स्वधर्मोत्कर्षादेव स्वाभिमताऽगम्यगमनादिधर्मप्रकर्षादेव, भुक्तिपी ध्यते तथा भावेन सर्वागम्यगमनादीनां दुःशकतया सत्करूपचरम हेत्वसम्भवेन, तङ्काय: = मुक्तश्रुत्पादा, नित्यः-हेतुनिरपेक्षः स्यात्, नत्र्यश्लेषण अनिरंग:अभवनशीलः स्यादिति वा, स च इष्टेन उक्तरीत्या सहेतुकत्वाभ्युपगमेन बाध्यते । E .. = " 'सद्भाव: = मुक्तिसद्भावः अनित्यः स्यात् हेत्वमायेन मुमान मुक्तताचते, तथा चेष्टबाधः" इति ग्रन्थकदाचयस्तु हिंसाभ्यवयायविशेषरूपहिंसात्कर्षेण प्राक्कर्मक्षयमम्भवेऽप्यये तदभावेन मणिकत्वद्वाराऽभावसम्भवादुषपाद्यः ॥ ३१ ॥ 1—— गृहीत अर्थ का प्रतिपावक तथा प्रत्यक्षगृहीत होकर ही अर्थ का प्रत्यायक होने से प्रत्यक्ष का उपभोक है, और प्रत्यक्ष उस का उपजीव्य है, उपाध्य उपजीवक से सर्द बलवान होता है। अतः उक्त प्रत्यक्ष उपजोष्य का सजातीय होने के कारण उक्त आगम से तिलहन है । इसके अतिरिक्त जो 'बहुजनमान्य होता है वह अपनमान्य से बलवान होता है। इस नियम के अनुकूल तर्क भी है. वह यह कि यदि बहुजनमान्य को बलवान न माना जायगा तो अपने अभिमत की पुष्टि में बहुजन सम्मति बताने को लोकप्रवृत्ति का पास होगा । यतः ऐसी लोकप्रवृति है अतः सजनसम्मत को बलवान मानना निशिवाय है। इस प्रकार मण्डलतन्त्र आगम में लोकष्ट का विशेष स्पष्ट हे ॥ ३= [ हेतु के असम्भव से मुक्ति इष्ट का बाघ ] ३१ व कारिका द्वारा उक्त आगम में इष्टविरोध बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैमलावीम्यगमन एवं प्राणितिमा आदिको मानते हैं और उन धर्मों के उत्कर्ष को हो मुक्ति का हेतु मानते है. जो विरोध होने से उचित नहीं है। इष्टविशेष इसप्रकार है किहै मुनिका हेतुओं से सम्पन्न होना और वह मन्त्र के मत में अनुप है, क्यों कि उस मत में अगम्यनमन-प्राणिहिंसा आदि का उत्कर्ष हो मुक्ति का हेतु है जो किसी भी व्यक्ति द्वारा सम्पूर्ण गयों का मन एवं समस्त प्राणियों की हिंसा सम्भव न होने से दुर्घट है। फलतः हेतु के अभाव में मुक्ति का सद्भाव निश्य हो जायगा अर्थात् मु स को सबल: सुलभ हो जायगी, अथवा कारिका में तद्भाव विश्यः इस वाक्य में 'निश्य' के पूर्व अकार का अश्लेष कर काकाकार का इस कपन में माना जा सकता है कि हेतु के अभाव में मुक्ति अतिश्य अर्थात् हेतु के बिना उत्पन्न हो सकने से या अन्य हो जायगी। इस प्रकार मुक्ति के विषय में मन्त्र की उक्त मान्यता में इष्टविशेष स्पष्ट है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० क० टीका-हिन्दी विवेचन ] पराभिप्रायमाह - मूलम् - माध्यस्थ्यमेव तत्रेतुरगम्यगमनादिना । साध्य तत्परं येन तेन दोषो न कथन ।। ३२ ।। [ ३१ 1 . माध्यस्थ्यमेव = शरवतद्विष्टत्वमेव तद्धेतुः मुक्ति हेतुः । तत्परं प्रकृष्टम् क्लेशवासनयाऽभ्यमिति यावत् येन कारणेन, अगम्यगमनादिना, साध्यते गम्यागमनादिषु सुन्यतया प्रयुक्तेः तेन कारणेन कश्वन न दोषः । माध्यस्थ्योत्कर्षेण मुक्तेः, तत्साधनतया वागम्यगमनाद्युपयोगस्य समर्थनादिति भावः ॥ ३२ ॥ अत्रीतरमाह मम् एतदप्युक्तिमात्रं यत्रगम्यगमनादिषु । तावृतितो युक्त्या माध्यस्थ्यं नापपद्यते ॥३३॥। ग्रन्थकारने स्वनिर्मित उपास्या में प्रस्तुत कारिका के उतरार्ध का यह आशय बताया है कि 'हेतु का अभाव होने से मुक्त पुरुषों को मुक्तता को हामि होने के कारण मुक्ति का सद्भाव अनिश्य हो जाय अर्थात् सुबिल को जपता का व्याघात होगा' । प्रकृताकार ने इस आशय को उपपत्ति इस प्रकार की है कि न कम का क्षय हो मुक्ति है जो सत्र के मत में सम्मध नहीं है, क्योंकि हिला के विशेष अस्तिम अध्यवसाय से पूर्णकमों का क्षय हो जाने पर भी उस अन्तिम अध्यवसाय से होने वाले कर्म का अयन हो सकेगा, क्योंकि उसके अमलर हिंसा का कोई अन्य अध्यवसाय सम्भव नहीं रहता जिस से उस का नारा उत्पन्न हो सके. और उस कर्म को अणिक मानने का अन्य कोई आधार भी नहीं है, फलतः उक्त मल में कृत्स्न कमों का क्षय न हो सकने से मुक्ति की अनिता का प्रसङ्ग अर्थात् उस की उत्पन्नता का व्याघात निविवाब है ।। ३२ । ( श्रगम्या - गमनादि से मध्यस्थभाषप्रामिकारा मोक्ष-- पूर्वपक्ष ) काशिका में मुक्ति के लिये आदि को आवश्यक मामले में मन्त्र का गया है, इसे स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैमाध्यस्य ही मुक्ति का कारण हैं, माध्यस्थ्य का क्षय है रागद्वेष से रहित होना। ईपगलेश को वासना मे क्षोभ न हो वैसा उस का प्रकर्ष होने पर हो मुक्ति का उदय होता है और वह प्रकर्ष प्राप्त होता है समान भाव से अर्थात् गम्य स्त्रियों के समान अगम्य स्त्रियों का गमन करने से आशम यह है कि किसी स्त्री को सभ्य और किसी को अगम्य मानने पर य के प्रति राग और अगम्य के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है अतः राज्य अगस्य का मेज न कर समान भाव से सभी स्त्रियों से सम्पर्क करना चाहिये, ऐसा करने से सब के प्रति समान होने से का अभाव होता है और यह रागदेष का अभाव जब प्रकृष्ट अवस्था में पहुंचता है सम मनुष्य को बिल प्राप्त होती है, मुक्ति को प्राप्ति में अगम्यगमन आदि के उपयोग का समयं इस प्रचार सुविहित माध्यस्थ्य को सिद्ध करने में करते है इसलिए उनमें कोई दोष नहीं हूं ॥३२ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [ शास्त्रवातसमुचय २ श्लो० ३४ = एतदपि = अनन्तरोदितमथि उक्तिमात्रम् - युक्तिशून्यम्, यत् यस्मात्कारणात् प्रवृतितः =गभ्यगमनादितुल्यप्रवृतेः युक्त्या विचार्यमाणं अगम्यगमनादिषु तथा मध्यस्थ्यं नोपपद्यते ॥१३३॥ कुनस्तद्युपपद्यते इत्याह मलम् - अप्रवृथैव सर्वत्र प्रवासामध्भावनः । विशुक्रभावनाभ्यासात् तन्माध्यस्यं परं यतः ॥ ३४॥ सर्वत्र म्यागमनादी यथासामर्थ्य भावनः परिहारमामर्थ्यमनतिक्रम्य, अमच स्वतभिबन्धन विषय द्वेषात् सदनिच्या निर्ममत्वमासा विशुकानां मेव्यावर हितानी भावनानामनित्यन्त्राद्यनुप्रेक्षाणामभ्यासाद् मानसोत्साहात् परमनिर्ममन्यप्राप्तेः विषयद्वेषस्याऽपि बहुदा विनाश्यानुविनाशवद् विपयेच्छ विनाश्य तत्कालं विनाशात तलूप्रागुक्तम्, परम् उत्कृष्टं माध्यस्थ्यं भवति यतः अतोऽन्यथा नोपपद्यत इति भावः । तदिदमुक्तं वशिष्ठेनापि - 3 मानसी वासनाः पूर्वं त्यक्त्वा विषयवासनाः मैध्यादिवासना राम गृहाणामलवायनाः ॥ ( श्रगम्यागमनादि से माध्यस्थ की अनुपपत्ति- उत्तरपक्ष ) ३ कारिका से पूर्वारिका में उक्त मत का उत्तर दिया गया है | कारिका का अर्थ इस प्रकार हैंपूर्व कारिका में कहा गया है कि मुक्ति का हेतु है माध्यस्थ्य, और उस की सिद्धि के लिये आवश्यक है अगम्यगमन आदि कार्यों का अभ्यास । किन्तु यह कथन कोश कपनमात्र है. इस में कोई मिल नहीं है। क्योंकि पुक्तिपूर्वक विचार करने पर यह बात अश्यश्त स्कुट हो जाती है कि 'जिस मनोभाव से मनुष्य गम्य स्त्रियों का गमन करता हूँ उसी भाव से अगम्यस्त्रियों का भो गमन करने से सम्पूर्ण स्त्रियों के विषय में उस में माध्यस्य मा जाता है, किसी के प्रति उस के मन में राग या नहीं उत्पन्न होता' यह कल्पना निसार है ||३३|| (1 ( श्रप्रवृत्ति - विशुद्धभावना के अभ्यास से माध्यस्थ्य ) पूर्व कारिका द्वारा माध्यस्थ्य की सिद्धि के मन्त्रोक्त साधनों का लण्डन कर देने पर ऊठता है कि तो फिर माध्यस्थ्यसिद्धि का धन्य उपाध क्या है ? ३४ र्बी कारिका में उसी उपाय का हो प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है अपने सामथ्य के अनुसार संसार के सभी विषयों में प्रवृति का परिहार करने से हो माध्यस्थ्य की सिद्धि और मिस भावना के अभ्यास से उस के उम्मर्ष की प्राप्ति होती है। इन से अतिरिक्त मध्यस्थ्य की सिद्धि और प्रकर्ष की प्राप्ति का कोई अन्य उपाय नहीं है । माय यह है कि ससारिक विषयों में प्रवृत होना मनुष्य का स्वभाव है, अतः उन में प्रत होते रहने से वह विषयों के सम्बन्ध में मध्यस्थ यानी रागद्वेष से मुक्त नहीं हो सकता, उस के लिये Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका और हिन्दी विरेचन ) [३३ तत्र वासनालमणमिदम्"दृढभावनया त्यक्तपिरविचारणम् । यदादानं पदार्थस्य वामना सा प्रकीर्तिनः ।।" सा च द्विविधा मलिना शुद्रा घ, तत्र शबा योगशास्त्रसंस्कारप्राबल्यात् सावधानसाधनस्नेनैकरूपापि मैयादिशब्देविभक्ता । मलिना तु त्रिविधा लोकवासना, शास्त्रयासना देडवासना पेति । 'सबै जना यथा न निन्दन्ति तथैवाचरिष्यामि' इत्पशपयार्थाभिनिवेशी कासना, गरपाधिमानतुपयोगितामा मलिनत्यम् । शास्त्रवासना विविधा पाइल्यसनम् । बानास्त्रव्यमानम् , अनुष्ठानव्यमनं ति, मलिनत्वं यास्था: क्लेशावहत्वपुमानुपपोगित्वदप हेतुत्वैः । देहवागना च त्रिविधा आत्मत्वभ्रान्तिः, गुणाधानभ्रान्तिः दोपापनयनश्रान्तिश्च । गुणाधानं विविध-लौकिक शास्त्रीयं च | आथं सम्यक् शमादिविषयमम्पादनम् , अन्त्य गङ्गास्नानादिमम्पादनम् , दोपापनयनमप्ये द्विविधम् । आयमापन व्याध्यापनयनम् , अन्त्य म्नानादिनाऽशौचाद्यपनयनम् । एतन्मालिन्यं चाऽप्रामाणिकत्याद् , अशक्यत्वात् । पुमर्यानुषयोगित्वान् पुनर्जन्महेतुत्वाच्च । . -- आवश्यक है कि मनुनय विषों में प्रचतम होने के लिये प्रपस्नशील रहें । विषयों से दूर रहने का प्रयत्न करते रहने से पौरे धीरे उसके प्रति मनुष्य के मन में रोष हो जायगा और देष हो जाने पर जम में उसका आकर्षण होना बन्य हो नायगा, आकषित होकर उन्हें पाने की नस को रक्षा सवा के लिये समाप्त हो जायगी। इससे विषयों में मनुष्य का समाप रह जायगा । फलतः संसार के सभी संयोग अनित्य है, ससार में जीव अशरण-हैं इस प्रकारको अनिस्पता-पारमाविकी निमंल माताअनुप्रेक्षा का हुक्ष्य ले सम्पास कर सकेगे । वह अभ्यास भी मैत्री पाहणादि चार भावों से समधित बना रखेगे। इस प्रकार मयावि मावों से पोषित अनित्यताविकी अनुप्रेक्षा के प्रयास से विषों से विमुण रहने के लिये मनुष्य के मन में उत्साह होगा, जिस से विषयों के प्रति अत्यन्त उत्कृष्टकोहि की विरक्तिनिर्ममता का उपय होगा जिससे राग का आरपन्सिक अभाव हो जामगा। विषयों में पिरति केस उपपावन से यह प्रक्षन सकता है किस विषयविरक्ति का मूल सोहै विषयव जो विषयों से दूर रहने के प्रयास्म से उदित होता है, फिर उसके रहते रागद्वेषसहित्यल्प माध्याय की सिद्ध हो सकती हैं ? ग्याल्याकारमे इस प्रश्न का उत्तर यह दिया कि जैसे प्राग बाह्य तृण आवियाको अलाकर स्वयं भी बुम जाती है उसी प्रकार विषय विषयेष्या को मष्टकर तत्कालही स्थ मष्ट हो जाता है, अतः विषयों में प्रवृत्तम होने का प्रसस्त करने से विषयों के प्रति रागाषराहिल्यास माप्यस्य की सिवि और ममतामुक्त विषयों में भनित्यता पाम भारि को विभावना के सम्याल से मायस्थय के प्रमर्ष की प्राप्ति होने में कोई बाबामही हो सकती। ग्यरस्पाकार में उक्त तथ्य की पुष्टि में पोगवासिष्ठ अन्य से अशिष्ठशक्षिका एक बार उधत किया है जिस में राम की मनोगत पातन विषय पासमाओं को स्मारकर मैत्रीभागि निर्णय पासमानों को अपनाने का उपदेवा विणा गया है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४.] [ शा० मा समुनषा-न०३ ३० ३१ शुद्भवासनया चैर्य मलिनवासना लीयते । तथा हि मुखिपु मैत्री भावयतः तदीयं सुखं मदीयमेवेति कुन्या 'सर्व सुखजातीयं में भूया' इति चिन्नामिका गगवासना निवतते । दुम्बिा करुण भावयतश्च यादिनिया पासना निवर्तते । पुण्यक्रमु मुदिता भावनात् पुण्याकग्णानुशपनिवृत्तेस्तामना नियनन । तथा पापापेक्षा भावयतम्सत्करणनिमितकानुशनिस्तद्वासना नियन्त इनि । तनी सुका कृणपुण्य निचत्तबमादायों पर मायमुल्यम् । इति पातजलाना प्रक्रिया ॥३॥ [वासना का स्वरूप और भेव] योगवासिष्ठ में वासना के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि-हत भावना के कारण पूर्वापर विचारशा को त्याग कर वस्तु को ग्रहण करने का नाम है वासना | उस के वो भेष है मलिन और शुख। शुमवासना से तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है. तत्वज्ञान का साधन होने की दृष्टि में वह वासना एकही कप की है किन्तु योगशास्त्र के प्रबल संस्कार से उस मंत्रो, कवणा, मुपता और उपेक्षा शम्चों सं विभाजित किया गया है। ___मलिन ासना के तीन मेव है-लोकवासना शावासमां और 'देहवासना । 'मैं ऐमा माधरण करेगा जिससे लोक मैं कोई भी व्यक्ति मेरी निन्या र सके' प्रकार मायकार्य करने का आग्रह होलोकवासना है। विषय 'लोकरञ्जन' अवाश्य और पुरुषाय सि के लिये अनुपयुक्त होने से इसे मलिन माना जाता है। शास्त्रवासना के तीन भेव हैं-पाठकसम-निरन्तर पसे रक्षम का व्यसम, बहशवयंस अनेक शास्त्रों को ही जानने का प्रयतम. ९वं अनुष्ठानस्यप्तानशास्वोस्त को जो करतेशनेका व्यसन संचय कोमेसे. पवार्थकोतव में उपयंत नोने या प्रकार काकारणानेसे शास्त्रवासना को मलिन वासमा महा जाता। वासना के भीतीन मेव मारमस्वभ्रान्ति, आधि जन पदार्थों में मिals. गुणाधान भ्रान्तिको संदेह में रूपादि नमोन गुग का जवय होने की पारणा, तथा बोषापन पननान्तिकौ से येह को अशौचावि पोष दूर होने की बुद्धि । गुणाधाम दो प्रकार का होता है-लोकिक और शास्त्रीय . मेहको शब प्रादि विषयों के सम्यक सम्पायन को लौकिक गुणाधान कहा जाता है को महमान भावि के सम्पावनको शास्त्रीय गुणाधान कला गाता है वोपनयन मी लौकिक-शास्त्रीय भेव से दो प्रकार का होता है। मोपनाद्वारा वेहके व्याधि आदि को दूर करना लौकिक बोषापमयम है और शास्त्रानुसार स्नान आणि में at आदि को दूर करना शास्त्रीम बोषापनयन है। अप्रामाणिक, माश्य व पुरुषापे के लिये अनुपयुक्त तथा पुनम का हेतु होने से बेह वासमा को मलिन कहा जाता है। शुन वासना. से मलिन पामना का विनाश होता है । जैसे मुखी मनुष्यों में मत्रो-मित्रता को भावना करने से पराये सुख को भी मनुष्य 'उसका मेरा हो सुख है' इमप्रकार अपनाहो सुख ने अगता है। अतः आपने सुखको आकाक्षा समाप्त हो जान.से. 'मुझे सभी मुज प्राप्त होस प्रकार को रागवासना की निवृत्ति हो जाती है । इसी प्रकार तुःखीमनुष्यों में करुणा-कपा.की, मावमा से Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1०० टीका-हिन्दी विवेचन ] पराभिप्रायसाह मूलम् - यावदेवंविधं नेतन प्रवृत्तिस्तावदेव या । विशेषेण साध्वीति तस्योत्कर्ष प्रसाधनात ॥३५॥ सेरहेतुः कुतश्चिदनिवर्तनात । सर्वत्र भाषावादन्यथासंस्थितिः ॥३६॥ गावदेवंविधं सर्वत्रप्रतिरूपम् एतत् = माध्यं न भवति तावदेव या प्रवृभिः साऽविशेषेण गम्यागम्यादितुल्यप्तयेच साध्वी न्याय्या, तस्य = माध्यस्थ्यस्य, 'सामना' इति हेतोः प्रतियांय्यति निगर्वः ||३५|| J अत्रोनरमाह-'इयम्+अविशेषेण प्रवृत्तिः अप्रवृतेः हेतुने, कृतः १ इत्याह- सर्वत्र विपये, भावाऽपिच्छे शद इच्छानिवृश्यभावात् अन्यथा स्वचिदिच्छानिवृत्य की कारे, अमभ्यमस्थितिः==अगम्यव्यवस्था, यदिनरम्मन् प्रवृत्तिस्तस्यैवागम्यत्वादिति भावः || ३६ || , [ } वैर आदि को निवृत्ति होने से द्वेष वासना का उन्मूलन हो जाता है। पुष्पशील मनुष्यों के प्रति की भावना से पुण्य न करने के पश्चाताप की नियति होने में पुष्पवासना का अबसार हो जाता है और पापी मनुष्यों में उपेक्षा तटस्थता की भावना स पापानुालक पश्चातापको निवृत्ति में पापवासना का अन्त हो जाता है । फलतः अशुक्ला कृष्ण-पूर्णसाश्विक पुण्य कर्मों में प्र और विस में प्रसन्नता के वध से उत्कृष्ट माध्यस्थ्य की प्राप्ति होती हैं। योगशास्त्रष्टा पि ने माध्यस्यसिद्धि की यही प्रक्रिया बतायी हैं। तुल्यभाव साधु है ? ] पैतीस [ माध्यस्थ्य उदय के पूर्व गम्यागम्य में कारिका में मवाद का अभिप्राय बताया गया है जो इस प्रकार है-सम fare में अप्रवृतिरूप माध्यस्य जब तक नहीं सम्यक्ष शोला तब तक गम्य अगम्य सभी स्त्रियों में बिना किसी भेदभाव के प्रवृत होगा शो न्यायोचित है, क्योंकि इसी से माध्यस्थ्य का उत्कर्ष साबित हो सकता है। अध्यक्ष है कि मनुष्य को इच्छा प्राप्त में न हो कर अप्राप्त में ही होती हैं, अतः गम्य स्त्रियों के सम्पर्क से उन स्त्रियों की इच्छा तो न होती, पर अगम्य स्त्रियों की इच्छा जमी रहेगी इकडा भी न हो एतवर्ष उनके साथ सम्पर्क करना भी आवश्यक है, क्योंकि तभी समस्त स्त्रियों में राशहस्य उत्कृष्टमध्यस्थ्य की सिद्धि हो सकती है। [प्रवृत्ति से इच्छा प्रखंडित रहने से श्रप्रवृत्ति- माध्यस्थ्य का अनुदय ] I सारिका में उक्त अभिप्राय को अयुक्तता बतायी गयो है जो इस प्रकार है- सम्पूर्ण free में अप्रकृति ही माध्यस्थ्य है, जो गन्ध अगम्य सभी स्त्रियों में प्रवृत होने से सम्भव नहीं है क्योंकि सर्वत्र होते रहने से किसी से भी निवृत्ति नहीं हो सकती, जब तक मनुष्य सयंत्र प्रवृत्त होता रहेगा तब तक सभी विषयों में उस को इच्छा बनी रहेगी और इच्छा रहते हुये प्रवृत्ति का Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शापासमुकचथ-सव २- ३. एतदुपचयार्थमयादमूलम्-तच्चास्तु लोकशास्त्रोक्तं तत्रौदासीन्गयोगतः । संभाव्यले परं प्रेता माक्शुरुमहात्मनः ॥३॥ तरुषअगम्य, लोकशास्त्रोक्तं भगिन्यायेव अस्तु, शच्छिककम्पनाया अनामाणिकवाद । नत्रभगम्य, आवासीयधाममा माविमान प्रवृत, महात्मनः हदप्रतिज्ञस्य, भाषाब एकान्तबिहिमानुष्ठानसम्पसे,हिनिधितम् , परमेतद्-माध्यमध्यं, संभाव्यते, देशविरतिपरिणामेनानिकाषितस्य चारित्रमोहनीयस्याचिदेव झयमम्भवात् । स्यादेशद, इचछानिगेधान न मितिः, किन्तु यथेच्छ प्रवृपया सिद्धत्वज्ञानादेव, सती योगार्थ यथेच्छ प्रसिरेपोषिता का तत्र गम्यागम्यथ्यवस्था ? मैंवम् , यावत्सुखसिद्धवधियं यिना विशेषदर्शिनः सामान्येच्छाया अविच्छेदाम् , विशिष्य सिद्भवधियम्तु विशेपेच्छाया अनिवसकत्वात् , अन्यथा प्रोपितम्याज्ञासकान्लामरणस्य नन्कान्मावलोकनेच्छाऽभावप्रसाद अमिविषये इच्छाया अनिरोधाच्च । तम्मात् सामान्थेच्छाविच्छेदः सिद्धत्व परिहार हो नहीं सकता । और यदि किसी में बच्चाको भित्ति माम कर प्राप्ति का अभाव माना नायगा तो इस प्रकार की वस्तु यदि स्त्री होगी तोशी अगम्य हो आपगी. फिर गम्म-अगम्प में मैव न कर सभी स्त्रियों में प्रवृत्ति कैसे सम्भव हो सकेगी? ॥३॥ (लोक शास्त्र कथित अगम्यादि में महात्मा का प्रवासीन्य) ३. वो कारिका द्वारा पूर्व कारिका में कथित अपप समर्थन किया गया है। कारिका का मर्ष इस प्रकार है लोक और शास्त्र के अनुसार भगिनी आदि ही अगम्बई, क्योंकि गम्य अगम्य की मनमानीकल्पना प्रमाणहीन होने से मान्य नहीं हो सकती । अत: उस्कृष्ट कोटि का मास्यस्य अर्थात राग का पूर्ण मभाव तभी प्राप्त हो सकता है जब मनुष्य अपने में महात्मता स्थापित करे, लोक और शास्त्र में निखनीय कर्मों को म करने की अटल प्रतिमा करे, अपना नाप शुश रखे, लोक-पास्त्र में माग्य कर्मों का एकारसनिष्ठा से निरस्तर अनुष्ठान करे और अगम्य भगिनी आदि के समसम्म में सवासीमभावापस अर्थात राग-परहिल हो शुभ कमों में ही सबंध प्रवृत्त रहे। ऐसे मनुष्य को उक्त माध्यग्य प्राप्त होने का कारण यह है कि मनुष्य को मामराजममम. परायणता और नियमों से मुख्य आदि देशविरति का परिणाम है और उस परिणाम से भोगेतर कारों से भी मा-योग्य चारित्रमोहनीय कर्म अति सविरतिपरिणामस्वरूप चरित्रभाव के आगार (प्रतिबाधक) अमिमाचित मोहमीप कर्म का सीन हो बिनास हो जाता है। यह अनिका. चित इसलिए कहा कि निकाधित कर्म अवश्य भोक्तव्य है कि अमिकाषित कम बिता भोग किये तप से भो माया योग्म होते हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टीका-हिन्दी विवेचन ) [ ३० जानकृतो नास्ति विरक्तानाम्, किन्तु शुभाइष्टकृत एष । तच्च शुभारष्ट्र विषयाप्रत्येव भवति, तत्प्रयुज्या तु तत्प्रतिकूलाधाजेनादुकटेच्छव विषये जायते । तदुक्तं पतञ्जलिनाऽपि 'भोगाभ्यासमनुयतन्ते रागा, कौशलं पेन्द्रियाणाम्' इति । गीतास्वप्युक्तम् ___ "न जातु काः कामानाम्पमांगेन शाम्यति । हविषा कृष्णपामेव भूय एवाभिवर्धते ॥ इति ॥ इन्ध चैतदवश्यमकीकर्तव्यम् , पिपासाया इव विषवेच्छाथाः क्लिष्टकर्मोदयजनित (यषेछाप्रवृत्ति से विषयपराछ मुखता का असम्भव) सक्त के समय में मण्डलतन्त्रवादी ही भोर से कहा जा सकता है कि- सम्पूर्ण विषयों में का निरोप सम्भव न होने से इफा के निरोष से मनुष्य को विषयमुल्य भले न हो किन्तु औचित्य-मनोचिस्प का विचार न कर सिमानुसार विषयोपभोग में प्रवृत्त होने से विषयायीन मुख में अब विषयसुख तिय हो गया ऐसा सिस्म का ज्ञान होने पर तो विषयवे मुरूम सुसम्पन्न हो सकता है, अत: योग को सिद्धि के लिये विषयों में पच्छ प्रवृत्ति हो उचित है, यह स्त्रियों के समाध में गम्या-अगम्यागिका भेव करना अमापक है। "-किन्तु प्रस्तुत कारिका के प्याल्पाता के अनुसार यह कथन ठीक नहीं है. मोंकि 'समस्त पुल सिद्ध हो गए' ऐसा समस्त सुख में सिसव का काम हुये विमा विशेषज्ञों प्रति प्राप्त मुखों से भिन्न सुन की सम्भाव्यता को जामनेवाले मनुष्य की सामान्य रूप में सुखमात्र को 91 का उक्लेव मही हो सकता, एक सुख के सिवत्व का नाम दूसरे सुनको मला का निवर्तक नहीं हो सकता। एक बस्तुको सिधि से पति उस वस्तु के सह अन्य वस्तुको इम्मा का विश्व माना जायगा तो अपनी प्रेयसी से दुर परदेश गधे पुरुष को असको मृत्यु का जान म होने की स्थिति में उसके पुनः अवलोकन को जो इच्छा होती है वह न हो सकेंगीयोंकि उसका अबलोकन प्रोषण के पूर्व हो चुका है । पो विषय सिद्ध नहीं है उस को इसका निरोध होता भी नहीं है । अतः यही मानना अमितसंगत है कि विरक्त पुरुषों को जो समय कला का विम्व होता। बा कतिपय अष्ट वस्तुओं के सिदश्यतान से नहीं झोता. अपितु शुभाटक प्रभाव से होता है और यह शुभाहाट विषयों में यल्छ प्रप्ति से महो कर विषषों में प्रवत होमे से निष्पन्न होता है। विषयों में प्रवत होने से सो विषयेच्छा-गवर्तक अष्ट के विरोधी अहष्ट का उदय होता है जिसमें विषय की उत्कट रच्दा काही संबधन होता है । पप्तअलि ने भी इस तथ्य को पुष्टि यह कहकर की है कि विषयोपभोग अभ्यास से विषयों में राग को अभिवृद्धि होती है, और विषयग्रहण में इन्द्रियों को पटुता सम्पावित होती है। गीना में भी कहा गया है जि-काम-विग्यसुख के उपभोग से काम पिय सुम्न की एफडा निवृत्त नहीं होती, प्रत्युत रवि-घुल मादि हसनीय तथ्यों से भग्नि के समान अधिकाधिक बढती जासी । टिप्पण- गीता पधन के रूप में निर्दिष्ट 'न जातु कामः कामानाम' इत्यादि वचन प्रसिस गीता भगबद्रीता में प्राप्य नहीं है किन्तु मनुस्मृति में प्राप्य है। भत! यहां 'गीता शम्द से मनुस्यूवि में तात्पर्य दो ऐसा प्रतीत होता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शो. वा. संयं स्तं २०३८ त्वेन तदुपशमेनैव तदुपशमात । तदुपशमार्थमेव च पापशमनार्थ जलपा मस्यंत्र मौनीन्द्रप्रवचनवचनामृतपानस्य न्याय्यत्वादिति । अधिकमध्यात्ममतपरीक्षायाम् ||३७|| अथ संसारमोचकागमेऽप्येतदविदेशमाह - मूलम्-संसारमोचकस्यापि हिंसा साधनम् । मुक्तिस्वास्ति ततस्तस्याप्येष दोषोऽनिवारितः ॥३॥ , संसारमोश्वकस्यापि यद्=यस्मात् कारणात् हिंसा समाधनम् सूचितवास्ति 'अभ्युपगता' इति शेषः । ततः = तस्मात् कारणात् तस्याप्येपः पूर्वोक्तदोषोऽनिवारितः हिंसाया धर्मसाधनतामा लोकेटविरुद्धत्वात् तदुत्कर्षाभावेन सूक्त्यभावप्रसङ्गाच्च । 3 , 1 स्थादेतत् - तृष्णानिमित्तंव हिंसा न धर्महेतुः नतूपकारनिमित्ताऽपि व्याधिनस्यासवैद्येन दाहादिकरणात् तथा दुःखिताना दुःखविघाताय हिमाभ्युपगमो न विरोत्म्यन इति । मैयम् अविरतानां इतनी जीवानां प्रत्यानन्नदुःखेष्वेव नियोजनात् । नैव सुखनामपि पापंवारणार्थं घातः स्यात् तथा चाडपूर्वकारुणिकम्येव तय कुटुम्बधानोऽपि न्यायप्राप्तः । तस्माद् दुष्टोऽयमभिनिवेशः । दुःखकारणाऽधर्म विनाशेन धर्मे नियोजनादेव च कारुणिकः सुपपद्यते इत्यार्हतमतं रमणीयम् ॥ ३८ ॥ , -- इस प्रकार यह बात अवश्य माननी होयो कि विषय-सुख की इच्छा पानी पीने की इच्छा के समान विलष्ट कर्मोपाप कर्मो के उदय से उत्पन्न होती है. अत: उसका उपनाम उन कर्मों के उपशम मे ही सम्भव हो सकता है। इसलिये प्यास बुझाने के लिये जैसे पानी पीना अवश्यक होता है, उसी प्रकार विषयेच्छा का विशेष करने के लिये मोनोन्द्र भगवान द्वारा उद्भासित आगम के वचनामृत का पान भी आवश्यक है। इस विषय में अधिक जानकारी 'अध्यात्म मत परीक्षा' प्रन्थ से प्राप्त की जा सकती है ।।३।। इस प्रकार मण्डतन्त्र आदि आगम को सदोषता सिद्ध की गयी। [ संसारमोचकमत भी दोषाकान्त ही है ] संसारमोक मागम में भी यही माना गया है कि हिंसा धर्म का साधन है. उस के उत्क से हो मुक्ति होती है बस उस मे भी पूर्वोक्तदोष का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि हिंसा धर्म का साधन है यह बात लोकविरुद्ध एवं इष्टविरुद्ध हे तयां अतीत अनागत, वर्तमान सभी प्राणियों की हिंसा सम्भव न होने से हिमा के उत्कर्ष की सिद्धिन हो सकने के कारण मुक्ति के अभाव की भी आपत्ति हो । [ उपकार बुद्धिप्रषत हिंसा में भी श्रौचित्य का प्रभाव ] वि यह कहा जाय कि "तृष्णाश की जानेवाली हिंसा धर्म का साधन न हो, किन्तु उपकारबुद्धि से की जानेवाली हिंसा को धर्म का साधन मामले में कोई बाधा नहीं है. यही कारण है कि भाप्त Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६ स्या० कटीका-हिन्दी विवेचन ] ! दोपाऽनिवारितन्यमेवोक्न भाषयतिमृलम्-मुखितः कर्मक्षयादेव जागते नान्यतः क्वचित् ।। जन्मादिहिना यत् तत् स एवान निरूप्यते ॥३९|| मुक्तिः कर्मक्षयादेश जन्महेतुपुष्पाऽपुण्यविलयन एवामाधारणतो, नान्यतः क्वचित दानादेः, अभय--सुपात्रदानादीनामपि व्यवहिन हेतुत्वात जिम्मादिहिता-जन्ममरणाधनाश्लिष्पा, घद यस्माइ हेतोः, सत्-तम्मात , स एष-कर्ममय एव, अन्न-प्रकृतस्थले निरूप्यते ॥३९॥ बंग ध्याधिग्रस्त मनुष्य को बाह आधि द्वारा भी चिकित्सा करते हैं । असः दुःखो प्राणियों को दु:ख से मुक्ल करने लिये उन की हिंसा करने में कोई अनौचित्य नहीं हो सकताको बहल्यम ठीक नहीं है क्योंकि अविरत अक्षोणसमग्रकर्मा औषों को डिसा करने पर अनन्तवमय योनियों में उन्हें भटकाना ही पड़ता है. न कि जमकी मुक्ति होती है 1 अता हिता का कार्य निम्बतीय ही है। इसके अतिरिवात महमी आपत्ति होगी कि जैसे-अगर Fखी जनों को दूख से मुक्त करने के लिये उनकी हिसा उचित है तय तो उसी प्रकार पापकर्म से विरत करने के लिये मुखी.जनों की मी हिसा चित हो सकती है। फलतः ससारमोचक आगम के अनुयायियों को अपनी अपूर्व करुणा से प्रेरित हो अपने कदम्ब को भी हिंसा न्याय प्राप्त होगी. तब यह हिसा करने में कोई हिचक न होनी चाहिये, किन्तु यह सम होता, अस. हित को मं मार पाया | इस स्थिति में आहत प्रागमों की यह मान्यता हो पायसंगत है कि मनुष्य सो दुःख के कारणभूत प्रश्रम से दूर हटाकर उसे धर्म का आचरण करने की प्रेरणा प्रदान करने से हो उपदेशक की करणाशोलता सिन होती है ॥३८॥ । वीं कारिका में 'मलतन्त्र, ससारमोचक माचि आगमों के मत में बोष का परिहार होता ही नहीं यह जो कहा गया इस बात की पुष्टि की गयी है। कारिका का अर्थ स प्रकार है- . . मुक्ति मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है। उस की प्राप्ति से ही मामबजीवन को साईकता और कृतायता होती है, किन्तु जन्म की शाखा प्रमी रहने सक वस की प्राप्ति नहीं हो सकतो, अत: सन्म की शक खला का दुदना आवदया है. किन्तु वह काहला तब तक नहीं टूट- सकती जब तक उस के कारणभूत पुण्य पुण्य कमों का चयन हो । फलतः स्पस्द..हे कि अन्म के कारणभूत ममप्र कर्मों का अपनी भूमित का असाधारण कारण है, उसी से मुक्ति की प्राप्ति सम्भव है। राम, च्या आदि किसी. अस कारण से उस को प्राप्ति नहीं हो सकती। अभय एंव भुषाधान अर्थात चारित्रपा मुनियों को nिोष शिवा कावाम श्रावि भी अच्छी बात है किन्तु वह मुक्ति का सामात हेतु.न होकर सहित हेतु है । कर्मक्षम हये बिना केवल दाम मावि ध से मुक्ति प्राप्त करने की माता दुराका मात्र है। .. • . मत: मुक्ति जन्म-मरण से रहित होती है, जन्म-मरण का चालु रहते उसको प्रारित मही से.सतो, अतः याच जिम कमों पर आश्रित है इन कमो के भयका निरूपण अविरमक इसीलिये वर्तमान सादर्भ में कर्मक्षय का प्रसिंपावन हो प्रस्तुत है ॥३६॥ .... . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आर. वा. समुच्चय स्त. २-रो० ४०-४१ किंतुकोऽयम् ? इति पर्यनुयुज्यतेमूलम्-हिंसान कपसाध्या था तविपर्ययोऽपि वा । ___ अन्यहेतुरहेतर्वा सय कर्मक्षयो ननु ? ॥४०|| तथाहि 'ननु' इत्याक्षेपे, वै=निश्चितम् । स फर्मक्षयो हिसाबुत्कर्षमाध्यो वा स्गात हिंसोत्तरदुःखापनगनोत्कर्षसाध्यो वा स्यात् । नमिपर्ययसाध्यो पा=अहिंसाधुक्कसाध्यो वा म्यान , अन्याहतुः एतदुभयानिरिक्सतुवा स्यात् , अहेतुर्वा स्थात् , इति चत्वारः पक्षाः ॥३०॥ मूलम्-हिंसाद्या कलाध्यत्वे Rदमाघे न तस्पितिः । कर्मक्षयाऽस्थिती चस्यान्मुक्तानां मुक्तताक्षतिः ॥३१॥ आधे आइ-हिंसाधुन्कर्पसाध्यत्वे, सवभाव-हिंसाधुत्कर्षामावे, न तत्स्थितिः न कर्मभयस्थिनिः, फर्मक्षयास्थितौ च मुक्ताना मुक्ततामतिः म्यात् ॥४॥ (कर्मक्षय के सम्भवित हैतु चतुष्टय) प्रस्तुत सालीसवी कारिका में 'न'माद में कर्मक्षय की सम्भाव्यता पर आक्षेप करते हुये उसके हेतुओं के विषय में जिज्ञामा यमत को गह है। कारिका का अपं इस प्रकार है कर्मक्षय के सहेतुक होने की सम्भावमा के निश्चित रूप से पार हो पक्ष हो सकते है. जैसे १.कर्मभय हिंसा आदि के जरक अर्थात हिसा के भनातर होनेवासे बुखाराहित्य के उत्कर्ष से सम्पावित हो सकता है क्या ? २ हिंसा आदि के विरोधी हिंसा धाविक जकर्ष से सम्पावित हो सकता है क्या? ३ उक्त दोनों हेतुओं से अतिरिक्त किसी समय हेतु से सम्पादित हो सकता है क्या? । अषका हेतु के विमा हो सभ हो सकता है ममा ? ||५|| ४१ / कारिका से प्रथमपक्ष को भयुक्सना बतायी गयी हैं जो इस प्रकार हैं हिसा आदि के अस्कर्ष से कर्मक्षय की सम्भावना नहीं की जा सकती, क्योंकि हिंसा भाविका उत्कर्ष कदापि सम्भव नहीं हैं. अतः उस से कर्मक्षय नहीं उपपन्न हो सकता, और कर्मक्षय न हो सकने पर पुन पुरुषों की वास्त्रों में कथित मुक्तता का समर्थन नहीं हो सकता। आशय यह है कि हिंसा के उत्कई की कल्पना को प्रकार से की जा सकती है । सम्पूर्ण जीवों को हिसा मा हिसाहत जोय की दुःखों से मुक्ति । किन्तु यह दोनों हो जाते मसम्भव है. गोंकि कोई भी म्यति सम्पूर्ण जीमी की हिसा नहीं कर सकता, और न कों से बंधा जीव हिंसाहत होकर वु:खों से मुमत भी हो सकता है क्योंकि समबदा उस का पुनर्जन्म और उस जन्म में दुखों का आघात बनिया हैं । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या०० टीका मोर हिन्दीविवेचन ] द्वितीय आइ मलम्-तविपर्ययसाध्यावे परसिम्हान्तसस्थितिः । ___ कर्मक्षयः समां पस्मावहिंसाविप्रसाधनः ॥४२॥ तद्विपर्ययसाध्यावे =अईिमान त्कर्षमाध्यन्वेपरसिद्धान्तसंस्थितिः अन्यायपगमप्रमशः, पनः सतांसाधूनाम् , कर्मयोऽहिमादिप्रसाधन इष्टः ।।४।। वतीय श्राई तवन्यातुसाध्याचे नास्वरूपमसंस्थितम् । अहेतुन्वे सदा भावाऽभाषा वा स्यात् सदैव हि ।।४।। तदन्यसाध्य =उक्तोभयातिरिक्तमाध्यत्वे, तस्वरूप तदन्य हेतुस्यरूपम् , असंस्थितम अनिर्वचनवाधिन वाधकम् । चतुर्थ आइ-अतुम्वे कर्मक्षयम्य, गदा भावः म्याद , उत्पत्तिशीलन्यात , हिनिश्चितम् , गंदेवाभावी वा स्यानु अनुत्तिशीलन्यात 1॥४३|| सदन विनीय विकल्प एवं न्याय्य इति दर्शयतिमलमू-मुषितः कर्मक्षयाधिष्टा जानयोगफलं सब । अहिंसादि च ततुरिति न्यायः समां मनः ॥४॥ कर्मक्षय अहिंसावि के उस्कषं से साथ्य है ?] १२ कारिका में दूसरे पक्ष कोटि बतायी गयी है, जो इस प्रकार हैं कमंत्रय को हिमादि के उत्कर्ष के विपरीत महिला आदि के उत्कर्ष से साध्य मानने पर मध्य पक्ष-जो पक्ष अपने को इष्ट नहीं है-को स्वीकार करने की प्राप्ति होगी क्योंकि हिसा आदि से कर्मों का क्षय होता है यह साधुपुरों का धर्म एवं अध्यात्म में निष्ठा रखने वाले विधेको पुच्चों का मभिमत पक्ष हैरा ४. वोहारिका के पूर्वार्थ से तीसरे पक्ष को सदोषता बतायी गयी है जो इस प्रकार है हिसा वि निश्च कर्म और हिंसा आदि स्तुत्यकर्म. इन दोनों से भिन्न हेव द्वारा कर्मक्षय की सिद्धि नहीं मानी जा सकती, क्योंकि इस प्रकार का हेतु अमहियत-अमिय है. उस का नियमन हो सको के कारण वह स्वयं बाधित है. प्रत: वह सिकातपक्ष का बाधक नहीं हो सकता। कारिका के उत्तराध से चौथे पन का दोष बताया गया है, जो इस प्रकार है मक्षय को प्रहक-हेतुनिरपेक्ष भी नहीं माना जा सकता, पयोंकि अहेतुकको श्रिताप से हो हो पति हो सकती है। एक मह कि हेतु के अभाव में भी पविग्रह उपसिशील होगा. तो सबब उस का अस्तित्व होना चाहिये, पयोकि उसके होमे में किसो की अपेक्षा नहीं है, और दूसरी यह कि यदि मा अनुत्पत्तिशोल होगा तो उस की कभी भी उरपति म होने से उसे कमी म होना चाहिये अपिल सब उस का अब हो रहना चाहिये ||४३५१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [ शाश्वा मगुच्चय- नसो ४४.४५ मुक्ति: रमानन्दप्रामिः, कर्मक्षयाविष्टा कमझायजन्याऽभिमतः, म च कर्मक्षयः, ज्ञानयोगफलम् रत्नत्रयमानाच्यजन्यः तजेतुःकारण च, अहिंसावि -हिंसाविरति. परिणामादि, इति गपः, सतां जैनागमोपनिषद्वदिनाम् , म्याग:मार्गः, मनाइटः । नदे संसारमोचकागमाऽसारमा प्रतिपादिना ॥४४|| पर यज्दन! सा: सदिय र पति-.. मूलम्-एवं वेदविहिताऽपि हिंसा पापाय तरणतः । शास्त्रचोदितभावेऽपि वचनान्तरणाधनात् ॥४॥ एवं संसारमोचकाभिमनहिंसावत् , बवविहिनाऽपि= श्वेतं वापसमजमालमेत भृतिकामः' इत्यादिविधिनेष्टसाधनत्वेन पावितापि हिमा, तस्वतः युक्त्या विचामाणा पापाय भवति । विधिबोधितत्ये कश्यमेवं स्यात् ? इत्यवाद-शास्त्रचोदितभावंडपि-प्रकृतविधियोधितेपसाधनताकत्वेऽपि वचनान्तरषाधनात्-सामान्यतः प्रश्न निषेधापधिनाऽनिष्टसाधनत्वेन योधनात् ॥४५॥ ...-..(अहिसादि से ज्ञानयोग, उससे कर्मक्षय) ४५ वो कारिका द्वारा हसा आदि सामनों से ही कर्मों का अघ सम्पन्न होता हैस दूसरे पक्ष को ही न्याय-संगत बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है मुक्ति का अपई परमानन्द की प्राप्ति और परमानन्द का अप है अनमय की वह अवस्था, जिप्त में सिंचिमात्र मी दुःख के सम्पर्क की सम्भावना नहीं की जा सकती। यह मुमित मनुष्य को उस के समप्र कर्मों का क्षय होने पर ही सम्पन्न होती है और कौ का भय मानयोग है सम्पादित मान का अर्थ है सम्यक मान और सम्यक शंन, योग का अर्थ है सम्यक चारित्र्य । यह तीनों महाफलप्रद होने से महमूस्य होने के कारण रस्न कहे जाते हैं। इन तीनो रस्नो का प्रमृत मात्रा में संषय होने पर ही कमो का क्षय होता है और इन रहनों की उपलधि हिसा आदि अर्यात हिसाअप्तस्य आदि प्रतिताब त्यागस्वरूप बिरसिमय चिसपरिणाम के प्रमाबमुक्त बीघकालीन सेवन से ही सम्भव होती है। निहरू पहा कि अहिंसा आदि के सेवन से सम्यक मान. वर्शन और पारित हा अर्जन कर समप्र काँका अय करमा हो मःक्ष-प्राप्ति का निकटक माग है नाम के रहस्य को जानने वाले मनीषो पुरुषों को यही मभिमत है । इस प्रकार संसारमोचक आगमों को असारसा प्रतिपावित होती है। ४४|| (वेवविहित हिसा पापजनक है) ४५ को कारिका में संसारमोषक आगम के समान पाशिकों बादलों के भी आगमों को असारता बतामी गपी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका और हिन्दी विवेचन ) [३ पतदेय भावयाइमूलभू-'न हिंस्याविह भूतानि' हिंसनं दोषन्मतम् । वाहवद चैधक स्पटनसर्गप्रतिषेधतः ॥४६॥ 'म हिस्याविह' इत्यत्रस्थहशब्दोऽन्यत्र योन्यः, तथा व 'न हिम्यात् भूनानीह' इत्यर्थः । इदं च "न हिस्यात् सर्वभूनानि" इति वेदवाक्ष्यस्मारकम् । इह पाये हिसनं राग-देष मोह-नृष्णादिनिबन्ध महिमामामान्यम् , बोषकृत अनिष्टजनकम् । स्पष्ठम्- अमंदिग्धतया मातम् - अभीष्टम | किंवत ? इत्याव-चनाके दारयन् दाहो न कार्यः' इनि वैद्यकनिषेधवाक्यनिषिद्धदाहवा । इस' इत्याह-नासर्गप्रतिशतका समस्याहारानिधमाधमन्ये निरूड लाक्षणिकप्रकृतबिध्यर्धस्य व्युत्पतिमहिम्ना मिपेभ्यनावच्छेदकावन्दनयाऽन्वयात् । एनेन 'मनार्थे लिहान्वयं कथं दोपकृत्वबोधः । प्रकृतनिषेत्रविधेः पापजनकन्वे निरूदलश गायां प दृष्टान्त नुपपत्तिः, इनि प्रकमाविष्यनिषेधस्य हिंसात्वमामानाधिकरपयेनाऽन्वयाद् नानुपपत्ति पनि निरस्तम , सामानाधिकरण्येनापि विधिशका विरहेण सामान्यत एवं निषेधान्ययस्वीकागत् ॥१६॥ जिस प्रकार सप्तारमोधक आगमों में गित हिप्ता पापनमक होती है उसी प्रकार बिहिन हिसा भी श्वेत वायथ्यमकमालभेत मूतिकामः'भूति सम्पत्ति का इक बापूवता के उवध से गुभ्र वण के बकरे का वध करे" से वैदिक विषिवाक्प जिसे रस का तापम बताते हैं -युक्तिपूर्वक विचार करने पर बापाप का जनक सित होती है। यदि यह कहा जाप कि-"शास्त्रीय विधिमालय जिप्स हिता का विधान करते हैं-किसे प्रष्ट का साधन बताते हैं. उसे पाप का जनक कहना उचित नहीं है:ती यह कथन ठीक नहीं हो सकता क्योंकि जम विषिवाक्य जी से हार का साधन बताते हैं उसो प्रकार 'मा तित्यान सर्वभूनामित किसी भी प्राणों को हिला म फरमी पाहिमे स प्रकार के निवेधक अचान सामान्यरूप से हिंसा मात्र को अनिम का साधन भी बताते हैं और यह सर्वमान्य सस्प है कि मिस कर्म को शास्त्र अनिष्ट का साधन साते है वह कर्म पाप का बना होता है क्योंकि पाप के द्वारा ही उस की अनिष्टसाधनता सिद्ध होती है ।४५|| ['न हिस्यात् सर्वभूतानि'-वेदवाश्यार्थ] ४६ वीं कारिका में भी पूर्वकारिका की हो बात पुष्ट की गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जो - हिस्यान भूमानि' इस भागको 'म हिस्सा भूतानि इE' इस रूप में पढ़ने पर लाभ होता है__ हिस्यात् सब नानि' इस देशनालय में सभी प्रकार को हिसा से. वाहे यह राग, व, मोझ सूक्षणा आधि किसी भी निमित से की जाय, अनिष्ट की उत्पत्ति होती है, यह बात असन्विश्वकप में कहा गया है और यह ठीक उसी प्रकार माम्य जिसप्रकार छक पाशा के अनुसार 'बाहो . काये.' हम निषेधधाम से मिषिद्ध सोना. पारा आधि धातु या प्राणो के अग आदि का बाह करने पर जप्त दाह से होने वाली अनिष्ट हो जात्पतिमा है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शापा ममुच्चय न. २-इलो०-७ सनः किम् ? इत्यार___ मुलम्-तनो म्याभिनिवृतरार्थ दाहः कार्यस्तु बाधिते । न ततोऽपि न दोषः स्यात् फलोवेशन चोवनात् ॥४॥ Mil='दाही न कार्यः' इत्यनेन मामान्यत गव दाहम्यानिष्टमाधनामिदः, 'व्याधिनिवृत्यर्थ दाहः कार्यः' इति चोदि पि विहितऽपि, तुरयर्थः, न तनाऽपि-दाहात् फलोहेशेन च्याधिनियस्यर्थ चांदमान-विधाना हेतोः, न दोपः तापलक्षण; स्याव , किन्तु स्थादेव ॥४७|| प्रश्न हो सकता है कि-'जिस हिसा या जिस बाहको शास्त्र में इष्ट का साधम बताया गया है. उस से अमिष्ट की उत्पत्ति क्यों होगी? क्यों कि निवेषक पनों को पहुंध उन हिमा और दाह आवि तक हो हो सकती है जिन में इष्ट माधमता का बोधक कोई पास्त्र नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा सकता है कि निषेधवचन उत्सर्ग:सामान होता है और उस में मछ। क्व के सप्रिघान से विधिप्रत्यय को अनिष्टमाघनता में नियुलक्षणा होती है और इस निलक्षणालभ्य अर्थ का अम्ब निषेध्यतावसेवक के सभी आश्रयों में होने का नियम है। अत: 'न निस्यान सर्व मृतानि' इस वाक्य से निवेपसाबमापक हिसाव के आश्रय सभी हिंसा में और बाहो न कार्य:' इस वाष मे निष्यसावाछेवक पाहत्व के आषय सभी बाहों में अमिपटसाधमता का मोष होता है. अत: जिन कर्मों में शास्त्र के किसी विशेष वा से अष्टसाधना का और सामान्य वचन से अनिष्टसामनता का बोध होता है, ऐसे कर्मों से, इष्ट और अनिष्ट दोनों को उत्पत्ति होना हो माय संगत। यहि यह कहा जाय किनिषेधयस्थल में मार्य में लिप्रत्यषार्थ का अन्वय होता है, अतः निषेधाम से निषिष्यमाम कर्म में सिमर्थ धर्मसाधनस्य के अभाव का ही बोष हो सकता है. पायवनकरण का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि उसका बोधक कोई पद नहीं है. नम के निधान में विधिप्रश्यप की पापजनकत्व में निकालक्षणा मानकर भी उसके गोध को उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि इस प्रसार की लमणा में कोई दूसरा दृष्टान्त नही है । इस स्थिति में निषेधवाय से विध्यताबस्वक के सभी माश्रमों में लिक के अभाव का अवय न मानकर उस के कतिपस आश्मयों में ही निर्धाभाव का अवप स्वीकार करने से हिसाविशेष के विधायक तथा हिसासामान्य निषेधकवाक्यों में कोई विरोष म होगा फलत: शत्रविहित हिसाविशेष से पाप की उत्पत्ति का रस नहीं हो सकता - तो यह कमीकमहीं है क्योंकि म हिस्यात सर्वभूतामि' से मिषेषापों के अर्थदोष के समय किसी प्रकार की हिंसा आदि सकर्मक विघातको सम्भावना रहने से उन बाक्यों में निषेधपताबकास धर्म के सभी आपयों में हो लिभाव का अन्वय मानना हो मुक्तिसंगत है। ४६॥ (वाहजनित ताप दोष के समान पापबन्ध अनिवार्य) पूर्व कारिका में निवेमवाक्य से जिस प्रकार के बोध का समर्थन किया गया है, प्रस्तुत कारिका ४७ में उस बोष को फलश्रुति बतायी गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या कटीका हिन्दी विवेधन ] प्रकते दाष्ट्रान्तिकयोजनामाङ्ग भूतम् -एवं तरफलमावेऽपि चोदनानोऽपि सर्वधा । ध्रुवमौसर्गिको दाया जायने फलचावनात् ॥४८॥ एवं योदनानाऽपिः क्रत्याहिंसाविप्रेरपि, सफलभावेऽपितरोधितफलभावेऽपि, ध्रुनंजिश्चितम् , मथाऽन्यहि पातल्यतीमार्गको सामान्यमिपंधवाधिनः दोषः-पापलक्षणः जायने, फलगोपनात्--फलोदेशात , प्रणालकहिंसात्वयाऽधर्मजन क्रन्चात् । ननु निपेविधिनाऽनिष्टमाधनस्वमात्रबोधने ततो निवृश्यनुपपत्तिः, बलबदनिएमाधनन्यबोधने च व्याधिनिवृषार्थ दाहेऽपि प्रवृत्पनुपपत्तिः, इमि विशेषनि सामान्यविधतदितरपरन्यवद् विपरियों मामान्पनिमावि तक्षिक गायमै :: काप : आई चैतदभ्युपेयम् । कथमन्यथा तवापि सामान्यत आधाभिकारिग्रहणनिषेधऽप्यसंग्नम्णादिदशायर्या तविधानम् १ इप्ति अन् ? न, आधार्मिकरणाऽग्रहणयोः संयमपालमाथेमे कोईशेने विधानादन्मां--ऽपवादभावव्यवस्थितावपि प्रकुनेमा-यागयोरेकार्थत्वाभावेनोमर्गाऽपवाद. व्यवस्थाया पयाऽयोगाव , सामान्यनिषेधे संकोचम्याऽन्याग्यन्यात् । तदुक्नं 'स्तुतिकता "नोन्सृष्टमन्यार्थमपोयते च" [अन्य कयता श्लोक ११] नि । प्रवृतिस्तु नत्र मृदानी श्यनादाविथ दोषादेन । ___ 'वाहो । कार्य: स निषेधवाक्य से वाह सामान्य में अनिष्टसाधनता का बोध होने का कल पाह है कि व्याधिनित्यर्ष वाह कार्यः' इस शास्त्रवचम् से वाद का विधान होने पर भी मामान्यनिषेध के कारण विहितगह से भी दोष को उत्पत्ति का होना शिस होता है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि वाह व्याधिनिवृत्तिरूप विशेषफल के जद्देश्य से शास्त्रहित है अत: सामान्यनिषेध होने पर भी उस में पोषही होता'-पपीकि यानिति के लिये भी वाह करने पर उस से पोष का होमा तो निविषाव है। (फलान्तर प्राप्त होने पर भी प्रोत्सगिफ दोषानिवृति) इस कारिका में बाहरूप मानत के द्वारा य अङ्गभून amefसिक हिंसा में पापप्रकरण का प्रतिशरम किया गया हैं । कारिका का अर्थ इस प्रकार है जिस प्रकार म्याधिनिवृति के लिये वाह के विधायक वचन से वाह में फलसाधनता का बोध होने पर भी बाहो म कायम सामान्यांमध के कारण पंचशस्त्र में विहित भी वाह ताप बोध । जनक होता है. उसी प्रकार Anो अनभूत हिंसा के विधायकवाय से उस हिसा में फलसाधनता का बोष होने पर भी हिलामामाम्य का पात्रत: निवेष होने के कारण उस हिसा से मी पापात्मक रोष को उत्पत्ति अनिवार्य है क्योंकि वह हिसा मी अन्य हिंसा के सपा समान है क्योंकि फल मिशेष की १- न धर्महेत पहिनाऽपि मा. नोत्सृष्टमन्यामपोयते ।। पुत्रथावानुपतिस्परिप्सासहचारिस्कुरित परेषाम् ॥१५॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शार वारस मुरुपयसा २-श्लोर ४५ अत पय सानध्या अपि सामान्पनिषेध-विशेप विधिोधिनानर्थ हे तुकन्ध कन्यङ्गन्योकत्र समावेशामभदाय निषिद्धस्यापि विहितत्वम्य, मिहिनम्यापि निषिद्धत्वस्य च श्वेनादिव सिद्धि के लिये विहित होने की तृलास मा . लाल होने के माते अन्य हिंसा के समान उस हिंसा से भी अधर्म का होमा न्यायप्राप्त है। इस मन्धों में यह साहो सकती है कि-' निधवाश्य यदि सामानपत अनिष्टसाधनता का पोषक होगा तो चप्स से fifes कम से पुरुष को नियत्ति न हो सकेगी क्योंकि जिन विहित को को मनुष्य बड़े उत्साह में रखा है वे कम मी कुशन कुछ तो अनिष को ही ई अत: सामाग्य अनिष्टका साथ समझाते हुये भी मनुष्य से उन कर्मों से मिस महीं होता उसी प्रकार वर लिखित कमो को भी यदि सापाप अनिष्ट काही साधन समझेगा तो उन कर्मों से भी उसका नियत्ति न होगी। इस दोष के निवारणार्थ चियाकाको बयान अनिष्टको सानना का बोधक मामा नायगा तो इयाधिनिषन के लये भी सहकार्य में मनुष्य की प्रवृत्तिम होगी क्योंकि बाहो न कार्य: इस निषेप्रवविय से बाह में बनवान् निष्ट की साधनसा काहान होने से बाद में प्रति का प्रतिबम्म हो जायगा। अतः यह मानना आवश्यक होगा कि कसे "मृस्तिकामः अन्न ज्योत मूख दरकरने के लिये अन्न का भोमन करे। यह सामान्य विधि 'विषमा भुजोत जीवितुकामः' लीवित रहने का एक विषमिले अन्न का भोजन न करे, इस विशेषनिवेश के अनुरोध से विमिष अन्न से तरिक्त अन्न केही भोमन का विधायक होता है, जपी प्रकार 'दाहो न कार्य: 'म हिस्थान सर्वभूतानि पावि मामान्यनिषेध भी याणिनित्य बाहः कार्य., श्वत वामध्यम मालमेत मुनि नाम: स्याति विशेषविधि के अनुरोध से वित्रित वाह और लिहिताहता से अतिषित पाह और fat का ही निषेध करते है. अतः निषिद प्रतीत होने पले बिहिल कमो से पापको उपसिहा बना लिया मातम्यकि.fafzaifafeतनिधी सामान्यनिषेधका लापता है, यह बात अंगों को भी मानी पड़ती है क्योंकि जनशानों में में सामान्यरूप से आषामिक मनपान आदि के ग्रहण का विषेष और असस्सरण व बशा में उस के ग्रहण का विधान है.' किन्तु विचार करने पर उसंत शहका और उसका फणित उपस मिलकर वित नही प्रतीत होता. पोंकि बाधाकमिसमावि के ग्राहम और अनाज पोमों का विधान संयमपालनकम एक इंश्य से ही किया गया है अत: वम में उत्सरा और अपवाव की व्यवस्था तो हो सकती है पर आसा और या ये बोनों पक्ष: शुस ब्रह्मसाक्षात्कार व स्वर्ग के उस पिहित हामे से एक बय से नहीं विलित है. अत: उन में उत्सग और अपराध को व्यवस्था नहीं हो सकती। इसलि सामान्यनिषेपका विशेषविधि के अनुरोध से सोच मान न्यायसंगत नहीं हो सकता मालिये सुनिकर्मा प्रभु हेमचनसरि में कहा है कि 'अन्य के लिये जासर्गप्राप्त का अन्य के लिये अपवाब नहीं होता' अर्थात "उत्सर्ग अम्म उदंश से बभपवाव भिन्न सरश से बसा नहीं बन सकता, मा अपव। उम जामगं के तबन्धित नहीं हो सकेगा। मनः उत्साशास्त्र से मिषित कर्म में किमी निधि के आधार पर बोष. विशेष के कारण मूबों की झी प्राप्ति होती है। जैसे हिसामात्र का निषेध होने पर भी वषार्ष श्येनया में, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका- हिन्दी विवेचन ] दुपपत्तेः स्पेनाला दुष्टत्वमेव प्रतिवन्तः । तथा महाभारते " मनुस्मृतावपि - [ ज्योतिमादादिवशी कृतस्यैवाधिकाराज्ज्योतिष्टोमादीनां 'पस्तु सर्वधर्मः परमो धर्म उच्यते । अहिंसा हि भूतानां जपयज्ञः प्रवर्तते ॥१." इसि | 'जपेनैव तु संमिध्ये प्राणो नात्र संशयः I कुर्यादन्यद् न वा कुर्या मैत्री माह्मण उच्यते || १ ||* इत्यहिंसायाः प्रशंसया हिंसाया दुष्टत्वमेवोक्तम् । तथोत्तरमीमांसायामप्युक्तम्"अन्धे तर्मास मज्जामः पुशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेश धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ १||" इति । तथा व्यासेनायुक्तम् " ज्ञानपाली परिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यं दयाम्भसि 1 ↓ स्नात्वा तु विमले तीर्थे पापपक्कापहारिणि ॥ १ ॥ ध्यानानी जीच कुण्डस्थे दममास्तदीपिते असत्कर्मसमभ्रग्निहोत्रं कुरूतमम् ॥२॥ पापशुभिर्ध-कामाऽथैनाशकैः । शममन्त्रज्ञ विधेहि विहितं बुधैः ॥ ३ ।। प्राणिघातासु यो धर्ममीते मृढमानसः साप्रति सुभाषृष्टि कृष्णाहिसुखकोटरात || ४ ||" इत्यादि । ततो दुष्टमग्निष्टोमादि कर्माऽधिकारिणापि दोषासहिष्णुना त्याज्यम् अन्तःकरणशुद्धेन गायत्री जपादिनैव सुपपतेः' इत्याङ्गः । ( ज्योतिष्टोमादि यज्ञ दोषपूर्ण है- सांख्यमत ) तृष्णामूलक हिंसा पापजननो होने से हो साथियों ने भी सामरस्य मिथेन से घोषित अनर्थसायमस्व और विशेष से बाधित यज्ञाङ्गत्य का एक कर्म में समावेश सम्भव मानकर विहित में निषिद्धत्व का और निषिद्ध में विहितत्व का उपपादन किया है और प्रयतयाग के समान ज्योतिष्टोम आणि यशों में मीरा का ही अधिकार मान कर उन पक्षों को दोषयुक्त माना है। इसीलिये महाभारत में जपयज्ञ को प्राणिहिंसा से मुक्त बताकर उसे सब धर्मो से कहा गया है : स्मृति में भी पकी प्रशंसा में कहा गया है कि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प से ही सिद्ध होता है, दूसरा कोई धर्म चाहे वह करे या न करे क्योंकि वह सम का मित्र होता है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा० वा० समुच्चय-स्त २-ौर पर अन भादूटा1-"न क्रत्यर्थी हिंसाऽनहेतुः, विधिम्पुष्टे निषेधानवकाशात् । तथाहिविधिना बलवदिच्छाविपयमाघनताबोधरूषा प्रवनना कुर्वताउनर्थसाधने तदनुएपसे, म्वविपयम्य प्रवर्तनागोम्यानर्थसाधनन्याभावोऽज्यांदाक्षियने, नेन विधिविषयस्य नानधहेतुत्वं युज्यने । न हि त्वर्थन्य माझाविध्यर्थः, ग्रेन विगधो न स्यान , किन्तु प्रवर्तनयं । प्रवर्तना तु पुरुषार्थमेव विषयीकोनी क्वचिन् ऋतुमगि तथाभावमापन्नं विषयोकगति इत्यन्पंदता । पुरुषप्रवृत्तिश्च बलवदिछोपवानदशाया जायमाना न भाव्यम्यार्थहेतुतामाक्षिपति किन्तु यथाप्राप्त मेवाऽवलम्वते, बलरदिनछाविषये स्वत पय प्रवृत्तः, स्वर्गादो विध्यन पेक्षणात् । अन एव बहिनश्येनफलस्याऽपि शत्रुवधस्पाभिचारम्यानहेतुन्यमुपपद्यत एच, फलस्य विधिजन्यप्रवृतिविषयत्वा प्राधान् , विधिजन्यप्रनिविश्य तु धान्धर्थ करणं प्रयन नाश्यगाहले । याच नाउन बेहेतु विपपीतक इति निको परिधिपधि नगर निधन भय- पादिरला. कन्वर्थहिंसाविषयम् । तेन श्वेना-ऽग्निष्टोमयपिम्यादुपपन्नमदृष्टयम् | ज्योनिधीमादेविधिस्पृष्टस्यापि निषेधविषयन्वे, पीडशिग्रहणस्थाप्यनर्थहेतुन्धापत्तिः, 'नानिगने पोशिनं गृहाति' इनि निषेधान ! तम्माद् न क्रिश्चिदेनत" इत्याहुः । तथा उत्तरमोमामा में भी कहा गया है कि जो लोग पशुओं में पार करते हैं ये मात्र अन्धकार में प्रवेश कर रहे हैं कि यह मिश्रित है कि हिंसा से कमी न म हश्रा है और न कभी होगा।' ___सास ने भी कहा है कि-मानपाली में सुरक्षित ब्रह्मचर्य और बयारुप नल पायप को दूर करने वाला निर्मल तीर्थ है, मनुष्य को चाहिये कि उस प्लीय में स्नान कर के नौवरूप पुण्ठ में बमकप चाप से ध्यानरूप अग्नि को प्रयोप्त करे और उस में अशुभकर्मों का मिथ (=उभ्यनाकालकर उत्तम कोटि का अग्निहोत्र करे और विद्वान पुरषों द्वारा विहित उस याका अनुष्ठान करे जिस में शान्तिमात्रों से प्रमं, अर्थ और काम का नाश करने वाले वासना रूपी दुष्ट पशुओं के हवस का विधान है। जो मनुष्य प्रागियों को हिसा से धर्म का अजन करना चाहता । यह मूव है. वह काले नाग के मुख से अमन को वर्षा चाहता है। अतः अग्निाटोम आदि कर्मों में जिन का अधिकार है वि वे पाप का मार जाना नहीं चाहते तो उन्हें भी जन पागमन कर्मों का रयाग करना चाहिये और अन्तःकरण को शुक्षि लिये गायत्री जप मावि हिंसारहित कमाँ का हो अनुष्ठान करना चाहिये।" (यज्ञादिगत हिसा निर्दोष है. भट्ट का पूर्वपक्ष) भदमसानुमापी मीमांसकों का कहना है कि जो हिमा कालिये की जाती है वह अनचं का कमही होती, पयोंकि शास्त्र के विधि बाघ से जो पिहिम हात उस में मिषेषवाय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। आशय यह है कि विषिवाक्य प्रवर्तमा का जनक होता है और प्रवर्तना भनके साधन में नहीं हो सकती. क्योंकि प्रवर्तना का अर्थ है जिस वसु की मनुष्य को बसवनी इच्छा हो उस वस्तु की साधमता का बोध', को अनर्थ साधर में बुघर है और पूर्घट इसलिये है कि लिस में शिघिवापय सं बलवान पर को साधनता का बोमन होता है उस में अभयसाधमता के Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था टीका-दिनी विवेचन अभावमा भानुमामिक बोष भी होता है. अत: विविवापय से बलवान पदको साधता का मोधन उसी वस्तु में उचित सो समता है जो मन का साधन महो। इस प्रकार विधि और निषेध का परस्पर विरोष स्पा है. बर्योकि विधि का विषय यह होता है जो पान का साधन न हो और निषेध का विषय बह होता है जो समर्थका माधन हो। हाँ म योनों में घिरोप उस स्थिति में न होता मत विभिवाक्य हिसा को यमका अङ्ग प्रवर्तनमा द्वारा बनाकर सोये ही यश का भङ्ग बताता, क्योंकि हिंसा मनका भाड़ा है और हिंसा अन का साधन हैन बोधों में कोई विरोध नहीं है, अत: लिसा में विधि से मशागता का और तिष से अनसाधनता का भी बोध हो जाता, किन ऐसा नहीं है पोंकि विधिवषय हिसा में प्रबतना का जान कर उसे याका अङ्ग बताता है.मीर प्रवतता उसी में होती है जो अष्ट मामाधन और अनिष्ट का अमापन होने से पुरुषार्थ (पुरुष का अभिलषणीय) होता है। कहाँ पर या भी प्रवसना का विषय इसीलिये होता कि यह भी पट का साधन और भनिष्ट का असाधन होने से पुरुषार्थ होता है। (विशेषविधान से निषेधसामान्य का बाथ) इस प्रसङ्ग में यह ज्ञातव्य है कि पुरुष को जिस विषय की सबसी सखा होती है उस में उस की प्रवति के लिये इण्टसाधनसा नाम की अपेक्षा न होतो किन्तु उसका स्वरूप मान हो उस पति के लिये पर्याप्त सा है क्योंकि बस बस्तुको बलवतो या होता है उसमें पुरुष की प्रवृत्ति स्वतःहीही जाती है, इसीलिये स्वर्ग प्रावि में पुरुषप्रति के लिये विधि की अपेक्षा नहीं होसो। इससे स्पष्ट है कि फल विधिमन्यप्रसि का विषय नही होता अत: उस में इष्ट को साघमता और अनिष्ट को प्रसाधनता का बोध अपेक्षणोष नहीं होता । इसीलिये वोमयाग के शास्त्रविहित होने पर भी उस का फल पायाप भभिचार अपच का साधन होता है क्योंकि यह प्रपतनाका विषय मना होता, प्रवसना का विषय तो वह होता है जो विधिजन्य प्रति का विषय होता है और यह है धातु का अर्थ याम मावि, ओ फालका करण हा करता है । इस प्रकार यह तिषियाय है किनर्थ का हेतु प्रबलना का विषय नहीं होता। उपम्पत गति से बह निस्समोह सिब है कि शिधि और निषेध में विरोध होता है, अतः मायाम्यनिषेध का विशेषविधि से बाप होना न्यायप्राप्त है । इसलिये न हिस्यात सर्वभूना- इस निषेयवाक्य का विषय बहो हिसा हो सकती है ओ यम का अझ न होकर केवल रागढेषादि यशही की जाती है। (अग्निष्टोमाधि याग श्येनयाग से तुल्य नहीं) इस स्थिति में यह बात अत्यात स्पष्ट हो जाती है कि येनयाग की समानता बताकर finटोम आदि यजों को जो बोषयुक्त कहा गया है वह सचित नहीं है, क्योंकि यमबाग से अनिष्टोम आदि का वाणम्प मुस्पष्ट है और वह इस प्रकार की येनयाग शास्त्रविहित होने से पपि स्वयं अनर्ष का हेतु नहीं है किन्तु उस का फल कात्रुवरूप अभिचार विधि का विषय न होने से 'त्र हिल्यात सर्वाभूतानि' बल मामाग्यनिषेध के आधार पर अमचे का साया है, अत: अनयंतामन का प्रपोजक होमे से श्येन मी बोषयुक्तता यायसंगत है. किन्तु अग्निष्टोम बास्त्रविहित होने से म स्वप मन का साधन है और न उस को भूल हिसा ही पास्तमिलित होने से सामान्यनिषेध का विषय न होने के कारण अनपं का सायमी, और न उसका फल्न पगे हो किसी निषेध का विषय हो। के कारण मन का साधन है। प्रतः किसी भी प्रकार समधननन में प्रयोगकम होने के कारण Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [० वा० समुचय०२०४८ " मायाकारातु कल्लापार्न नियोगस्य प्रवर्तकत्वम् तेन श्येनस्य रागजन्यप्रवृत्तिविपयत्वेन विधेरौदासीन्याद् न तस्यानर्थहेतुत्वं विधिना प्रतिशिष्यते । अग्नीषोमीयसाय तु त्वगभृताय फलमात्वाभावेन रागाभावाद् विधिरेव प्रवर्तकः, सच स्वविषयानतुत प्रतिक्षिपति इति प्रधानभूता हिंसाऽनर्थं जनयति न क्रत्वर्था, इति न हिंसामिथितत्येन दृष्टत्यमग्नीषोमादेः कृपालुः । ५० ] मलद्वयं फलतस्तुल्यमेव । दर्यास्तु विशेषो यत्-प्रभाकरमते "चोदनालझणोऽर्थो धर्मः (जैमिनीयसूत्रे १,१४२ । ) इत्यत्रार्थपदव्यान्त्वना श्येनादेः । भामने तु श्येनफलस्यैषाऽभिचारस्याऽनर्थहेतुत्वादधर्मत्वम् श्येनम्य तु विहितस्य समीहितसाधनस्य धर्मस्वमेव अर्धपदव्यावर्त्य (स्यत्वं ) तु कलिजमणादनिषिद्धस्यैव इति फलन हेतुत्वेन तु शिष्टानां रथेनादीन धर्मत्वेन व्यवहार इति , adaयाग से उसकी विषमता स्पष्ट है, इसलिये नाग के समान उसे भी बोषयुक्त बताना नितान्त असंगत है। विधि के विषय में निषेध की प्रवृति उचित नहीं है. यह पहले कहा जा चुका है जो साव है. अन्यथा विधि का विषय होने पर भोक्योसिट्रोम आदि को यदि विशेष का विषय माना जायगा तो नातिराधे बोशनं गुरु णातिः अतिरात्र में शेष का ग्रहण न करें इस निषेधवाक्य का विषय होने के कारण अतिरात्रे षोडशिनं गृह गाति' अतिरात्र में षोडशी प्रण करे इस विधि से घोषित पण मी अनर्थ का साधन हो जायगा अतः 'अग्नीषोमीयं पशुपाल इस निषेध की प्रवृत्ति के पक्ष में 'इस विधि के विषयभूत पाहता में हिस्यात् जो कुछ कहा जाता है वह कुछ के बराबर है। ( यज्ञीय हिंसा में प्रभाकर मत ) प्रभाकर मतानुयायी मोनसकों का कहना है कि जिस प्रकार फल में पुरुष की प्रवृत्ति राग से ही होती है उसी प्रकार फल के साधन में भी पुरुष की प्रवृत्ति रागवश ही होती है अत: विधिवाक्य फलसर में भी प्रवर्तन का जनक नहीं होता इस तय के अनुसार श्येनयागो मस्य प्रवृत्ति काहो होता है, अत विधिवाक्य उस के विषय में तटस्थ रहता है अत एव विधि से उस में अनर्थ हेतुता के अभाव का आक्षेप नहीं होता, इस कारण से नपा को अनहेतुता अक्षुण रहती है, किन्तु अग्निष्टोम में की जानेवाली हिंसा यक्ष का होने से न फल ही है और न फल का साधन हो से। अतः उस में राम न होने के कारण स्वतः प्रवृति नहीं हो सकती किन्तु विधिमय से ही प्रवृति हो सकती है, अल. विधिवाक्य से उस में अमसाधनता के अभाव का आक्षेपक बोध आवश्यक होने से सामान्य निवेषाश्य से उसमें अनर्थसाधनता का बोध बाधित हो जाता है. इसलिये प्रधाना ही अर्थ का साधन हो सकती है, यज्ञ की अगल हिंसा अर्थ का साधन नहीं हो सकती । प्रत: हिंसा से मिश्रित होने के कारण अग्निष्टोम को दोषयुक्त कहना पूर्णतया अनुचित है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या क टीका हिन्दी विवेमन ) __ सत्र भामतेऽभि वारस मात्रुवधानुकूलव्यापारः पापरूप एक्, इति कथं श्येनस्य नानर्थहेलुन्यम् । इनि विधिविषयेऽपि निषेधायकाश एवापाना, अनर्थप्रयोजकत्यस्पैच लाघवेन शिवप्रयागानुरोधेन च निपेनिर्थवे तु सुना तस्मादिष्टसाधनत्वमात्रमेन विध्यर्थः । फल्ने उत्कटेच्छाविरह विशिष्टदुःखजम कत्रज्ञानमेव च प्रतिप्रतिपन्धकम् , इनि एयन इव क्रन्वङ्गहिमायामपि मामान्यनिपंधवाश्यान् प्रत्यवायजनकल्लवीधेऽपि प्रचलदोपमहिम्ना फल उत्कटेचलाया अविघातात प्रवृत्तिः, इनिन तप कन्वङ्गत्वा-उन हेतुस्त्वयाविरोधः, इति प्रत्यवायजनकेऽपि प्रबर्नकम्मनाशवाक्यम्याऽर्थशास्त्रत्वमेव, न धर्मशास्त्रत्वम्, इति प्रतिपत्तव्यम् । (भट्ट-प्रभाकर मत में ऐक्य और अन्तर) वास्तव मष्टि से विचार करने पर भट्ट और प्रभाकर दोनों का म माम ही प्रतीत होता है । अन्तर केवल इतमा हो है कि प्रभाकर के मत में 'बावनालक्षणोडणे धर्मः' अर्थात 'बोसमा विधिधार से बोम्प्र अ धर्म है स लक्षण में अबंपर पर्यन का व्यावतक है. प्रतः उन के मत से इयेम अथम है और भारत में श्येन का फल अभिन्नार ही अनपं का हेतु होम में प्रधम है। मेन तरे पास्त्रविहित पटमाधन सोने के कारण धर्म ही है उक्त ममं लक्षण में 'अप' भट्ट मत के अनुसार कल अभनप आदि निषिद्ध कर्यों का हो ध्यावत हैन कि विहित नयाग का, अत: उपत जानुसार भी दयेस प्रम हो है । धर्म होने पर भी शिष्ट पुरुष जो उसे पमं नहीं कहते उस का कारण सस को प्रथम पता नहीं है सिम्त अनर्थ के सामनमून अमिशार का जनक होने में अधमप्रयोजकता है अर्थात् श्येत स्वयं अधर्म म होने पर भी अधमे का जनक होमे से शिष्टपुरुषों को हरिट में पह धमपन से म्यवहार्य नहीं है। [विधिविषय में भी निषेध सावकाश-भाट्टमतखंडन] इस सन्दर्भ में यह बातम्प है कि अभिचार भी शवधानुकलण्यापाररूप होने से पाप हो है अत: उस का जमक श्येनयाग भी अनय का हेतु क्यों नहीं होगा! और जन मन का हेतु होगा तो 'पये नेनाभिधान यजेस इस विधि का विषय होने पर भी उस में न हिस्पात सर्वभूतामि' इस निबंध को प्रवृत्त होने का अवसर भाट्टमत में मो मिल ही जामगा। और यदि लापव की दृष्टि से सपा शिष्टव्यवहार के अनुरोध से अनपहेतुत्व के पहले अनर्थप्रयोजकत्व को ही निषेधविधि का अर्थ माना जायगा, तातो शत्रुध से होने वाले पापका प्रनय का प्रयोजक होम से श्येनयाग और भी सरलता से मनधि का विषय बन जायगा । इस स्थिति में यह उचित है कि बलवान ट को मानता को विषि का अर्थ मानकर सामान्यप से अष्टसाधनतामात्र को ही विधि का अर्थ मामा जाय । ऐसा मानने पर यद्यपि या प्रश्न हो सकता है कि- 'यवि विपि का अर्थ सामाम्पत: रसायनतामात्र होगा और विधिविषय में भी निषेध की प्राप्ति होगी तो श्येनपाग में विधिवाषय से सामान्य टिसाधनता का बोध होने पर भी उस में पुरुष की प्रवत्ति न हो सकेगी क्योंकि निषधतिथि से उस में होने वाला अनसाधनाव का काम प्रवत्ति का प्रतिबन्षक हो सायना ." तथापि इस प्रान से स्थिति में कोई परिचलनमीमतोकिसका अत्यन्त उपयुक्त असा पह है कि भगषप्ताभनव का शान तभी प्रतिवरक होता है जब बिस का प्रतिबम्ब Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रयातासमुपचय स्त० ३-रखो० ४८ प्रभाकरमतेऽपि श्वेनस्य विधिना फलसाघनन्यज्ञापनं विना प्रवृत्याविषयत्वात् कथे. रागजपप्रवृत्याविषयत्वम् १ । प्रधानहिंमान्येन नाऽधर्म जनकत्येऽन्यहिमाया अधमंजनकत्वं न स्यात् । रागप्राप्तहिंसात्येन तथान्वेऽपि गगनाम पदि विध्यजन्यछाविषयन्त्रम्, तदा श्येनाऽसंग्रहः, यदि चाङ्गविध्यजन्यच्छाविषयन्यम्, नदा श्यनागाऽसंग्रहः, माग्दं प, इति न किञ्चिदेसन् । पतन भादर्शनमवलम्च्याऽभिहितम् 'अशुद्धमिति येत ? न. शब्दान' इति वावरायणसूत्रमप्यमास्तम् । होता है उस में फल की उत्क- TVा हो। अत: इोमयाग में निषेषवापस से भयापनश्व का शान होने पर मो उस में पुरुष को प्राप्ति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता क्योंकि मो श्येनपाग को भरमा चाहता है उसे येनयाग से होमेवाले वरूप फल की उत्कट बना रहती है। इसी प्रकार अमिष्टोम सावि घन के अजगभूत हिसा में हिसासामाग्म के निबंधकवचन से अनजनकत्व का ज्ञान होने पर भी 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेत' इस विधि से अग्निष्टाम के अङ्गभूत हिंसा में होनेवाली प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उपत हिसारा सम्पन्न होने वाले अग्निदोम या को, जो पुरुष करना चाहता है उसे उस पासे होने वाले स्वरूप फल की उत्कट इा। राहतो है जो सुख की प्रबल भातक्तिरूप दोष के कारण अपरिहामं होती है। इस स्थिति में यह मालभ्य है कि उस रीति स यज्ञामस्व और अनहेतुस्व में कोई विरोध न होने से पापजनक कम में भी प्रवर्तक होने के कारण अग्नीषोमीयं प्रयुमाल मेत' जस बाक्य धर्मशास्त्र के रूप में मान्य न होकर अर्थशास्त्र के रूप में हो मान्य हो सकते हैं। [पेनयाग के विषय में प्राभाकर-मत का निरसन] प्रभाकर मत में येनयागको रामध्यप्रवृत्ति का विषय बताकर उस के विषय में बिभिवाक्य को जवासीन कहा गया है। किनु यह स्पष्ट है कि तक विधिपाय से उस में फल साधनमा का शासनहीं होता तसतक उस में प्रगति नहीं होगी अतः उसे रोगजन्य प्रवृत्ति का विवध और उस के सम्बन्ध में विधिवाक्य को वासोन कहमा कसे सम्भव हो सकता है? प्रभाकर मत को यह बात भी कि-"प्रधामहिसा ही पाप की जननी होती है. घर को अगभूत अप्रधानतिमा पाप जमनी कड़ी होती'हीकामही प्रतीत होती, क्योंकि प्रधानहिसा को ही पापजनक मामने पर तो किसी प्रधान हिंसा के मशरूप में जो प्रधान लोकिक हिसा होती हवा, पापका जनक न हो सकेगी। और यदि रागप्राप्त हिसा को पापजनक मानकर प्रधान मनमा ममी प्रकार की गवाह्य शिसा को पापजनक कहा जायगा, तो यह भी ठीक म हो सकेगा, क्योंकि रागप्राप्त का अर्थ ) विधि से अन्य इमा का विद्यम' मामा जापमा लो श्नयाग राग प्रारत के सम्सगेतनभाने से पाप का सनम हो सगा। और (ii)यन अङ्ग विधि से भजम्य भया का विषय' यह अर्थ किया जायमा सो श्येनयाग के अङ्गभूतों का संग्रह न होगा। और iiirver में विधि से प्रधापरव अषमा अनिधि अमायरव का निवेश कर विशिष्ट पछा के विषषभूतहिमा को पारा नमक माना जायगा तो गौरव होगा। अतः साधनको प्रष्टि से हिसास्वरूप से हिंसामानको पापजनक मानमा ही उचित है इसलिये in के मङ्गभूत हि को पापका मजनमा बताने का प्रभाकर का प्रयास. मी कोराप्रपात ही हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाफ टीका-हिन्मीविवेचन ] नयापिकास्तु-'इष्टसाधनत्यम् , निसाध्यन्यम् , बलबदनिष्टाननुबन्धित्वं च, इति अयमेव विध्यर्थः । तहिंसा साचा निषेधाऽभावान प्रायश्चित्तानुपदेशाचेहसावनस्व-कृतिमापत्यवद् पलवदनिधाननुबन्धित्वमपि विधिना योध्यते, इनि न तस्या अनथहेतुत्वम् । श्यनादेस्त्रभिचारण्य साक्षादेव निषेधात , प्रायश्चिनोपदेशाच्चानहेतुत्वाचगमाव तावन्मात्रं तत्र विधिना न बाध्यते इति मात श्येना-ऽग्नीपोमोलमण्यम्' इत्याहुः । भदप्यसन , स मयमाष भामान्यभिपंधानुरोधेनानियहेतुत्वावश्यकत्वात् । नत्यायश्चित्सबोधकवेदस्याऽपि कन्पनाच । सामान्यनिषध-विधिमकीचे शस्यार्थत्यागेन वेदे उपर्युक्त कारण से बावरापण का वह सूत्र भी निरस्त हो जाता है जिस में भामत का सरलमान कर मसाज सिर को शास्त्रवधान के बल से निष्पाप बताने को बेष्टा की गयी है। [यज्ञोय हिमा के बचाव में न्यायमत] नवापिक लोग अन्य प्रकार से अपनयाय और अग्निष्ठोम में षाम बता कर येन में पापजनकत्व और अक्सिट्रीम में वापसनमायके अभाव का उपपादन करते हैं। उनका कहना है कि-बधिप्रत्यय के तीम अर्थ होते है-इष्टसाधनस्व, कृतिसाध्यव, और बलवदमिण्टननुवाधिस्व अर्थात् इष्ट को अपेक्षा बलवाम अनिष्ट का भजनकस्य । विधिवाक्य जिस कर्म का विधान करता है उसमें सतोत्र मयों का वोधन करता है। जो हिंसा कनु के अडकप में विहित होती , उस हिंसा में भी उसके विषिवाक्य से इन्द्र सरधनस्व और कृतिसाध्यस्थ के साप बलवनिष्टासनश्व का मी बोध होता है। क्योंकि भो साक्षात निषिद्ध न होमे सेत था उस के लिये किसो प्रकार के प्रायश्रिका विधानहोने से अनर्थ का जनक नहीं माना जा सकता। इस प्रकार रिषिवाक्य से कसम हिसा में बलम्वनिष्टाऽजनकाय का बोध होने से यह अनर्थ का सावन माहीं होती, किन्तु श्येम का अनर्थसाधनाव ध्रुव पयोंकि अभिचाररूप होने से यह सामात जिविस है. तथा उस के लिये प्रायश्चित्त का विधान है । अतः षेमयाग विधिमाश्य से उस में ष्ठसाधमत्व और सिसाध्यब हम वोही बातों का बोध होता है. बलानिष्टाऽमनकरप का बोष नहीं होता | अतः विधिवाक्य से बलवान अनिष्ट के अजमकरूप से वोषित न होने के कारण उस समय साधनस्य निवासिद है। (न्यापमत खण्डन) इस कथा को क्यालयाकार श्रीमद पशोविजयजी में मसंगत बताया है। उनका कहना कि-पाकी प्रङ्गभूत हिसा भी 'न हिस्यात स भूतानि इस हिंसासामाभ्य के निविषिका विषय होने से अन का साधन है, और इसी कारण उस के लिये भी प्राप्रितमोषकमेव की कल्पना आवश्यक है। यात अाभूत हिंसा की विधि के अनुरोध से सामा पनिषेध में संकोच करना धित महीं है क्योंकि इसके लिये सामान्यनिषधि कायम करना होगा कि यहीय पा में Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा. पा. समुनय स्त०२-इलो-४८ लक्षणापाश्रयणस्यासिजघन्यत्यान् । अन्यथा 'रात्रौं श्राद्धं न कुर्षीत' इत्यत्रापि नमो भेदयस्परत्वेन गुणविधेः अधिकारविधेया प्रमजान , 'अमात्राम्या पितृभ्यो दयान' इत्यादिविधिः बोधितथाद्धजन्यतावनोदकपुण्यवानान्तरजातिथ्यापकमात्यवछिन्न प्रति गत्रीतरश्राद्धकरणम्य कारणत्वेन रात्रिकृतथाद्धात् फलनुत्पादासमवान् । अथ तत्रापि विशेषनिधे मामान्यविधः तदितरपरत्वन्युत्पत्त्याः प्रस [यज्यनवावपत्ती नमो भेदवापर न स्वीमियत' इति चेत् ? तहि सामान्यविधेरको चानुगो निधविधः विपणना वीकियताम् । विकल्प एवं वा। भिन्न प्राणियों की हिंसा न करे और इस अथ की प्राप्ति के लिये सामान्यनिधेष विधि के अन्तर्गत आये 'भूत' पद के सपा का स्वाग कर 'यशीमपशुभिन्नमून' में उस को लक्षण्या करनी होगी और लक्षणा एक अधन्यवृति है, अत: वेव से महनीय मामे हए समय में उस पत्ति का अवलम्बन करना अनुचित है। (गुणविधि-अधिकारविषि) या भी ज्ञातव्य है कि निवेष विधि में लश्नमा का अवलम्बन करने पर रात्री धान करीत रात्रि में पास न इस निनिधि में मी माझ पख की भित्र में लगा मान्य झो सकेगी और तब उस का अर्थ होगा- रात्रि से भिन्न समप में पार करे' और उस स्थिति में यह निबंधविधि न रहकर गुणविधि अथवा अधिकार विधि हो जायगी । आवश्य यह है कि जिस विधि से अजय और प्रधान के सम्बन्ध का मोष होता है उसे गुणविधि कहा जाता है से 'वना सहोति-बहोशवन करें'इस विधि सेहबम हत्प प्रधान कर्म के साथ उसके अका भूत साधन पथि के सम्बन्धका पोध होने से यह बिभि गुणनिधि होती है, उसो प्रहार रात्री पास मात' यह विधि भी श्रावरुप प्रधान कम के साथ रात्रि मित्रकालरूप ग्रह के सम्परच का बोधक होने में विधिको आयगी । अधिकाबिधिरन की प्रसक्ति सिलिये होगी किहम का पर्यवसान फरपामिरवोपोथन में हो जाता है.जसे-जब विधि विभिन्न समय में प्रातके अनुदानको विहित करेगी तो अमावास्यामा पितृम्पो वयात अमावस्या तिथि में पिरो काधारकरे। इस मादक विधायक बापय से जिस जाति के पुण्य की जनकता बार में विधक्षित है उस जाति के पुष्य के प्रति शत्रिभिन्न काल में किया जाने वाला श्राहकारण है यह बात रात्री बाळून, इस विधि से बाधित होगी. और ऐसा होने पर फलत मह विधि-भावामुष्ठाम के एण्यार्थी में रात्रिभिः अकाल में करणीय श्राद के फलस्वामित्व का बोध कराने में पर्यसित होगी। प्रतः फलस्वामित्व के धन में पयसित होने से इस में अधिकार विश्व की प्रतिकित अपरिहार्य है. कयोंकि फलामियको बोधक विचित प्रधिकारविधि होती है। इस में गुणवत्व और मधिकारविनिमय की प्रसविल इसलिये मी सम्भव है कि इस प्रतिक्ति का कोई वाधक हो मूल व्यारया में 'पुण्यत्वाशनर जातिन्यापजारपस्विन्न प्रति' इस अंश में 'ज तिव्यापक शाद अधिक लाता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्याक टीका -हिन्दी विवेचन ] [ ५ यस्तु त पर्यु दासविषयप्राप्ने श्रद्धे रात्रिभित्रन्वरूपगुणविधानमेव दीक्रियने, न तु रात्रिभिमाऽमाधाम्यान्वेन निमित्वम् । विशेषण विशेषमा निगमनाकिटेणातिगौरमात । सरत्रापि सामान्यनिषेधविधायक्रवाह सान्वेन निर्मितन्वं परित्यज्य कन्वगहिमायां श्येन व मलबदनियामनुवन्धियान्वयपरित्यागमात्र किन मनाईयत, प्रवृत्तेस्तवदेवोपपत्तेः । क्योंकि गुणविधि या अधिकारविधि होने पर भी इस से रात्रियान में फलानुस्पायकता का बोध होने में कोई बाधा नहीं होगा। [सामान्यविधि ययारूप में प्रक्षुम्णः] पधि यह कहा जाय विशेष का निपेशाने पर सामान्य विनि विशेषतापरक हो जाती है मोसिायास्त्र की यह व्यवस्था है. और इस को उपपत्ति नज पद से हो होती है अतः विशेषनिषेध विधि में ना पक्ष का तात्पर्य भिन्न अर्थ में मानना आवश्यक होता है। इसलिये न पा को भिन्नार्थक मानने पर 'रात्री मार्द्धन कुवात एस निषेधविधि में उक्त गीति से गुणविधि अपना अविकारविधिका झापावन तिन: क्योंकि मन परको भिन्मायक मानकाजसएक प्रयोअन विद्यमान है तब उसका प्रयोमानान्तर से सम्बन्ध जोग्ना अनुचित है" तो यह कहना ठीक मही है क्योंकि उक्त व्यवस्था में सामान्यबिधि में सकोग करना परता है । अत: ऐसी व्यवस्था करना उचित है जिस में सामान्यविधि अपने यथामत रूप में अक्षुण्ण रहे। एसप उचित यह होगा किन पव को भिन्नार्थक न मान कर अभावाधक माना जाय और निषेधविधि का विशेषणाभाव में ही सात्पर्य माना जाम। जेस, एत्रो भान ने कुर्षोत' इस मिषेष में सप्तमी विभक्तिसाहित रात्र पास का भय है रात्रिनिष्ठत्व विशेषण, अमावार्थक मञ् शम्न श्राद्ध में गनिनिष्ठत्व के समाय का बोध होगा, अतः इस निबंध से उसो श्राद्ध को बासग्यता प्राप्त होगी जो सप्रिनिष्ठ हो । अपषा रात्रि पाश और रात्रि मायामाब में विकल्प होगा, मिस का फल यह होगा कि कोई मनुष्य कमी रात्रिधार और कभी रात्रीधावत्याग दोनों पका सकेगा किम्स दोनों में एक विकल्प ही मोकार करना होगा. बह नियमितिरूप से विधान हो करे या नियमित रूप से राधिपाद का स्याग ही करे। इस व्यवस्था में ना पा को मिले अर्थ में लाशगिक मानने की आवश्यकता मही होती और सामाग्यविधि अपनं यथाभूत रूप में सुरक्षित रह जाती है। इस यस्था के अनुसार, हिस्यात् समतागि यह सामान्यभिषेक भी अपने सामान्य अर्थ में सुमित रहेगा. लक्षणा द्वारा यक्षीयपशु से भिन्न भूतों को ही हिंसा के विषय मेंस का संकोच न होगा, अत. ल सामान्य मिषध का विषय हो जाने से यज्ञीयाँहसा का भी अमर्थ साधनस्स विवाद है। [सामान्यविधि के संकोच में पुक्त्यन्तर-तम्खण्डन] कम मितान ऐसे ई जी राम्रो भाव न कुनौस' इस निषेध बिधि में ना को प{ पास बोधक मानकर इसे प्रिभितरवरूप गुण का ही विधायक मानते है । ये श्रायविधायक बाप में प्रमावास्या का रात्रिमिम्मस्वरूप विशेषण से संकोच कर विभिन्नस्य विशिष्ट समावास्याम्पको धारका निमित्त नहीं मानते, क्योंकि पत्रिमिन्नत्व और अमावास्यास्प के परस्पर विशेष्यविशेषणाव में विनियममा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रयामसिमुनय-१ लीक ge पमेन 'नेन रूपेण निमिनमाथिकी, इनि न शक्याथैन्यागः' इत्यपास्तम् , अर्थनः कन्वमहिमायां चलयदभिधान नुवन्धित्यस्यैवाऽसिद्धः, श्वेन इव नत्र सामान्यमिपंधवाधादेव तदनन्ययात् 'श्येने तदनन्ययप्रयोजक तात्पर्यम् , त्वगहिसायौ तु न तत्' इति कल्पनागोरवे हिंसारसिकत्वं त्रिनाऽन्यम्य बीजम्याऽभावात् । अथानीयोमादेः म्बर्गजनकन्यं श्रुतं तदङ्गहिमाया बलदनिष्टानुवन्धित विरुध्यादिति चेत् । श्येनम्याभिशारजनकन्वमपि कि न तथा १ । 'श्यनजन्याऽदृष्टस्य शयधनाकोमयजनकत्वात न विरोध इनि चेत् ? तहि क्रयङ्गहियाजन्याऽदृष्टस्यापीशानिष्टोमयजनकस्वमङ्गीक्रियताम् । “ग सति पुज्यन्य-पापन्ययाः मामिपनि चन् । तदिदं नवेच गंकटम् । अस्माकं तु फापानुबन्धियविकिनिदिनाना नानीबादीलामिष्टप्रयोजकत्वमात्राभ्यु न होने से शामिलस्त्र विशिष्ट अमावास्याय और अमावास्यास्वविशिष्ट रातिभिन्नत्व इन दो रुपों से निमित्तता के स्वीकार्य होने स गौरव की आपत्ति होती है। ऐसे लोगों के प्रति व्याख्याकार का कहना कि उन्हें इस चिन्तन में मी मनोयोग देना चाहिये कि 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेल' इस विशेष विधि के अनुरोधसे 'न हिस्यात, सर्वाभूमानि' इस मामाम्य निषेध में सकोच मानकर कायणमिन्नसाय रूप से हिला को निषेष्म मानने पर क्रत्वभिन्नत्व और हिसाव के परस्पर विशेन्यविशेषणभाव में विनिगमना न होने से कावळभिन्नत्य विशिष्टहिसाव और हिसास्वविशिकरबहामिलव इन दो रूपों में हिसा को निषेध्य मानने में गौरव होगा । अतः सामान्यनिमध में संकोच मानना होकमही है, अपितु यह मानना लोह होगा कि सामान्यमिांध सं हिसारवरूप से हिलामात्र में श्रमसाधनत्व का बोध होता है और रबमा हिंसा में उस के विधिवावय से रेवल साधनस्य और कृतिमाध्यत्व का ही बोध होता है, बावनिष्ठाव का बोध नहीं होता औसा कि स्पेनयाग के विधि के सम्बन्ध में माना जाताह । ऋत्य हिसा में एलवनिम्ताजनकन्या का बोध न होने पर भी केबल अष्टसाभस्व और कृतिलाध्यक्ष के हो कोष से प्रति उसो प्रकार हो सकेगो जैसे पेनयाग में होती है। इस प्रसङ्ग में पह कहना कि रविवाद्धनिषेध के अनुरोध से श्रावविधायकवाषण में कोच के लिये अमावास्या पशया का त्याग करने को आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि शत्रिभिन्म अमावास्थावरूपसे श्राउको निमिसता कामत: बोधाम हो कर अत: बोध्य होतीसोप्रकारता निषेध में भी रासाकी विधि के अनुरोध से संकोचकरने के लिये वह मोशषप्राथत्याग की सावश्यकता नहीं है क्योंकि यहां भी त्वङ्गभिन्नहिंसास्वरूप से निषेध्यता का बोध शस्त: म मान कर अत: मामा जा सकता "महकहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि नियमके समान कस्बा सा में भी सामामनिवेधके कारण बलवनिष्टकमकस्वकाबोध अध: असिद्ध है। यदि जाय कि येनयाग में बलवनिष्टाजनकरबका अवय न होने में शास्त्रका तात्पर्ष है किन्तु करवा हिसा में उस का बयान होने में शास्त्र का जापय नहीं हैसी इस कल्पना गौरवका आधार कल्पक हिंसाप्रेम को छोश कर दूसरा कुछ नहीं हो सकता। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याक टीका और हिन्दी चिवेधन ] [५७ पगमे न किश्चिद पाधकम् ।-'यो यद्गतफलार्थितया क्रियते, स नगकिश्चिदतिशयजनक' इनि नियमान् शत्रुबधार्थिनया क्रियमाणं श्येनजन्यारटं पापरूपं शनायेव स्वीक्रियन'-इति चेत ? कथं तनिक नग्काऽषामि. एनसस्य श्येनथ्यापारतायामन्यत्राऽप्यष्टोछेदप्रसंगान , शनिष्ठपारस्य च भोगेन नाशान् | न चायं नियमोऽपि, कर्मणः समानाधिकरण [श्येनयाग-प्रग्निष्टोम फल के प्रति समाम] प्रस्तुत रिवार के प्रम में यदि यह कहा जाय कि-'अग्निष्टोम प्रादि मानों में वेवात्मक प्रमाण से स्वर्गजनकस्य सिद्ध है प्रतः उस के पिरोध के कारण उसके मनमुत हिसा में बलवनिष्टजनकत्व नहीं माना जा सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वेसिन पभिचारजनकरव के कारण श्वेनयाग में मी बलनिष्टजनकरन का त्याग करना होगा । फलतः वह भी अनर्थ का साधन न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि-'वेनजन्य अष्ट फो बाध और नरक दोनों का जनक मामले में कोई विरोध नहीं हैं-सो कत्वजहिसा से होनेवाले प्रहष्ट को भी इष्ट और प्रनिष्ट पोतों का जनक मानने में क्या माया हो सकती है ? मदि यह कहें कि-एक परष्ट को स्वर्ग और नरक का जनक मानने में पृण्यत्व और पापल्य में साहूयं होगा तो यह कयन नैयायिक को ही संकट का कारण हो सकता है। माहतों को महों, क्योंकि प्रानत मत में ऐसे कमो से पापानुबन्धी पुण्य का बध माना जाता हैं प्रतः गयेन और अग्निष्टोम दोनों को समानरूप से इष्टप्रयोजकमात्र मान कर दोनों को पनर्थ का भी प्रयोजना मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती। [येन से शत्रु में ही अष्टमनन का खण्डन] कुछ लोगों का इस विषयमें यह कहना है कि-"शवष के लिये विहित श्येनयाग से पापल्प मरष्ट की उत्पत्ति शत्रु में ही होती हैं, श्येनफर्ता में नहीं होती, क्योंकि यह नियम है कि-जो कर्म जिस प्राश्रय में किसी फल को उत्पन्न करने के अभिप्राय से विहित होता है वह कर्म उस में किसी प्रतिशय-मदृष्ट को उत्पन्न करता है-" किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर श्येनकर्ता को नरक की प्राप्ति न हो सकेगी,क्योंकि श्येनकर्ता में प्राशुविनामो श्येनघाग का कोई व्यापार न रहेगा। यवि पह कहा जाय कि- येनयामका में होने वाला श्येनश्वंस ही नरफ के जगम में स्पेन का द्वार है । अतः यह प्रापस नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं हो सकता क्योंकि एकत्र कर्मश्वंस को कर्म व्यापार मानने पर अन्यत्र भी कर्मध्वंस को हो कर्म का व्यापार मान लिये जाने की सम्भावना से कमव्यापार के रूप में प्रदष्ट की सिद्धिशी असम्भव हो जायगी। यदि यह कहा जाय कि-"शनिष्ठ पाय हो श्येन का द्वार है और वह स्वजनकायेनकदृत्व सम्बर्ष से नरक का कारण है अतः इससे पयेनकता को नाक की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती"-तो यह होक नहीं हो सकता वमोंकि शत्रुगत पाप का शत्रुगत भोग से नाग हो सकता है, प्रतः श्येनकर्माको नरक को प्राप्ति होने तक उस का अस्तित्व सन्दिग्ध होने से उसे बार मानना सम्भव नहीं हो सकता। सच बात तो यह है कि उक्त निषम भी मप्रामाणिक हैं क्योंकि प्ररष्ट पौर कर्म में सामानाधिकरण्येम कार्यकारणभाव होता है प्रसः कर्म से ष्यधिकरण प्रष्ट की उत्पत्ति नहीं हो सकती । मोर पदि कुछ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ [ शा० वा समुचय-स्त. २-लोक ५८ मन्नै बाउरष्टस्य जनकत्वाद, तत्तदृष्टाऽन्यान्वेन ममानाधिकरणकर्मजन्यत्वे गौरवान् । एतेन श्येनान पापछयाभ्युपगमोऽपि परास्ता इति न किनिदेनन् । ये तु-"श्यनेऽपि वलवदनिष्टान नुवन्धित्वं न बाधितान्वयप , न हि सा हिमा, अदृष्टाद्वारक्रमरणोद्देश्यकमरणानुकूलव्यापारस्यैव हिंसात्वात् । गङ्गामरणार्थक्रियमाणत्रिमध्यस्सयपाठवारणाय 'अष्ट्राऽद्वारक' इति विशेषणम् . कूपकत देवात कुपपतितमोहिमायारणाय 'मरणोदेगक इति । नथा व श्पेनस्याऽपि न निपि.त्यम्" इत्याहुः तेषां हिंस्त्राणामपूर्वा हिंसारसिकता, यथा श्यनक गपि वैरिमरणप्रयोजकानपालाफत धेन शिष्टत्यमनुमतम् । अनर्थप्रयोजकेऽपि निपेबिधिप्रवृनी च प्रतिज्ञाबाध इति । न प माष्टरमा कर सोक्तिमान के लिये तक्ष मष्ट से भिन्न प्रहाद के ही प्रति कर्म को समानाधिकरण्येन कारण मामा जाय तो कार्यतावच्छेदक में गौरव होने से यह कार्यकारणभाव मान्य न हो सकेगा। सोलिमें यह मी कल्पना करना उचित नहीं है कि-'श्येनयाग से दो पाप उत्पन्न होते हैं, एक गनु में और दूसरा श्येमाकर्ता में क्योंकि-ऐसा मानमे में गौरव है जो समामारिएक होने से स्वीकार्य नहीं हो सकता । प्रतः श्येन में और हिसासाध्य अग्निष्टोम प्राधि में मनर्षसाधनत्व का मभाव सिद्ध करने का ऐसा कोई भी प्रयास उचित नहीं हो सकता। [प्रदृष्टाद्वारक परपोद्देश्यक ध्यापार हिंसा'] फुव विधानों का कहना है कि-"येनपाग में भी बलवनिष्टाऽजमकस्य का अन्वम बाधित नहीं हैराश्येतविधिले पाय और कृतियापा के साथ श्येन में बलवमिण्टाजनवका भी बोष होता है । प्रतः यह भी हिलारूप नहीं है, क्योंकि जो व्यापार मरणोपयक होता है तथा प्रष्ट कोद्वार बनाये किनाही मरश का सम्पादक होता है वही व्यापार हिंसा काहा जाला । श्येन तो भदृष्ट द्वारा ही भररण का सम्पादक होता है, अतः उसे हिंसा नहीं कहा जा सकता। हाँ, हिंसा के लक्षण में से यदि माझाएकाप-प्रमट कोहार बनाये विना हो' इस मंशको निकाल जाय तो श्येन भी मवश्य हिसाझप हो सकेगा, किन्तु उस मंश को लक्षण से पृथक नहीं किया जा सकता, श्योंकि उसे लक्षण में से निकाल वेने पर गंगा में मरण होने के उद्देश्य से तीनों सध्या-प्रातःमध्याहौरसायं के समय गहगास्तोत्र प्रावि का जो पाठ किया जाता है, वह भी हिसा हो जायपा। इसी प्रकार हिंसा के उससक्षरण में 'मरणोपयक' इस नशा का रहना मी मावश्यक है, क्योंकि यदि उस ब्रा को लक्षण से पृथक कर दिया जायगा तो फूपनिर्माण भी हिसा हो जायगी क्योंकि कप में गिर जानेवाली गौ के मरण का यह प्रयोजक है और उस मरण में प्रष्टरूप द्वार की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु 'मरसोद्देश्यफ' इस अंश को लक्षण में रखने पर यह दोष नहीं होता, क्योंकि कप का निर्माण इस उद्देश्म से नहीं किया जाता कि इस निर्माण से सम्पन्न होने वाले फूप में गौ प्रादि पषु गिर कर मरें, प्रतः मेनविधि से श्येन में भी बलबदनिष्टाजनकरव का वोष होने से वह भी 'न हिस्यात् सर्वाभानि' इस निषेधषिधि का विषय महीं होता, फलतः त्वङ्ग हिंसा के समान पह मी पापजनक नहीं होता-" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचन ] [५ सेः पाप्मभिहिंसालक्षणं स्वमतेनाऽपि राष्ट्र घुटम् , स्वजन्याऽदृष्टाजन्यत्वस्य मरणवियोषणस्येइसंभवान् , कार्यमानस्याऽएजन्यवाद । सामानाधिकरण्पनाऽष्टजन्यत्वनिवेशे च श्येनातिध्याप्तेः । एतेन 'अदृष्टव्यापारसंबन्धेन स्वाजन्यत्वं तत् ' इत्यपि निरस्तम्, प्रतियागप्रतिपश्येनानिव्याप्तेश्च । न च तत्र मरणोपधायकत्वलक्षणे मरणानुकूलन्यमेव न, इति नातिप्यामिति पापम्, खगघातेनाऽपि यत्र देषात् मरणं तथाऽव्याप्ल्यापचे । न प समापि पूर्णप्रायश्चित्ताऽभावाद न हिंसेति यन् , गधेवायसरापसारा । ऐसे विद्वानों के सम्बन्ध में व्याख्याकार का कहना है कि इन विद्वानों का हिसाप्रेम प्रपूर्व है। जिस के कारण ये विधान शत्रु का प्राण हरण करनेवाले पेन कर्मा को मी फेवल इसलिये शिष्ट मानने को तैयार है कि वह शत्रु का वध करने के लिये उस पर पचप्रहार नहीं करता या उसके गले में छा नहीं भोंकता। ['अष्टाद्वारक' विशेषणानुपपसि] उनके हिसाप्रेम का ही यह भी प्रभाव है कि येनयाग में सामान्यहिसामिषेध वचम को प्रप्रवृत्ति बताते हुये यह नो भूल जाते हैं कि ऐसा मानने पर 'अनर्ष के प्रपोजक में मी निषेविधि करे प्रसि होती है उनकी इस प्रतिक्षा का बाप होता है। सच बात तो यह है कि इन पापियों ने हिता का जो लाभरण बताया है वह उनके मत से भी समोजीन नहीं हो पाता क्यों कि पहयाद्वारकरण विशेषण से लक्षरा का यह स्वरूप निष्पन्न होता है कि 'जो व्यापार स्वजन्यरष्ट से मजन्य मरण का प्रयोचक हो एवं मरगोइंश्यक हो वह व्यापार हिसा है किन्तु यह लक्षण असम्भव बोब से ग्रस्त हो जाता है, क्योंकि कार्यमात्र अटकट से जन्य होता है, अतः मरण भी प्रथाय ही अरष्टजन्य होगा, मोर वह जिस प्रष्ट से जन्य होगा वह परष्ट उस व्यापार से भी अन्य होगा जिस व्यापार में प्रस्तुत हिसा लक्षण का समरवय प्रमोष्ट है, क्योंकि मरणप्रयोजकव्यापार सामान्य रूप से मरणजनमा प्रासामाग्य का जनक होता है। यदि इस दोष के वारणार्थ मरण में समानाधिकरणदष्टाजन्यस्य का निवेश किया जायगा तो इस दोष का परिहार तो हो जायगा क्योंकि हिसासे होने वाला मरण मरनेवाले के पदण्ट से होता है और वह मष्ट हिंसा का समामाधिकरण नहीं होता किन्तु ऐसा करने पर येन में हिंसालक्षण की प्रतिम्याप्ति होगी क्योंकि श्येन से होनेवाला मरण मी येनकता के प्ररण्ट से उत्पन्न होने के कारण समानाधिकरण प्रष्ट से प्रजन्य होता है। [स्व (श्येन जमकमरणेनछाविशेष्यत्व संबध भी अनुपपन्न] उक्त असम्भव का पारण करने के लिये भरष्टाधारकाव का प्रर्ष यदि 'परष्टारमकण्यापार रूप सम्बन्ध से स्वाऽबन्य' किया जाय तो इस प्रर्थ से असम्भव का धारण तो हो जायगा क्योंकि हिसाजन्य मरण के प्रति हिसा साक्षात कारण होती है, 'परष्टारमकस्यापाररूप सम्बम्भ से कारण नहीं होती और वह मरण मरने वाले प्राणों के जिस मरपट से होता है यह हिसा का पापार नहीं होता, किन्तु यह प्रर्थ मी तदोष बोमे से त्याज्य क्योंकि यस अर्थ स्वीकार कर परमी श्येत्र में हसालक्षण की प्रतिण्याप्ति का परिहार नहीं हो सकता क्योंकि श्येन मी मरष्टात्मकायापार रूप सम्बन्ध से शत्रुमरण का जनक नहीं होता अपितु स्वजनकमरणप्रकारकाच्छाविशेष्यस्थ सम्बाध से Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.1 [ शाय वा समुच्चय-०२-शो०१८ जनक होता है। कहने का प्राशय यह है कि स्पेन से उत्पन्न होने वाला प्रष्ट श्येनकर्ता में होता है प्रसः पप के साथ उसका सम्बन्ध न हो सकने से वश शमरण में श्येन का व्यापार नहीं बन सकता. प्रषित गयेनका जिस हच्छा से श्येनयाग करता है वह नाहीशन के साथ स्पेन का सम्बन्ध स्थापित करती है । जैसे श्मेन माग का अनक इच्छा इस प्रकार होती है कि'मेरे द्वारा अनुष्ठित होने वाले येन से शम्र का मरण हो' 1 इस इलया के द्वारा मात्र के साथ येन का बिजनक मरण प्रकारक इण्या विशेष्यत्व सम्बन्ध स्थापित है। जैसे, स्व कान र धेन, उस की मनक मरण प्रकारक इसाया है उक्त रुष्टा, चस की विशेष्यता मात्र में है, प्रातः स्मेनजन्य शत्रुमरण मरण्यापारात्मक सम्बन्ध से स्पेनाजन्य है। प्रत एवं मरण में प्राष्टबपापारात्मक सम्बन्ध से स्वाजन्यस्वरुप प्रष्टावारकस्व का निवेश करने पर भी प्रधेन में हिसासक्षरा की अतिण्याप्ति अनिवार्य है। यदि यह कहा माय कि-"श्येत को उक्त प्रयाविशेष्यत्व सम्बन्ध से समरण का कारण मानने पर पङ्गवैकल्य से ज्येमणग के अपूर्ण रह जाने पर मी उक्स इच्छाविशेष्यत्व सम्बन्ध के अक्षुण्ण रहने के कारण शत्रुमरण की मापस होगी १४ उसे प्राष्टात्मक व्यापाररूप सम्बन्ध से ही कारण मानना होगा, येनकर्ता में उत्पन्न होनेवाले महान का सत्र के साथ साक्षात् सम्बाध न होने पर मो स्वाबय संयुक्त संयोगरूप परम्परा सम्बन्ध बन सकता है। जैसे,-स्व का प्रर्य है पनजन्य प्रष्ट, उस का माश्रय है श्येनका, उस से संयुक्त होता है मूमध्य, मौर उस का संयोग होता है भानु के साथ। स्पेनकर्ता मारमा और शत्रु मारमा दोनों के व्यापक होने से इस सम्बाघ के होने में कोई बाया नहीं हो सकती। प्राग शरीरसंयोगतरूप मरण भी स्वप्रयोज्यमोगामाधवस्व सम्बन्ध से शत्रु-मारमा में रहता है, प्रतः इस सम्बन्ध से शत्रु श्रात्मा में होने वाले मरण के प्रति स्वजन्या स्टाभयसंयुक्तसंयोग सम्बन्ध से श्येन को कारण मानमा पुषितसंगसही है । पर्वत का यह सम्धस्थ मध्यरात्रु से भिन्न व्यक्तियों में भी रहता है, किन्तु शयेन से उन ध्यक्तियों का पय नहीं होता, अतः शपेन को केवल इस एक सम्बन्ध से ही कारण मानना ठीक नहीं है किन्तु उवात मष्यादित सम्बन्ध तषा स्वस्मरणप्रकारकछा-वियोध्यस्व सम्बन्धन वो सम्बन्धों से कारण मानना आवश्यक है। वध्य यात्रुओं से मिन्न व्यक्तियों में व्येन का पुतळा घटित सम्बन्ध न होने से उनके मरण की तमा अशकरूप से ध्येन को अपुतावशा में अहाटरितसम्बन्ध न होने से उस बया में शत्रपरणको आपसि मही हो सकती । तो इस प्रकार श्येतर मरण में अहष्टारमकम्यामाररूप सम्घ से श्येमवयस्प ही रहने के कारण स्येम में अतिव्याप्ति न हो सकने से हिसा का उक्त समय निर्घोष हो सकता है। -तो ___ यह बहना मी लक्षण को निर्दोष नहीं बना सकता, क्योंकि विरोषो पाग के कारण श्येनयाग से अभीप्सित अवध की अनुत्पत्तिकक्षा में श्येनमाग में अतिम्याप्ति का कारण नहीं हो सकता क्योंकि बह श्येन भी अष्टाप व्यापारात्मक सम्बन्ध से स्व से ममप मरण का प्रयोजक मरणोद्देश्यक ज्यापार है। इस बोष का परिहार करने के लिये यवि-मरणप्रयोजकत्व के स्थान में मरणोपवायकरव का निमेगा किया जाय तो यह भी ठीक नहीं हो सकता, कयोंकि जहाँ किसी प्राणी पर खनाप्रहार करने पर भी प्रारणो को मत्यु उस प्रहार से न होकर पाप में देवा हो जाती है बही उस बगप्रहारकप हिमा में मरणोपधायकस्य म होमे से हिसाहक्षण को अध्याप्ति होगी। 'ऐसे व्यापार के लिये पूर्ण प्रायश्चित का विधान न होमे से ऐसे व्यापार को हिसा हो नहीं माना जा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका-हिन्दी विवेचन ] [ ६१ , एलेन 'मरणजनकाटाजनकत्वलक्षणं तद् व्यापारविशेषणम् इत्यपि निरस्तम् इतरहिंसाजनकतटशाऽदृष्टाऽप्रसिद्धेन । मरणोद्देश्यकत्वमपि न मरणत्वप्रकारकेच्छाजन्येच्छापित्यम् धनादिलिप्सया हिंसायामव्याप्तेः किन्तु मरणजनफेच्छाविपयत्वम् तथा च क्रखङ्गद्दिसायामतिव्याप्तिः अत एव मरणकलकताबोधकविधियोधितकर्तव्यता कान्यस्वरूपाSपि न वा निर्वाह, प्रमादकृतहिंसायामव्याप्तेः विहितेऽपि श्येनादौ वदीयानामपि हिंसा व्यवहारात् अनेन रूपेण पाप जनकर गौरवासि दिग् , , I सकता' मह बात नहीं कही जा सकती क्योंकि अर्थप्रायश्चित्त का विधान को उसे हिंसा मामने पर ही उचित हो सकता है। अतः प्राणिवध का असफल व्यापार भी हिसारूप होने से उस में अध्याप्सि भय से हिंसा लक्षण में मरणोपधायकत्व का निवेश नहीं किया जा सकता | ( मररजनकादृष्टाजनकत्व का निवेश श्रप्रसिद्ध ) नया में असियाप्ति का धारण करने के लिये अष्टरूप व्यापारात्मक समय में मरणजनक अष्ट के अगमकत्व का भी निवेश करने से हिंसा का उक्त लक्षण निर्दोष नहीं हो सकता मर्योकि इन से हक में उत्पन्न होने वाले को वध्य में मरणानुकुल अदृष्ट को उत्पन्न करने द्वारा शत्रु का मारक मानने पर इस विशेषण से श्येन में अतिव्याप्सि का वारण तो हो सकता है, क्योंकि उसका अष्टात्मक उपागार महणजनका अष्ट का अजनक नहीं है अतः मरणजमकाष्टा जनकअमक सम्बन्ध से श्येनजन्यत्व को अप्रसिद्धि होने से उक्त सम्बन्ध से इयेाग्यरथ को भी अप्रसिद्धि होने के कारण श्येन में उक्त लक्षण का जामा सम्भव नहीं है. किन्तु अग्रहारमक व्यापार में उस निषेण करने पर लक्षण असम्भव से ग्रस्त हो जायगा, क्योंकि हिंसा से भो सट होता है वह भी अन्य हिंसा का जनक होने से उस हिंसा से होनेवाले मरण के जनक अष्ट का जनक होता है अत: मरणसनादृष्ट का अजनक अष्ट हो अरसिद्ध हो जाता है (मच्छाजन्येच्छाविषयत्व भी अनुपपत्र ) भरणोद्देश्यकटक का निवेश भी निर्दोष नहीं हो सकता, क्योंकि यदि उसे मरच्छा से अन्य इच्छा का अविरूप माना जायगा तो यद्यपि कूपनिर्माण तो मरणोश्यक न हो सकेगा क्योंकि कूपनिर्माण की इच्छा मरणेच्छा से जन्मा है और कूपनिर्माण उस का विषय है अविषय नहीं, और हिंसा मरणोद्देश्यक हो सकेगी क्योंकि उस की इच्छा मरणेच्छा से अन्य होती है, अतः हिंसा मासे अजयच्छा की विषय होती है तथापि मरणोद्देश्यकत्व का ऐसा निर्वाचन करने पर धन से की जानेवाली हिंसा भी मरणोद्देश्यक हो जायगी, जब कि वह मरणोद्देशान होकर धनलाभोद्देश्यक होती है, अतः मरणजमका विषय को हो मरणोद्देश्यक कहा आपना ऐसा कहने पर मलिप्सा से होनेवाली हिंसा मरणोद्देश्यक न हो सकेगी क्योंकि उस को इच्छा धनलाभ की इच्छा से होती है न कि मरनेच्छा से, अतः यह इलामको जनक होती है, साकार मरण की जनक नहीं होती। इसीलिये मरणजनक इच्छा का विषय न होने से ब्रह्मरोद्देश्पक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [शास्त्रयातासमुच्चय स्त० २-श्लोक १८ सस्मान 'प्रमादयोगेन व्यपरोपर्म हिंयाति पनि हत्या | अत्र च प्रमादयोगः-यतनाऽभाषः, यतना घ जीररसानुकलो व्यापारः, तस्वं च जीवमरणयापारविघटकत्वम् , युगमात्रक्षेत्रे सम्पग्नेप्रच्यापाररूपेयांममित्यादिना जीयमरणजनकचरणन्यापारादेरनिष्टसाधनत्वेन निबननादिति बोध्यम् । न प 'मरणानुकूलच्यापारेण' इत्येचा प्रस्तु, क्रिमधिकेन १ इति वाच्यम् , अप्रमत्तहिंसायामतिच्याप्तः । न चवमध्यमाभीमाऽविघटनेनाऽप्रमत्तहिंमाश हिमात्यापतिः, शक्पविघटनन्यस्य न्यापारविशेषणत्वात् । न चवमप्यनशानादावतिव्याप्तिः परजीयग्रहणे चात्मरिमायामच्याप्तिरिति वाच्यम् , शुभसंकल्पापूर्वकन्यम्य मही कही जा सकती। फूपनिर्माण की पया भी मरण जनक न होने से निर्माण भो मरणोदरपक नहीं हो सकता, किन्तु मरणोधकरव का ऐसा लक्षण करने पर क्सु को माभूत हिमा मरणोइंश्यक हो जायगी, पोंकि अमिष्टोम आदि कानु में पशुवध गावश्यक होने से मनुचिको को पशुवय की छा मारनी होगी अत: स्पिक हिसा कोण्या मरणजनक या होगी और उस छा का विषम होम से स्वस्त हिंसा में मरणोद्देश्यकत्व अपरिहार्य हो जायमा । (मरणफलकत्वबोधविषिबोधितकर्तव्यताकाम्यत्वरूप प्रदृष्टाहारकरव) अष्टाचारकास्त्र का प्रर्थ यदि यह किया जाय कि जिस व्यापार की कसम्यता मरमफलकाव के अवोधक विधि से पोषित हो उससे अन्य व्यापार अदालारक व्यापार होता'-तो हिमामात्र में उसकी जपपसिनो जायगी क्योंकि हिसाको कर्तव्यता किसी विधि सोषित नहीं होती मतः उसमें उक्त विधिविशेष से बोधितकसम्यताकान्यस्व सुघट है, किन्तु यह अर्थ करने पर भी श्येन को हिमा से पथक करने की कामना पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि इन को कस्यापा का बोपन विधि पात्रमरणफलकाव का बोधक होता है, अत: मरणफलकाव के भयोधक विधि से मोधित करुपता काश्यत्व उसमें मो या जाने से उसमें उक्त हिसालमन का समन्वय रहै। एक त्वहिता को कसंध्यता का बोधक 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेस' यह विधि भी मरणफलस्व कामोषक है अत: उप्तमें मरणफलकत्व के प्रबोधक विधि से बोशितकर्तव्यताकाण्यत्व आ जाने से एवं उत्तरीत्या मिर्वाचित मरणोरेश्यकरका जाने से वह भी सामान्य हिंसा की कोटि में आ जायगी । हिसालमगघटक ग्यापार में बितिष का निवेश कर भी लक्षण को निवाष नहीं किया जा सकता क्योकि प्रभाव कृत हिसा में मरणोरयकराब होने से अम्पाप्ति हो जायगी और उक्तलक्षणात्मक रूप स हिसा को पापजनक मानन में गौरव भी होगा। जनमताभिमत हिसालक्षण] नेपालिकों की ओर से प्रस्तुत किये गये हिसालक्षण को सरोष बताकर व्यापाकार में बात मतसम्मत हिसालक्षम को परमपिप्रणीत बताते हुये उसकी समीधीमता की घोषणा की है। वह लक्ष इस प्रकार है 'प्रमावयोगेन प्राणण्यपरोपगं हिता-प्रमावयोग से होनेवाला प्राणहरण हिमा है। प्रमाबयोगमा अथ है-यसना का अमान। यतना का अर्थ है जीवरक्षानुकल पापार । बीबरमानुकुल व्यापार उस व्यापार को कहा जाता है जिसमे जोधमरणानुकुल व्यापार का विघटम हो । असता अभिप्राय यह हुआ कि जब मनुष्य जोषमरणामुकूल व्यापारका परिहार करन का प्रपल हो Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचन ] [६३ मरणग्यापाविशेषणवाव । न चंवं याशिकानामपि कत्राहिमाया शुभगंकल्पाद्न दोष इनि घाच्यम , विधिजन्यमोशेच्छाया एवं शुभसंकल्पपदेन ग्रहणात । अत एक राज्यादिनिदानार्थमनशनमप्यात्महिमा चदन्ति तान्त्रिकाः । थ्यमाचोभयहिंसालक्षणं चैतन , कपंन्धजनकमा तु प्रकृतिप्रदेशावाश्रित्य प्रमत्नयोगन्येन, स्थिति मी पाश्रित्य क्लिष्टाश्यवसायत्वेन, इत्यन्यत्र विस्तरः । सम्माद् हिमायामहिंसात्वं समान्यता पापी वेदायलम्पनमपि महतेऽनर्थाय । करता और उस समय उमसे कोई मर जाता है तो उस समय मनुष्य जीव का हिंसक हो जाता है और उसे जीव हिंसा का पाप लगता है। इसीलिये जीवमरणानक मरणयापार आदि अमिष्तजनक व्यापारों से बचने के लिये मैनशासम में धुग याने शकट के अग्रभाग से परिमित भूमि तक के भाग को सावधानीपूर्वक प्रेक्षकर चलने का आदेश दिया गया है और उसे ईयोसमिति आदि शवों से व्यवहत किया गया है। प्रश्न होता हैं कि-"मरणानुकल व्यापार से होने वाला प्राणहरण हिसा हैं-इतना हो लक्षण पणेनों किया जाता 'लीवमरणानकलण्यावार का विघटन करनेवाले व्यापारसना के अभाव में होने वाला प्राणहरण हिंसा है इसने यो लक्षण को क्या आवश्यकता है इस प्रश्न का उत्सर या कि प्रभाव होने पर भी जो हिसा हो जाती है उसे पापजनक हिंसा नहीं माना जाता किन्तु मरणानुकलण्यापार से होने वाले प्राणहरणको पापजनक हिमा का लक्षण मानने परम हिमा में भी लक्षण को अतिव्याप्ति हो जायगी । उक्त गृह सक्षण स्वीकार करने पर पर शका हो सकती है कि-"अप्रमादशा में पलना के लिये सतर्क रहने पर भी जीव को विद्यमानता का अशाम जो मुगातया नित्य जीवके वर्तमान शरीर से मोक्तव्य कर्मों के उपयवश होता है. उसका विषहम न हो सकने के कारण भी जीव का माण होता है, अतः इस अप्रमश हिसा में इस लक्षण की मो पतिव्याप्ति होगी-" किन्तु यह शल्का उचित नहीं है, क्योंकि लक्षगघटक जीवमरणानुकुल व्यापार में शक्य विघटनस्व का निवेश कर देने से इस दोष का परिहार हो सकता है, क्योंकि अनामोग का विघटन शक्य नहीं होता। अतः अप्रमावस्थल में जीवमरणामुकुल विघटनयोग्य व्यापार के विघटक व्यापाररूप यसमा का अभाव न होने से अप्रम साहिता में अतिध्यारित ही हो सकती। यह प्रश्न हो कि-"मोक्ष के लिये किये जाने वाले समान आषितप में भी इस क्षण को अति. पालि होगी । और इसका वारण करने के लिए यदि अन्य जोष के प्राणम्यपरोपण का समग में निवेश किया जायगा तो आत्महिंसा में अव्याप्ति होगी," इसका उत्तर यह है कि लक्षण के हारीर में प्राण अपरोपण में शुभसंकल्पापूर्वकरणका निवेश करने से यह घोष नहीं हो सकता, क्योंकि मोशा किया जाने वाला अनशन भावि तप शुभसंकल्पपूर्वक होता है अत उसमें शुभतंकल्पापूर्वकस्व मही रह सकता । ऐसा करने पर यात्रिकों की चाके अङ्गभूत हिसा भो शुभसंकल्प पूर्वक होने से हिसा के प्रस्तुत क्षमसे संगृहीत न होग' यह पाकका नहीं की जा सकती, क्योंकि शुभ-सकल्प-1 से मोल की विधि से जन्म इसका ही अभिमत है। इसीलिये दूसरे भव में राज्य प्राप्त करने की इच्छा से वो अभ. शन किया जाता है नसे भी आइतसिद्धान्त के शाता आत्माहिसा कहते हैं। आहंत रषि द्वारा प्रस्तुत यह हिसाला वापहिला और भावहिसा इन दोनों प्रकार की हिसाओं का समाण है, किन्तु प्रकृति Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा. वा. समुच्चय स्त २-३०४९ ६४ ] उ-ये चकुः क्रूरकर्माण: शास्त्र हिंसोपदेशकम् । पव वे यास्यन्ति नरके नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः १ ||३७|| दरं वराश्चार्वाको योऽसी प्रकटनास्तिकः I घेदोक्ततापसच्छच्छन्नं रक्षो न जैमिनिः ||३८|" [योगशास्त्र-द्वि०प्र० • इति । वेदाप्रामाण्यं पापकर्मेण प्रवर्तकस्यात् परपरिगृहीतत्वाच्च विभावनीयम् इति फिमतिहिंस्रेण सह बहुविधारणाया १ ||४८ || याज्ञिकागमेष्टाभ्यां विरुद्धतामुपदर्श्य, अन्यत्राऽप्यतिदिशमाह - मूलम् अन्येषामपि बुडचैवं शुष्टाभ्यां विरुता 1 दर्शनीया कुशाम्त्राणां तत स्थितमित्यवः ॥१४२॥ अभ्येषामपि = आजीवका श्विन्धिनाम् एवम् उपदर्शितप्रकारेण या = विचारणया कुशास्त्राणां शास्त्रामा सानाम् दृष्टेष्टाभ्यां विरुद्धता दर्शनीया, उपदर्शितजातीयत्वेन सर्वेपामपि तेषां दुष्टत्वात् तदुक्तं स्तुनिकता 1 “हिंसादिसंसक्तपथोपदेशादसर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेः । नृशंमदुषु द्विपरि मस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥ १॥ [ अ. व्य द्वात्रिंशिका का० १०] इति । बन्ध और प्रदेश बन्ध को आप करके कर्मबन्ध का जनक प्रयोग रूप हिंसा होती है और इसी प्रकार स्थिति बध और रसबन्ध की जनक शिक्षा क्लिटव्यवसायात्मक होती है अर्थात् मादयोग और लिपटाध्यवसाय में दोनों जनमत में हिसारूप है और उन दोनों से प्रकृत्यादि बहुविध क होता है। इस विषय का विशेष विचार अन्य यह सब कहने का निष्कर्ष यह है कि हिंसा में अहिंसा का समर्थन करने के लिये बंद का [अवलम्वनमान अनर्थ का मूल है। जैसा कि योगशास्त्र में कहा है कि जिन क्रूरकर्मी पुरुयोंने हिसा कापवेश करने वाले शास्त्रको रचना की है व प्रसिद्ध नास्तिकों से भी बडे नास्तिक हैं, वे किस मरक में जायेंगे, यह नहीं कहा जा सकता प्रकट नास्तिक मेवारा धाक कहीं अच्छा है उस ववश मिसे, जो तपस्वी के रूप वेब से हका हुआ परोक्ष राक्षस है। यह निविभाव सक्ष्य है कि पाचक्र में प्रवर्तक और चोल वंश भगवान अर्जुन के पवित्र प से विमुख समाज द्वारा परिगृहीत होने से वेब अप्रमाण है। अतः ऐसे बेदवादो लोगों के साथ, जिनको वृति अत्यन्त हिय है. अधिक विचार करना अनुचित है ॥४८० उक्त रोति से पाक्षिकों के वेदात्मक मागम में रष्ट और इष्ट का विशेष बताकर ४५ वी कारिका में अन्यत्र भी उसका प्रतिवेश बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जिस प्रकार बेव आदि में भ्रष्ट और इष्ट का विशेष है उसी प्रकार अन्य आशीवामिमानुयायी शास्त्र भासों में भी हृष्ट और हृष्ट का विरोध समझना चाहिये क्योंकि वे सब शास्त्रास भो और इष्ट का विरोध प्रार्थी द्वारा प्रतिपारित हो चुका है। जैस कि स्तुतिकर्ता आचार्य हेमचन्द्र ने भगवान हो सबोषित करके कहा है कि हे भगवान् केही सजातीय हैं. जिन में Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका-हिन्दी विवेचन ] ततश्च अन्यागमानां दृष्टेष्टविरुद्धत्वेनाऽप्रनिपशवारच, इति=पूरोक्तम् , अदः= वर प्रत्यक्षं हिमादिभ्योऽशुभादि इत्यादि, स्थितम् अप्रामाण्यशङ्काविरहितेनाऽऽगमप्रमाणेन सिद्धम् ॥४९॥ तता सिद्ध प्रतिनियत फर्म, तच्च करिमाक्षिपति, इति तथा स्वात्मन एव, इति निषमयति मूलम्-क्लिष्टं हिसाउनुष्ठानं न यत्तस्यान्यतो मातम् । सतः कर्ता स च स्पान् सस्पैष हि कर्मणः ॥५०॥ क्लिष्ट - रौद्राध्ययसायपूर्वकम् , प्राणिघाप्ताद्याचरणम् . इदम्पलनणमविलाचरणस्य, यन्-यस्माद्धेनोः तस्य आत्मनः, अन्यत: स्वातिरिक्तव्यापारवता, न मतनाऽभीष्टम् , देवदनयोगेन यज्ञदनानुष्ठानाभावात् । ततः तस्माद्धेतोः, स पवअधिकृतात्मैव दि निचिनं सर्वस्यैव-स्वीहिताऽहितकरणः, कर्ता म्यान , स्वव्यारवस्य कर्मणः कारणान्तराप्रयोज्यत्वे मनि कारणान्तरप्रयोजकत्वलक्षणस्वातन्त्र्येण हेतुवात् । अत्र निश्चयतोऽपृथग्भाषेन भागम से भिन्न तभो भागमों को हिमा आदि से दूषित मार्ग का उपदेश करने, सर्वज द्वारा प्रतिसन होने, तथा कुर एवं युवंठि मनुष्यों से परिग्रहीत होने के कारण भप्रमाण घोषित करते हैं। उक्त रीति से अन्य आगमों में रष्ट और कट का विरोष होने से थे नामम के विरोध में नहीं खडे हो सकते । इसलिये हिसा प्रावि में अशुभ-पाप होता है और अहिंसा प्रादि से शुभ पुण्य होता है. यह पूर्वोक्त विषय नागयरूप प्रमाण से मिप्रतिबन्ध सिद्ध होता है क्योंकि नागम में अत्रामाग्म की शाम का होने को कोई सम्भावना नहीं है ||४|| [प्रास्मा हो सभी कर्म का फर्सा है] प्रशस्त कर्म से पुण्य और अप्रशस्त कर्म से पाप का जन्म होता है नपा अमुक कर्म प्रशस्त और अमुक कर्म क्षप्रशस होता है. यह तथ्य जनागम से मिळू है। साथ ही यह सथ्य भी उसो से सिद्ध किम जब होता है. उसे चेतना की अपेक्षा होती है. और भो कर्ता उसे अपेक्षित होता है वह जीव से अतिरित नहीं होता है,५.वी कारिका में इसी तय का वर्णन है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है क्लिट कर्म का प्रर्थ है अध्यवसाय से होने वाला क्रम-जसे प्राणीवर आदि । यहाँ क्लिष्ट पर मक्लिष्ट आचरण का भी सबक है, किलर और अफ्लिन्द सभी असरण बोपद्वारा हो सम्पादित होते है जो मिन्न उनका ऐसा कोई कर्ता मान्य नहीं है जिसके व्यापार से जन आचरणों का सम्पादन होता हो, क्योंकि वेवास के व्यापार में यज्ञवस के कर्मों का अमुहानमहीं होता। इसलिये तत्सत् कर्मों के फल के लिये अधिकृत मारमा हो मिश्चितमप में भपमे सभी हिAIfस कमौका होती है। जो कम जिस जीव का व्याप्य होता है अर्थात् जिस कम से उसके जपावनाको कारण Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६) [ शाल वा० समुरुषय स. २-इको०-५१ स्वव्याप्यस्य रागद्वे पाद्यध्ययसाथलक्षणस्य भावकर्मणः परिणामित्वलझणस्वातन्त्र्येा कत स्वस्, व्यवहारण तु योगविशेष म्यव्यावद्धक योगध्यापारस्वति-यण कत त्यमिति विवेकः ।।५०|| ननु पद्यात्मैव कर्ता, तदा हितमेवाऽयं कुपति, नाहितम् , इत्यत्राहमृलम्-अनाविकर्मयुक्मत्वात् तन्मोहासंपवर्तते । अहिलऽप्यात्मनः प्रायो च्याधिपोडिसचित्तवत् ||५१|| स आत्मा, आत्मनः स्वरूप, अहितेऽपि हिंसाधनुष्ठानेऽपि, अनाविकर्मयुक्तावाद हेतोः, सम्मोहात-फर्मनितमोत्या , संग्रवतेते माया बाहूल्यन, किंवत् ? इत्याइव्याधिपीडितचित्तवत्-रोगाकुलहृदययत् । यथा व्याधितोपथ्यं जानन अजानन या बहुकालस्थितिकन्याविमहिम्नाऽपथ्य एवं प्रवर्तते, तथा संसार्यपि जानन अजानन वाऽहित एव प्रायः कर्मदीपान प्रवर्तत इति भावः । अाहितप्रवनी क्लिष्टं फर्म हेतुः नत्र बाहित __..----.. अनुमित होता है, यह उस कर्म के अन्य कारणों से अप्रयोश्य सपा मम्य सभी कारणों का प्रयोजक होमे से उस कमको उत्पन्न करने में स्वतन्त्रहोने के कारण उसका कर्ता होता। पहनातव्य है किकर्मको प्रकारकोतेभावक और नया आदि MARRRRRH को भाषकर्म कहा जाता है।बह निश्चयमय की दृष्टि से जीवसे पथकम होते जीवका व्याप्य हाता है। चा भावकम रूप में परिणत होने में जीव स्वस्तात्र होता है अतः वह उनका परिणामी कार्या होता है। 'मावकों द्वारा काम ग पराणा के पुद्गलों का आत्मा के साप सालेष होने से बाह्य कम पंधन होते हैं तथा कर्म कहे जाते हैं. जैसे उन माम से प्रेरित जीववध आदि से आत्मा पर चिपकने वाले शानाधरण आदि कर्म पृदगल । ध्यपहारनय को दृष्टि से ये कर्म विशेष प्रकार के संयोग से जोष के व्याप्य होते हैं, उन कर्मी के प्रति कोष में योगण्यापाररूप स्वातम्य होता है। अतः बीच उन कर्मों का भी कर्ता होता है । भाषकर्म और द्रापकर्म के विषय में जीव स्वातय कर उक्त अन्तर विशेषकर से मोदय है ।।५०|| (कमजनित मूढता से प्रहित में प्रवृत्ति) अपमे सभी कर्मों का जीव यदि स्वतन्त्र का है तो उसे अपने हित कमो का ही अनुष्ठान करना चाहिये किन्तु वह हित कयों का भी अनुष्ठान करता है, ऐसा क्यों | ५१ वो कारिका में इस प्रपन का उसर दिया गया है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है जीव कम की अनादि परम्परा से युक्त है, अतः कर्म मनिल मोह से ग्रस्त होकर वह अधिकतरमपमे अहित कमों में ही बीचि से प्रवृत्त होता है। यह बात गम्भीर रोगी के दृष्टान्त से समझी जा सकती है। जैसे एक गंभीर रोगी. मिसका विस रोगजन्य पीडा सं विक्षिप्त रहता है। बोकाल से बसे प्रोड्ये रोग के प्रभाव से वह जाने-अनजाने अपड्य सेवा में ही प्रवृत्त होता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या• • टीका-हिन्दी विवेचन] [६७ प्रवृत्यन्तरम् इत्यन्योन्याश्रयोऽनादिपदैन न दोषायेनि सूच्यते, मीमाऽस्कुरस्थलीयस्याऽन्योन्याश्रयस्योत्पत्ति-अस्यप्रतिबन्धकत्वेनाऽदोषत्वादिन्याशयः ||५१॥ अत्र प्रसङ्गाद् वातान्तरमाइ__ मृलम्-कालादीनां च का वं मन्यन्ऽन्ये प्रषाविनः | केवलानां तवन्ये तु मिथः सामाप्रपेक्षया ॥५२॥ अन्ये मयाविन: एकान्तबादिनः, कालादीनाम् , आदिना स्वभावादिग्रह, केवलाना परवलमहेतुरहितानाम् , कनु त्वम् असाधारणत्वेन हेतुत्नम् , मन्यन्ते । तदन्ये तुअनेकान्तवादिनः सामनयपेक्षया-सामग्रीप्रविष्ठत्वेन, मिश्रः-परम्परम , सहकाग्लिक्ष कत्वं 'मन्यन्ते' इति प्राश्ननानुषगः । इदमेवाभिहितं सम्मतिकारेण-[सम्मतिसूत्र 1"कालो सहाव-णिया पुण्यकर पुरिम कारोगता । मिमग्र ते चैत्र उ समासोति सम्मत्तं ॥१५०|| इति ||५२॥ नत्र पूर्व कालवादिमनोपपतिमाह-- उसी प्रकार संसार में आसक्त नीव भी कमेपोपवश जानवृत्त अथवा अनमान में वाहमा अपने अहित कमों में ही प्रवास होता है । कारिका के आरम्भ में कमे को अमावि कह कर यह मूचित किया गया है कि शिलष्टकर्म से बहितको में प्रवृत्ति का और अहितकर्मों में प्रवृत्ति से क्लिष्टकर्मों का जन्म होने से सायोग्याषम घोष को यात्राका महीं करनी चाहिये, क्योंकि इन दोनों की परम्परापेक्षा बीज और प्रकार की परस्परापेक्षा के समान प्रवाह से अनादि है अत इसमें अन्योन्याभयदोष नहीं हो सकता, क्योंकि यह परस्परापेक्षा एक दूसरे को उत्पत्ति प्रषवा शक्ति में प्रतिबन्धक नहीं होती ॥१॥ (कालादि को हेतुता का प्रासङ्गिक विवेचन) प्रस्तुत विचार के सन्दर्भ में प्रत्लङ्गवा अम्प मसों को भी चर्चा ५२ वी कारिका से प्रारंभ की गयी है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है कुछ एकातिवादी विचारक एकमात्र काल या स्वभाव आदि को हो कार्य का हेतु मानते हैं। उमसे मिन्न अनेकारतवादी विचारक काल आदि को कारण मामते है पर सामग्री-कारणसमूह के पटकक्ष्य में प्रात् काल आदि भी कार्य के अन्य कारणों के सहकारी होकर कार्य के कारण होते हैं। यही पात सम्मतिकार ने अपनी कालो सहाय' गापा में कही है। गामा का अर्थ इस प्रकार है "काल, स्वभाव, नियति, पुरुषकार और पूर्वकर्म को अकेले कार्य का कारण मानमा मिव्यास है और अन्य कारणों के साथ सामग्रीधरक के रूप में उन्हें सहकारी कारण मानना सम्यगृष्टिपन है।" १-कामः स्वभाव-नियती पुर्वकृतं पुरुषःकारणकान्ताः । मिथ्यात्वं ते एव तु समासतो मयमित सम्यक्स ॥ - - --- Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [शा वा समुहषय स्त०२-इशोक ५३ मूलम-न कालव्यतिरेकेण गर्भकालशुभाविकम् । परिषत्रियायते लाके मयसी कारणं किल ॥५३॥ कालव्यतिरेकेणास्त्री-पुससंयोगादिजन्यत्वेन पराभिमतस्याऽपि गर्भस्य जन्म न भवति, न हिं तज्जन्मनि गर्भपरिणति तुः, अपरिणतस्यापि कदाचिज्जन्मदर्शनात् । तथा, कालोजप शीतोष्ण- वधुपाधि, तदशतिरेकेा न भवति । अत्र कालस्थाने 'पाल' इति क्यचित् पाठः, तत्र शलन्यं जन्मोत्तरावस्था, साऽपि फालयतिरेण न, अन्यथाऽतिप्रमङ्गादित्यर्थः । तथा गुमाविक स्वर्गादिकम् , आदिना नरमादिग्रहः, यफिश्चित् लोके घटादि, Aft कालव्यतिरेण न भवति. कर्मदण्डादिमवेपि कालान्तर एवं स्वर्गघटाधुत्पत्तः । तत-जस्मान् कारणात् • असो-कालः 'किल' इति सत्ये, कारणम् , अन्यस्य वन्यथासिद्भूत्वादसत्पपमिति भावः ॥५३॥ (कालबादी का युषितसंवर्भ) सबसे पहले ५३ वीं कारिका द्वारा कालवायी के मतका उपपादन प्रस्तुत किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है गर्भ का जन्म उचितकाल के अभाव में नहीं होता. जो लोग गर्भ को स्त्री-पुरुष के संयोग आविलेलभ्य मानते हैं नमके मन में भी जमित काल के उपस्थित न होने तक गर्भ का जन्म नहीं माना जाता । 'गर्भ के सन्म में गर्भ का परिणत अवस्था ही कारण है' यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि पवा कवा अपरिणत गर्भ का भी जन्म वेना जाता है। गोत. उष्ण, वर्षा आदि उपाधिमूत का भी चिप्तकाल के अभाव में महीं होते। स्पष्ट ही है किशोत समय में ही प्रीष्मकाल पा वर्षाकाल नहीं आ जाता, अत: इन उपाधिभूत कालों के प्रति भी काल हो कारण है। किमो किसो पुस्तक 'कालो स्थान में माल पाठ प्रात होता है.उस पास के अनसार कारिकास अंदा का यह अर्य होगा कि बालावस्या अर्थात् जन्म के बावको अबस्था भी उचित काल के अभाव में नहीं होती, असे भी कालविशेष से अन्य म मानने पर जन्म के पूर्व अथवा यौवन अवस्था में भी बालाबस्याको उत्पत्तिकी आपत्ति हो सकती है। राम का अर्थ है स्वर्ग और आदि पद का तात्पर्य नरक में, आशप यह है कि स्वर्ग और रकमी काल के बिना नहीं होता। कहने का अभिप्राय यह है कि संसार में भो भोकोई कार्य होता है उसमें से कोई भी कार्य सित काल के भाव में नहीं होता। सामाधि कमें सम्पन्न हो जाने पर भी स्वगं उसो समय नहीं होता किन्तु योग्यकाल चपस्थित होने पर ही होता है। इसी प्रकार घट आदि कार्य सी व आदि कारण के रहते हुये मी योग्यकाल के उपस्थित हुये बिना नहीं उत्पन्न होते । इसलिये यह है सत्य है कि कालसी सब का कारण है, 'काल से मिष पकार्य भी कार्य का कारण होता है। यह असत्य है, क्योंकि काल से अन्य पदार्थ प्रत्यासिद्ध हो जाते है Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क टीका-हिन्दी विवेचन ] तथा मूलम् कालः पति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः मुनषु जागति कालो हि पुरतिक्रमः ॥५४॥ काला भूतानि-उत्पसिमन्ति, पति-उत्पत्रानो प्रकृतपर्यायोषचर्य करीतीत्यर्थः । तथा, कालः प्रजाः संहरति-प्रकृतपर्यायान्तरपीपभाजः करोति । मया, कालः सुप्तेषु अजनिसकार्यपु पभिमनकारणेषु सन्मु, जागति-विवश्निनकार्यमुपदधानीत्यर्थः । अतो हिनिश्रितम् , फालः सृष्टि-स्थिनि-प्रलयहेतुनया पुरनिश्रमः अनपलपनीयफारणताकः ॥५॥ मूलम्-किन कालाइते नैथ मुगपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिसंनिशनेऽपि नतः कालापसी मता ॥१५॥ 'किस' इत्युपचये, कालाहते कालं बिना, स्थास्पादिसनिधानेऽपि, आदिना विलक्षणवाहिसंयोगादिग्रहः, मुगपक्तिरपि-सद्गाना विलमणरूप-रमादिरूपविक्लिसिपरिणनिरपि, नैपक्ष्यते । ततोऽसौमृद्गपवितः, काला मता=कालमात्रजन्येष्टा । न च (सष्टि-स्थिति-प्रलय कालजनित है) ५४ वी कारिका से पूर्व कारिका में उक्त काल को कारणता का ही समर्थन किया गमा है। कारिका का अपं इस प्रकार है काल उत्पन्न पदार्थों का पाक करता है, पाक का अये हैं उत्पन्न पदार्थ के विद्यमान पयार्यों का पोषण । आशय यह है कि उत्पन्न हो जाने पर वस्तु का जो संबर्धम होता है वह काल से ही होता है, बही अनुकूल नूतन पर्यायों को उपस्थित कर उनके धोग से उत्पन्न वस्तु को उपचित करता है। काल उत्पन्न वस्तुओं का सहार करता है, संहार का अर्थ है वस्तु में विधमान पर्यापों के विरोधी पर्याय का उत्पावन । विरोधो पर्याप को उत्पसि से वस्तु के पूर्व पर्यायों को नियति होती है। पूर्व पर्यायों को नित्ति को ही वस्तु का संहार कहा जाता है । अन्य कारणों के अर्थात कारण माने जाने वाले अन्य पदार्थों के सुस्त मिश्यापार रहने पर काल हो कार्यों के सम्बन्ध में जाप्रत रहता है अर्थात कार्य के उत्पादनाय सध्यावार रहता है । इसलिये सष्टि, स्थिति और प्रलय के हेतुसूत काल का अतिकमण अर्थात काल में सृष्टि आदि को कार पता का अपलाप नहीं किया जा सकता ||५|| (काल के बिना मूगवाल का परिपाक अशक्य) काल को कारणता के समर्थन में एक बात और कही जा सकती है यह यह किस्पाली पाकपात्र [लपेली] और अग्नि का विलाण संयोग आदि का सानिधाम होमे पर. मी नंगको बाल का परिपाक उसके पूषवली रूप रस आवि का नाश हो कर नसमें नये रूप रम आदि का जम्म-उस समय तक नहीं होता तक उसका कारणभूतकाल उपस्थित नहीं हो जाता । इससे यह अभय मानना होगा कि मग पाक किसी अन्य हेतु म उत्पन्न होकर पल काल से ही उत्पन्न होता है। -सर्वत्र मूकदर्शषु 'पीच्यते इति पाठः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..] [ शा या० समुरुचय सस० २-लोक ५६ सदा मुगपत्तिजनकपिलक्षणाग्निसेयोगाभारादेव तदपक्तिरिति घाच्यम् , तत्रापि हेवन्तरापेक्षाययग्रवात , आवश्यकत्वेन कालस्पैय तद्धेतुत्वाचिस्पादित्याशयः ॥५५॥ विपक्ष माधकभाइमूलम्-कालाभाचे व गर्भादि सर्व स्थावस्यवस्थया । परेटहेतु सभावमात्रादेव सदुश्यात् ॥५॥ कालाभाचे च-कालस्याऽमाधारणहेतुत्वानगीकारे च, गर्भादिकं सर्व कार्यमध्ययस्थया नियमेन स्यात् । कुतः पत्याह-परेटहेतुसद्भावमात्रादेष-पराभिमतमातापित्रादिहेतुगंनिधानमात्रादेव, तदुवात अविलम्बन गर्भाशुत्पत्तिप्रसङ्गान् । ननु कालोऽपि यद्येक एत्र सर्वकार्गहेतुः, नदा युगपदेव सर्वकार्योत्पत्तिः, तसत्कार्ये संसदपाधिविशिष्टकालस्य हेतुखे बोपाधीनामेवाऽऽवरपकवान कार्यविशेषहेतुत्वम् , इति गत कालवादेन, इमि पेत् ? अन नन्या:-क्षणरूपः कालोऽतिरिझयत एव, स्वजन्यविभागमागमाचविशिष्टकमजस्तथास्ये जाते विमागे तदभाषापत्तः, तदाऽस्यविशिष्टकर्मणम्तथाखेऽननुगमात् । 'तस्य च तत्क्षणत्तिकायें तत्पूर्वक्षणत्वेन हेतुन्यम , तत्क्षणत्तिन्वं च पर यह कहा जाय कि-'मिस काल में मंग का परिणाम सम्पन्न होता है उसके पूर्व मूग के पाक का जत्पादक अग्नि का विलक्षण संयोग ही नहीं रहता । अतः उसके प्रभाव सेहो निश्चित समय पूर्व मूग का पाक नहीं होता, अतः के पाकके प्रति कालविशेष को कारण मानमा निरक है।तो यह ठीक नहीं हो सकता क्योंकि उस सयोग के विषय में भी यह प्रश्न हो सकता है कि वह संयोग ही पहले पयों नहीं हो जाता TT प्रश्न का उत्तर काल द्वारा ही किया आ सकता है। अतः यह मामना हो उचित है कि काल कार्य के प्रति अवश्यवमत नियत पूर्ववता है, इसलिये एकमात्र ही काये का कारण है, कारण कहे जाने वाले अन्य पदार्थ अबषालुप्त-नियमपूर्ववत काल से भिन्न होने से अश्यासिय|४| कार्य के नियतपूर्ववर्ती अन्य पदार्थ हो कारण है काल हो मध्यवासिन है' कालोचतावार केस विरोधी पक्षका ५६ श्री कारिका में अपन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है काम को कार्य का यदि असाधारण कारप न माना जापगा तो गर्भ प्रावि सभी कार्यो की उत्पत्ति अव्यवस्थित हो जायगी, क्योंकि धन्यवाची की दृष्टि में मर्म के हेतु माता-पिता मारि है, पत: उनका निधान होने पर सत्काल ही पों के सम्म को आपत्ति होगी। यदि यह कहा माय कि-"इस प्रकार की पाका काल के कारणवपक्ष में भी हो सकती है, असे मह बहा मा सकला है कि केवल काल ही यवो सब कार्यों का कारण है तो एक कार्य को के समय सभी कायों की उत्पत्ति होनी चाहिये. क्योंकि एक काम को सत्पन्न करने के लिये (१)-अतिरिक्तस्य क्षणरूपकासस्य । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्या० टीका-हिन्दी विवेषन ] [७१ तत्क्षणस्यापि, अभेदेऽपि 'इदानी क्षण' इति व्यवहारात कालिफाधाराऽऽधेयभायनिद्धः । अतस्तसत्क्षणतमाशाना तसत्पूर्वक जम्मधार में मिलानुपरिर । ५ क्षमिकर शोन कार्यविशेषजननाद नातिरिक्तहेतुमिद्धिः । न च सत्क्षण एष तन्तौ पटादिकं जायते, घदादिकं त्यन्यत्र' इति देशनियमार्थतिरिक्तहेतुमिद्धिः, क्याचिकत्यस्य निन्य इबाऽनित्वेऽपि स्वभावतः एव भवात् , कादाचिन्कन्वम्यैव हेतुनियभ्यत्वात् अन्यत्राऽन्यापतेरभावात् । 'माणस्येवाऽन्येषामपि नियतपूर्ववर्तित्वात् कथं हेतुत्यप्रतिक्षेपः ?' इति पेत् 'अवश्यक्लप्त०' इत्याग्रन्ययामिद्विगतमामात । अत पर न पटन्धापत्रमिछम्मम्याऽऽम्भिकतापरथा तदयग्छिन्ने को काल सनिहित नरेगा वही सन कार्यों का कारण है अत: उसके सान्निधान से अब एक कार्य जत्पन होगा तो अन्य कार्यों के प्रति भी उस काल से भिन्न किसी कारण के अपेगौम न होने से उसो समय सभी कायों की उत्पत्ति अनिवार्य हो जायगी । यदि इस भापत्ति के परिहारार्थ तसा कार्य के प्रति तत्तत उपाधिविशिष्ट काल को कारण मारकर तसत् उपाधिषों का एक काल में सविधान न होने से एक काल में सभी कामों की उत्पत्ति का निराकरण किया जायगा सोतसत् उपाधि को ही कारण मान लेमे से कालकारणतावादही समाप्त हो जामया" स आपत्ति का प्रतिकार मयताकिकों (कालवादी) को ओर से यह काकर किया जा सकता है कि मण स्वयं एक अतिरिका हाल है. किसो कालको उपाधि नहीं है क्योंकि यदि उसे हजन्यविभाग के प्रागमाव से विशिष्ट रूप माना जायगा तो विभाग उत्पन्न हो जाने पर उक्त विशेषणविशिष्ट कर्म का अभाव हो जाने में क्षण का अमाशो जायमा और यदि उस समय भी स्वजन्यविभागप्रागभाव से विक्षिष्ट्र किसी अन्य कर्म के द्वारा पापका अस्तित्व सिस किया जायेगा तो क्षण तय की अनुगतायेता का लोप हो जायगा | अत: यह मानमा प्रावश्यक है शिक्षण स्वत: काल है। अण को स्वतन्त्र काल मान लेने पर यह कार्यकारणभाव मानना सम्भव हो माता है कि तरक्षणवृत्ति कार्य में तरक्षण का पूर्वमण कारण है तल भण भी कालिक सम्बन्ध से तरक्षणति हो माता हैं, क्योंकि प्रवानी क्षणा-हम मण में क्षण है इस प्रतीति के अनुरोध से एक पापं में भी कालिकसम्माध से भाधार-साधेय भाव माम्म है. अत: उकाकार्यकारणभाष के अनुसार सक्षम का पूर्वक्षण तरक्षण का भी कारण हो जाता है । सतत अण और उसका नाश बोनों ही सरक्षणजस्य, अत: लक्षणको सस्पति केबसरेही क्षण तरक्षण कानातम्भव हो जाने से क्षणको क्षणिकता की अमपति भी नही हो सकती। इसप्रकार आणिक क्षण को ही सतत कार्य का जनक मान लेने सब आपत्तियों का परिहार हो जाने से क्षण से अतिरिक्त किमी कारण ही कल्पना अमावश्यक है। तरक्षण में हो सन्तु आदि में पट आदि उत्पन्न होता है और कपास में घट आदि उत्पन्न होता है, सबमें ससकी वासि नहीं होती, अत: इस बातको उत्पत्ति के लिये पर आदि के प्रति तास आदिको एवं घट आदि के प्रति कपाल आदिको मीकारण मानना आवश्यक है" यह भी शलाका महाँको जा सकती, वोंकि जमे घटस्य मावि निस्य पना विना किसी नियामक कारण के हो स्वभाव से हो देशविशेष में मियत होते है उसी प्रकार घट आदि अमिरम कार्य मी स्वभावतः ही वेचविशेष में नियत हो सकते हैं। मिर्ष यह है कि कापाधिस्वकिसी काल में होगा और किसोकाल में होनाकी उपपत्ति के लिये ही कारण की कल्पना आवश्यक है, याचिकर किसी देश में होने और किसी में न होने की Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ शा० वा० समुचय ०२ एल०-५७ प्रति हेतुतासिद्धिः, तदवच्छिमनियतपूर्ववर्त्तित्त्व निश्चयादेवता चरस रखेऽवश्यं पटोत्पतिरिति निश्वयेन कृतिसाध्यताधीसंभवात्, अप्रामाणिक व्यवहारानुपपत्तिरूपमाकस्मिकत्वं तु न बाधकम् । युक्तं चैतद्, अनन्तनियतपूर्ववर्त्तिष्य नन्यथासिद्धत्वा कल्पनेन लाघवात् इत्याः ॥५६॥ ॥ उक्तः कालवादः ॥ अथ उद 1 मूलम् न स्वभावातिरेकेण गर्भयालशुभादिकम् परिकचिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल ॥५७॥ स्वभाषातिरेकेण = स्वभावमतिवृत्य, गर्भ बाल- शुभादिकं यत् किञ्चित्कार्यं लोके न कारण कादाचित्कत्वजायते, तत् तस्मात् कारणात् 'किल' इनि सत्ये असा स्वभावः, नियामकः) आकाशत्वादीनां क्याविन्कन्ववद् पदादीनां कादाचित्कन्येतराऽनियम्यत्वात् । आकाशत्वादीनामन्यत्र सध्ये तत्स्वभावत्वाभावप्रसङ्गस्येव कादाचित्कत्वस्याऽपि गगनादौ ni. 1 उपपत्ति के लिये कारण की कल्पना आवश्यक नहीं है। "तथापि क्षण के समान हो कपालावि भी घटाव के नियतपूर्ववत होने से उनको कारणता का अपलाप कैसे हो सकता है ! यह प्रश्न भो afer है क्यों कि क्षण के अवश्य होने से शेष सभी कारण अवश्य नितिन कार्य सम्भवे समिन्यथासिद्धं इसम अन्ययासिद्धि के आश्रय हो जाते हैं। - -क्षण के समान जो अन्य पाच कार्य के मियतपूर्ववत होते है. काल द्वारा उनके अन्यथासिद्ध हो जाने से उनमें कारणत्व का प्रतिषेध होता है. यह ठीक है, किन्तु तसच तो तसं कार्य का कारण होता है, पटराव का कारण तो होता नहीं अतः उसके आकस्मिकरण को आपति के वारणार्थ पदके प्रति स्तुत्याद्यस्को कारण माममा आवश्यक है" यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिसने पदार्थों में पटरवाद्यवनिका नियमपूर्वपतिश्व निश्चित होता है उसने का सन्निधान होने पर पटस्थ की उत्पति होती है. इस निश्चय से उतने पदार्थों के समधान में कृतिसाध्यता के नाम से उक्त आकस्मिकत्वापसिका वारण हो सकता है, अतः परत्वाच के प्रति अतिरिक्त कारण की कल्पना अनावश्यक है। लस्तु आदि में पटकारण का व्यवहार अप्रामा पिक है अतः पट के अन्य नियतपूतियों में अध्याय की पत्रा न करने में होने वाले साधन के अनुरोध से उनमें पटावि के कारणरण का त्याग ही उचित है । ५६॥ ( सर्व कार्य का कारण एकमात्र स्वभाव ) ५७ को कारिका में स्वभावचाव का उपपादन किया गया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है गर्भ, बाल, शुभ स्वर्ग आदि जो कोई भी कार्य संसार में होता है वह स्वभाव का अतिक्रमण करके नहीं होता. इसलिये स्वभाव हो कार्यों का कारण है. उसी मे कार्यों के कार्याधरकरण -कभी होने और कभी न होने का नियमन होता है। प्राकाशस्थ आदि के चित्रण किसी स्थान में होने और किसी स्थान में न होने का नियामक से स्वभाव से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है उसी प्रकार घट आणि कार्यों के कायाकल्प का भी नियामक स्वभाव से भिन्न कुछ नहीं हो सकता | जसे आधात्य आदि को घटादिनिष्ठ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या का टीका-हिन्दी विवेचन ] सधे घटादिस्वभावत्वाभावप्रसङ्गस्य वायकत्वान् , अवधीना नियतपूर्ववर्तित्वेऽपि तहतोपकारा जनकन्वेनाऽहेतुत्वान् । 'भवनस्वभावये घटः सर्वदा मदि' मि पेत् न, नदारेख भरनस्वभाषयात् । अथवा कारमानी-मुरम माया, उपादासनाम्येवोपादेयगतस्वभाव. रूपोपकारजनकस्पोपादेयहेतुत्वात् । न चोपकारेऽरयुपकारान्तरापेशायाम नवस्था, तम्य म्यत एवोपकनत्वात् । दण्वादीना दण्डरूपादीनामिव नियमाऽवधित्वेऽप्यन्यथासित्यम् । 'दण्डावू घटा' इति उपयहारस्तु 'इन्धनान पाकः' इसिवदेव |७|| इदमेवाह(मू-सर्व भायाः ग्वभावेन स्वस्वमा अथा तथा । घनन्तंऽथ निवने कामचारपराइमुत्राः ॥५८11 सर्वे भावाः, स्वभावन-सगतेन हेतुगतेन वा निमित्तेन तथा तथा विशिष्टसंम्भानाप्रनिनियतरूपेण, स्वस्थमाघे आन्मीयमनायाम , निनपु तेलम्' इतिवभिन्याती सप्तमी, ग्य-वभावमभिव्या येत्यर्थः, पर्तन्त भूत्वा तिष्ठन्नि । अथ नाशकाले निवर्तन्त-समावेन भाजो भनन्ति । किंभूनाः ? इन्याह-कामचारपराङ्मुम्बाः निगममावनिरपेक्षाः ||५|| मानने पर उसके आकाशस्वभाव काः आकाश का हीमा होने का मन होगा. उसी प्रकार काबावितस्य को भी आकाशनष्ठु मानने पर कावामित्व के घाविस्वभावाष का घवि का ही स्वभाव होने का मङ्गको नायगा । भवधि-कपाल आधि मद्यपि घट आदि के नियत पूर्ववत होते है किन्तु उनसे घट भाव में कोई उपकार नहीं होला अतः वे घट आदि के कारण नहीं हो सकते । ___ भवम उत्पन्न होना पवि घट आदि का स्वभाव मामा आयगा तो 'वस्तु कभी भी अपने स्व. भाव से शून्य महीं होती इस नियम के कारण सर्वच घट भाषिके उत्पन्न होते रहने को आपत्ति होगी।' -पशंका करना उचित नहीं है क्योंकि जित सम्म जिसकी उत्पति होती है खस समय ही उत्पन्न होगा जस वस्तु का सभाष होता , मत: कालान्तर में उसकी उत्पत्ति का आपादन नहीं हो सकता। (कारण शब्दार्थ का द्वितीय विकल्प) अथवा स्वभाव कार्यमान का कारण होता है। इस कथन में 'कारण' बाब का 'कायापिरकार का नियामक अर्थ मकर मुरूप अर्ध ही स्वीकार करना चाहिये और जपायाम के स्वभाव को ही उपादेयके भावरूप उपकार का जनक होने से जपावेय का कारण कामना कहिये। किसी का का कारण होने के लिये कारण को उसमें उपकार का जनम होना मावश्यक यह मामले पर उपकार मामक होने के लिये अपकार में उपकारातर को जनक मानने पर अनबस्मा का आपापन नहीं किया जा समता, क्योंकि उपकार उपकारान्तर के बिमा मी स्वयं ही उपकृत रहता है। देश अघि घटादि का नियत अवधि होने पर भी वरूप प्रालि के समान अन्यपातिक होते हैं। बसाव घर:' पर बम से होता है। यह पयहार घट के जन्म माने पिता भी उसी प्रकार हो सकता है जैसे पाक के पाजाय न होने पर भो 'दुरधमास पाक: यह व्यवहार होता है। अर्थात् पञ्चमी विभक्ति का अर्व मण्यत्व नहीं किन्तु जसरस्व मात्र है ॥५॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર हेत्वन्तरे कामचारमेत्र स्पष्टयति (सू०) -न विनंह स्वभावेन मुनू गपतिरपीष्यते । तथाकालविभावेऽपि नाम्वमावस्य सा यतः ||१९|| | शा०पा० समुच्चय स्त० २ श्लो० ५६ B जगति स्वभावेन विना तथाकालादिभावेऽपि प्रतिनियतकालय्या पाशदि साधिपतेः त्यायतोऽश्वभाषस्य कङ्कदुकस्य, सापक्तिः न भवति । न मा विलक्षण निसंयोगादिकं नास्तीति वक्तु शक्यते, एकच क्रिपया ततदन्यवसंयोगात् । न चाष्टम्यान् तदयाकः दृष्टसाद्गुण्ये तत्पश्यायोगान् अन्यथा इण्डनुनमपि चक्रं न भ्राम्वत् । तस्मात् स्वभाववैपम्पादेव तदपाकः, इत्यन्यत्र कामचागत् रूपभाव एवं कारणमिति पर्ययमन्नम् ॥५९॥ उक्तदायैव विपक्षे बाधकमाह (० - अमत्स्वभावात् तद्भावेऽतिसङ्गोऽनिवारितः I तुल्ये तत्र मृदः कुम्भां न पदात्ययुक्तिमत् || ६०|| ---- [ स्वभाव के बिना कटुकादि का पाक नहीं होता ] 5 ५८ व कारिका में पूर्वकारिका वर्णित स्वभावाश्णता को हो पुत्र किया गया है सभी भाष कार्य अपने या अपने उपादान के स्वभाव के बल पर बिठाए भरकार प्रकार आदि से नियत हो कर ही अपने अपने साथ में अवस्थित होते हैं। स्वभाव में अवस्थित होने का अर्थ है स्वभाव करे अभिष्पाप्त कर रहता क्योंकि 'स्वभावे तिति' में स्वभाव के साथ लगी सप्तमी विभक्ति "तिलेषु म' में तिल सभ्य मे लगी सप्तमी विभक्ति के समान अभिव्याप्ति अर्थ को बोधक है। भावों का नाश भी उनके भाव से हो नियत देश काल में ही होता है, क्योंकि ये इच्छानुसार स्वतन्त्र न होकर अपने स्वभाव के प्रति पर होते हैं ५१ व कारिका में कार्य को स्वभाव से मित्र हेतु से अन्य मानने पर कामचार की आपत्ति बस ये कहा गया है कि इस संसार में मूंग की दाल में मूंग का पाक भी स्वभाव के विना नहीं होता, क्योंकि जिस वस्तु में पकने का स्वभाव नहीं हैं यह काल तथा कारणान्तर का व्यापार आदि होने पर भी परिपक्व नहीं होती, जैसे अश्वमाच पथरिले उस में वोकाल तक अग्नि का विलक्षण संयोग होने पर भी उसका पाक नहीं होता। अष्टके से का पाक नहीं होता' यह कहना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि दृष्ट सभी कारणों का सन्निधान रहन पर अदृष्ट के अभाव में कार्य को अनुत्पति नहीं देखी जाती. अन्यथा यदि ऐसा हो तो दह वण्ड से बल के साथ पत्र को बसाने पर भी कभी उसे नहीं बनना चाहिये, अण्दवश उस में धन का प्रतिवन्ध हो जाना चाहिये पर ऐसा नहीं होता। अतः यहां माममा विसंगत प्रतीत होता है कि मूंग अपने स्वभावा पकता है Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टी और हिन्दी विवेषन ] अनस्वभावात-तत्म्वभाषभिचात , तत्स्वभावरदिनाद् या तदभावे अधिकृतकार्योत्पादे 'अट्री क्रियमाणे' इति शेषः, असिंप्रमजोऽनिष्टप्रसङ्गः अनिवारित: अबाधितः । कुतः ? इन्याह- तुल्येममाने, तत्र तत्स्वभावत्वे सति, मृदा कुम्भ एव जन्यते न पटादीति अयुक्तिमत् नियामकहितम् । ननु नातत्स्वभावत्यं सज्जननप्रयोजकमुच्यते येनेयमापत्तिः संगठनते, किन्तु सामग्रीमेव कार्यनिका व मः अश्वमाषस्य च पत्रित प्रति स्वरूपयोग्यतय न इति को दोषः । ति चेत् ? ___ अत्र बदन्ति-अन्नद्रस्वाव स्वमाघ एव कार्य हेतु, न तु पाह्यशारणम् । न च मृत्यमावाऽविशेषाङ्क घटादिकार्यायिशेपप्रसङ्गः 'स्वस्य भावः कार्यजननपरिणतिः' इति स्वभावार्थत्यात् । तस्याश्च कार्यकव्यङ्गयत्वान ! न येदेषम् , अकुरजननस्वमार्य बीजं प्रागेाऽर और पश्लि अवमान पाकानुकूल स्वभाव से वन्य होने से नहीं पकता। अत: कार्य को प्रम्य तु. जन्य मानन पर दंग में पाक और नवाब के पाकामायका मानना पडेगा । अतः कायों के जाम में फापचार के निवारणार्थ जन स्वभावजन्म मानकर स्वभाषाधीन मानना ही पायसंगत है ।। ५॥ [फारणसामग्रीयादीपयक्त धापत्ति का समाधान] ६. कारिका में स्वभाववाद को हल करने के लिये समावधान के विरोधी पक्ष के बाधक का प्रतिपावन किया गया है अचंदन प्रकार है बालभाच ते अर्थात् ताजमनानुकूल स्वभाव से शूण्य होता है उस से यषि कार्य की उत्पत्ति मानी बारगी तो इस अतिप्रका -कि मिट्टी आदि से घट आदि की उत्पत्ति के समान पट आदिको मी उत्पति होनी चाहिये क्योंकि जापापक में कार्यजमानानुकुल स्वभाष की अपेक्षा न होने में मिट्टी घट पर आदि सभी कामों के लिये समान है-वारगम हो सकेगा फलतः घर और पट दोनों के प्रति मिट्टी के समान कामे से मिट्टी से घर की ही उत्पति हो, पट की न हो'- पह मिपम युक्तिहीन हो जायगा । यदि यह कहें कि यह दोष असरस्वभावत्वको सदुस्पति का प्रपोजक मानने पर ही हो सकता है. पर हम पहनहीं मानसे, हम तो यह कहते हैं कि-कसी पवाथ को किसो काये का उत्पादन करने के लिये उस पवार्थ में उस कार्य के जननानुकाल स्वभाव RTनमे की आवश्यकता नहीं है। हा प्रमहोगा कि किस कापं की उत्पत्तिका प्रयोजकश्या होता? ससम्बाम में हमारामत कितत्तत् कार्य को सामग्री-अति सत् कार्य के समी कारणों का विधान ही तसात कार्य की उत्पत्ति का प्रयोजक होता है। अतः स्वभाववार को स्वीकार करने पर भी उपत प्रापति नहीं हो सकती तो इसके उत्तर में स्वामी का पह कहना है कि स्वभाव असा होता है और कारणान्तर का सहयोग बाहिरजोता अतः मिट्टी को अपने स्वावसेही पट का उत्पारक मानना उचित है. बहिरण की सहायता से नहीं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] [ शाम मुरलय न. २. शो-६० जनयत् । 'सहकारिलाभा-ऽलाभाभ्यां हेतोः कार्यजनना- 5जनने उपपत्स्य से इमि पेन ? न, सहकारिच कानन्तर्भावेन विलक्षणवीजन्वेनैवाङ्करहेतुत्वौविस्यात् । न च सहकारिचक्रस्याऽतिशयाधायकत्वं त्वयाऽपि कल्पनीयम् , इति तस्य तत्कार्यजनकत्वकम्पन मेयोचिमिनि काम : पूर्व-पूर्वोपादानपरिणामानामेयोत्तरोत्तोपादेयपरिणामहतस्मात् , अन एव कालबादाऽप्रवेशान् । नच घरमाणपरिणामरूपीजम्याऽपि द्वितीयादिक्षणपरिणामरूपाइराजनकन्याद् व्यक्निापशेतमवलम्ब्यय हेतु हेतुमदानी वाच्यः, अन्यथा ब्यापतिविशेषानुगतप्रयमादिचरमपर्यन्ताकुरक्षणान् प्रति च्यातिविशेषानुगतान चरमवीजक्षणादिकोपान्त्याइकुक्षिणाना हेतुत्वे कार्यकारणतावनवेदककोटाचेकक्षणप्रवेश प्रवेशाग्यो विनिगममानिसलात । नया न तज्जातीयाव काशं नज्जानीयकारणानुमानभङ्गाप्रमशः इति वाच्यम् , मारश्यनिहित्यसदृश्यनाऽजकुरादिना तादशमीजादीनामनुमानभयान : प्रपोग-प्रयोजन भावमय च विपक्षधाभनय न्य जागरूकत्वादिति । अधिकमध्यात्ममनपरीक्षायाम् । ततः ग्वभाव हेतुकमेव जगदिति स्थितम् । [ समान उपादान से विविध कार्यों के अभाव की प्राप्ति का प्रतिकार ] यदि यह वाहका की नाय कि- मिट्टी से घर शराब मावि विविध पात्र एवं विभिन्न प्रकार के खिलौने आदि अनेक प्रकार के काय उत्पन्न होते हैं. स्वभाववाब में मिट्री इन सभी कार्यों को अपने स्वभाव से हरे उत्पन्न करेगी अतः उसके समाज में कोई वलय न होने से उससे उत्पन्न होने वाले कार्यों में भी वलक्षण्य न हो सकेगा --तो यह मामला उचित न हो सकी. क्योंकि स्वभाव का अर्थ स्व का कार्य के अनुफूल परिणत होना अतः प्रत्येक वस्तु अपने कार्य को स्वभाव से उत्पन्न करती है, इसका अर्य होता है कि प्रत्येक वस्तु सतत कार्य के अनुकूल परिणाम पक्षण करके समान कार्य को सम्पन्न करती है और वस्तु का यह परिणामहण उस बातु के अधीन ही होता है। अनः मिट्टी से जितने काम उत्पन होते है उन सभी के उत्पासनानुकूल अलग अलग परिणति उसमें होती है. उन परिणतियों में बंप होने से उसके कार्यों में भी विलक्षणता होती है। अत: मात्र से बस्तुको कायोरपायक मामले पर रस बरस से होने वाले कार्यों में समय की अमुषर्षात का मापारा नहीं किया जा सकता। किस वस्तु में किस कार्य के अनुकूल परिणात होती है, इसका मिवय तो उR बस्तु से होने वाले कार्यों से ही हो सकता है। [ बीजस्य की अपेक्षा अंकूरानुकुलपरिणतिस्वभाव से कार्योत्पाव में नौचित्य ] बत्तु को कार्यानुफुलपरिमात रूप अपने स्वभाव से ही कार्य का उत्पावक मानना आवश्यक मो है, अन्यथा रिसे अपने लोकांस स्वरूप हौकार्य का पाक माना जायगा तो से नियत समय के पूर्व भीरकुरकी उत्पत्ति की आपत्ति होगी। इस श्रापत्ति का परिहार करने के लिये यदि वझकारिसभिमान की अपेक्षा मामकर यह कहा जाय कि-'बीज अपने लोकसित रुप बीजत्यसे हीरकाकारण है किन्तु अंकुरका उत्पावन वह तमो कर सकताअकरके अन्य सभी कारणों का भी उसे सविधान प्राप्त हो, अतः अन्य कारणों के असन्निधान के समय उससे अंकुर के Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मारक टीका- हिन्दी विद्वेषन ] [** उक्तं च- कः कण्टकानां प्रकरोति ययं विचित्रभावं मृगपक्षिण च स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रसः ॥ १॥ इति ॥६०॥ ॥ उक्तः खभाववादः ॥ की आपति नहीं दी जा सकती' तो इस कल्पना की अपेक्षा सो यही मानना उचित है कि बीज मोरूप से अकुर का जनक नहीं होता अपितु विलक्षण बीजत्व रूप से अर्थात अंकुरानुकुल अपनी परिणतिरूप स्वभाव से जनक होता है, जिस समय अंकुर की उत्पत्ति होती है उससे दूर पूर्व में गल परिणति के न होने से पूर्व में मकुर को उत्पत्ति नहीं हो सकती । [ सहकारीचक को कल्पना अनावश्यक ] वि यह कहा जाय कि मंकुशेपायक वीज में सहकारिधक को अतिशय काषायक सो स्वभाषाको को भी मानना पड़ेगा, क्योंकि अतिशयोन बीज को अकुर का अनक मानने पर सह कारिचक के सधान से पूर्व भी अकुर की उत्पत्ति को आपत्ति होगी. सतः जब सहकारिवक की अपेक्षा स्वभाववाद में भ आवश्यक है तब तो विलक्षणत्व से ऋण की कल्पना भरवश्य है. क्योंकि से भो योज को अंकुर का जनक मानने में कोई मापत्ति नहीं हो सकती-स यह ठीक नहीं है क्योंकि जो जिस कार्य का उपादान माना जाता है उसमें प्रशिक्षण नये नये परिणाम होते रहते हैं. और उन परिणामों स नये गये उपाय परिणामों की उत्पति भी होती रहती है। अम पूर्व उपादान परिणामों को उत्तर होने वाले सतत उपाय परिणामों के प्रति कारण मात से स्वभाववाद में मारक की कल्पना अनावश्यक हो जाती है। किन्तु उपादान को लोकसिद्ध सामान्यरूप मे उपादेय का कारण मानने पर पूर्वोत आपसि का परिहार सहकारिक को कपमा के बिना नहीं हो सकता, अतः स्वभाववाद को स्वीकार करना ही उचित है। स्वभाववाद में उबल ह उपपरिणाम और उपादेय परिणामों में हेतुहेतुमद्भाव मानने से उस पल में कालवा के प्रवेश की आशंका भी समाप्त हो जाती है । ( कार्य से कारणानुमान के भंग की प्रापति का समाधान ) उक्त व्यवस्था स्वीकार करने पर यह प्रश्न हो सकता है कि का जो चरम अणात्मक परिणाम होता है उससे अंकुर का प्रथम अणात्मक परिणाम ही उत्पन्न होता है द्वितीय तृतीय आदि परिणामों की उत्पति उससे नहीं होती अतः उपादान के क्षण परिणामों को उपादेय के क्षणपरिणामों के प्रति तत्तदृष्यतित्व रूप से हो कारण और कार्य माना होगा क्योंकि यदि अनुगत रूप से उनमें हेतुहेतुमान की पना को जायगी तो जिस द्यावृति से उनका अनुगम किया जायगा उसके शरीर में उन क्षणों के प्रवेशक्रम में विमान होने से महान गौरव होगा, और तदन्यपि सेतुमाव मानने का दुष्फल यह होगा कि जातीय कार्यकारण के अनुमान का मङ्ग हो जायगा क्योंकि प्रनुगत रूप से हेतुहेतुमद्भाव न होने के कारण तज्जातीय कार्य में कार की अनुमापकता में कोई प्रयोजक न होगा" किन्तु यह प्रश्न स्वभाववरवी के लिये बड़ी सरलता से समाधेय है, वह इस प्रकार कि उत्पादक बीजक्षणों में तथा उत्पाद्य घड़कुरक्ष में परस्पर में अत्यन्त साहश्य होता है जिस से उनका साय तिरोहित रहता है अतः सह कुर क्षरणात्मक कार्य से सराबीजक्षणात्मक कारण का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शास्त्रमानासमुकचय स्त० २-1ळा ३१ अथ नियतिवादमाहभूल-नियतेनैव रूपेगा सर्व भाषा भवनित गत् । मती नियतिजा हयंत लस्वरूपानुबंधाता ॥१॥ नियानव-सजातीय-विजातीयव्यावसन स्वभावानुगतेनैव रूपेण, सर्व मावा भवन्ति, यद्-यस्मात् हेतोः । ततो लि=निधितम् , पति-भावाः, निपतिजाः नै यत्यनियामफतवान्तरोड्याः । वन्नरमाइ-सास्वरूपानुवैधत नियतिकनप्रतिनियन पश्लेषान । दृश्यते हि तीणशसाधुपहतानामपि मरणनियतताभावेन मरणम् , जीवननि पनतया च जीवनमेवेनि १६१॥ इदमेय म्फुटमाहमलम्-यदेव गतो गाधनसदैव ततस्तथा । नियत जायत, न्यायात्क एतां पापितु क्षमः ? ॥२॥ यः घटादिकम् , यवैव-विक्षितकाल एव, यतः दण्डादेः, यावत विव झिनाल्पउपत क्षणों में प्रमुगत कार्यकारणभाव न होने पर भी मनुगत प्रयोज्यप्रयोजक.कभाष होमे से उप्त प्रयोज्यप्रयोजकभावरूप प्रयोजक के बल पर माकुरक्षसों और बीजक्षणों में व्याप्मध्यापकभाष सात हो सकता है ।- 'उक्त क्षणों में जैसे अनुगत कार्यकारणभाव नहीं होता उसी प्रकार अनुपात प्रयोग्यप्रयो. जकमाय मी नहीं हो सकता-" यह का नहीं की जा सकती, क्योंकि अनुगत काकारण माघ मामले में नियतसमय से पूर्व बीज से अंकुरोस्पतिही मापति वाधक है। किन्तु मनुगत प्रयोज्य-प्रयोजकमाव मानने में ऐसी कोई बाधा नहीं है क्योंकि यह नियम किसी को भी मान्य नहीं है कि 'जो जिस का प्रयोजक होता है उस से उसकी उत्पत्ति में बिलम्ब नहीं होता' । प्रतः भकुरोपत्ति से शिरपूर्व भी अंकुष्प्रयोजक की सत्ता मानने में कोई दोष नहीं होता। इस विषममें अधिक जानकारी'मध्यात्ममतपरीक्षा' नामक ग्रन्थ से प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार पूर्वोक्त युक्तियों से यह सिद्ध हो जाता है कि जगत स्वमायहेतुक ही है, प्रायझेनुक नहीं है । कहा भी गया है कि-'कादों की तीक्षणता मौर पथ एवं पक्षियों की विचित्ररूपता को कौन उत्पन्न करता है ? स्पष्ट है कि यह सब स्वभाव से ही सम्पन्न होता है, स्वमावधान में कामचार मथेच्छ प्रमुष्ठान का कोई परसर नहीं है अतः इस बार में सब से सब की उत्पति को प्रापत्ति नहीं हो सकती ५६॥ [स्वभाववादपरिसमात] (नियतितत्त्व से सर्वकार्यसंपत्ति-नियतिवाद) ६१ वी कारिका में नियतिवाद को स्थापना करते हुये कहा गया है कि-सभी पवार्थ नियतरूप से हो उत्पन्न होते हैं। नियतरूप का अर्थ है-वस्तु का वह असाधारणधर्म जो उस के सजातीय और विजातीय वस्तुमों से प्यावृत्त होता है । यह रूप वस्तु के स्वमाम का अनुगामी होता है एवं साश पवाथों में स्वभाष से ही अनुगत होता है। मियतरूप से हो पदार्थों को इस उत्पति के अनुरोध से यह Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या• • टी-हिन्दी विवेचन] [ बहुदेशव्यापि, जायमानं दृश्यते तायटादिकम् , सच-विवक्षितकाल एव, ततः-दण्डाद, तथानाबदेशव्यापि, लोकेजगति, नियतम् नियतिकतम् , जायते । तनी न्यायात्सकान , क एमां-नियनि, चाचित तमः प्रमाणमिद्धे चाधानवतारात , नियतरूपान्छन्नं प्रति नियतैरव हेतुन्वार , अन्यथा नियतरूपस्याप्यास्पिताऽऽपतः । न च विद्रमक न जन्यताक्छेदकम् , फिन्त्वार्थसमाजमिद्धमिति घाटयम् ; नियतिजन्यवनवोपपत्तावार्थममाजाऽकम्पनान् भित्रमागनीजन्यतय वस्तुरूपव्याघातापत्र । तदुक्तम् "प्रासन्यो नियतिबलाश्रमेण योऽर्थः, सोऽयश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाऽभात्र्यं भवति, न भाविनोऽस्ति नाश" ॥१॥ इति ।।दशा इदमेव विवृणोनिमूलाम्-न चर्ते नियति लोके मुद्गपक्तिरपोश्यो' । सरस्वभावादिभावेऽपि नासायनियता यतः ॥३॥ मानना मावश्यक है कि सभी पवायं किसी ऐसे सत्त्व से उत्पन्न होते हैं जिस से उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में निमतरूपता का नियमन होता है, पवाओं के कारण मूत उस तत्त्व का ही नाम 'नियति है । उत्पन्न होने वाले पदार्थों में नियतिमूलक घटनाओं का ही सम्बन्ध होता है इसलिये भी सभी को नियतिजन्म मानना प्रावश्यक है । जैसे यह देखा जाता है कि तीक्ष्ण शस्त्र का प्रहार होने पर भी सब की मृत्यु नहीं होती, किन्तु कुछ लोग ही मरते हैं और कुछ लोग जीवित रह जाते हैं, इस की उपपत्ति के लिये यह माचमा आवश्यक है कि प्रारणो का जीवन और मरए नियति पर निर्भर है। जिस का मरण जब नियतिसम्मत होता है तब उस को मत्यु होती है और जिस का जीवन जब तक नियतिनसम्मत है तब तक मृत्यु का प्रसका बारबार माने पर भी यह जीवित ही रहता है, उस को मृत्यु नहीं होती ॥१॥ [जिसकी-जब-जिससे-जिसरूप में उत्पत्ति नियति से ] ६२ को कारिका में पूर्व कारिका के कथन को ही करते हुये कहा गया है कि जो कार्य विस समय विस कारण से जिस रूप में उत्पन्न होने का निर्यात से निविष्ट होता है वह उसी समय उत्तो कारण से उसी रूप में उत्पन्न होता है। घट आदि कार्यों की उत्पति सी प्रकार वेखी जाती हैं इसलिये इस प्रमाणासिय निर्यात का किलो मी त से कोई भी विकास खण्डम महीं कर सकता, बयोंकि प्रमाणसिख पवार्ष में पाचक सर्वका प्रवेश नहीं होता। यदि यह पूछा जाय कि नियति में क्या प्रमाण है ? तो इसका उत्तर यही है कि नियतरूप विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति हो निपति की सत्ता में प्रमाण है, क्योंकि यदि नियतकप से कार्य को चस्पति का कोई नियामक होगा तो कार्य को मियतरूपता आकस्मिक हो जायगी अर्थात किसी वस्तु का कोई नियतरूप मिडम हो सकेगा। यदि यह कहा जान कि-कामे याबमका होता है तावडर्मकाब किसो एक कारण का कार्यतापक नहीं होता. अपित तत्तत् पर्म मिन्न भिन्न कारणों द्वारा सम्पावित होते हैं. और जब उन सभी को के () सर्वत्र मूळपुस्तकादश पीच्यते' इति पाठः । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा० बा० समुच्चय ०२-०६३ · न च लोके जगति नियतिसृते नियति विना गुद्गपचितरपीक्ष्यते दृश्यते; यत नासी अधिकता स्स्स्वभावादिभावेऽपि पवितजनकस्वभावव्यापारादिवेऽपि स्वभावस्य मुक्तिः अनियता, किन्तु स्वरूपनियता न चैतद् नैयत्यं स्वभावप्रयोज्यम्, कार्येकजात्यप्रयोजकस्यात् । अतिशयरूपस्याऽपि तम्य विशेष एव प्रयोजकत्वात्। पक्त्यन्तरलाजात्यये जात्यो मानुषेषम्य निर्यात विनासंभवात् 'हेतुना व्यक्तिरेवन्पाद्यते उभयानु वेवस्तु तत्र तच्चानन्तरसंवादिति चेत् ? न समवायादिनिरासेन तत्यवेधानुपपशेः, अनिराति तत्संवेवनियामक ८० ' , 9 किञ्च दण्डादिसखेऽवश्यं घटोत्पत्तिरिति न सम्यग् निश्वयः तन्वेऽपि कदाचिदू घटालुत्पत्तेः किन्तु संभावनैव इति न दृष्टहेतु सिद्धि यद् माध्यं तद्भवत्येव । इति तु सभ्यग् अविद्यनिश्वयः । न कार्योत्पत्तेः पूर्व नियत्यनिश्चयात प्रवृत्तिनं चैत्र प्रः फललाभस्य तु यान्त्रिकत्वादिनि दि ॥३३॥ स्यादिति वाच्यम् सम्पतिक कारणों का समाज एकत्र होता है तब उन सभी धर्मों से युक्त एक कार्य की उत्पत्ति होती हैं" टंक नहीं है, क्योंकि तावद्धमेव को एक नियति का श्रासावरखेवक मानने में लात उस में कारण समाज निम्कीमा मिस नहीं हो सकी। दूसरी बात यह है कि तलद् धर्म से विशिष्ट कार्य यदि भिन्न भिन्न कारण सामग्री से जन्य होगा तो भिन्न सामग्रियों से उत्पन्न होनेवाले कार्य में एक वस्तुरूपता न हो सकेगी। निर्यात के समर्थन में यह बहुत अच्छी बात कही गयी है किमनुष्य को जो भी शुभ अशुभ नियति द्वारा प्राप्तव्य होता है वह उसे अवश्य प्राप्त होता है क्योंकि जगल में यह देखा जाता है कि जो वस्तु जिससे नहीं होने वाली होती है वह बहुत प्रयत्न करने पर भी उनसे नहीं होती और जो होने वाली होती है उसका कभी नाश घामे विघटन नहीं हो सका ||६|| [ पचनस्वभाव होने पर भी नियतिथिना पाक अशक्य । ] ER कारिका में पूर्वारिका के विषय को ही अन्य प्रकार से स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है- सहार में नियति के बिना मूंग का पाक भी नहीं देखा जाता, मूंग पाक के स्वभाव के व्यापारकाम होने पर भी वह अनियत स्वरूप नहीं होता किन्तु नियत से सम्पादित स्वरूप से सम्पन्न ही होता है। उसका स्वरूपनयत्य स्वभाव से नहीं उपप हो सकता क्योंकि स्वभाव कार्यों की एकजातीयता का प्रयोजक नहीं होता. यदि स्वभाव को अतिशयरूप माना जाय तब भी वह कार्य में विशि का हो प्रयोजक होता है. ग के पाक में अन्य पाक के साजात्य और मंजस्य के अस्तित्व का प्रयोजक तो मिस हो होती है। यदि यह कहा जाय कि "मियत हेतु से तो व्यक्ति की ही उत्प होती है उसमें साजात्य और यंत्रात्म की सिद्धि तो अन्य से ही होती है. अत कार्य को मि जन्य मानने पर भी उस में सजाय जास्य को उपपत्ति के लिये हार ही मानना होगा, तो फिर की उत्पत्ति सो स्वभाव आदि से भी हो सकती है अतः उसके लिये नियति को रूपमा श्रमावयक है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह तस्यान्तर समवाय यानि हो ही सकता है, किन्तु उस का और पदि उसे भाषा भी जाय तो उसी का अस्तित्व कार्य में किस निमित्त से होता हो Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्या० ० टीका-हिन्दी विवेचन ] [ . उक्तमेव पावकविपझन्वेनामूल-अन्यथाऽनियतत्येन सर्वभाषः प्रसज्यते । अन्यान्यात्मकतापते: क्रियाफल्यमेव च ॥३॥ अन्यथा= नियतिजन्यत्वं पिना, अनियतत्वेन हेतुमा, सर्वभावः प्रमज्यते, ध्ययविशेषात् । प-पुनः अन्योन्यात्मकमापसेन्घट-पाद्यविशेषापसः, कियाफल्य मेव, सिद्धाया व्यक्तेरसाध्यत्वात् । 'सा व्यक्तिर्गसद्ध षे' ति चेत् १ तवं नान्यभेदः, तदनईऽपि मोऽयम्' इनि नशाग्रहात् । नच तम्यक्तिरेव तस्त्रम् , तस्य तत्राविशेषणवात् । किन्तु नियतिकतधर्म एव, इति सिद्ध नियन्या ६४।। उस्तो नियतिवादः। है यह प्रश्न पुम: हो जाता है, अत: कार्य में सामात्य जात्य का नियामक ऐसा होना चाहिये जिसके बारे में ऐसा प्रश्न न हो, और ऐसा नियामक निर्यात के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं हो सकता। [ कार्य अवर्यभाव का सम्यक् निश्चय ] वह भी सातव्य है कि-'पा आदि होने पर घर अवश्य होता है प भी सम्मक निश्चय नही हो सकता, क्योंकि बाविसमी हेसमों के होने पर भी अनेक बार प्रतिमाशक वाविवश घर की उत्पत्ति प्रसिद्ध हो जाती है। अत. या आदि के होने पर घटोत्पति की कवल सम्भावनाही मानो जा सकती है। इसलिये सम्यक विषय के अभाव में कार्य के दृष्ट कारणों की सिसि होतो सकतो. किन्तु जितका होगा मियत है यह होता हो है' या सम्यक निचप है. क्योंकि इसमें विपरीतता नहीं होतो, अतः इस निश्चय से नियति में पाये को जमकता को मिति निर्वाष है। कार्यनितिजयस्वपक्ष में यह प्रान हो सकता है कि कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कार्यायों को नियति का निश्चय तो होता नहीं फिर कार्य के उत्पादनार्थ उस की प्रवृत्ति कैसे होगी ?'- नियतिवारी को मोर से इस प्रस्न का उत्तर यह है कि कामार्थी को प्रवृत्ति नियति का ज्ञान हुये बिना ही होती है। यह कार्य की उत्पत्ति नावश्य होगी इस बात के मिश्चय से नहीं प्रवत होता, वह तो यही सोच कर प्रवत होता है कि पति निर्यात होगी तो कार्य अवार्य ही होगा । मतः कार्य के लिए जो कुछ बहकर सकता है यह उसे करना चाहिये । अतः यह स्पष्ट है कि कार्यापी को प्रति प्रविमा से ही होती है, कार्य की सिजि तो नियतिवश सम्पन्न होती है ।।६।। [नियति विना कार्य में सर्वात्मकता को प्रापत्ति] ६४ वी कारिका में पूर्वोक्स बात को विपक्ष के वाधक कार में प्रस्तुत करते हये कहा गया है कि'पदि कार्य को नियतिजन्य न माना जायगा तो कार्य में नियतरूपता का कोई नियामक न होने से उत्पन्न होने वाले कार्यग्यक्ति में सर्वात्मकता की प्राप्ति होगी, और कार्यव्यक्ति के सर्वात्मक होने पर घट पट प्रावि कार्यों में कोई अन्तर न रह जाने से किसी एक कार्य व्यक्ति के उत्पन्न हो जाने पर अन्य कार्य व्यक्ति भी सिद्ध हो जायगी, फिर उसके लिये मनुष्य की क्रिमा निरर्थक हो जायगी, क्योंकि सिख को सम्पावित करने के लिये कोई क्रिया नहीं मपेक्षित होती। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ शाप्रपातीममुच्चय त २ श्लोक ३५.६५ अथ कर्मवादमाह--- मूलं—न भोक्तव्यतिरेका भोग्यं जगति विद्यते । न प्याकृतस्य मोक्ता स्यान्मुक्तानां भागभावतः ॥२५॥ भोक्तव्यानर फेण जगति-चराचरे, भाग्यं न विद्यते, भोम्पपदस्य मसंबन्धिमत्वान । न चाश्कृतस्य भोक्ता स्यान . स्वव्यापारजन्यम्यय स्मभोग्यवदर्शनात, अन्यथा, मुक्तानां निमितार्थानाम् . भागभाषतः भागप्रमहगान ।।६५|| ततः किम : इन्याहमूलम्-भाग्य च विश्व' सत्यानां विधिना तेन तेन ग्रन्। दृश्यतेऽयक्षमयेद तस्मात् तत्कर्मज हि तत् ॥६॥ भाग्यं च-भागपषोचनं च, सत्त्वानां-मारिणाम् । नेन तेन सुखदुःखप्रदानादिल मोन, विधिनाः-प्रकारेण, इदं विश्व-जगत, अध्यक्षमय-म्यसंवेदनसाक्षिकमेव दृश्यते, यद-पस्मान् हेतोः तस्मान् कारगात , हिनिश्चिनम, तत्-जगन् , सत्कर्मजभोक्तकमैजप् । जगद्धतुत्यं कर्मण्येर, इनरेपो पराभिमतहेतूनां व्यभिचारित्वादिति भावः ।६|| तथा (तत्तय्यक्तिरूपकार्यसिद्धि के लिये भो क्रिया अनावश्यक) यदि यह कहें कि-"एक व्यक्ति के उत्पन्न हो जाने पर उक्त रीति से व्यक्तिरूप में सब को लिखि हो जाने पर मो तसा व्यक्ति के रूप में तो सब की सिद्धि नहीं हो जाती प्रतःप्तल्यक्ति को सिन करने के लिये किया की अपेक्षा हो सकती है- सो यह टोक नहीं है, क्योंकि व्यक्तिनिष्ठ तत्ता को अन्यमेवरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि अन्यभेव का शान न होने पर भी ध्यक्ति की तत्ता का 'सोऽयम्' इस रूप में मान होता है। सत्ता को तब्यक्तिरूप भी नहीं माना जा सकता बोकि हेतु से व्यक्ति को ही उत्पत्ति होने से उत्त में ससा विशेषरा सिद्ध ही नहीं है, अत: उसे सव्यक्ति कह कर तसा फो तत्स्वरूप नहीं कहा जा सकता । अतः अन्य कोई गति न होने से यही कहना होगा कि ग्यक्ति की तत्ता व्यक्ति का नियतिमूलक धर्म है। नियसि तत्सविशिष्ट ही व्यक्ति को उत्पन्न करती है। मतः कार्य के नियतिवम्यत्वपक्ष में उत्पन्न होनेवाले व्यक्ति में सत्मिकता को मापत्ति नहीं हो सकती। अतः नियति को सिद्धि निर्विवाब है ।।६४।। (नियतिवाव परिसमाप्त) ("भोग्य-भोक्ता और कृत का भोग'-कमान) ६५ौं कारिका में कर्मवाद की स्थापना करते हुये कहा गया है कि इस घराचरात्मक जगत् में मोम्म की सत्ता भोक्ता की सत्तापर हो निर्भर है, क्योंकि 'मोम्य' यह सम्बन्धिसापेक्ष पदार्थ है प्रतः भोक्तारूप सम्बन्धी के प्रभाव में उसका मस्तित्व नहीं हो सकता। मोक्ता मी प्रकृतकर्म का भोग नहीं कर सकता, मोंकि जो जिसके व्यापार से उत्पज होता है वही उसका प्रोग्य होता है। यदि प्रकृत कर्म का मो मोग माना जायगा तो मुक्त पुरुषों में भी मोग की आपसि होगी, क्योंकि जब भोग के सिये मोक्ता को कम करना प्रावश्यक नहीं है तो संसारी पुरुषों द्वारा होने वाले कर्मों का भोग मुक्त पुरुषों में क्यों न हो सकेगा ? ||६५।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या का टीका-विमी विवेचन ] [EL मूलम्- न च तत्कर्मधुपं मुर्गसिपाक्यते । स्थास्याविममाषेन यत् क्यधिझोपपद्यते ॥६॥ न च माफर्मवैधुर्ये =भोकगतानुकूलादृष्टाभावे, सुगपक्तिरपीश्पते । काम ? इल्याह-या-यतो हेनोः, क्वचित् विचितस्थाने, म्यान्मादिभङ्गभावेन, नोपपद्यतन पियनि । 'दृष्टकारण गुण्यादेव तत्र कार्याभाव' इनि घेत ? नाह तहगुण्यं यषिमित्तम् , नत पत्र का बैगुण्यं न्यायप्राप्तम , तद्धेसोः' इति न्यायान् । नन्वेवं नियमनो इष्टकारणापेक्षा न म्यादिति चेतन स्यादप. सथाविधप्रयत्नं विनापि शुभारष्टेन धनप्राप्त्यादिदर्शनात : कर्मविपाकातऽवर्जनीयनिधिकत्वेनैव नेपा निमित्तत्वष्यपहागन् । अत एव 'दृकारणानामराष्ट्रव्यापकन्यम्' इति सिद्धान्तः । तदुक्तम् ६६ वी कारिमा मे उक्त कपन का फलिता बताते हुये कहा गया है कि 'मह जगत् सुख, पुःख मादि को उत्पन्न करकेही जीवों का भोग्य होता है'घा प्राणीमात्र का अनुभव है। इसलिये यह मानना मावश्यक है कि जगत् मोक्ता के कर्मों से ही उत्पन्न होता है । जगत् को कारणता जीब-कर्मों मैंगो मह मानना इस लिये भी आवश्यक किप्रयवादियों द्वारा बताये गये कारण व्यभिचरित हो जाते हैं, पयोंकि उन कारणों के रहने पर मी कमी कार्य नहीं होता और कभी उन के अभाव में भी कार्य हो जाता है। प्रप्तः यह युक्तिसिद्ध है कि जीवों का पूर्वाजिप्त कर्म ही जगत का उत्पावक होता है ।।६६॥ [ कर्म के विरह में मूगपाक अशक्य ] ६.पों का पका में भी कर्मवाचकही पुष्टि की गयी है और कहा गया है कि भोक्ता के अनुकुल अष्ट के प्रभाव में मुग का पाक भी होता मी बोखता, क्योंकि यह सर्वविदित है कि कई मम ममुख्य जम मूग पकाने चलता है तो पासपात्र आदि कामकस्मात् भंग हो जाने से मूग पाक मही हो पाता । कहा जाय कि पाकपात्र आविहार कारण का अभाव हो जाने से ही ऐसे स्थलों में पाक मोहता हो यह कहना पति महीपाट कारण का प्रभाव भी तो किसी मिमित्तलेही होगा और उसका मो निमित्त होगा वह कोई नष्ट मिमित प्रमाण सिद्ध होने में आष्टापही होगा. अतः उम को पौधे कार्याभाव का ही प्रयोमक मान लिना उचित है, पयोंकि पह ग्याय है-- तोरेवास्लु किन-जिसका अर्थ है कि जो कार्य अपने हेतु के हेतु से सीधा ही। उत्पन्न होता है उसी को ही हेतु माना जाय, दूसरे को क्यों माना काय? इस स्थिति में यह मानना उचित प्रतीत होता है कि काये अपने अभिमान हेतु के हेतु ही सीधे उत्पन्न होता है यदि यह आपत्ति दी जाय कि-कार्य को माक्षात मान से सम्पन्न मानने पर कहीं भी रष्ट कारण की अपेक्षा न हो सकेगी तो इस से कोनि नहीं है. क्योंकि कर्मधार में नष्ट कारण का कोई स्थान नहीं है। देखा भी जाता है कि-कभी सभी विना किसी प्रयत्न केही मनुष्य को विपुलधन को प्राप्ति हो जाती है, मतः इष्टपदार्थों में यदि कहीं किसी कार्य प्रति कारन का व्यवहार होता सोलिये मही कि हण्ट पदार्थ सचमुचकारण है कि यह व्यवहार दम लिये होता है कि कार्य को उत्पत्ति के पूर्व उमका सानिमा प्रजनीय होता Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! रा. श्री. गावाजः : "यथा यथा पूर्वकनस्य कर्मणः फलं निधानमिवाऽवनिष्ठते । मथा तथा तत्प्रतिपादनाधता प्रदीपइस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥१॥" इति । न च विपाकफालापेक्षाणात कालबादप्रवेशः, तम्प कविस्थाविशेषरूपस्यात् । न च कर्महत्वपेशावैयग्रयम् , अनादित्वात् कर्मपरम्परायाः ॥६७|| विपक्षे बाधकमाहमूलं- पिन भोग्यं तथा चित्राकर्मणोऽहेतुतापया । सस्य घस्माद्रिश्चिन्नाव नियन्यादर्न युग्पतं ॥८॥ नया प्रतिनियतरूपेण, चित्रं नानाप्रफारम भोग्यम् , चित्राकर्मणो घटतं, मम्य तसत्कार्यजनकविचित्रशक्तियोगित्वान् । अन्यथा चित्रकर्मानभ्युपगमे अहेतुना म्पाद, 'चित्र माग्यस्य' इत्यनुपज्यते । 'क्वांचाइनरूपमेव, क्वचिच्चानु नरूपमेव, परमाणुयाङ्ताना च शाल्पादिनीजाना शाल्याग्रनुजनकत्यमेघ' इति नियमे परेणाऽप्याटम्यवाऽङ्गाकागत , है। इसी लिये सिद्धान्त यही है कि दृष्ट कारण अदृष्ट के पश्चक होते हैं न कि कार्य के पास्तव कारण । कार्य का वास्तव कारण तो अष्ट हो जाता है। कहा मो गया कि-कोष में धम के समान पूर्वकृत कर्ष का फल पहले से ही विद्यमान रहता है मौर वह जिस जिस रूप से अवस्थित सारे उस उस कप में उसे सुलभ करने के लिये प्रमुष्य की बुधि सतत उच्चस रहती है और उसी जसी प्रकार उसे प्राप्त करने के लिये मातों हाय में दोप लिये मागे मागे बहती है। मियाक कालको अपेक्षा मामने पर इस मत में कालवाव के प्रवेश को पका नहीं की जा सकती क्योंकि काल भी कर्म को एक fशेष अवस्था हो हैं । कर्म के कारणों के विषय में भी चिन्तित होना ग्यथ है क्योंकि कमपरम्परा अनाव है, अतः पूत्र पूर्व कमें से उत्तरोतर कर्म की उत्पत्ति मानने में कोई बाधा नहीं हैं ।।७|| (कर्मविचित्रता से भोग्यधिविधता) ६८वी कारिका में कार्य कर्महतुक है इस पक्ष के विपरीत पक्ष में माषक बताया गया है । करिका का प्रर्थ इस प्रकार है भोग्य पदार्थ प्रसिनियत रूप से अनेक प्रकार के होते हैं अतः उन के कारण को भी प्रनेक प्रकार का होना मावश्यक है क्योंकि कारण के वैचित्र्य-विध्य से ही कार्य में वैचित्र्य-बहुप्रकारकत्व हो सकता है, मन्याचा नहीं । कर्म में बहुविधकार्य को उत्पन्न करने की शक्ति होती है, अतः उस से माविध कर्म का जन्म हो सकता है। यदि विचित्रकर्म को कारण न माना जायगा तो विचित्रकार्य की उत्पति न हो सकेगी । किसी द्रग्य का रूप उभूत होता है और किसी का भमुद्भूत, असे घर, पट पावि का रुप उन्मूत घौर चक्षु प्रावि का रूप अनुषभूत । ग्रह विवि प्रता कारणवधिम्य के बिना नहीं उपपन्न हो सकती । शालि. सब प्रावि के बीज टूट कर जब परमाणु की स्थिति में हो जाते है तब उनमें वालिम्प, घघाब आवि धर्मस्व मही रह जाते क्योंकि प्रध्यत्वध्यायमाति को व्याप्यकातियां परमाणु में नहीं मानी जाती । अत: परमाणुभूत शालि, यवादिनीनों में Aध्यरममाप्य Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा कर टीका-हिन्दी विवेचन] [८५ सर्वत्र तळ्तुत्वम्यग्रोचिस्यात् । ननूक्तमेव निसल्यादेः कार्य विश्यम् , अत एतत्पणेष प्रत्यामश्या प्रनिलीमक्रमेण तदपणार्थमाइ-तस्य भोग्यस्य, विचित्रत्वम् , यस्माद्धेतो, नियम्याद लियादि ज्वरी: 1. राथाहि-- मूलं--नियनियसामग्यानियतानां समानता । तथानियतमाघे चपलात् स्यात् सविचित्रता ॥३॥ नियतनियतात्मत्यात एकरूपत्वात , निम्नाना-नजन्यत्वेनाभिमनानाम् , समानता स्यात , तथा-अदृष्टप्रकारानतिक्रमण अनियमभावे असमानकार्यकारिन्वे च नियतेरम्पपगम्यमाने, बलान-न्यायान् , समिनिकना-नितिविमित्रता स्यात् । 'पटो यदि पटजनकाऽन्यूनानिनिरिकन हेतुजन्यः स्याद , पटः म्यान'-'घटजनकः यदि पटें न बनयेद , पटजनकाद भियन' इति नदियम् ॥६९|| पृथिवीव जाति हो रहती है. उसको पाप्य शालिस्म आधिजातियां नही रहतो. इसलिये परमाणुमता शालिनीजों से पासि अंकुर को हो उत्पत्ति एव परमाणभूत योषों से मवापुर को हो उत्पति का नियमन अरुट वाराही अन्यहेतुवावियों को भी मामला पडेगा. तो जब कुछ स्थानों में कार्य को अष्टनम मानना स्पष्ट रूप से आवश्यक प्रतीत होता है तो सर्वत्र उसी को कार्य का मनका मानना उचित है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि निमति की चर्चा प्रस्तुत चर्चा के निकट पूर्व में होने से या काल, स्वभाव आदि से प्रत्यास है अतः आरोह-उतार के क्रम से पहले उपी की कार्यवेविश्वप्रयोजकता को परीक्षा उचित हे भोर उस परीक्षा का निर्ष निश्चितरूप से यही निकलनेवाला है हिसियति आदि से भोमसिन की उपपसि नहीं हो सकती॥६मा (नियति हेततापक्ष में कार्यसमानता को प्रापति) ___ बी का रिका में 'नियति से कार्य वेत्रित्र्य नहीं हो सकता.' इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ यह है कि निर्यात को सामा=Fanप एक है अति नियति निश्चित रूप से प्रकस्वरूप है अत: भोग्य पदार्थों का जन्म पवि उसी से होगा तो कारण में एकरूपता होने से कामों में भी एकरूपता ही होगी, ममेकरूपता न हो सकेगा. जबकि कार्यों की अनेकरूपता ममाम्य । अतः यदि अष्ट के समान उसे भी विचित्र कायं का जनक मानना है तो विवश होकर उसे भी एकरूप न मान कर विचित्ररूप ही मानना होगा। बात बोतको द्वारा सिस होगी.जसे-'घट यदि पट के कारणों से अमन और अनतिरिक कारणों से उत्पन्न होगा तो घर भी पर हो आयगा । और 'घट का बाक यति पट का जनन करेगा तो पट के जनक से भिन्न होगा। इनमें पाले तक का आशय यह है कि जिस कारणों से परस्पन होता है, पवि घट भी उतने ही कारणों से उत्पन्न होगा, घट के कारणों में यदि पर किसी कारण का प्रभाव प्रथवा पट के कारणों से अतिरिक्त किसी नये मारग का मनिवेश न होगा, सो घट भो पर होहो जायगा, पटसं भिन्न हो सकेगा। क्योंकि कारणों में सबमा साम्म रहने पर कायों में Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श० प्रा० ममुमचय न० २-इस्लोक ४०-७१-७२ प्रागुकतरीन्या कार्य बैंचियनिर्वाहमतन्त्र नियन्यभ्युपगमार द्वितीये इष्टापतिमाशाहमूलम्- न सन्मानभावायु पनेऽस्या विभिन्नता । सदस्यभेदक मुकवा सम्यग्न्यायाधिशेषतः ॥७॥ नबनव, तन्मात्रभाचादेः 'तन्मात्रभावो' नियतिमात्रत्वम, आदिना परिणामग्रहः, तनोऽस्याः अनिनियनकार्यजनकनियने:, तवस्यभेद नियत्यन्यभेदक मुक्या -अनभ्यपगम्य. सम्यग्न्यायाऽविरा बत: मसकाशतिकूल्यन, विषिषता स्यात् ।।90/ मनदेव प्रस्टयमाहभूल न जालस्यैवरूपस्य विधाता विविधता | उपराविधराभेदमनारेणोपजायते ॥७१।। ___ जलम्य, एकरूपस्य जन्नत्वेन ममानम्य पयापाताम् अभ्रपानादनन्तरम् ,उपरादि. धराभवम् ऊपरंतरपथिवीसंबन्धादिजन्यषण गन्ध-रम-स्पशांदिवलक्षण्यमन्तरण, विचित्रता न दृश्यते, सकलज्ञाकसिद्ध खन्वतन् । तथा नियनेर यम्य भेद विना न भेद इति भावः ॥७॥ अस्तु तहि नदन्यभेदकम् , अप्राइमूलम्- नदिनका अस्थः न करना। ताकत स्वेच चित्राचं तवसस्यागसंगतम् ॥७॥ वैषम्य नहीं हो सकता. समया समान कारणों से उत्पन्न होने वाल वो पर्टी में भी शाम हो जायगा । एवं दूसरे तक का अभिप्राय यह है कि घट का जो कारण पटके उत्पावन में भमपेक्षित होगा बझपट के अमक भिन्न होगा . इस प्रकार उपसतको घट पट आहिमाघों मे विभित्र कारणजन्यस्वसिम होता है, अतः एकरूप नियति में उम की उत्पत्ति मानना अगुरू है ॥६॥ नियतिगत वेचिश्य नियति से संपन्न नहीं हो सकता] पूर्वोक्त रीति से कार्यों में बचिम्म को जम्पत्ति के लिये नियति का नाब माना गया है, अत: मियांत के सम्बाध में प्रस्तत किये गये पूसरे पक्ष में इष्टापति की पाद्ध। हो सकती है। ७.वी कारिका में इसका निराकरण कर मयं कहा गया है कि नियति से अन्य वि उस का कोई भेवक न माना जामगा तो नियति के सामान्य स्वरूप अपना उसके परिणाम से उस में विविधता नहीं सिद्ध हो सकती. क्योंकि विचित्रता की सिधि सततर्क के विशेष से हो तिज हो सकती है || ५१ वो कारिका में इस बात को इस प्रकार पर किया गया है किभाकाया से जो जल वासना वहस समान होता है, उस में जो विध्य भरता है ना ऊपर और उपजाड अवि विभिन्न भूमिकों के सम्पर्क से ही होता है । जिम भूमि में को बल गिरता है उस में उस भूमि के सप, रस, गाय और स्पर्श का सम्बन्ध होने से प्रस्थ मल तथा अन्यत्र गिरने वाले मल वलक्ष जाता है इस सम्पर्क के बिना जल में घनमण्य नहीं होता यह तथ्य लोकमान्य । अतः अप मेषक के विमा नियति में भी मिहीं हो सकता || Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ] [७ तदिनभेदकारचे च--तभिन्न भेदक पम्यास्तम्या भावस्तमिनि समामः, नियतिभिन्नभेदकशालिन्थे नियनेरी क्रियमाण इत्यर्थः तन-भेदकत्वेनाऽभिमते, तस्याः-नियतेः न कता=न हेतमा । तथाच सत्यमिद्धान्तभ्याकोपः । सरकत स्खे च-नियत दफत्त्वाभिमतहेतुल्ने प, पिास ई-मेकन्त्रम् , विनित, विजया मतस्यापि अमंगनम् , कारणमरूपत्वान कार्यस्येति भावः । एतेन तायक्तिनिरूपितनियतित्त्वेन नवघविसजनकन्यम् ' हत्यप्यपासम् , ननियतिजन्यत्वेन नाक्तत्व सिद्धिः, तत्सिद्धौ च तहस्तिनिरूपितत्वेन नियतिजन्यतामिद्धिः' इत्यन्योन्याश्रयात् कार्यस्य कारणतानवच्छेदफत्याच, अन्यथा नियनित्यनिवेशवयथ्यादिति दिग ||७२॥ ('नियति से भिन्न भेदक' पक्ष में सहतुता विलोपन) ७२ वी पारिका में मियात की अन्य माता का पाम किया गया। सारिका का अर्थ मवि निति मे मिन्न वस्तु को निर्यात का भेदमा प्रतिनियति में बेसिका सम्पावक मामा भायगा तो चस श्रेषक को यदि नियतिजम्मन माना जाएगा तो नियति में सतुत्व का निवारत अणित होगा, और यदि उस मेवाको मिति से अन्य माना जायगा तो एक निति से उत्पन्न हाने के कारण उस मेवक में विन होगा क्योंकि 'कारण समानजातीय ही कार्य की उत्पत्ति' का नियम है और जब मेदक स्वयं विचित्र महोगा तो चम से नियति में विश्य कैसे हो सकेगा? (विशिष्टरूप से कार्य-कारणभाव में प्रसंगति) व्यक्ति के प्रति नतव्यक्ति-निरूपित-नियति कारण होती है.' स कल्पना से भी नियतिवन्य कार्यों में वैविश का उपपावन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस प्रकार का कार्यकारणभाव ही नहीं जान सकता। इस का कारण यह है कि सव्यक्तिमिपितनियतिमभ्यस्व से ही तव्यक्तिम्बको सिद्धि हो सकती है और पक्तित्व की सिद्धि होने पर ही तब्यक्तिनिरूपितसम्म को सिजि हो सकती है अतः उक्त कार्यकारणभाव अन्योम्पाश्रयस्त है । दूसरी बात यह है कि तस्यक्ति के प्रति मियति को साक्सिमिपितनियतिसारूप से काम मानने पर तदृष्यक्तिरूपका तिव्यक्ति के कारणतापलेवक कोटि में प्रविष्ट हो जाता है, जो अनुचित है, क्योंकि कार्य को कारणतावरवड नहीं माना जा सकता । इसका कारण यह है कि कार्य पदि कारगताबाछेवक होगा तो उत्पति के पूर्व कारगारवकविशिष्ट कारण को सत्ता न हो मकने से कार्य को उत्पति असम्भव हो पाएगी, और यदि कारणतावच्छेयक से उपलक्षित कारण से मी कायं की उत्पत्ति मानी जायगी तो मभिधात का कारणीभूत वेगवद्भ्य नब मिषगहो जायगा तब भी गोपलामताभ्यरूप कारण के रहने से अभिपात की उत्पत्ति को आपत्ति भोगी। अतः कापोत्पत्ति के लिये उससे पूर्व कारणामबहविशिष्ट कारण की मता आवश्यक होने से कार्य को कारणतावण्यक मानने पर कार्याप्ति से पूर्व कार्यविशिष्ट कारण को ससा सम्मान होने के कारण कार्य की उत्पत्ति भसम्भव हो आयो । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शाप वा समुच्चय न. २-लोक ०३ मनु निर्यातम्भभायभेदादच कार्यभेदोऽस्तु, इत्याशङ्कमारमलम् -अस्या एष सथाभूतः स्वभावो यदि ष्यते । स्यक्ती नियतिवादः स्थापभायाश्रयणानन ॥७॥ यदि चतस्था एव-नियनरेन, तथाभून:-कार्यधैचित्र्यप्रयोजफा, स्वभावभेद इत्यने. सक्षा-'मनु' इन्याक्षणे-स्वमायाश्रपणा नियतिवादग्न्यकाः स्यात् । अथ तत्म्बमावस्तत्परिपाक एति नान्यहेतुस्वाभ्युपगम इनि पत्न , परिपाकेऽप्यन्यत्वाश्रयणावश्यकत्वात् । 'अन्यत्र (कार्य कभी कारस्तावच्छेचक नहीं हो सकता) यदि इस शहका के परिहायस्वका यह कहा बाय कि-"कारण के साथ कार्य का को सम्बन्ध कार्यास्पति के पूर्व सम्भव नहीं हो सकता-जैसे मंयोग कालिक आधि. उस सम्बश्व संकी कार्य को कारणाचवक मानने पर यह दोष हो सकता है, किन्तु कार्य का सो सम्बन्ध कार्योत्पति के वं भी कारण में सम्भव है खस सम्बन्ध से का कोमामासाधन मानने पर मर रोष नहो सकता, मतः वसे सम्बग्न से कार्य को भी कारणतावच्छेवक माता का सकता है। प्रकृति में तद व्यक्ति के प्रति मिपितत्व सम्बन्ध से सय किविशिष्ट मियति'को कारण माना है और नियति के साथ सभ्यक्ति को अपने अनुभूत नियति का निरूपण करने के लिये वर्ष रहमा आवाया नहीं है किन्तु उसका नाम आवश्यक है और कान तो अनुत्पन्न का भी अनुमाम आवि से हो सकता है. अत पदयक्ति के प्रति तवरूप विसनिरूपितनियति को कारण मानने में यह बाधा नही हो सकती-तोस कपा से भी मिप्रतिको उक्त कारणताका समर्थन नहीं हो सकता क्योंकि इस ग में कार्य को कारणसावरक मानने पर कार्यवस्वरूप कारण मामले में कोई आपत्ति न होम से कामffarवत धर्मों को कारगताबछेदक मानना अनारश्यक हो जायगा । फलतः प्रकृत में भी कार्यनिसिखमम्बन्ध में कवस्वेन कारणता मानने पर कारणसामनक कोटि में लियतिरस के निवेश को आवश्यकता न हजाने से नियति की कारणता ही समाप्त हो जामगोक्योंकि कारणता कार्यवश्व में प्रवन्छिन है, नितिरव से सक्छिन्न नहीं है इसलिये जो कावयवाला होगा वह कारण होगा किन्तु नितित्व पाला नहीं । ७३ौं कारिका में कार्य को नियतिमभ्य मामले पर भी नियति के स्वभावमेव से कार्य में भेज हो समाता है। इस बार का का निर्यात के निराकरण में पयंत्रसान बताया गया है। कारिका का अर्थ ['निर्यात के स्वभाष वैचित्र्य में विचित्रकार्य-यह भी प्रसिद्ध है। यविनियति में स्वभाव मेव की सपनाकर उसके द्वारा नियति के कार्यों में मेर-याने विध्य की उपपतिकी जागी तो स्वभाव का आश्रय करने से नियतिवाद का स्पाग हो जायगा । यति यह कहा जाय कि-"निषति का परिपाक ही नियति का स्वभाव है अत: नितिस्वरूप ही है, इसलिये उसे कार्यवभिनय का प्रपोजक मामने पर भी कार्य में भम्यहेतुकरण की प्रसक्सिान होने में नियतिवाद का परित्याग म होगा नो यह को नहीं है, क्योंकि नियति के परिपाक को निर्यातमा से जन्य मानने पर मिपत्ति का परिपाक भी नियति के समान विम्यहीन हो होगा, अत: उस से भी कार्य में वैविध्य न हो सक.गा, और यदि उसे निर्यात से भिन्न हेतु से शाम मान कर उस में प्रविश्य माना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याम टीका-हिन्दी विधेचन ] परिपाकषिध्यदर्शनेऽपि नियतिपरिपाकः स्वभायादेथे ति चेत् ? घट्टकुटीयभातापत्तिः । 'उत्तरप. रिपाके पूर्वपरिपाक एव हेतुः, आयपरिपाके घान्तिमापरिपाक एव इत्यादिरीन्या विशिष्य-हेतुहेतुमद्भायाद् न दोष' इति चेत् १ सहर्येकदैका घनियतिपरिपाकऽन्यत्रापि घटोत्पत्तिः, प्रतिसंतानं नियतिभेदाभ्युपगमे च निर्याप्तपरिपाकयोई व्यपर्यापनामान्तरत्न एव विवादः । किन, एवं शास्त्रोपदेशवैयर्थ्यप्रसक्सिः, तदुपदेशमन्तरेणाऽप्पर्धेषु नियतिकृतत्व युद्धनियत्यय भाषात , इष्टा-SELफलशास्त्रप्रतिपादितशुभाशुभक्रियाकलनियमाभायश्च स्यात् । सद्धेतुकत्यान्तर्भावितनियमस्य नियतिप्रयोज्यत्वे घ सिद्धमिनाहेतुना, पारिभाषिककारणत्यनिक्षेपम्याञ्चायकत्रादिति दिग् ॥७३॥ आयगा नो नियति से आंतरिक मfa से नाम: ५ मिनी आइसि भापरिहार्य हो बायगी। यदि यह कहा जाम कि- अन्य परिमाकों का विषय भले अपहेतुक हो, पर नियति का परिपाकविष्य अन्य हेतु से होकर नियतिके स्वभाव में ही होता है अत: नियाकपाप का परित्याग माही होगा तो यह कथन कर-रात्रवेन प्रहण के लिये प्राट पर बनी कुट। में ही प्रमात होने के समान होगा, क्योंकि मियक्ति के स्वमविभेर को हो नितिपरिपाक के अविष्का प्रपोजक मानने के कारण स्वभाववाद का प्रवेश हो जाने से नितिवाद के परित्यागापति का सकट पूरबत पुनः उपस्थित हो जायगा। यदि यह कहा जाप कि-'मियप्ति का उत्तरपरिपाक नियति के पूर्वपरिपाक में होता है और नियति का प्रथमपरिपाक नियति के अन्तिम अपरिपाक से होता है, इस प्रकार नियतिस्थरूप 'मिति के परिपाकविशेष' से ही नियति के नियमस्वप अन्य परिपाकों को तत्तत्परियाकव्यक्ति पर आधारित विशेष कायकारकमावों से अपील हो जाने के कारण मितिवार के परित्याग की आपत्ति नहीं होगी-'तो यह कथन ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त कल्पना करने पर जस समय कहीं एकत्र घटजननिर्यात का परिणाम होगा उस समय अन्यत्र भी घटोत्पत्ति की आपत्ति होगो और यदि इस दोष के निवारणा प्रतिसन्तान में नियमिमेव की कल्पना की जावो तो नियत और परिपाक में मुख्य और पर्याय से कोई अन्तर न हागा, फेवल नाम में ही विवाद रह जायगा जिस का कोई महत्व नहीं है। [ नियति मात्र को कारण मानने पर शास्त्रवैयर्थ्य ] मितिबाद में अब तक जो धोष बताये गपे उनके अतिरिक्त एक यह भी दोष है कि नियतिपात मानने पर कार्यों में मितिहेतुकरव का प्रतिपादक शास्त्र निरर्थक हो जाममा क्योंकि उत्तवाव में कार्यों में नियतिब्रम्पान का प्रान मी नियति से ही सम्पन्न हो जायगा । इसी प्रकार इस बाद में शास्त्र मारा प्रतिपादित यह निमम भी बन सकेगा कि अमुक शुभ-अशुभकर्म से अमुक एकर बा अष्ट फल होता है.योंकि इस पाव में मिपति से अतिरिक्त कोई कारण मान्य न होने से शुभाशुभ कम को मी सतम्फल का कारण म माना जा सकेगा । अत: शास्त्रप्रतिपावित उक्त नियम की उपपत्त इस चाप में सम्भव ही हो सकती, और यदि सतत कल में सत् शुभ-अशुभकर्म हेनुकरण के नियम को भी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [/० वा समुच्चय स्त. २-इलो-७४/७५ स्वभावाश्रयणेऽपि दोपमादमुल-स्वा भावश्च स्वभावोऽपि स्वसत्तव हि भावतः। तस्यापि भवकामाचे वैगि नापपद्यते । स्वभावोऽपि च स्वो भावः, कर्मधारयाऽऽश्रयणात् , एकपदव्यभिषारेऽपि तस्य बहुलमुपलम्मात् , अन्यभावपदार्थभ्रान्तिनिगसाय विवरण माह-हि-निश्चिनम् , 'भावत:=अध्यक्षविषयतया स्वमत्तेव । तस्याऽपिवमावस्य भेदकामा जात्यामात्रे, चिय-कार्यवैचित्र्यप्रयोजफत्यम् , नोपपद्यते ।। ७४ मूल-ततस्तस्याविशिष्ठम्याद युगपबिश्वसंभवः । न बालाचि [च स्यादि] ति सयुकाया नादोऽपि न संगतः ॥७॥ ततः चियाभावात् , सस्य-वभावस्म, अविशिष्ठावात् गरूपत्यात , विश्वजनकल्वे, युगपत् एकदैव, विश्वसंभव: जगत्पादन पक्षः। 'न 'घ स्याद'गपज्जगनियतिप्रमोन्य मामा जायगा तब भी तत्तन फल के प्रति तसात् गुमा अशुभ कमरूप अतिरिक्त कारण सित हो जाने से निर्यातवाद का लोप हो जायगा, क्योंकि उस नियम को नियतिप्रयोज्य मानमे से तत्तत् फल में तत्तत् पुमा प्रशुभ कमों को हारणता का पारिभाषिक हो निषेध होता है और पारि. भाषिक निवेष से वास्तविक कारणता का खण्डन नहीं हो सकता ॥३॥ (स्वभाषयाव में वैचित्र्य को अनुपपत्ति) ७४ वीं और ७५ दी इन दोमों कारिकानों में स्वभाषवाव में वोष बताते हुये कहा गया है कि स्वभाव शष्य में 'खो मायः' इस ध्युत्ति के प्रनुसार कर्मधारय समास है, इसमें भावपद स्वपर के मय से अधिक अर्थ का बोधक होने से यद्यपि स्वपरका व्यभिचारी है, फिर भी स्वपब के साथ उसका कर्मधारयसमास हो सकता है क्योंकि 'शीत जल शोतमल' इस्पानि में जैसे दोनों पक्षों के समक्ष्याप्त होने पर भी कर्मधारय होता है उसी प्रकार 'नोल कमलं नीलकमसम्, पीतम् मम्बरं पीताम्बर' पश्यादि में दोनों पक्षों के परस्पर व्यभिचारी होने पर भी एका सामानाधिकरण्य के प्राधार पर . एवं 'घटन तब वष्यम् च घटदस्यम्' में इश्यपब के घरपद का व्यमिवारी होने पर भी कर्मधारय के मान्य होने से रूम और माय पद का मी कर्मधारय होना मिधि है। इस कर्मधारय के अनुसार स्वभाव गन का अर्थ होता है स्व से पभिन्न भाव भौर यह माय प्रत्यक्षगम्य स्वसत्ता रूप ही है । इसप्रकार 'स्व हो वमाव होता है घोर यह स्वभाव यदि मेवकहोन माना जायगा तो इस में वैचित्र्य न होने से इस से उत्पन्न होने वाले कार्यों में भो वैचित्र्य न हो सकेगा ॥७॥ (एककाल में समस्त विच को उत्पत्ति का अनिष्ट) एकरूप स्वभाव से कार्य का जम्म मानने पर खाल यही दोष नहीं है कि कार्य में वैचित्र्य की उपपत्ति न हो सकेगी, प्रपितु कार्य को उत्पन्न करने में स्वभाव को किसी अन्य को अपेक्षा न होने से स्वभाव से एक कार्य को उत्पत्ति के समय उस के साथ ही समधे जगत की उत्पत्ति की प्रापत्ति होगी, १] 'न घासाविति पाउस्माने 'नव स्पादि' विमूळपादः टीकापसम्म प्रासमाति। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याक टीका-हिन्दी पिवेषन ] दुत्पादः भवनि, इति देतो. सद्युक्त्या प्रवाधिनता, समादोऽपि स्वभावपादोऽपि, न मंगतः । नन स्वभावम्य क्रमस्कार्यजनकत्वमपि स्वभावादेवेनि नानुपपत्तिरिति चेतन, तस्यैव स्वभावस्य पू|सरकार्यजनकरवे पूर्वोतकालयोरुत्तरपूर्वकार्यप्रसङ्गेन क्रमस्यैव व्याहतेः, एकस्यैव भाषा बागालातिनिगामले मरिस तालीमलस्य एफलानीगत्वस्य या प्रसङ्गान् ॥७॥ पराभिप्रायमाशक्य परिहरतिमूल-सकालादिसापेक्षो विश्वहेतुः स धनु । मुक्तः स्वभावधावः स्पाकालपादपरिग्रहात् ॥७॥ ससकालादिसापेक्ष तसवणादिसकतः, सः स्वभावः, विश्वहेतुः, फालकमेण कार्यक्रमोपपत्तेरिति चेत् । 'ननु' इत्यापे स्वभाववादो मुखमः स्यात् , फाख्यादपरिग्रहान् किन्तु जगन की एक साथ उत्पत्ति नहीं होती, प्रत इस प्रसाधित तक से स्वभाषबाव भी प्रसंगत लिद हो जाता है। यदि यह कहा जाम कि -"स्वमाष का केवल कार्यजनकस्व ही स्वभाव नहीं हैं अपित कमवरकार्यजनकरप स्वमाय है प्रतः स्वभाष अपने इस स्वभाव के अनुसार क्रम से ही कार्य को उत्पन्न करेगा, एकसाथ सब कार्यों को उत्पन्न न कर सकेगा, इसलिये एकासाथ समूचे अपक्ष को उत्पति को प्रापति नहीं हो सकती-"तो पह कथन ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि स्वभाष अपने जिस स्वमाष से कमयुक्तकार्य को उत्पन्न करेगा उसो स्वभाव से वह पूर्वोत्तर काल को भी उत्पन्न करेगा, फिर उसी से उसरकाल का पूर्व में और पूर्वकाल का उसर में उत्पावन हो जाने से कम का हो उपपादन असम्भव हो आयगा, क्योंकि जिस काल पर कम पाचारोत होता है- उपतरोति से वह काल होकमहोत हो जाता है। इस वाब में उक्त दोषों से अतिरिक्त एक वोष यह मोहै कि जब स्वभाव ही कार्य को विभिन्न जातियों का प्रयोजक होगा तो भिन्न भिन्न कार्य में मिन भिन्न जाति न रह कर सब कार्यों में समी जातियों का समावेश हो जायगा, क्योंकि सभी जातियों का नियमन अकेले स्वभाव को ही करना है और स्वभाव सम कार्यो का समान कारण है अतः उस से नियम्य सभी आलियों का सम कार्यों में समावेश मायप्राप्त है। यदि यह कहा जाय कि-"सब कार्यों में सब जातियों का समावेश होने पर सब जातियो स्वनिपत होगी और सामने सत्य जातिभेद का बाधक है प्रतः जातिभेद न होने से कार्य में सजातीयरब का मापावन मही हो सकता"तो इस कपन से भी बोष से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि उक्सबाधक से आतिमेव न होने के कारण विभिन्न शम्दों से ध्यपवेग होने पर मो सब कार्यो की एक ही जाति होगी, मस: सब कार्यों में एकजातीयत्व होने से कामवेचिश्य का लोप हो जायगा ॥७॥ (काल के प्रबलम्बन में स्वभाववाद का त्याग) ७६ वी कारिका में स्वभाववावि के उस अभिप्राय का निरास किया गया है जो उक्स वोष के तिवारमार्थ उत को ओर से प्रकट किया जा सकता है । वह अमिप्राय यह है कि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [साधार्तासमुक्षय स्त. २-छो०७४ कालहेतुत्वाश्रयणात् । ननु क्षणिकस्वभावे नाऽयं दीप इन्युक्तमेवेति चेत् १ उक्तम् , पन युक्तम् , एकजातीय हेतु विना कार्य कजात्याऽसंभवात । कपपल्यस्य च जातियाभावेन घटे प्रति घटकद्रूपत्वेन हेतुत्वस्य बक्तमशक्यत्वाद, सामग्रीवेन कायंम्पाप्यत्वस्य वास्तविकत्येन गौरवस्याऽदोपत्वात , प्रत्यभिज्ञादियाधन चगिकन्यस्य निपेत्स्यमानत्वाच । किन, एकत्र घटकर्यपसोऽन्यत्र घटानुत्पत्तदेशनियामकहत्वाश्रयणे खभाववादन्यागः, दण्डादी घटादिहैतुन्वं प्रमायैव प्रेक्षावत्प्रवृश्चि, अन्यथा दण्डादिकं विभाऽपि घटादिसंभावनया निष्कम्पप्रवृष्यनुपपत्तरिति विग् । न च नितुका भावा' इत्यभ्युपगमेनाऽपि स्वभावबादसाम्राज्यम् , नत्र हेतूपन्यासे बदतो वाचाना , तदुक्तम् "म हेतुरस्तीगि पवन सहेतुक, मनु प्रतिज्ञा स्वपमेव साधते । अथापि हेतु लगदसौ भवत्, प्रतिज्ञया केवलपाऽस्य किं भवेत् ?" ॥१॥ इति । न च सापकहेतूपन्यासेऽपि कारकहेतुप्रतिक्षेपवादिनो न स्वपक्षाधेति षाच्यम् : शानजनकत्वेनैव ज्ञापकत्वात् , अनियताबधिवे कादाचिन्कत्वन्याघातात् नियतावधिसिद्धी तरवस्पैच हेतुस्मात्मकत्वाब, अन्यथा, 'मर्दभाद् धृमः' इत्यपि प्रमीयतेति । अधिकमग्रे ॥७६।। 'स्वभाव प्रकेला जगत् का कारण नहीं होता किन्तु तत्तत्क्षणाएमक काल के योग से तसत् कार्य का कारण होता है। प्रतः तत्तत् क्षण पेक्रमिक होने से यह कम से ही कार्य को उत्पन्न करता है।' फिन्तु यह अभिप्राय मो स्वभाववाद को जीवित रखने में असमय है क्योंकि ऐसा मानने पर स्वभाव से भिन्न काल में भी कार्य की कारणता सिद्ध हो जाने से-'स्वभाव से ही सबकायों की उत्पत्ति होती है स्वभाव से भिन्न कोई वस्तु कार्य का जनक नहीं होतो-इस स्त्रभाववाव का लोप हो जायगा । "स्वमा क्षणिक होता है, क्षणिक होमे से स्वाध का क्रमिकरव अनिवार्य है, अतः क्रमिक स्वभाव से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति मानने पर स्वभाव से मिल कारण की सिद्धि न होने से स्वभाषचाद सकता-पत्र कथन मी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि यह एक वचनमात्र, इप्स में कोई युमित नहीं है, क्योंकि मित्र भित्र स्वभाव को भिन्नभिन्न कार्य का जनक मानमे पर एकजातीय कारण की सिद्धि न होने से कार्य में एकजातीयता न हो सकेगी। जब कि घट-पट मादि जैसे एक एक जाति के सहस्रों कार्य जगत में देखे जाते हैं। (कुचंदरूपत्व का खण्डन) 'घटोस्पायक समस्त स्वभावों में घट कुर्षपूपत्वनाम की एक जाति मानकर लज्जातीय स्वभावों से होने वाले घों में एकमातीयता की उपसि हो सकती है-यह भी नहीं कहा जा सकता, पयोंकि फुर्व रूपरव जाति में कोई प्रमाण नहीं है। वह जाति तब हो सकती है जब एक हो कारण से कार्य की उत्पत्ति मानी जाय पोर उसीको कार्य का व्याप्य माना जाय, पर एक ही कारण से कार्य का होना असिद्ध है, कार्य की उत्पत्ति कारणसमूहात्मक सामग्री से ही होती है, सामग्री ही कार्य की न्याय होती है । सामग्री-कारणसमूह को एफकारणविशिष्ट प्रपरकारण के रूप में व्याप्य मानने पर काम Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या : टीका-हिन्दी विवेचन ] अत एव कालवादोऽपि निरस्तः, इस्याहमूलम्-कालोऽपि समयादिर्यम्केवलः सोऽपि कारणम् । तत एष संभूतः कस्यचिन्नोपपाने ॥७७ ।। कालोऽपि समयादिः क्लुमद्रव्यपायरूपः, अतिरिक्तकालपर्यायो वा; गद्-यस्मादेतो नतः, तत एव अमपादः, हि-निभितम् , कस्यचित् = कस्यापि, असंभूतः अनुत्पत्तेः, सामग्री प्रविष्ट कारणों के विशिषणभावयनिगमना न होमेमोरच अवश्य है किन्तु प्रमाणागुमत होने से यह गौरव तो साह्य हो सकता है। पर प्रमाणशून्य होने से कुदरपत्वको स्वीकार करने का भार वस्सह है। दूसरी बात यह है कि कुर्वपत्वको सिद्धि मावपदार्थ के णिकरण की गिद्धि पर निर्भर है और क्षणिकत्व पूर्कोतर घटादि में 'स एवायं घटः' इस प्रकार की प्रस्पभिशा से बाधित है। (स्वभावदाद का खण्डम) या भी वातव्य है कि कुर्वपत्म को सता मानकर मी स्वभाववाच की रक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि एकत्र घट कुर्वपत्व से घट की उत्पत्ति होने पर अन्यत्र भी उसो घट की उत्पत्ति की मापति हो सकती है। इस प्रापत्ति का परिहार पवि वेशानियामक प्रतिरिक्त हेतु को कल्पना करके किया जागा सो स्षमान से भिन्न हेतुके सिद्ध हो जाने से स्वभाववाद का परित्याग हो जायगा । बसरा होत यह है कि यदि स्वभाव हो सब कार्यो का जनक होगा तो दग प्रादि में घट आदि को कारणता के प्रमारमशान से समावि के संग्रह में जो घटाशी पुरुष को प्रति होती है वह न हो सकेगी, पोंकि वण्ड प्रावि से घट प्रावि के होने की सम्भावनामात्र से मिष्कम्पप्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता। [विता हेतु भावोत्पत्ति' पक्ष में बदतो ध्याधात] यदि यह कहा जाय कि-"समस्त भाव विना हेतु केही उत्पन्न होते है। यही स्वभाव वाद का मर्थ है, अतः इस वाव में मताये गये दोषों को कोई अवसर ही नहीं हो सकता" तो यह भी ठोक मही है, क्योंकि 'समस्त भाव बिना हेतु के ही उत्पन्न होते है। इस मत को सिय करने के लिये हेतु का प्रयोग आवश्यक होने के कारण मह मत कायनमात्र से ही स्याहत हो जाता है। जैसे यह ठीक ही कहा गया है कि-'भाव नितुक हैं। इस प्रतिमा को हेतु के साथ प्रस्तुत करने पर प्रतिज्ञा को प्रस्तुत करने वाले धावा द्वारा हो प्रतिमा का मजा हो जाता है और हेतुहीन प्रतिमा को प्रस्तुत करने पर केवल प्रतिमा निरर्थक हो जाती है। पति यह कहा जाय कि-'प्रतिमा का साधक हेतु सापक होता है, प्रतः उस से कारक हेतु का खण्डन करने वाले वाबी के पक्ष का उपाघात नहीं हो सकता' तो यह वीक नहीं है, क्योंकि सापक मो वही होता है जो शान का कारक होता है । मतःशापक हेतु मानने पर कारक हेतु भी स्वीकृत हो जाता है, क्योंकि ज्ञान को अनियताधिक मानमे पर उस के काबाचिरकरव का लोप होगा और नियतापधिक मानने पर उस का कारक हेतु सिव हो जायगा । क्योंकि नियतावधि हो कारक होता है इसीलिये 'गर्वमा यूमः' मह व्यवहार नहीं होता ॥५६॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा० वा० समुच्यत्र ०२ केवल: - अन्यानपेक्षः, सोऽपि कालोऽपि कारणं नोपपद्यते विवक्षितसमये कार्यान्तरस्थाऽप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् । न च तत्क्षणवृत्तिकार्ये तरपूर्वचणहेतुत्या मिश्रानाद न दोष इत्युक्तमेवेति वाच्यं भाविनस्तत्क्षणवृत्तित्वस्यैष फलत आपाद्यत्वात् 'तत्क्षणवृचिकार्य तत्पूर्व क्षणत्वेन हेतुत्वम्, तदुत्तरक्षणविशिष्टे कार्ये तत्क्षणत्वेन वा ?' इति जिनिंगमनाविरहाच्च ॥७७|| ९४ + दोपरान्तरमाह मूलम्-यत काले तु येऽपि सर्वधन सत्फलम् । अमाहेश्वरापेक्षं विशेयं तद् विषक्षणः ॥ ७८ ॥ नव काले समयाद, तुल्येऽपि = अविशिष्टेऽपि समि तत्फल- तत्कालजन्यं पटादि सर्वच न तत्यादी तदनुपपत्ते:, अतस्तत्फलं विश्वक्षण: - योषितः, देभ्पेश= कालातिरिक्त देशादिहेतुजन्यं, विज्ञेयम् । न च मृशेऽन्यत्र घटस्याऽनापतिरेव काले हेतुमको sa देशे कार्यानापनेरिति वाच्यम् मृदजन्यत्वेन मृदन्यस्याऽऽपाद्यत्वात् । मृदजन्य P (कासवाद का निरसन युगपद सर्वकार्योत्पत्ति का अनिष्ट) ७७ व कारिका में कासवाद का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है काल का अर्थ है समय उसे प्रमाण सिद्ध द्रव्य का पर्याय रूप माना जाय, या अतिरिक्त फाररूप का उपाधिरूप माना जाम, अथवा अतिरिक्स पदार्थरूप माना जाय, किसी भी स्थिति में एक मात्र उस को ही कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि कारणान्तर के प्रभाव में केवल काल से किसी की भी उत्पति नहीं होती और पवि एक मात्र काल से भी कार्य को उत्पत्ति सम्भव होगी तो एक कार्य की उत्पत्ति के समय अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की प्राशि होगी। क्योंकि केवल काल से कार्योत्पत्ति मानने पर किसी भी कार्य की उत्पत्ति के लिये कोई अन्य अपेक्षरणीय न होने से एक कार्य के उत्पादनार्थ उस काल के उपस्थित होने पर अन्यों की मनुत्पत्ति में कोई युक्ति प्रतीत नहीं होती। 'तरवृद्धिकार्य के प्रति तत्क्षण का पूर्वक्षण कारा है' कालबाब के उपपावन में जो य कार्यकारणभाव बताया गया है उस से भी आपति का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि जब काल मात्र हो कारण माना जायेगा तब सभी कार्यों में तत्काल सिर की थापति होगी, श्रतः सभी कार्यो के एकक्षणवृत्ति हो जाने से कार्यतावच्छेवक कोटि में तत्क्षणवृतित्व का प्रन्तर्भाव निश्यक होगा । इसके अतिरिक्त इस बात में कोई विनिगमना नहीं है कि तत्क्षण के वंश को तत्क्षणवृतिकार्य के प्रति तत्क्षणपूर्वक्षणस्वरूप से कारण माना जाय या सत्क्षरगणवृत्तिकार्य के प्रसि तत्त्वरूप से कारण माना जाय | क्योंकि लाघव गौरव दोनों में समान है । व्यवहित तरक्षणोत्तर क्षरणव सिकार्य की उपस्थाप िका परिहार करने के लिये दूसरे कार्यकारणभाव में कार्यतावच्छेदककोटि में जैसे सरक्षराज्यवहितोत्तरत्व का निषेश श्रावश्यक होगा, उसी प्रकार व्यवहित पूर्वक्षण से सरक्षणवृत्तिकार्य की उप के वारणार्थ पूर्व कार्यकारणभाव में कारणता व देवक कोटि में तत्क्षणाव्यवहितपूर्वव का निवेश भी श्रावश्यक होगा ॥७७॥ ७८ व कारिका से कालवाद में एक और प्रतिरिक्त योष बताया गया है तथा ७६ वीं का रिका कानादि की स्वतस्त्रकारणता की असंगति का उपसंहार किया गया है Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [१५ च जन्यतासंबन्धेन मृद्धिमत्यम् , अनो न तर्कमृलन्यान्यसिद्धिः । न च तत्स्वभावलादेव तस्य क्वाचिकत्वम् , फत्ततस्तत्स्वभावत्वस्येवाऽऽपाद्यत्वादिप्ति दिम् ||७|| उपसंहारमाहमूलम् - अतः कालापयः सर्वे समुदायेन कारणम् ! गर्भादः कार्यजातस्य विजंया पायवापिभिः ॥७९॥ ARE=Ika कालादरः सर्व सपा सपनत्य सपा समषिः कार्यजासस्य, न्यायवादिभिः, कारणम्-फलोपायकाः, विज्ञयाः ॥७९|| इदमेव स्फुटतरशब्देनाहमूल-न चेककत एवेह क्वचित्किश्चिदपीक्ष्यते । तस्मात्सवय कार्यस्य सामग्रो जनिका मता ८०॥ इस जगति, न च नैव, एककत व नियत्यादे, क्वचितनवापि किशित-किमपि घटादि, ईश्यते-जायमानं प्रतीयते । तस्माद् हेनोः, सर्वस्य घटादेः कार्यस्य, सामग्री (तन्तु प्रावि में घटोत्पत्ति का दोष) प्रतिरिक्त दोष यह है कि यदि केवल काल ही घट प्रावि प्रायों का जनक माना जायगा तो घट को उत्पत्ति मूव मात्र ही में न हो कर तातु प्रादि में भी होगी क्योंकि इस मत में कार्य को देशवृत्तिता का कोई नियामक नहीं है और यदि देशवासिता के नियममार्थ ससस्कार्य में तत्तद्देश को भी कारण माना जायगा तो कालवाव का परित्याग हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि काल तो काल में ही कार्य का उत्पावर है पतः जस से प्रमिष्ट देश में कार्यात्मसि कामापाबममहीं हो सकता"तो मह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त मापसि का तात्पर्य इस आपशि में है कि घट यदि कालमात्र से जन्य होगा तो मब से प्रजन्म होने के कारण मृत् में भी प्रवृत्ति हो जायगा, क्योंकि यह ग्याप्ति है कि जो जिस से मम्य नहीं होता वह उस में प्रवृत्ति होता है. घट में मृद पत्तिय का पापावक मृवअजन्यत्व है उस का अर्थ है जम्यता सम्बन्ध से महास से भिन्नाव, मातः मबजन्यत्वकी प्रसिद्धि से माजन्यस्य को भी प्रसिद्धि होने के कारण उक्त व्याप्ति तथा प्रापारक फा अमाव होने से उबत भापति मसंगत होगी। 'घट प्रादि मुवति स्वभाव होने से मत होते हैं अन्यति नहीं होते-यह कथन भी पर्याप्त नहीं हो सकता क्योंकि फलतः घट प्रादि में मुड्पतिवमावस्त्र के समान अन्यतिस्वभावस्थ ही प्रापाय है ॥७८।। उक्त दोषों का परिहार सम्भव न होने से न्यायवावियों को यही मामना उचित है कि काल पादि प्रम्यनिरपेक्ष हो कर कार्य के उत्पावक नहीं होते अपितु अन्धहेतुनों के साथ सामग्रीघटक होकर कार्योस्पायक होते है ३७६1 ८० वो कारिका में पूर्वकारिका की बात को ही अधिक स्फुट पाम्दों में कहा गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ 1 [ शाम्नमानसमुचय स्त. २०६० कश्चित्तव्यतिरिक्तिाऽव्यतिरिक्तहेतुसंहतिः, निका-कार्योपधायिका, मलाइटा । पूर्व कारणसमुदाये कार्योपधायकवनिपमः साधिता, इदानी तु कार्य कारणममृदायोपाधयत्वनियम इति तु सश्यम् । __ननु कालाधकान्तप्रतिक्षेपेऽन्यदृष्टयान्ताऽप्रतिपाइ न साध्यसिद्धिरिति पेत् न, अष्ट्रकान्तवादेऽनिमोझापचे, मोक्षम्य फर्माजन्पत्वान् ।-"आत्मस्वरूपावस्थानरूपो मोक्षः फर्मक्ष येणाभिव्यज्यत एय, न तु जन्यत एये"-ति चेत् ? सत्यम् , कर्ममययन फर्म विना (कार्य मात्र कालाविकारण सामग्री जन्य है'-सामग्रोदाव) नियति भाविक एक मान से अबत में किसी कार्य को उत्पत्ति नहीं देखी जाती किन्तु कारणसामग्री से ही देखी जाती है मोर कारणसामग्री सत्ता कारण से वंचिद् भिन्नाभिन्न होती है, प्रतः एकक कारण भी सामग्रीविषया कार्य का कारण होता है और प्रग्यनिरपेक्ष एक एक व्यक्ति के रूप में प्रकारण भी होता है। पूर्वकारिका में कारणसमुदायास्मक सामग्री में कार्य की उपधायफसा= अपने प्रध्यहित र अण में कार्यवशा' बतायी गयी है और इस कारिका में कार्य में सामग्री की अपर्षयता सामग्री के प्रष्यहित उशर क्षण में उत्पद्यमालता' बतायी गयी है। यही वोनों कारिकाओं के प्रसिपावन में अन्तर है। [एकान्त कर्मवाद का निरसन] 'एकमात्र काल मावि की ही एकान्ततः कारणता का लाइन होने पर भी मदृष्टमात्र की एकान्तकारणता का खण्डन न होने से सामपी की कार्योपधायकता नहीं सिद्ध हो सकती. -यह शखा करना उचित नहीं हो सकता क्योंकि केवल प्रहार को कारण मानमे पर मोक्ष का प्रभाव हो जायगा, बयोंकि मोर कर्मजन्म नहीं होता और कर्मबाद में कर्म से मिन किसी को कारण नहीं माना जाता, पत: कारण का सर्वथा प्रभाव हो जाने से मोक्ष का होना सम्भव हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि-'पारमा का अपने विशुद्ध रूप में प्रवस्थान ही मोक्ष है, कर्मक्षय से उस की अभिव्यक्ति मात्र होती है, उत्पशि नहीं होती, अतः कारणाभाव में मी उस का प्रस्तिस्व अण्ण रह सकता है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कारण का प्रभाव होमे पर मोक्ष का भिव्यजक कर्मक्षय ही नहीं हो सकता, क्योंकि कर्मक्षय भी कर्म से होता नहीं और कर्म से मित्र कोई कारण इस मत में मान्य नहीं है। ज्ञानयोग हो कर्मक्षय का हेतु है) इस सन्दर्भ में मषि मह कहा जाय कि-कर्मक्षय में भी स्थानयोग्य ज्ञानयोग सम्बन्ध से पूर्वकम हो हेतु है, अन्य कोई हेतु नहीं है प्रत. कर्मक्षय के कारण द्वारा कमंडाद का त्याग नहीं हो सकता। प्राय यह है कि-कों का क्षय ज्ञानयोग से होता है और ज्ञानयोग पूर्वकम से होता है क्योंकि मनुष्य के शुभकर्म हो उसे खानयोग के सम्पावन में प्रवृत्त करते हैं, इस प्रकार पूर्वकर्म ही शानयोग के द्वारा कर्मय का हेतु होता है, तो यह कंचन ठीक नहीं है क्योंकि अब शानयोग ये विना कर्मक्षय महीं होता तो उसे सम्बन्ध सना कर पूर्वकर्म को कारण मानने की अपेक्षा सीधे शासयोग को ही कर्मक्षय का कारण मासमा उचित है। अतः कर्ममय में प्रायझेनुक्रवद्धि होने से कार्यमात्र में कममात्र के हेसुत्य रूप कर्मवाव का मङ्ग ध्रव है, और यदि मामयोग का सम्बन्धरूप में ही उपयोग पीपट Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या १० टीका-हिन्दी विवेचन ] ऽनुरूपत्तेः । 'स्वप्रयोज्यज्ञानयोगसंपन्धेन पूर्वकच तत्र हेतुरिति चेत् । न, साक्षादेव तस्य हेतुपौचित्यात , अन्यथा कर्मत्वस्यैव तेन संपन्धेन हेतुल्वप्रसङ्गात् । किश, पृष्टकारणान्यनतिपायाऽष्टस्य कार्यजनकत्वात् नेपामपि तथात्वमनियास्तिम्। तद्विपाकेन तदुपक्षये तैस्तावपाकोपम यस्यापि वक्तु शक्यस्यात् , चलवश्वस्याऽप्युभयत्र "अभंतर-प्रमाणे." इत्यादिना महता प्रबन्धेनाऽन्यत्राऽविशेषेणेच साधितत्वादिति दिन ॥८॥ 'अत्र कासादयश्चत्वारोऽपि स्वातन्त्र्येण हेतवः' इत्येके, “कालादृष्टे एव तथा, नियतिस्वभावयोस्त्वष्टधर्मत्वेन न तथास्त्रम्' इत्यन्ये, इति मतभेदमाह मृतम् सारे नियनिकामनाये गपक्षने । ____धमायन्ये तु सर्पस्य सामान्ये च पस्तुनः ॥८॥ अन्ये-आचार्याः, स्वभावो नियतिध, एवफारस्प 'कर्मणः' इत्युत्ता बन्धान कर्मण एव धौं-हिति' इत्यध्याहियते-इति प्रबनने 'अभ्युपगमप्रकर्मेण ध्याग्यान्तानि योजना । -.-- हो तब मो कर्मक्षय को कारणता कर्म में नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि मानयोग जैसे कर्मप्रयोज्य है। उसी प्रकार कर्मस्वप्रयोज्य भी है क्योंकि कारण और कारणतावधेयक दोनों ही कार्य के प्रयोजक करे जाते हैं. अत: नाना कर्म को स्वप्रयोज्य शानयोग सम्बन्ध से कारण मानने की अपेक्षा एक कर्मत्व को स्वप्रयोग्यज्ञानयोग-सम्बन्ध से कारण मानने में लायब है। इस प्रकार पुनः कर्मक्षय में कम से भिन्न कर्मस्वरूप हेतु को जम्पसा सिट होने से कालगाव का भङ्ग र होगा। [अदष्ट को भी दृष्टकारणों को अपेक्षा] यह भी ज्ञातव्य है कि महष्ट जब र.ष्टकारणों की उपेक्षा म कर के ही कार्य का जनक होता है। तो प्रष्ट के समान दृष्ट कारणों में भी कार्य को जनकता का प्रारण नहीं हो सकता, प्रतः कार्यमात्र में कमहतुकरय के सिद्धान्त का धराशायी होना प्रनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि "दृष्ट कारणों के सविधान से कर्म का विपाक होता है अर्थात् कर्म फलोपभाया होने की अवस्था से युग होता है सपा उस के अनन्तर क्षण में कार्य का जन्म होता है । पसः कर्मविपाक से इष्टकारणों का उपाय प्रति उनको प्रश्यथासिसि हो जाने से कारण नहीं हो सकते' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि - कारणों से कर्मविपाक को ही उरमीण-अग्यथासिक कहकर जप्त के कारणव को भी प्रसिहि बतायी आ सकती है ।-'कर्मविपाक प्रारतर पस्नु होने से बाहर रष्टकारणों से पलवान होता है पसः बही से मम्मन्सर-कश्मण स्त्रियाबलियतणं सिजापुछ । नण कयरं अमनास अविसं पा निघेसम्म ॥१५॥ णिस्फत्तिक फाटा परिणययोगी फलेण वा सदि । पंढमे समसामगी बिए पापार वेसम्म ॥४॥ सदए गोण्ड वि समया रउरथपम्यो पुणो असिन्ति । तेण समावेकवान वीष्टवि समयत्ति ठिई ॥४॥ इत्यापि, गामाविल्या 'भव्यात्ममतपरीक्षा' नाम्नि अन्य साधिवं दृष्टव्यम् । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सावा समुच्चय-स्त २ रनो०६१ उद्धृतरूपादिवस्तुस्वभावती: स्वभावम्य बड्नेरूत्रज्वलनादिनियमरूपार्थ नियतेबाट एव स्थीकारादित्याशयः । अन्ये त्याचार्या, सामान्येनघ-टा-इष्टसाधारण्येनेय, सर्वम्य पस्तुनः स्वभायो नियनिय धमौ इति 'प्रच नाकाने साता : बरमा भव्यत्वात्मिका जातिः कार्यकजात्याय, नियतिश्चातिशयितपरिणतिरूपा कार्यातिशयाय सर्वत्रीपयुज्यत इति । अधिक्रमन्यत्र 1१८॥ ॥ति श्रीपतिनपविजयसोचरपतियशोधि जयविरविक्षायां स्याद्वादकल्पन तामिधानायां पात्रशमिमुकचीकायां द्विमीयः पनवका संपूर्णः ॥ कारणों का उपाय करेगा'-यह कहना मो युक्त नहीं हो सकता,योंकि 'अरमन्तर-घरमाणं, 'इत्यादि गाथा से प्रान्तर और बाह्य कारणों को समानबल बताया गया है 1100 [नियति और स्वभाव की हेतुता में मतान्तर] ८१ वी कारिका में यह मतमेच बताया गया है कि कुछ विधानों के काल, स्वभाव, निर्यात पौर मचारों को स्वतन्त्ररुप से कार्यमात्र का कारण मानापौर प्रन्य विवानों ने काल तथा पष्ट इन दोनों को ही स्वतन्त्ररूप से कार्यमात्र का कारण मामा है और स्वभाव एवं निर्यात को मरपट का धर्म मान कर उन्हें कारण नहीं माना है। कारिका के पूर्वार्ध में 'एच' शब्द को 'कर्मणः' के उत्तर में पढने पर कारिका का मर्प यह होता है कि प्रश्य प्राचार्यों के कथनानुसार स्वभाव मौर निति कर्म मराट के ही धर्म हैं, क्योंकि कोई वस्तु उमृतरूप ही होती है और कोई वस्तु प्रमुभूतरूप ही होती है, यह नियम उन वस्तुमों के जनक प्ररष्ट के स्वभाव से ही उपपन्न हो सकता है। एवं अग्नि के अध्वंग्वलन का नियम भी मग्नि के मानक निर्याल से ही होता है, और वा निर्यात प्राष्टिगत होती ही है। इसके विपरीत दूसरे माचापों का मत है कि स्वभाव और नियति सामान्यरूप से सम्पूर्ण वस्तु के धर्म है। सामान्यरूप का पर्व है इष्ट भोर परन्ट समी पदार्थ अपने स्वभाव और नियतिरूप धर्मों हारा सभी कार्यों के कारण होते है। इस मत के अनुसार 'तथामय्यत्व' जाप्ति हो स्वभाव है जिस से कार्यों में ऐकमास्य की उपपत्ति होती है और निति कार्यगत ऐसी परिणति है जिससे कायों में पतिशय अर्थात स्वेतरलाग्य को उपपत्ति होती है । प्राशय यह है कि प्रत्येक इष्ट पदार्थ तथा प्रष्ट पार्ष अपने तथानन्यस्वनामक जातिरूप स्वभाव से अपने कार्यों में एकजातीयता का भौर अपभी अतिशयितपरिणति रूप निषति से अपने कार्यों में अतिशयात्मक वैशिष्ठच का सम्पादक होता है ।।१।। द्वितीय स्तबक समाप्त Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-द्वितीयस्तबके मूलगाथानामकारादिक्रमः मोदी भागांशः लो/- भागशः लो०/० भाद्यांशः २०/ अगम्यगमनावीनां ३/३ चश्म्सू च सर्यो र्योपरागारे : । १२/१४ प्रतिपक्षस्यमावेन ७५/५५ अतः कालापया ६८/४ चियं माग्यं तथा । २८/९० प्रतिपक्षागमाना ६०/७४ मास्वभावान ३०/३६ तकपास्तु लोकल १३.१५ प्रवीत्या बाध्यते यो २३/२२ मनीवियेनु मावेषु ४७/४ ततो व्याधिनियर्थ २७/२६ प्रबहत्या निवेशानु २६/ वापि नवते ६/११ ससकालादिसापेक्षो। ६/२ भोग्यं च विश्व समानां ५१/६६ मनाधिफर्मयुक्तस्यात् MP4 ततस्तस्याऽविशिष्टयान ३२/५१ माभ्यायमेष तद्वं ६४/८१ भन्यवानियतान ४६/४१ तहम्यहेतुमाध्यस्थे ४४४ मुक्ति कमक्षयाविधा ६/५ अन्यथा घम्सुतस्वस्थ ७२/८६ तानसभेवकन्धे प ३९/३९ मुक्तिः कर्मशयादेष १८/१६ भन्यस्थादेश ४२/४ द्विपयसायचे २४४२१ यस्पोक्तं दुःखमाल्ब २०/२१ अन्ये पुनरिक्षावा २०/२० तयाहु शुमान ४८/t? यतश्च कात तुल्ये ४९/६५ अन्येषामपि ८/११ सस्मादपथोदिताम् ४/३ दिनाम पनि सरः ७/६ परीक्षाऽपि नो युक्ता ४६/तस्या एव तथाभूतः ६२/ यमदेव यतो यावा ३४३९ मत्येव सत्र २६/२७ दृष्टेष्टाभ्यां विरोधात ३/३५ यावदेवविध नेतत् ६/२५ शुभाषप्यनुष्टानात ५६/६८ न कानठगति रेकेण १४/१५ वशीतत्वमस्त्येष २२ मागमायाताम्ये तु ६७/८३ न च तत्कर्मबंधुयें | १६/१७ व्यवस्था भावतो ५.४ आगमकस्यतम्बध ७८६ न नमायमाया २५/२३ सर्वत्र दर्शनं यस्य ५३/६१ पतषप्युक्तिमानं ६२/७३ न पत्ते नियति ५८/०३ सर्व मावा स्वमावेन Hifer पधं तरपानभावेऽपि ८०/९५ क पवेद ३८/३ संसारमोनकस्यापि ४५/४२ एवं देवषिक्ताऽपि ११२१ न तद् दृश्यते ११/१३ सुदूरमपि गरवह १५/२७ एवं सुबुद्धिशून्यवं १/८६ न वक्षस्यकरूपम्य ३१/३० परिकषि xe/ कालः पचति ६५/२ न भोक्तव्यतिरेकेण १०/१२ स्वभाष एव जीवस्य ५६/६७ लाखावीमांच का त्व ५९/७४ न दिनेह समावेन E:/4 स्वभाषो नियतिष ५६/40 कालाभावे च गर्भादि ५०/७२ न स्वभावातिरेकेण ७४/९. स्व भाषश्च स्वमायो /Eकालोऽपि समयादि १/३ न हिस्यादिह भूतानि । १५/१६ हिमस्यापि स्वभावो xx/s किन्च काटते | 45/३५ नाऽप्रवृत्तरिय हेतुः ११ हिमादिभ्योऽशुभ १/५२ लिष्टदिखापनुमानात् । ६१/८ मियतेनेष रूपेण ४११० हिंसापकासाच्यत्वे ५०/६४ किल हिंसाधनुष्ठानं । ६९/८५ नियतेनियतात्मत्वान् | ४०/४० हिसाब स्कर्पसायो पा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २-टीकायामुद्भुतवाक्यांशाः अभ्यात्ममतपरीक्षा-को २२ गिगा..! [मिनीसूद ११-२] [माहामारत[मनुस्मृति पृष्ठांक अकारणमशः माये तमसि मानामः सम्मतर-पमा मशुद्धमिति पेम् मागसोपपसिश्र का कंटकानां Pाब पिया पोवना रक्षणोऽर्थों धर्मः जपस्तु सर्वधर्मभ्यः अपनेय तु ससित ज्ञानपानीपरीक्षित से होति परावेक्षा तत्य य हेवामी न जातु कामः कामानां न हेतुरस्तीति बदर नोत्सृष्टमन्यार्थ प्राप्तव्यो नियति अधिमो सम्मई सण १२ मानसी वासनाः पूर्व पथा यथा पूर्वानस्प ६४ ये चारकर्मण ६४ बरं पराकश्शार्षाका ६४ हिसानिसंसक्त [माचारहस्य-३०] [सम्मतिसूत्र १४.] [मनुस्मृति-] 1 [मन्ययोमव्यम्रपदविशिका-११] [सम्मतिसूत्र-१४१] [ योगशास्त्र २-१७] [ " २-३८] [भयोगव्यवच्छेवताविशिका-१०] ॐ शुद्धिकरण पृष्ठाक पं. भादिः शुद्धिः । पृ. '. मगुद्धिः शुद्धिः ७५ १४ प्रयत प्रयुक्त सुद्धता से सुवृद्धता भागप्रयोजनं भारप्रयोजन घटादिक घटाणि यत् नियन प्रकृविस्य प्रकृतिकस्य निवग नियंग प्रतिमाय प्रतिपाछ कविश्य षिष्य ५५ ३० बदिता प्रिहिता की १४ ५ बायपत्ती वोपपतौ स्वनियत समनियन १ १२ पास बह धिकच जीव स २ । व्याघात यापासात Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 मई म * शास्त्रवार्तासमुच्चय * तृतीयः स्तबकः (मङ्गल) टी)-सत्र शास्त्रपरिश्रमः शमवतामाकालप्रेकोऽपि यन् साक्षात्कारकतेधृते इदि तमोलीयेस यस्मिन्मनाम् ।। यस्यश्वर्यमपङ्किलं च जगत्याद-स्थिनि-चंसनः । में देवं निरपग्रहग्रहमहानन्दाय बन्दामह ॥ १ ॥ [ निष्कलंक ईश्वर को प्रणाम ] जिस देव का प्रत्यक्ष दर्शन करने के उद्देश से शमसंपन्न साधुपुरुषों का शास्त्रसंमत संपूर्ण परिधम एकमात्र भगवन्मुख होकर आजीवन चलता रहता है, अर्थात् बिस के वर्मान के लिए शमसंपन्न साधुओं एकमात्र ईश्वरपरामण होकर शास्त्र की रीत से सीवन-पर्प्रन्स या प्रत्येक जीवन-पर्यन्त कठोर परिश्रम करते रहते हैं और हदय में जिसका किलिमात्र स्फुरण हो जाने पर हुण्य का संपूर्ण प्रमान-अंथकार विलीन हो जाता है और जिसका ऐश्वर्म जगत के उत्पादन-पालन और संहार के व्यापार से फतुषित नहीं होता -उस देव का हम निष्प्रतिबन्ध (मिराबरण) मान युक्त महान पानम्ब के लिए मभिसाधन इस मंगल श्लोक से जम दर्शन को कई महत्वपूर्ण दृष्टीयौ स्पष्ट होतो हैं, जैसे-धीतराम भगवान का साक्षात्कार करने के लिए साधक को सर्व प्रथम शमसंपन्न होना चाहिये । शम का अर्थ है कोषलोमाविकषामों का उपशम जिसमें समाविष्ट है संसार के विषयों में प्रासक्ति का परित्याग । मनुष्य जब तक सांसारिक मोगों से उदासीन न होगा-या सांसारिक विषयों में जम तक उसके मन का माकर्षण शिथिल म होगा तब तक विषय जनित कषाय मंद न होमे से ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए वह योग्य नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि शमसंपन्न होने पर भी उमे भगवन्मुक होना मावश्यक है क्योंकि शम सोने पर भी यदि मनुष्य भगवरमबहोगा तो उसका शम स्थायीतमो सकेगा। मंसार का का पाकविषय एक चिम उसको वाम विचलित कर देगा, क्योंकि मनुष्य का मन सवा कोई न कोई प्रालबम चाहता है। प्रतः उसे भगवान का मालंबन न दिया आयगा तो विवश होकर वह किसी Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा. बा. समुरुपय स्त. २-खो०१ सामयामीश्वरोऽपि निवित इति वातान्तरमाइमुसम्-ईश्वरः प्रेरकत्येन कर्ता कैश्चिविष्यते । अचिन्त्यचिच्छक्तियुक्तोऽनापिसिद्धश्च सूरिभिः ॥१॥ इह सामग्र्याम् । फेरिषत् परिभिः पानालाचार्य, प्रेरकत्वेन परप्रवृत्तिजनकत्वेन सांसारिक प्रासंमन को पहण कर लेगा और फिर ईश्वर के दर्शन को श्राशा उसके लिए एक दियास्वप्नमात्र रह जायगी । दूसरी बात यह है कि घर के दर्शनार्थ साधना करने वाले व्यक्ति का जीवन शास्त्र पर प्राधारित होना चाहिये और उसके समस्त व्यापार शास्त्र के विधि-निषेधों से नियन्धित होना चाहिए। यदि सापक के पास शास्त्र का मालोक म रहेगा तो कभी भी वह मोह के अंधकार में गिर सकता है। तीसरी बात यह है कि साधक को अपने साधनामार्ग पर चलने के लिए बड़ा धैर्यवान होना चाहिए। लक्ष्य को प्राप्ति में विलम्ब होने पर मी उसे किथित विचलित न होना चाहिए । हो सकता है कि उसे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवन भर अथवा कई जन्मों तक अपनी प्राध्यामिक यात्रा मालू रखनो पो।। पौत्री शत पोर महत्व को है जो यह है कि पोस राग समज भगवान का किश्चित्मात्र स्मरण होने से ही साधक का हवयोधकार दूर हो जाता है क्योंकि उस से साधक की प्राशा बलवसर होती है। और विश्यात होता है कि अपने मार्ग पर चलने पर भगवान का प्रशिक वर्मान गोत्र मी हो सकता है और उस दर्शन से ही उसके हुवय का प्रशाम तमः दूर हो सकता है जो कि उस की पग्रिम यात्रा में उसे मयप्रद हो सकता है और निराशा के प्रावर्त में उझान्त भी कर सकता है। पांचवीं बात-जेन मासन के महान सिद्धांत का प्रथयोतन करती है। वह यह कि जन शासन में न्याय वर्शन के समान ईश्वर को जगत का कर्ता-मर्ता मोर इर्ता नहीं माना जाता। क्योंकि अगस उत्पावन पालन और बिनाका का फर्तृत्व यदि ईश्वर में माना जायेगा तो उसमें राम षादि का सम्बन्ध पवाय मामना होगा क्योंकि जिस में राग षादि का संबंध नहीं होता वह जीव हिंसक मारंभ समारंभादि काल भी व्यापार नहीं कर पाता और यदि रागष प्रावि होगा तो उसका ऐश्वय निश्चितरूप से कलंकित हो जायगा क्योंकि उस स्थिति में उस में सांसारिक की अपेक्षा कोई वैशिष्टम न होगा। घट्ठी बास जो कही गई है उस से ईश्वर के अभिवादन का मुख्य लाभ सूचित होता है। और वह है निराबरण अनंत ज्ञान युक्त विशुन अक्षय मानव की मिधि प्राप्ति । इस कथन से यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि ईश्वर-अभिवावन से मनुष्य को यद्यपि उसके लौकिक ममीष्ट प्राप्त होते हैं किन्तु मनुष्य को उसे भगवान के अभिवादन का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए। अन्यथा उस के मुख्य लक्ष्य अनंत ज्ञान व महान वानंद की प्राप्ति से मनुष्य वंचित रह जायगा । प्रतः लौकिक ममोकष्ट को उसे प्रानुषंगिक रूप में ही प्रहरा करना चाहिए। प्राय मूल कारिका में अन्य शास्त्रों के इस मत का जल्लेख किया गया है कि जगत की उत्पत्ति जिस कारणसामग्री से होती है उस में ईश्वर का मोसमावेश है। कारिका का मषं इस प्रकार है Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका-हिन्दीनिधन ] ईश्वरः कर्तेभ्यते । कीदृशः १ इत्याह-अचिन्त्या-इन्द्रियादिप्रणालिफा बिनाऽपि यथावत्सर्ववि. षयावनिछन्ना या चिन्छक्तिश्चेतना, तया युक्ता-तदाश्रयः, तथा अनादिसिद्धच कदापि बन्धाभाशत् । विविधो हि नैर्बन्ध उच्यते, प्राकृतिक वैकारिक दाक्षिण मेदात् । तत्र प्रकृतारात्मताशानाद ये प्रकृतिमुपास्त तेषां प्राकृत्तिको बन्धः, यान प्रतीदमुन्यते "पूर्ण शतसहस्र तु तिष्ठन्त्यध्यक्तचिन्तकाः । इति । ये तु विकारानेव भूतेन्द्रियाऽइङ्कारबुद्धीः पुरुषद्धयोपासते, तेपा बैंकारिको पन्धः, यान प्रतीदमुच्यते "दश मन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकार । भौतिफास्तु शत पूर्ण, सहस्र स्वाभिमानिकाः ॥ १ ॥ घोद्धा शतसहस्राणि सिष्ठन्ति धिंगतज्वराः ।" इति । इष्टापूर्ते दाक्षिणो पन्धः, पुरुषतस्त्रानमिझो हीष्टाप्तकारी कामोपहतमना अभ्यत इति । इयं च विविवापि गन्धकोटिरीश्वरस्य मुक्ति प्राध्यापि भवे पुनरेग्पना प्रकृतिलीनत्वज्ञानान [ पातलल के मतानुसार ईश्वर का स्वरूप ] पातञ्जल बान में मिलता रमने वाले विद्वानों में यह माना है कि जगतउत्पादकसामनी में ईश्वर भी प्रविष्ट है क्योंकि अगत के अन्य प्रचेतन कारणों का प्रेरक होने से वहो जगत् का कर्ता है। उस की चेतना शाक्ति अचिन्त्य है. क्योंकि स्त्रियाविज्ञान साधनों के बिना भी संपूर्ण विषयों से उस का संबन्ध है।मति ईश्वर सामननिरपेक्ष सर्वविषयक शाश्वततान का पाषय है पौर मनाविसिस मित्यमुक्त है क्योंकि उस में कभी भी बम्ब संमत्रित नहीं है । करने का प्रावास है कि बन्ध के तीन भेद होते हैं-(१)प्राकृतिक (२) वकारिक (३) दाक्षिण्य । (तीन प्रकार का बन्ध ) जो लोग प्रकृति को ही प्रात्मा समभाकर उसी की प्रारमरूप में उपासना करते है उन्हें प्राकृतिफ बन्ध होता है पौर से प्रकृति में प्रात्मचिन्तन करने के फलस्वरूप पूरे शतसहस्र (१००,०००) धर्म तक प्रकृति में मुफ्त कल्प होकर मवस्थित रहते हैं। और जो प्रकृति के कार्यभूत-इन्द्रिय-महकार और बुद्धि तत्त्व को प्रात्मा समझकर उन्हीं की प्रात्मभाव से उपासना करते हैं उन्हें कारिक बन्ध होता है। उन में इन्द्रिय में पास्मभाष का चिन्तन करमे पाले दशमम्वन्तरफाल सक नि:स रहते हैं। और मूतों का प्रात्मभाव से चिन्तन करने वाले भौतिक को जाते जो १००सौगातक निर्दलहोकर रखते है । मौर परकार को प्रारमत रूप से चिन्तन करने वाले प्रासिमानिकको जातेसहसवर्ष तक निखरा और जोखिम प्रात्ममाव से देखसे हैं और उसी के प्रात्मरूप में उपासक होते हैं वे सहस्र वर्ष सक दुःखमुक्त रहते है। इस प्रकार प्रनारमा में प्रात्मयमियों को मुक्तायस्मा पनित्य होती है। १ बौद्धा-युशिशदानडेविकोऽम् ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा. पा. समुच्चय स्त०-३ श्लोक-१ योगिनामिव नोचरा न वा पूर्वा संसारिमुस्तात्मनामिय, इति निर्माधमनादिसिद्धत्तम् । तथा बाह पतञ्जलि:-"क्लेश-कर्मविपाका-ऽऽशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरीयोगत्र २-४}" इति । क्लेशा: अविद्याऽस्मितारागद्वेपाऽभिनिवेशाः । कर्माणि शुभाऽशुभानि । तद्विपाको जात्यायुर्योगाः। आशयाः नानाविधास्तदनुगुणाः संस्काराः । तेरपरामृष्टोऽसंस्पृष्टः सर्वतया भेदाग्रहनिमितफाऽविद्याऽभावान् । तस्या एव च भवाहेतुसवेक्लेशमूलत्यात् । तथा च सूत्रम्-"अविद्या क्षेत्रमुसरेषां प्रसुप्त-तनु-विच्छियो-दाराणाम्" (योगसूत्र २.४) इति । अनभिव्यक्तरूपेणावस्पानं सुप्तावस्था, अभिव्यक्तम्यापि सहकार्यभावान् कार्याजननं सन्यवस्था, अभिव्यक्तम्य जनितकार्यस्यापि केनचित् क्लवता सजातीयन विजातीयन वा लम्धवृत्तिकेनाभिभवान् भविष्यद्त्तिकत्वेनावस्थान विच्छिमावस्था । अभिव्यक्तम्य प्राप्तसहकारिसंघचरप्रतिबन्धेन लब्धवृत्तिकतया स्वकार्यकरत्यमुदारावस्था : सामानवस्थातिगमगात नागाधि नीगरो. अन्त्यं तु शुद्धसवमयेन भगयध्यानेनेति । 'अविद्याऽभावात तमाशजन्यं कथं तवज्ञानं तस्य ?' अति चेत् । अत एष नित्यं सत्र , निल्पज्ञानरचादेव चायं कपिलप्रमृतिमहीणामपि गुरु: ॥४॥ इन्ट और पूरी को दक्षिण कन्ध कहा जाता है । इष्ट का अर्थ है घेव में परिणत विविध मन और पूर्त का मर्म है पुराणों में वसित परोपकार के कार्य जैसे वाटिका बावडी कप धर्मशाला आदि का निर्माण । जो बात्मा के वास्तव स्वरूप को नहीं जानता यह यज्ञ और परोपकारक कार्यों की अभिलाषा से उन कार्यों में मनोयोगपूर्व व्यापत होता है और बन्धनों से प्राबद्ध होता है। ये तीनों बरपों की दो कोटि होती है-पूर्व कोटि और उत्तर कोरि। वे योगी जो प्रकृति मावि में प्रामचिन्तन कर प्रकृति में सोन हो कर मुक्ति प्राप्त करते हैं उनको मुक्ति की अवधि समाप्ति होने पर संसार में पुनः पाना पञ्चता है प्रतः वह उक्त बन्धों को उत्तर कोटि को प्राप्त करते है और जो संसारी जीव मात्मा का वास्तव स्वरूप का साक्षात्कार करके मुक्त होते है उन्हें उन बन्धों की पूर्व कोटि होती है, उसर कोटि नहीं होती, क्योंकि मुक्ति के बाद उन्हें किसी प्रकार का बन्ध नहीं होता। बिर में बन्ध को ये दोनों हि कोटिया नहीं होती इसलिए यह निर्वाध रूप से मिस्य मुक्त होता है। अंसा कि पतजलि ने अपने योगवान में कहा है कि जो पुरुथ क्लेश-कर्म-विपाक और माशयों से कभी भी संघुमत नहीं होता वह पुरुषविशेष ही हीचर है।' [ क्लेश-कर्म और विपाक का स्वरूप ] मलेगा का अर्थ है प्रविचा-अस्मिता-राग-द्वेष मौर अभिनिवेश । कम परमार्थ है पुण्य और पाप । विपाक का प्रय है जन्म-मायु और भोग रूप कर्मफल । और प्राशय का मर्थ है जम्म प्राय और भोग के प्रयोजक अनेक प्रकार के संस्कारों का निधि । ईश्वर में इन बस्सुमो का सम्पर्क नहीं होता क्योंकि बाह सर्वज होता है इसलिए उस में प्रारमा प्रौर मनास्य के भेव का मजाम नहीं होता । इसीलिए पनामा में पास्मा के तावात्म्य की वृद्धिरूप प्रविधा भी उसमें नहीं रहती। और जब उस में भविद्या हो नहीं होती तो उसमें अन्य क्लेशों के सम्पर्फ की संभावना कैसे हो सकती है ? क्योंकि विद्या ही जगत् के हेतुभूत सम्पूर्ण क्लेशों का मूल है । जहा मुल ही नहीं है यहां उसके कार्य कैसे हो सकते हैं? Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याटी और हिन्दी विवेचना तदिदमाहमृलम्-ज्ञानमप्रतिघं यस्य पैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैत्र धर्मश्च सहसिर चतुष्टयम् ॥२॥ यस्य जगत्रनेज्ञानम् , अप्रतिषम् नित्यत्वेन सर्वविषयवान क्यचिदप्यप्रतिहतम् । सग्य चमापथ्यं च रागाभाबादप्रनिघम् । घः ससुभयो एकोऽवधारणे, ऐश्वर्य पारसच्या. ऽभावाइप्रसिघम् । तथाविधम्-अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्यम् वशित्वम् , यह बात योगसूत्र में इस प्रकार कही गई है कि "प्रमुप्त, तनु, विच्छिन्न मोर उदार ये सभी प्रकार के उत्सरमाधि क्लेशों की जन्मभूमि अविद्या है। सुप्तावस्था का अर्थ है अप्रकररूप में क्लेश की अवस्थिति, तनु अवस्था का अर्थ है प्रकट होने पर मो सहकारी कारण का संनिधान न होने से कार्य को उत्पन्न करने को असमर्थता । और विन्छिन्नावस्या का अर्थ है अभिव्यक्त होकर मोर प्रपने कार्य को उत्पन्न करके मी किसी बलकालव्यासकः सजाय या जातीय वाय अभिसूत -वृत्तिहीन होकर भविष्य में सत्तिक होने के लिए अवस्थित रहना । और उदार अवस्था का अर्थ हैअभिव्यक्त होकर एवं सहकारियों का संविधान प्रस्तपर एवं कोई प्रतिवन्धक न होने से अपने कार्य पो उत्पन्न करने का प्रथरार प्राप्त कर अपने कार्य का सम्पावन करना। इन प्रवस्थानों में पहली वो श्रावस्यानों की निवृति निर्बोज समाधि से होता है जिसे शतिप्रताप कहा जाता है। पौर अन्तिम यो अवस्थाओं को निवृत्ति भगवान के शुद्धसत्त्वमय ध्यान से होती है।" ईश्वर को तत्त्वज्ञ मानने पर प्रश्न होता है कि जब ईश्वर में प्रविद्या ही नहीं होती तो उस में तस्वशान कसे होता है ? पोंकि तस्वशान मविद्या के नाश से होता है किन्तु वर में विद्या न होने से उस का नारा भी उसमें नहीं हो सकता और इसके फलस्वरूप तस्वज्ञान को कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रश्न का उसर यह है कि ईश्वर में विद्या और विद्या कानाश न होने के कारण ही उसका तत्त्वज्ञान निस्य होता है और नित्यज्ञान का माधय होने से ही यह कपिलादि महषियों का भी गुरु होता है। यूसरी कारिका में पूर्व कारिका के कथन को ही पुष्ट किया गया है। कारिका का अब इस प्रकार है [ ईश्वर का सहजसिज चतुष्टय ] ईश्वर जगत का स्वामी है । उसका मान निष्प एवं सर्वविषयक होने से किसी काल मोर किसी विषय में प्रतिहत नहीं है। उसका बराग्य-माध्यस्थ्य मी उस में रागम होने से कहीं भी प्रतिहत नहीं है । अर्थात् उसमें किसी भी सेतन प्रथमा अचेतन वस्तु के प्रति राग और न होने से वह सबके प्रति तटस्प है और उसमें किसी प्रकार की परसन्नता होने से उस का ऐश्वर्य भी अप्रतिहत है। उसके ऐश्वर्य का माठ प्रकार हैं-मणिमा, लघिमा, महिमा, 'प्राप्ति, 'प्रामाम्य 'पशिस्व ईशित्व 'यत्र कामावसायिस्व । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] [ शापा, स मुख्यय रुतम-4 नोक-२ ईशित्यम् , यप्रकामारसायित्वं चेति । यतो महानणुर्भवति सर्वभूतानामप्यदृश्यः, सोऽणिमा । यतो लघुर्भरति सूर्यरश्मीनप्यालय पूर्पलोकादिगमनसमर्थः, स लपिमा । पतोऽल्पोऽपि 'नाग-नगादिमानो भवति, स महिमा । यतो भूमिठरणाप्पगुल्यग्ने गगनस्थादियानुप्राप्तिः, सा प्राप्तिः । प्राकाम्यमिच्छानमिषातः, यत उदक इव भृमान्मजति निमज्जति च । चशित्वम्-यतो भूत-भौतिकेा स्वातन्त्र्यम् । ईशित्वम्-यतस्तेषु प्रभष-स्थिति-व्ययानामीष्टे । यत्रकामावसायित्वम् -यसः सत्यसंकल्पता भवति, यथेवरसंफन्पमेव भूतभावादिनि । धर्मश्व प्रयत्न-संस्काररूपोऽधर्माभायादप्रतिघः । एममतुष्टयं सहसिद्धम्-अन्यानापेक्षतयाऽनादित्वेन व्यवस्थिनम् । अत एव नेश्वरस्य कूटस्थताव्याघाता, जन्यमानावयत्यादिति बोध्यम् ॥२॥ तस्य कन वे क्तिमा (१) जिस शक्ति से महान वस्तु अणु हो कर अन्य प्राणियों के लिए प्रहाय बन जाती है वह मानिस पानी की जानी है ! (२) जिस शक्ति से गुरु प्रस्तु लघ हो कर सूर्य की किरणों के सहारे सूघलोक प्रावि सक जामे में समर्थ हो जाती है वह पावित लधिमा कही जाती है। (३) जिस शक्ति से लघु परिमाण को वस्तु हाथी और पर्वत मादि के समान विराट हो जाती है वह शक्ति महिमा कहो जाती है। (४) जिस पर विप्त से भूमि में स्थित मी मनुष्य अपनी अंगुलो के अग्र भाग से प्राकाशस्थ वस्तु कास्पर्श कर सकता है यह शक्ति प्राप्ति' कही जाती है। (५) प्राकाम्य का अर्थ है ।छा का पभियात न होना । इस गति से मनुष्य जल के समान स्पल में मो भीतर और बारमा जा सकता है। (६) शिव का अर्थ है भूत और भौतिक वस्तुओं के विषम में स्वातन्मम । इस शक्ति से मनुष्य मृत मोर भौतिक पदार्थों का यथेष्ट विनियोग कर सकता है। (७) ईगिरथ का अर्थ है वह लामय जिस से ममुख्य भूत मौर भौतिकों के उत्पादन पालन और विनाश करने में समर्थ होता है। 1) पत्र कामावसायित्व का अर्थ है सस्य संकरुपता । इसी शक्ति के कारण अगत् के सम्पूर्ण मूत और भौतिक पदार्थ ईश्वर के संकरपानुसार ही होते है। धर्म का अर्थ है प्रयत्नरूप संस्कार । ईश्वर में प्रधर्म नहीं होने से उस का धर्म भी पूर्ण रूप से अप्रतिहत होता है। "इस प्रकार जान वैराग्य ऐश्वर्य और धर्म-ये चारों चीजें वर में सहसिब-नित्य सिद्ध हैं प्रर्यात प्रत्य निरपेक्ष होने के कारण ये चारों पनादि है। इसीलिए घर को कूटस्पता भी व्याहत नहीं होती है, क्योंकि यह जन्य धर्म का प्राश्रम नहीं होता। तीसरी पारिका में ईश्वर के कट्टरव को साथ युक्ति बताई गई है। कारिका का पर्व इस प्रकार है- १ नागो-हस्ती, नगः-पर्वतः । २ “स्मत्यर्थदधेशः" ॥ २॥२॥१॥ इति सूत्रेण कर्मसंज्ञाया विकरपेन पक्षे षष्ठी। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाक टीका-हिन्दी विवेचना मूलम्-अझो जन्तुरनीकोऽयमापनः सुखदुपयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा वनमेध या ॥३॥ अर्थ संसारी जन्तुः, आत्मनः सुख-दुःखयोर्जायमानयोः, अनीश: अकर्ता, यतोशः हिताऽदितप्रवृत्ति-निवृत्युपायानभिन्ना, अतः स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वानरकमेव था, ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्र , अज्ञाना प्रवृत्ती परप्रेरणापा हेतुत्वावधारणात् । पश्वादिप्रयतौ तथादर्शनात् । अचेतनस्यापि घेतनाधिष्ठानेनैव व्यापाराच्च । अत पत्र "मयाऽध्यशेण प्रकृतिः सूयते सभराचरम् । तपाम्यहमह बर्ष निगृह्याम्युन्सृजामि च ॥१॥" [ गीता- ] इत्यागमेन सर्वाधिष्ठानत्वं भगवतः श्रूयते, इति पातजलाः । नैयायिकास्तु वदन्ति "कायो-योजन-धृत्यादेः पदान् प्रत्ययता श्रुतेः । चाक्याव मंख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्यपः ॥१॥" [न्या कु०५-१] इति । । पालन्जलमनागपार पलर का जपत्र ) संसारी जीय को अपने सुखनुःख के उपाय का ज्ञान नहीं होता। 'पया करने से उस का हिल होगा और क्या करने से उस का अहित होगा ?' इस बात को वह स्वयं नहीं सोच पाता । इसलिये अपने सुखनुस्ख का वह पर्ता नहीं हो सकता । प्रतः एव यह मानना प्राधायक है फि जोव ईश्वर की प्रेरणा से ही ऐसे काम करता है जिन से रुवर्ग प्रषवा नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि प्रमों की प्रवृत्ति में यह प्रेरणाही कारण होती है-पह सर्व विवित है । पशु मामि की प्रवृत्ति लोक में प्रेरणा से ही वेखी जाती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-मीत्र अपने सुख-दुख का उपाय न जानने के कारण अपने सुन-पुल का संपावन स्वयं भले न कर सके परन्तु प्रकृति अथवा बुद्धि के व्यापार से उसे मुख-दुख होने में कोई बाधा नहीं हो सकती' । यह कहना इसलिपे संभव नहीं हैं कि प्रकृति एवं बुद्धि स्वरावतः अचेतन होती है, प्रत एवं चेतन के सम्पर्क के विना यह भी सव्यापार महीं हो सकती क्योंकि लोक में चेतन बाई आदि के सम्पर्क से ही अचेतन कुठारावि में काष्ठलेवन के म्यापार का होना देखा जाता है । इसीखिए गीता में श्रीकृष्ण ने स्वर्ष कहा है कि-प्रकृति सर्याध्यक्षभूत हमारे सम्पर्क से ही चराघरास्मक जगत का सर्जन करती है। में हो तापक हूं पोर में ही जल के अवर्षण मौर वर्षण का कारण हैं।' ईश्वर के कर्तृत्व के सम्बन्ध में पातञ्जलों का यही संक्षिप्त दृष्टिकोण है। ( जगरकर्तृत्व में नैयायिकों का अभिगम) मंयायिकों का इस सम्बन्ध में दृष्टिकोण दूसरा है । यह ईश्वर को परप्रेरक के रूप में का न मानकर साक्षात उसी को विश्व का कर्ता मानते हैं। उदयनाचार्य मे प्यायकुममाञ्जलिप्रन्थ में 'कार्यायोजनस्यायो' इस कारिका से घर में कर्तृत्व में सिद्ध करने वाले अनेक मनुमानों का Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा.पा. समुरुषय स्व०-३५शोक-३ अस्या-कार्यादीश्वरसिद्धिः, 'कार्य सक कम् कार्यत्वात् । इत्यनुमानात् । न च कार्यत्वस्य कृतिसाध्ययलक्षणस्य मित्यादारसिद्धिरिति वाच्यम्, फालपृश्यत्यन्ताभाषप्रतियोगित्वे सति, प्रागभावप्रतियोगित्वे सनि, ध्वंसप्रतियोगित्वं सति पा सभ्यस्य हेतुत्वात् । पक्षतावच्छेदकारनछेदेन माध्यसिद्धरुद्देश्यत्वाच्च न कार्थस्य घटादेः सत्त्व सिद्धर्या:शतः सिद्धसाधनम्, न वा पानावनोदकस्य हेतुत्वं दोषः, 'कार्यत्वं साध्यसमानाधिकरणम्' इति गइचारग्रहेऽपि 'कार्य सक्त कम्' इनि बुद्धरभावाच्य । संकेत किया है। उन में कार्य से ईश्वर का अनुमान पहला अनुमान है जिस का प्रयोग रस प्रकार होता है [ कार्य-हेतुक अनुमान ] 'कार्य सकटक होता है क्योंकि वह कार्य है-इस अनुमानप्रयोग के द्वारा कार्य हेतु से ईश्वर की सिशि होती है । इस पर यह शंका हो सकती है कि-'कार्यत्व हेतु का अर्थ है कृतिसाध्यत्व पौर यह पक्ष के अन्तर्गत मानेवासे मित्यादि में पशिख है। इसलिए कार्यत्व हेतु के मागासिद्ध हो जाने से उससे संपूर्ण कार्य में सक कल्प का अनुमान नहीं किया जा सकता । क्योंकि उसके लिये समस्त कार्य में हेतु का होमा आवश्यक है ।-हिन्तु यह बांका कार्यत्व हेतु का मिमोस्त रूप में नियंचम कर थेने पर निखसोपाती है । अंले-कायत का अर्थ है हालति-आयनतामाप का प्रतियोगो हो । भावात्मकमोनास प्रकार काकायस्पक्षिस्थावि में विद्यमानयोफिक्षिरयादिभावाश्मक और वित्यादि अस्पति के पूर्वकाल में और क्षिश्यारिविनाशकाल में उसका आयस्ताभाव होने से वह कालपत्ति अस्वम्लामात्र का प्रतियोगी है। कार्यस्व के इस परिकल स्वरूप में सस्त्र-मावास्मकत्व का संनिवेश विंस में व्यभिचार धारण करने के लिये आवश्यक है। यदि यह कहा जाय कि-"प्राचीन नंयायिक मत मेंस और प्रागभाव के साथ अत्यन्ताभाव का विरोध होने से नित्यादि का अश्यस्ताभाव उसके उत्पति के पूर्वकाल तथा विनाशका में नहीं रह सकता क्योंकि पूर्वकाल में उसके अत्यन्ताभाव का बिरोधी उसका प्रागभाव और विनाशकाल में अत्यन्तामा का विरोयो म्यस विद्यमान होता है। मित्यादि के अस्तित्वकाल में भी भित्यादि का अत्यन्तामाव नहीं रश सकता क्योंकि उस समय वित्यादि स्वयं ही अपने अत्याताभावका विरोधी विद्यमान होता है। अत: क्षिप्त्यादि में कालवृत्तिअत्यन्तामावप्रतियोगिस्व संभव न होने से उक्त कार्यस्व हेतु स्वरूपासिड हो जाता है। मौन धायिक मत में भी उक्त कामस्व हेतु से सातत्व का अनुमान नहीं किया जा सकताबयोंकि मिस्यास्य कातिक सम्बन्ध से किसी में भीमही रहतास मत के अनुसार निरयम्बकालपूतिमत्यम्लामायका प्रतियोगी भावारमकवस्तू किन्तु सकर्तृक नहीं है। इस प्रकार निस्पत्रव्यों में उक्त कार्यत्व हेनु में सात मत्व का व्यभिचार स्पष्ट है। (कार्यस्व प्रागभावप्रतियोगिसत्त्व) इस वोष का परिहार करने के लिये कार्यत्वको प्रागमाव-प्रतियोगिश्वे सति स्व रूप में परिकृत करना आवश्यक है, किन्तु प्रागमासन मानने वाले कीधितिकार आदि के मत में प्रागमारत तसित हो जाने से जातानुमान के द्वारा लिस्यादि सक करव की सिद्धि नहीं होती । तथापि यंत प्रतियोगिस्वे सति सस्व' को कार्यक्ष मानकर उस से संपूर्ण कार्य में सार्नुकस्यका अनुमान करने में कोई Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याक टीका-हिन्दी विवेचन ] ननु तथापि सकत'कत्वं यदि कत माहित्यमासम् , तदाऽस्मदादिना सिद्धयाधनम् , यदि च कन जन्यत्वम् तदा बाधोऽपि, नानादेरेव जनकतया कतु रजनकत्वादिति चेतन, प्रत्यक्षजन्यस्वत्येपछाजन्यत्यवादिना माध्यतारामदोषात । अष्टाद्वारा जन्यत्वस्य विंशोप्यतामंत्रन्धारच्छिन्नकारणताप्रतियोगिकसमवायावच्छिन्मजन्यत्वस्य वा साध्यत्वाच्ध नाहजनकास्मदादिज्ञानजन्यत्वेन मिद्धमाधनम , अर्थान्तरं बा। बाघा मझी हो सकती है । यगापि-पक्षातर्गत आनेवाले घटादि कार्यों में सकतुंबक की सिद्धि होने से अंशतः सिद्धमापन होता है अर्थात् कायस्वका पक्षतावावक के आप विशेष में सक्रत स्वरूप साध्य को सिद्धि होने से कार्य में सकह कस्व अनुमान का प्रतिरोष प्रसक्त होता है-किन्तु प्रस्तुत अनुमान में उसे दोष नाहीं माना जाता है क्योंकि प्रस्तुत अनुमान में पक्षसावध्वेषक सामामाधिकरप्येन साध्या नुमिति अर्थात यावत् पक्ष में साध्यानमिलि हिट है और यावत पक्ष में ताप्यानुमिति के प्रति यावत् पक्ष में साध्य की सिद्धि हो प्रतिबन्धक होती हे न कि किचित्त पक्ष में साध्य को सिसि ।। उक्सानुमान में यह भी वांका हो सकती है कि-'पक्षताधायक और हेतु एक है इस लिये हित में साध्य का व्यादिनान साध्यसिद्धि रुप हो जायगा क्योंकि साध्य को याति साध्यामानाधिमारण्य से घटित होती है और पक्षसावदेवकात्मक हेतु में साध्यसामामाधिकरण्य का ज्ञान पक्ष में ताश्यप के ज्ञान होने पर ही संमन्य है अतः हेतु में साध्य का व्याक्तिशान साध्यसामानाधिकरपय कुशि में पक्ष में सायप्रकारकहोगे से साध्यसिदि रूप हो जायगा। अतः व्याप्लिमान के द्वारा सिससाधन की प्राप्ति होगी" -किन्तु विचार करने पर यह शंका उचित नहीं प्रतीत होती पयोंकि सासामानाधिकरण की कुक्षि में पक्ष में साध्य का ज्ञान निमंताबारक होता हैं अर्थात पक्षतापनवेदकहप से पक्ष में साध्यतम्याध का भान नहीं होता है अतः एष ध्याप्तिमानामक साम्यसिद्धि से पाताबन्दकावमिछल्न में सास्यामिति का प्रतिवरध नहीं हो सकता. क्योंकि सद्धर्मावविन्न विशेष्या साध्यानुमिति के प्रति विश्वविशेष्यसाध्यनिरषय को ही सिद्धिविधया प्रतिनिधत्व न्यायप्रारत है । [सफर्तृकत्व-कर्तृ साहित्य या कर्तृ जन्यत्व ? ] प्रस्तुत अनुमान में यह शंका होती है कि-"सार्नु कत्ल रूप साध्य का अर्थ पवि फतृ साहित्य किया जायगा तो जीवात्मा से सिमाधन हो जायगा, क्योंकि मां शव से मोवाःमा का समानकालिकाव या समानदेशत्व प्राप्तण करमे पर भी फरा का उक्तस्वरूप कसाहित्य कार्यमान में उपपन्न हो जाता है। और यदि सक कार का अर्थ कर्तृ अन्यत्व माना जायगा तो कार्य के प्रति कर्ट पतझान आदि के ही कारण होने से कता को कार्य का अजनक होने के कारण कलुज-पवरूप साध्य की अन. सिद्धि हो जामगी। और यदि सकतं कस्य का अवं जन्यतासम्बन्ध से कतमस्व किया जागा तो का कार्य का अजनक होने के कारण अन्मस्व का का मधिकरण सम्बन्ध होगा इसलिए कार्य में जयस्वसम्बाम से कर्ता का अभाव होने से बाष हो आयगा । अतः प्रस्तुत अनुमान का समर्थन अवाक्य है-1 किन्तु पह शंका मनबकाया क्योंकि प्रत्यक्षजन्यत्व, इच्छाजन्यम अथवा सिमायरकको साध्य मान लेने पर उक्त बोष का परिहार हो सकता है। कार्यमात्र में प्रष्ट पारा जीवात्मा के प्रस्यममग्यत्व, छामम्पत्य सपा कृतिजन्यश्व के द्वारा सिखाधम का या जीवाएमा के प्रत्यक्षादि को कार्य मात्र के प्रति किसो सालात सम्बन्ध Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [ शाबा०-१९०६-१०३ संदिग्धोपाधितासाम्रा ? अब शरीरजन्यन्यमुपाधिः, अङकुराहो साध्यव्यापकता ज्यात्, तदाद्दितयभिचारसंशयेनाऽनुमानप्रतिरोधात् लाघवाद व्यभिचारज्ञानन्वेनैव व्याप्तित्रीविरोधित्वात् पक्ष-तरसमयोरपि व्यभिचारसंशयस्य दोषत्वादिति चेत् न प्रकृते ज्ञानस्यादि कार्यत्वाभ्यां हेतुहेतुमद्भावनिश्वगात लाघवतचतारे तदुपाधिसंशयस्याविवित्वाद अनु कूलनिवार एवं संदिग्धोगावेच्यभिचारसंशयाचा यचरथात्, अन्यथा पक्षतरस्योपाधिशङ्कया प्रसिद्धानुमानस्याऽप्यृच्छेद " P इत्येके । ▸ ་ से कारण मानकर सिद्धसाधन अथवा अर्थान्तर की आपत्ति का परिहार करने के लिये अष्टाद्वारक प्रत्यक्षाविन्यस्य को अथवा विशेष्यतासम्बन्धावत्रि प्रश्पक्षाविष्कारणता निरूपितसमवायसम्बन्ध जन्यश्व को सामानमा आवश्यक है। कहने का आशय यह है कि यदि सामान्यरूप से प्रत्यक्षादिजन्यत्व को साध्य माना जाएगा तो जीवात्मा के प्रत्यक्षादि द्वारा मिसाथ होगा. क्योंकि फोवारमा के अदृष्ट से ही समस्त कार्य को उत्पत्ति होती है। और वह अमीषा के प्रत्यक्ष और कृति में होनेवाले विहित निषिद्ध कसे होता है। अतः कार्यमात्र में पूर्वसृष्टि में होनेवाले जोव के प्रत्यक्षादि की अ द्वारा मला सिद्ध होने से सिद्धसाधन होगा. अनुष्टाऽरक प्रत्यक्षादि जयस्व को साध्य मानने पर इस दोष का परिहार होने पर मी जोव के प्रष्टगत प्रस्थादि को स्वयं द्वारा नष्ट का कारण मान लेने पर कार्यमात्र में जोध के द्वारका विजन्मस्व सिद्ध हो जाने से हो सकता है । अतः समय से कार्य मात्र के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से कर्तृगत उपावान का प्रत्यक्ष उपादान में कार्य की विकीर्षा ओर उपवासविषयक कृति कारण होती है। इस कार्यकारणभाव के आधार पर विशेष्यत्वसम्बन्धाय छत्रप्रायः विकिरण सामि विससमवायसम्बन्धानि जन्यश्व को साध्य मानना आवश्यक है । ऐसा मामले पर पूर्वष्टिगत जीवात्मा के प्रश्यभादि के द्वारा मितान नही हो सकता, क्योंकि कवि के उपजानकारण परमाणु आदि का अध्यक्ष जोव को पूर्व सृष्टि में भी नहीं होता और पक्षि पति अौकिक प्रशासत्ति से परमाणु आदि का प्रत्यक्ष जोष को माना जाय तो यह नयोग सुटि में होनेवाले भाषि का विशेष्यस सम्बन्ध से कारण न होगा क्योंकि विशेष्यता कामसमानकालोन होती है। अतः नवीन सृष्टि के पहले पूर्वसृष्टि का जो बगलप्रत्यक्ष विशेष्यता से इंचणुकावि के उपादान कारणों में नहीं रह सकता इसलिये ओवामा के प्रत्यक्षादि को लेकर कार्यमात्र में इस परिष्कृत प्रत्यक्षार्थिभ्यरूप लाक्ष्य के सम्म होने से जीवात्मा के प्रत्यक्षादिद्वारा सिद्धसाधन या अर्थान्तर नहीं हो सकता | [ शरीरजन्यत्व उपाधि शंका का समाधान ] इस सभ्यर्भ में यह का हो सकती है-कार्य हेतु शरीरजन्म रूप उपाधि से प्रस्त है क्योंकि साध्य घटपटादि जिम कार्यों में सिद्ध है उन में शरीरअन्यस्थ भी सिद्ध है। अत: पारीजन्य सकतु कामरूप साध्य का व्यापक है। एस कार्य के आश्रय अरविन्यस्थ का अभाव होने से यह कार्यत्वरूप साधन का अध्यापक भी है। अतः उपाधिप्रत होने के कारण प्रस्तुत Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिम्लो विवेचन 1 परे तु- स्वापादामगांचा स्वजनकाऽद्वयाऽजानका या कृतिस्तदजन्य समवेत जन्यं खोपादानगोचरम्बजमकाहजनकान्याऽपगेशज्ञान-चिकीजिन्यम , कार्यस्यात् । घटादावंशतः अनुमान से वावि के अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती । यः यह कहा माय कि-'अक्कुरावि में सकत. कत्व का साह है किन्तु शरीरमन्या का समा मिचित है अतः शारीरजम्यश्व में साध्यसका कारण की व्यापकता का मिश्चय हो सकने से शरीरमायस्थ उपाधि नहीं हो सकता।-' तो यह हक नहीं है योंकि निश्मिल उपाधि होने पर भी अकारादि द्वारा शारीरजन्यच में साध्य व्यापकता का सन्वेस होने से हतियोपाधि का होना अनिवार्य है । यदि यह शंका को जाय-'मविभोपाधि होने से भो कोई वषेष नहीं हो सकता क्योंकि समियोपाधि के व्यभिचारसबह से हेतु में साध्यमिचारका सन्देश हो हो सकता है निश्चय ही हो सकता । और मिनार संदह व्याप्तिमात शिरोमीन होने से हस में मायायाति पा निश्चय हो कर अनुमिति के होने में कोई बाधा नही हो सकती तो यह को नहीं है क्योंकि च्यारित मान के प्रति मिधारनिश्चयवाहप से ठर्णमचारज्ञान को प्रतिबन्धक मामले में गौरव है। अत: लाघव को एमिट से इमिनारज्ञानस्वरूप में हो व्यभिचारण ध्यातिमान का प्रतिन-धक है अत एवं व्यभिचारसंशय से भी व्याप्तिनिश्चय का प्रतिबन्ध हो जाने के कारण सन्धिम्योपाधिका भी अनुमान विरोधिश्व अरहार्य है। घयपि सम्बिम्बोपाधि के व्यभिचारकेश से हेतु में माध्यभिचार का संशय पक्ष में ही होगा, तो भो कोई दानि नहीं है, क्योंकि पक्ष और पक्ष सन्देह के छारा मो हेतु में साध्यव्यभिचार का संशय अनुमान में दो रूप हो सकता है। यदि यह वाकानो जाय 'पक्ष में साम्य का संशय होने के कारण पक्ष द्वारा सर्वत्र ही हेतु में साध्यध्यमिवार का सन्देह हो सकता हैं. शत प्यभिधार माघ को शनुमान का दोष मानने पर अनुमान मात्र का उन्नाव हो आपणा" लो यह टोक नहीं है, क्योंकि पक्ष में समनिश्चय की पक्ष में है में माध्यभिचार का संशय न होने से मिषाविया से रक्ष में साध्यामुमान हो सकता है. क्योंकि अनुमिति में पक्षताविषया सिषाधरिषाविहविशिष्टमिजमावही कारण होता हैं। फलत: हासेरजन्य-प रूप उपाधि से ग्रस्त होने से प्रस्तुत अनुमान द्वारा श्विर को सिद्ध करने की माझा करना दुराशा मात्र है।'' -किस सिकार काने पर इस अनुमान में शरीरसन्याय को लेकर उपाधिग्रस्तता को शरा। औचित्य सिद्ध नहीं होता । पोंकि कापमामा और ज्ञानादिसामान्य में कार्यन्त्र भोर मानव आद पप से कार्य कारणमा मिचित है, क्योंकि इस कार्य कारण भाव में साधव है। और इस लाव तक के कारमा उपाधिसंवाय कार्यत्व में सामाविअभ्यत्व की मारित के निइन्त्रय में बाधक नहीं हो सकता। सन्धिम्योपाधि से हेतु में साध्यभिचार का सराय उसी का में होता है जब रेनु में साध्यध्याप्तिका निश्वासक कोई अनकलतम हो। और यघि अनुकुल तक रहने पर भो माग्योपाधि से है । मैं साध्यध्यमिवार का संशय होगा तो पोतरत्वरूप उपाधि की शङ्का होमे से पवत में बहक प्रसिद्ध अनुमान का भी उमाश हो जायगा । इस प्रकार विचार करने से प्रस्तुत अनुमान के प्रयोग में कोई दोष नहीं है। ऐसा किसनेक विद्वान कहते हैं। (सकत कत्व-स्वोपावानगोचरस्वजनकाशाजनकप्रत्यक्षादिजन्यत्व) साम्यविधान कार्य सरक. कार्यस्वात्' इस अनुमान की प्यासपा इसका में करसे है कि महत अनुमान में संपूर्ण कार्य पक्ष नहीं है किन्तु यह का पक्ष ! जो समवेत होता है और अपने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [ शा या समुच्चय-न० लो०३ सिद्धसाधनवारणाय तदजन्यान्तम् , ताशकृतिजन्यं यत् यत्स्य तद्भिमन्वं तदर्थः नानी तथा णुकादरुपादानगोषताशकृत्यप्रसिद्धया पसत्याभावासगः । तत्र शब्द-फूकागदपत्रावे संदिग्धसाध्यकत्वेन तत्राग्नकास्तिकत्वसंशयः स्यात , अनः प्रतियोमिकोटी गानरान्तम् । शब्दादेमृदङ्गादिगोचरताशकृतिजन्यत्वेऽपि न स्वीपादानगोवस्तारशकतिजन्यत्वमिति न गावान कारण विषयक ऐमो कृति से अमन्य होता है जो उसके जनक अ को उत्पावक नहीं होतो । ऐसे कार्य को पक्ष बनाने के लिये स्वापायानगोचर स्वजनकाटष्टाजरककृति अगम्य समवेतन्यस्व को पक्षतामोधक मानना आवश्यक होता है। और इस प्रकार के धर्म को पक्षतापोतक बनाने पर सकस कस्वरूप साध्य के स्वरूप को भी कहलमा होता है । फलत: सकतृकत्व का अहोजाता है स्वोषावान-गोचरस्वजनका जनकप्रत्यक्षादिजन्यस्व इसका आपाय यह है कि जो कार्य स्वोपानगोचर और स्वजनपालनककृति से प्रजन्म होते हुये सम होता है तोपादाममाकर और जमाना ठोता है। उत्त मूल अनुमान की इस प्रकार पात्या कर देने पर पासावाछेवक का जो स्वरूप प्रस्तोता है में तीन अंश जसे स्योपादानगोमरस्यजनकष्टाजनकृन्यजन्यत्व. ममतत्व और अन्यत्व । इन में प्रथम अश का त्याग कर देने पर घटादि कार्य भी पक्षान्सर्गस हो जाता है और उन में सकतुं करव सिन है इसलिये प्रयत: मिबसाधन अर्थात पक्षतावच्छेदक मामानाधिकरण्येन साध्यसिद्धि कम गाथाको उपस्थिति से अनुमितिप्रतिरोध की प्राप्ति होती है। इस दोष के परिहार के लिये अममत्व पंत धमाका पक्षताकाडे वनकोटि में समिधेश आवाया है। इस प्रशासनिवेश करने पर पदावि पक्षातगंत नहीं होता है क्योंकि वे स्योपाबानगोचर स्घजमक.अशाजनक कुलाल की कृति से साय होते हैं। अन्यत्वात अश में स्व गर से जन्य को ग्रहण करना अभीष्ट है. अमन्य को नहीं। इसलिये अनन्यस्वान्तमाग का अर्थ है वोपानीघर-यजनक अष्टाजनक कृति से अन्य जो मो हैं सद तब मित्रत्व | याच स्व पर से अजन्य का ग्रहण किया जायगा तो व्यकावि पक्ष न हो सकेगा क्योंकि धकाधि के उपादान को विषय करनेवाली घणुकाविलमकाअष्ट को अजमक कोई कृति प्रसिद्ध नहीं है, इसलिये स्वपद से हपणकादि का प्रहण न हो सकमे से वह स्वोपावान गोचर स्वजनक अरष्टाममक कृत्यायाध से पक्षविषया उपन्या नहीं हो सकता है। फलतः उसकेका रूप में विकर की सिद्धि असंमत हो जायेगी। (उपादान गोचर' पदकी सार्थकता) इस अंश में भी कृति में यदि स्त्रोपावामगोचर विशेषण न देकर स्व-जनक अशष्टाजनक कृतिजन्य भिन्नत्य मात्र कोही पक्षतावच्छेवक को कोटि में निवेश किया जायगा तो बङ्गादिको सजाने से उत्पात्र होने वाला शह और बापु का फुकार शानगंत न हो सकेगा। क्योंकि ममावि चबाने से उत्पन्न होनेवासा त स्वजनक APट के अजनक बजगातिगोचर म बङगाविषावक कृति से जन्म होने के कारण ताहनकृतिजस्य मिन्न नहीं होगा। क्योंकि फुत्कार भी फुरकार के निमित. मून यन्त्र विषयक कृति से जश्य , ओ कृति फूटकारजनक अहट का अजनक है. इसलिये यह भी वजन अदृष्टाजाककृतिजन्य मिन्न नहीं है । अब शब्द और फुरकार पक्ष से हिर्भूत हो जायेंगे तो उम में साध्य का मन्वेह होने से हेतु में साध्ययभिचार का सम्मेह हो जायगा। किन्तु कृति में स्वोपावामगोचरव का निवेश कर देने पर शब्द और फुरकारको पक्षालगंस होने में कोई बाधा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी त्रिवेचन ] दोपः । मन्त्रविमोषपाठपूर्वकस्पर्शजन्यकाश्मादिगमनम्य स्पर्शजन्यायाग स्वोपादनकाश्यगो. चररूपर्शजनकजन्यतिजन्यस्याऽपक्षले नत्र मंदिग्धान कान्तिकत्वं स्यात् , एवं स्वोपादानधरीरगोयरोवंचरणादिनपःकृतिजन्यकालशरीरी गौररूपादौ तन् स्यात् । अतस्तरकोटी 'स्वजनक' इत्यादि, काश्यचालनादिकं तु स्वजनकाऽनफजन्यकृतिजन्यमेवेन्यदोपः । ध्वंस-गगर्नेकवादिवारणाप 'सुमोनम्' इनि, 'जन्यमिति २ | शब्द-फूत्कारादी सिद्धसावनवारणाय साध्ये गोचरान्तम् । उक्तकारथचालनादी तद्वारणाय 'स्वजनक' इत्यादि । नही होगा, क्योंकि उन के जनक अदाट-जनिका मादिगोधर कृति उम के उपायान आकाश और वायुको विषय नहीं करती। अत: वे स्वोपाबानागाधर स्वजनकाअष्टाजनक कृति सम्म भिन्न हो [स्वजनकादृष्टाजनक-पद की सार्थकता] इसी प्रकार यदि कृति में स्वजनका अष्टाजनकत्व का संनिवेश न कर स्वोपायानगोचर कृति जपभिन्नत्य मात्र को पक्षतावच्छेवक का घटक माना जायगा तो काश्य पात्र को बह गति बोमय. विशेष के पास के साप होमेवाले स्पर्श से उत्पन्न होती है पक्षान्तगत न हो सकेगी। क्योंकि यह भी अपने सपाबानभूत काश्यपान को विषय करने वाली पर्श जमक कृति से अन्य है । अतः पक्ष स्वोपावाम गोचर-कृतिमन्यभिन्न नहीं हो सकती। इसी प्रकार कृष्णवर्ग के शरीर में उत्पन्न होनेवाला यह गौर रूप भी पक्षान्तर्गत न हो सकेगा जो अधोमुख और ऊर्ध्व पाव की अवस्था में शारीरस्थापनकप पश्रर्याको कृति से उत्पन होता है, क्योंकि वह भी अपने उपावात कारण पारीर को विषय करने वाली ऊध्य मुख अधःपावारि-सप की कृति से अन्य होने के कारण स्वोपायान गोचर कृति मन्य मित्र नही होता है। फलत: कांप्रय पात्र की उक्त गति और कृष्णवार के उक्त गौर रूप के द्वारा हेतु में साम्यवभिचार का सन्देह होने से अनुमिति का प्रतिरोध हो जायगा और कृति में अब स्वजनक अष्टाजनकारव का निवेश करते है तब यह बोष नहीं हो सकता, क्योंकि करियपात्र की गति कास्यपात्रगोचर स्पोजनक कृति से भरन्ट द्वारा उत्पन्न होती है। और कृष्णधारोर गत उक्त पोर रूप भी स्वोपारामगोचर अधोमुख उध्र्वपादावि रुप तप की कृति से अदृष्ट द्वारा ही उत्पन्न होता है । अत एष उक्त गति और उषप्त स.प स्वोपावासमोर स्वजनक अष्ट जनक कृति में ही जम्य होने के कारण स्पोपाबामगोपर रखनकटष्टाजनककृतिजन्य भिन्न होने से पक्षातर्गत हो जाते हैं। (समवेतत्व और जन्यत्व का उचित निवेश) दूसरा अंधा है 'समवेतत्वा । इस अंश का वातावरवधक कोटि में संनियेयाम करने पर ध्वंस भी पक्षान्तर्गत होणाला । और उसमें साप का बाप होने से पक्षताबमछेदकाइयाछेवेन अनुमितिका प्रसियाब हो जाता है। अतः समवेतत्व बंश का पक्षतावणेवक कोदि में प्रवेश आवश्यक है। तीसरा अंश है जम्मरप-इस अंश का भी पक्षतावाटेवक कोटि में निवेश आवश्यक है। अन्यथा आकाशगत एकरप-परिमाणादि नित्य गुण मो पक्षातर्गत हो जाये और उनमें साधका भाष होने से पक्षतावण्वकावरछेवेन अनुमिति का प्रतिरोष हो जायगा । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा या समुपय स्त. ३ श्लोक ३ नघ साध्ये पझेच गोचरान्तद्वयं माऽस्तु, मृदङ्गादिगोचरक्रतिजन्यशब्दादिस्तु पक्षयाई भूत एवं दृष्ट्वान्तोऽग्विनि वाच्यम् , अष्टेनरव्यापारद्वाराऽस्मदादिऋतिद्धन्यत्व सिद्धयाऽर्थान्तरप्रसङ्गवारणाय साध्ये तनिवेशावश्यकन्वे, शब्दादावन कान्तिकत्यसंशधारणाय पझेऽपि तदावश्यकत्वात् , ताशशम्दादिकत तयाषि भमसिद्धये पक्ष तमिवेशेऽशन: मिदसाधनबारणाय साध्ये नभिवेशावश्यकत्वाच्च । एलेन 'स्वजनकाऽदृष्टचनकान्यन्यमप्युभयत्र मारतु' इत्यपास्तम् , माहशकाश्यचालनादिका तयााप भगवासप्रय पर्वा नदुपाक्षाने सागऽप्यावश्यकत्वात् । यदि च 'वजनकाटजनकतेन स्यजनकत्व, मानाभावान् । ति विभा. पते, तदा पक्षे तद् नोपादेयम् ; साध्य तु देयमेव, अन्यथा सान्नरीपज्ञानादीन घणुकाधुपादानाऽमोचस्त्येन घणुकादौ सिमाधनाभावेऽप्युक्तकाश्य चालनादाब दृष्टजनककृतिजन्यत्वमियाऽन्निरापर्वम्तुगत्या स्वोपादानगोसस्कृतिजन्यं यत् सम्माछिन्नभेद कूटयफ्वेन काश्यचालनादेरपि पक्षान्तर्गतयात्' इत्याहुः । (कृति में स्वोपादानगोधरस्व का उचित निवेश) सकर्तृ कस्वरूप साध्य को स्वोपावानगोचर बनकटासनक प्रत्यक्षानि जन्यस्व कप में प्रस्तुत किया गया है। अदि शाम के इस प्रस्तुत रूप में कृति में घोपावामगोचरस्व का संनिवेश न किया जायणा सो मवगवावमजन्य शब्द और वायुगात फुजारात में स्वजनक अनुष्ट का मानक परगाविमोचर प्रत्यक्षाषिजन्यत्व सिरहानले श्रा: मिद्धसाधनहोगा। अतः उस के लिये साक्ष्य के शारीर में कृति बांदा में स्वोपावान गोचरत्व का निवेश आवायक है इसी प्रकार मन्त्रविशेष पाठक स्पर्श से उत्पन होनेवालो कादयान को गति में स्त्र के उगवान कोश्यमान को विषय करनेवाली स्पांमनक कृति का अन्यस्य रहने से और अधोमुष कध्वंचरणाविरूप तप की कृति से उत्पन्न होनेवाले कृागशरीरगत गोररूप में स्वोपाधाम धारीर गोधर कृति जारस रहने से प्रशतः सिद्धसाधन होगा । अत: इस वोष के निवारणार्थ साध्य के शारीर में कृति अंश में स्वजनकामटाजनकस्व का निवेश मायापक है। निवेश से उक्त अंशत: मि साबन पोषक गरिसर जाता क्योंकिकाश्यपाल की गति को उत्पन्न करनेवालो कविपरिणी स्पारिका कृषि सगति के जनक अरष्ट का अनक होती हे अमाक महीं होती है। और पूनम शरीर में गौरूप उत्पन्न करनेवाले अधोमुझ वध्वंचरणापि तप की कृति भो सात रुप के जनक अरस्ट का अनकही होतोजनक मही होती है। अतः महिपको उस गति और कृष्णशरीरगत उक्त गौरकप में स्थोपाबानतोवरस्वजनकाटाजनक कृस्मादि लग्यरक सिद्ध न होने से संबस: सिद्धसाधन नहीं हो सकता है। स संभ में यह प्रश्न हो सकता है कि-"साध्य और पम पोनों ही पारीर में स्वोपावान. गोचरस्व का निवेश न किया जाय और उस निवेश के प्रभाव में मुश्वगायिगोचर कृति से उत्पन होनेवाले वादावि को पन से बाह्म इष्टान्त माना जापा, मस: इस के द्वारा है में साध्य के यभिचार हो का कैसे हो सकती है" ?-किन्तु इस प्रकन के उत्तर में यह कहना पर्याप्त है कि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] [ शास्त्रासमुचय स्त० ३ ० ३ अन्ये तु द्रव्याणि ज्ञानेच्छा- कृतिमन्ति, कार्यवात्, , कपालवत् । साध्यता विशेष्यतया हेतुना समवायेन, पक्षता वल्लेदकावच्छेदेन साध्यसिद्धेरुद्देश्यत्वा नशा पक्ष में ष्ट से मित्र किसने व्यापार के द्वारा समवावि की कृतिजन्यता मान लेने पर प्रर्यान्तर की प्रसक्ति होगी। पत: उस के चारण के लिये साध्य के शरीर में स्वोपादानगोचरत्व का निवेश aratre होगा । अमवावि की कृति णु के उपवास को विषय नहीं करती इसलिये प्रश्र को आपत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार साध्य में स्वोभावानगोचरस्य का संनिवेश आवश्यक हो जाने पर पक्ष में भी उस का निवेश करना आवश्यक होगा। अन्यथा मृदङ्गाविवाम से होने वाले शब्द के द्वारा हेतु में शब्द व्यभिचार की शंका की प्रापत्ति होगी। क्योंकि पक्ष में स्वोपावानांच का निवेश न होने पर उक्त शब्द पक्ष वहित हो जाता है और उस में स्वोपश्वानगोचर स्वजनक मष्ठाजनक कृतिजन्यत्वरूप साध्य का सन्देह होता है। इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि यदि मृषङ्गावि से उत्पन्न होनेवाले शम्यादि कर्त्तारूप में भी परमेश्वर की सिद्धि करनी हो तो उसे पक्षान्तर्गत बनाने के लिये पक्ष में स्वोपायान गोचर का निवेश करना होगा, और उस स्थिति में उसमें स्वोशदान मोचरस्य से अटित साध्य के सिद्ध होते से अंशतः सिद्धसाधन की प्राप्ति होगी, अतः उस के वारणाथ साध्य में भी स्वोपावानगीचरस्य का निवेश आवश्यक होगा । इस प्रसंग से यह सुझाव कि-'स्वजनकाटाजनकत्व का संनिवेषा साध्य और पक्ष दोनों में न किया जाय - उचित नहीं है। क्योंकि काश्यपात्र की उषत गति और कृष्ण शरीर से उत्पन्न होनेवाले उक्त गौर रूप के रूप में भी ईश्वर को सिद्धि करने के लिये पक्ष में कृत्यंश में स्वजनकuttarer का निवेश करना होगा और उस स्थिति में साध्य में भी उस अंश के निवेश की वि aruna अपरिहार्य होगी । पायथा उपल गति पर उक्त रूप में अंशतः सिद्धसाधन की प्रापति होगी। यदि यह कहा जाय कि स्वजनक अष्ट को उत्पन्न करनेवालो कृति स्व का जनक नहीं हो साली है कि उसे स्व का कारण मानने में कोई प्रमाण नहीं है। उस बशा में पक्ष में नक मष्टाजनकत्व के निवेश को मावश्यकता न होगी किन्तु शाक में उस का निवेश करना ही होगा । क्योंकि शाद में उसका निवेश न करने पर पूर्व सर्ग के प्रमवादिके ज्ञानजन्यस्व को लेकर में साधन नहीं हो सकता क्योंकि पूर्व सर्गका अस्मवावि का ज्ञान भी धणुकावि के उपादान को विषय नहीं करता तब भी उक्त काश्यपात्र की गति में श्री कृष्णवारी रगत गौर रूप में प्रर्थान्तरकी आपति हो सकती है यमि उन्हें स्वजनक अष्ट को उत्पन्न करनेवाली कृति से जन्य मान लिया जाय। क्योंfe स्वोपावानगोवर कृतिजन्य जो जो वस्तु हैं वे सभी वस्तुओं का भेवकुट उक्त गति और उगत रूप में विद्यमान है। अतः उक्त गति और उक्त रूप मी पक्षान्तर्गत हो जाते हैं । यह मी अन्य विद्वानों का मत है [व्यपक्षक कार्यवत्ता हेतु अनुमान ] अन्य विज्ञान कार्य में सत्व साधक अनुमन का इस रूप में प्रयोग करते हैं कि-'प कृतिमा होते हैं क्योंकि में कार्यवान होते हैं जैसे कपाल । इस अनुमान में मध्य पक्ष है और Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ शास्त्रवाभिमुनय स्त. ३ ० ३ सिद्धसाधनम् । न र बहिरिन्द्रिग्राह्यत्यमुपाधिः, अनुकूलतःण हेतोन्याध्यतानिर्णय सदनरकाशाद । न च त्रिनयस्य मिलिप्तस्य साध्यत्वेऽप्रयोजकत्वम् , मिलितत्वेनाऽहेतुत्यात , प्रत्येक साध्यत्वे ज्ञाने छापरवेन साधने सर्मान्तरीयमानादिना सिद्धसाधनमिति याच्यम् , मिलिनत्वेन साध्यत्वेऽपि कार्यकारणभावत्र यस्य प्रपोजकत्वात् । 'सगांधकालीन दृष्यं ज्ञानपत' कायवाद , पक्षतावच्छेदककालायच्छेदेन साध्यसिद्धः-इत्यप्याहुः ।। जान इच्छा मौर कृति विशेष्यता सम्बन्ध से साध्य है और कार्य समवाय सम्बन्ध से हेतु है। स्पष्ट है कि समवाय सम्बन्ध कोई भी कार्य द्रव्य में ही होता है। और जो कार्य जिस वश्य में होता है उस द्रष्य में उस कार्य के जपावान भूत दृश्य कावान और उसके उपादान मृत द्रव्य में उस कार्य की चिकीर्षा और उस कार्य के उपावासबूत द्रव्य को विषय करनेवाली उस कार्य को विधायिका कृति विशेष्यता सम्बन्ध से रहती है। इस अनुमान में अंशतः सिद्धसाधन की प्रसक्ति प्रतीत होती है क्योंकि पक्ष के मरतगत पानेवाले कपासादि द्रव्यों में घट के उत्पावक नान गच्छा और प्रयत्न विशेष्यता सम्बन्ध से सिद्ध है। किन्तु यह अंशत: सिद्ध साधन इस अनुमान को दूषित नहीं कर सकता, क्योंकि उस में पक्षतावनकी मुत्तमम्पत्वावकोवेन साध्य को सिसि उद्देश्य है। इसलिये पक्षसावमझेदक से प्राकारत होने वाले प्रख्या में परमाणुमार पyकास है बार उ च गुक और ध्यणुक के सत्यापनाच्छाति विशेष्यता सम्बन्ध से सिम नहीं है, क्योंकि परमाण मोर पण अमसावि के जान इच्छा प्रयत्न के विषय नहीं होते है। अतः उन में विशेष्यता सम्बन्ध से ज्ञानेन्छाकृति की सिद्धि ईश्वर के ज्ञानावि द्वारा ही हो सकती है। इस अनुमान में हिरिन्द्रियग्राहस्थ को उपाधिस्य संमाविस है, क्योंकि मानेच्याफतिरूप साध्य विशेष्यतासम्बन्ध से जिन कपासादियों में सिब है उन में बहिरिन्द्रियग्राह्यत्व है। इसलिये वह साध्य काध्यापक है। और कार्यरूप साधन समवाय सम्बन्ध से परमाणु श्रीर इचणुकावि में भी है किन्त उन में बहिरिन्द्रिययाह्यास्त्र नहीं है इसलिये वह साधन का अध्यापक मी है । किन्तु इस उपाधि से प्रस्तुत मनुमान का विरोष महीं हो सकता क्योंकि कार्य को यदि जानेग्लाकृति का श्यामचारो मामा जायगा सो कार्य के प्रति ज्ञानावि की सर्वसम्मत कारणताका लोप हो जायगा। इस अनुकल तक से कापारमक हेतु में मानेच्छाकृति रूप साध्य को ज्याप्ति का निर्णय उपस उपाधि के मारायला नहीं हो सकता क्योंकि अनुकुल तर्फ के अभाव में हो उपाधि-व्यभिचार से हेतु में साध्यश्यभिचार की अनुमति होने से हेतु में साध्य व्याप्ति के निर्णय का प्रतिरोष हो कर अनमितिका प्रवरोध होता है जो प्रस्तुत प्रनुमान में कार्यसामान्य के प्रति ज्ञानेन्वाकृति के सर्वसम्मत कारणता रूप अनुकूलतकं के नाते संभव नहीं है। (मीलित या पुथक् जानावि को साध्यता पर प्राक्षेप) इस अनुमान में यह शंका हो सकती है कि-"सामेन्याकृति' इन तीनों को मीसितरूप में साध्य माना जामगा तो अप्रयोजकाय दोष होगा अर्थात कार्यात्मक हेतु तीनों को मोलित रूप में सिद्ध न कर सकगायोंकि कार्य के प्रति जानेण्याकृति को मीलितरूपसे कारणता मामकर पृथक पृथक ही कारगता मानी जाती है। और यदि तामधागति को प्रसग मला साध्य मामा जाय तो द्रव्य में विशेष्यता Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचन ] 'चित्यादिकं सकतृकं, कार्यत्वात्' इत्येवाऽनुमानम् प्रकृतविचानुकुल विवादविपयत्वेन सिस्यादीनामनुगमः कर्तृकत्वं च प्रतिनियतका निरूपितः संबन्धो व्यवहार सानिको घाटो नित्यवर्गव्यावृत इति नानुपपत्तिः इत्यपि केचित् । チ १७ सम्बन्ध से ज्ञान और इच्छा का साधन करने पर पूर्व लगं के योगिज्ञान और इच्छा को लेकर सिद्धसाधन हो जायगा। क्योंकि पूर्व सर्ग में सामान्य मनुष्यों को परमाणु और धणुक का प्रत्यक्षज्ञान और उन में उधणुक और अणुरूप कार्य की विकीर्षा न होने पर भी योगी को परमाणु और चक का ज्ञान और उन में इयणुक और व्यष्णुरूप कार्य की चिफोर्चा योगबल से श्रवमय हो सकती हैं। इस प्रकार पूर्व सर्ग के योगीजन और योगी की इच्छा को लेकर सिद्धसाधन की प्रसिद्धि होगी ।" feng विचार करने पर यह शंका उचित नहीं प्रतीत होती है क्योंकि ज्ञानेन्द्रकृति को मिति से साध्य मानने पर भी प्रप्रयोजकत्व दोष नहीं हो सकता, क्योंकि जानाकृति तीनों में मोलित रूप से कार्य के प्रति एक कारणता न होने पर भी उन तीनों में कार्य की जो पृथक् पृथक् तील कारणताएँ हैं यह ही प्रयोजक हो जायगी। क्योंकि कार्य यदि मीलित तीनों का व्यभिचारी होगा तो भी उक्त तीनों करताओं के सोप की प्रपत्ति होगी । कुछ विद्वान उक्त आपत्ति के भय से प्रत अनुमान का अन्य रूप में प्रयोग करते है। जैसे सृष्टि के आरंभ काल में स्थित प्रश्य विशेष्यता सम्बन्धसे ज्ञानवान है, क्योंकि उस में समवायसम्बन्ध से कार्य होता है।' इस प्रकार के धनुमान में पूर्वसर्ग योगीमान के द्वारा सिद्धसाधन की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि इस अनुमान में सुष्टि का प्रारंभकाल पचतावच्छेदक है और तरकालावच्छेदेन ज्ञान की सिद्धि उद्देश्य है। सगं का ज्ञाम परमाणु भावि तथ्यों में सृष्टिके प्रारम्मकालावच्छेदेन नहीं रह सकता क्योंकि सष्टि के प्रारंभकाल में पूर्वसर्ग का ज्ञान विद्यमान नहीं होता । [क्षित्यादि पक्षक अनुमान ] कतिपय विद्वान 'कार्य सकतुके कार्यस्यात् इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग न कर 'क्षिस्मादिकं के कार्यवा' इसी प्रकार के अनुमान का प्रयोग करते हैं । उनके अनुसार भित्यङ्कुरादि अनेक कार्यों का प्रनुगम, प्रकल विचार का प्रयोजक जो विवाद, उस विवाद के विषयस्वरूप से हो जाता है। अत: क्षिति प्रावि ताराविवादविषयत्वरूप एक अनुवल धर्म के द्वारा पक्ष बन जाते हैं । इसलिये मिलित्व भङ्कुरस्यादि धमके धमनुगत होने पर भी उन सभी को पक्ष होने में कोई बाधा नहीं होती। उन नोंके अनुसार सकतु कत्वरूप साध्य भी कर्तृ जन्यत्व' या कृतित्व रूप त होकर कर्तृनिरूपित सम्बन्धरूप होता है जो कि प्रमुक कार्य प्रमुककर्तृ मान है। इस व्यवहार से सिद्ध है, और तिथ्य पत्राओं में नहीं रहता क्योंकि मिस्यपदार्थो में कर्तृ मान' इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता। कर्ता का यह सम्बन्ध पद प्राषि दृष्टान्त में सिद्ध है, क्योंकि 'घटक मान घटक मान हल प्रकार का व्यवहार सर्वमान्य है । इस प्रकार सित्यादिकं सकतृ के इस अनुमान से क्षिति अङ्कुरावि कार्यों में कर्ता का निमत सम्बन्ध सिद्ध होता है। और वह सम्प्रस्थ प्रस्मयादि को कर्ता मानकर नहीं उत्पन्न हो सकता। क्योंकि 'सियाविक अस्मादिक के यह व्यवहार नहीं होता । सः उक्तमनुमान द्वारा क्षिस्यादि में कर्तृ सम्बन्ध की उत्पत्ति ईश्वरद्वारा ही की जा सकती है। फलतः उक्त अनुसा द्वारा क्षित्यावि के कर्ता रूप में ईश्वर की सिद्धि निविवाद है । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा वा समुच्चय-स्त ३ ला० ३ आयोजनादपि । 'सगांयकालीनद्वशणुककर्म प्रयत्नजन्यम्, कर्मत्यात् , अस्मदादिकारीरफर्मवत्'- इत्पनुमानात् । परमाणोरेव तारशप्रयत्नवाचे बहताहानिः स्यात् । अष्टं तु तत्र इष्टहेत्वरपेक्ष न हेतुः, तथात्वे दृष्टहनुच्छेदापत्ते, कर्मण एवाऽनुन्प (प्रायोजन-द्वयरणकजनकक्रिया हेतुफ अनुमान ) 'कार्यायोजनधरयावेः' इस पूर्व निर्दिष्ट कारिका में प्रायोजन को मो ईश्वर का अनुमापक बताया गया है। प्रायोजन द्वारा ईश्वर का जो पनुमान अभिमत है उसका प्रयोग इस रूप में होता है कि'सृष्टि के प्रारम्भ काल में उत्पन्न होने वाले धणक की उत्पत्ति जिस परमाणु-कर्म से होती है वह कम प्रयत्न अस्य है, क्योंकि वह एक कम है। जो भी कर्म होता है वह प्रयतजन्य होता है, जैसेप्रस्ववाबिके कारीर में होनेवाला फर्म । प्राशय यह है कि सष्टि के बारम्म में जब तणुक की उत्पत्ति होती है तब मिन परमाणुनों के संघोग से घणुक की उत्पत्ति होती है उन परमाणुनों में से किसी एक परमाणु में ईश्वर के प्रयत्न से कम होता है और उस कर्म में परमाणु का पूर्व ६श के साथ विभाग प्रोर पूर्व देश के साथ विनमान संयोग का नाश होकर दूसरे परमाणु के साथ उसका संयोग होता है। उसके बावे उस संयोग से चणक की उत्पत्ति और उस संमोग को उत्पन्न करने वाले परमाणुकर्म का मारा साथ ही होता है। यदि ईश्वर का अस्तित्व माना जायगा तो वो परमाणुमों में संपोष उत्पन्न करनेवाला कम न हो सकेगा। फलतः इवणुक की उत्पत्ति न हो सकने से सष्टि का निर्माण मसम्भव हो जायगा। प्रतः उक्त प्रनुमान के द्वारा सष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न होने वाले हमणूक की उत्पति के लिये अपेक्षित परमाणवयसपोग को संपन्न करने के लिये परमाण में जो कर्म अपेक्षित है उस कर्म के कारारूप में जो प्रयत्न सिम होता है उस प्रयत्न का माधय कोई जोध नहीं हो सकता क्योंकि सष्टि के प्रारम्भ में जीव प्रशरोर होता है और प्रारीर जीव में प्रयत्न की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः उस प्रयत्न के प्राश्रय रूप में स्वर की सिद्धि प्रावश्यक है। यदि यह कहा आय कि-'वो परमाणों को संघक्त करनेवाला परमाण कम परमाण केशी प्रयत्न से उत्पन्न होता है तो यह टोक नहीं है क्योंकि परमाणु को प्रयत्नवान् मानने पर उसे चेतन ही मानना होगा क्योंकि प्रयत्न को उत्पत्ति वेतन में ही होती है। फलतः परमाणु को अक्ता समाप्त हो जायगी जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि सभी परमाणु चेतन होगे तो जमको अलग अलग पन्छाएं होगी। फलतः उनके विचारों प्राराच्यामों में सामञ्जस्य न होने के कारण उन्म के द्वारा मुष्पयस्थित सृष्टि का निर्माण न हो सकेगा। श्रष्ट से परमारगक्रिया को उत्पत्ति को आशंका पायोजनके प्राचार पर प्रस्तुत प्रकृत अनुमान के सम्बन्ध में पवि यह कहा जाय कि-'सृष्टि के मारम्भ में जपणुक के प्रारम्भक परमाणहय के संयोग का जनक परमाणुकर्म प्रयत्न से नहीं उत्पन्न होला है किन्तु प्रस्ट से ही उत्पन्न होता है। इसलिये प्रकृत प्रनुमाम से ईश्वर को सिधि नहीं हो सकती-तो यह ढोक नहीं हैं, क्योंकि प्रष्ट रष्टाहेतु से निरपेक्ष होकर उस कर्म का कारण नहीं हो सकता। यषि ट हेतु को पपेक्षा किये बिना भी पहष्ट को कारण माना जायगा तो सर्वत्र प्रष्ट से ही सभी कार्यों की उत्पत्ति हो जाने से प्रष्टकारण का सर्वथा लोप हो जायगा । फलतः जिस फर्म को भष्ट से जन्म बताया जा रहा है उस कर्म को ही उत्पत्ति महीं हो सकेगी, मयोंकि वह कम जिस Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विरेचन ] [१॥ तिप्रसङ्गात् । 'येष्टात्यमुपाधि रिति येत ? किं तत् ? 'प्रयत्नजन्य क्रियात्यमिति चेत् । न तत्रैष तस्थाऽनुपावित्वान । 'हिता-अहितप्राप्ति-परिहारफलत्वमिति चेत् । न, विषमक्षणा-ऽहिलयनायव्यापनान् । 'शरीरसमवापिक्रियात्वं तदिनि चेत ! न, मृतशरीगक्रियाया अतथात्वात । 'जीवत' इति पद ? म, ने ला जथामात् । विद्यान्तराऽप्रेरणे सति शरीरकियात्वं तत्, शरीरपदोपादानाद् न ज्वलन-पवनादिक्रियाऽनिव्याप्तिरिति येत १ न, शरीरत्वस्य चेष्टापटिनत्वात् । 'वेष्टाय सामान्यविशेषो, पत उन्नीयते प्रयत्नपूविक्रय कियेति चेतन क्रियामात्रेण तदुभयनात् । परमाणव्य के संयोग के लिये अपेक्षित है वह संयोग सीधे 2 से ही उत्पष हो जायगा । बीच में कर्म की कोई प्रावरपकता न रह जामगो । प्रातः उक्त परमारण कर्म को सीधे परष्ट से जग्य न मानकर प्रयत्न से अन्य मानना प्राचायक है। ( बेष्टात्व उपाधि को प्राशंका ) इस संदर्भ में यह शंका हो सकती है कि-'प्रकृप्त अनुमान घेण्टास्वरूप उपापि से पस्त है क्योंकि चेष्टात्मा कर्मस्वरूप साधम से विशिष्ट प्रयत्नजन्यत्व साध्य का व्यापक है स्योंकि प्रयतनम्य सभी कर्मों में चेष्टाव रहता है, और मापन का प्रयापक है क्योंकि कर्मस्वरूप सापन घटा विगत कर्ममें भी रहता है और पेष्टास्व उसमें नहीं रहता । तोटा साथमावच्छिन्नसाध्य का व्यापक और सापन का अश्यापक होने से उपाधि है। किन्तु वेष्टाव का निधन न होने के कारण चेष्टाय को उपाधि कहमा ठीक नहीं है। असे चेष्टा का अर्थ यदि प्रयत्नजन्यक्रिया किया जाएगा तो साध्य और उपाधि एफ ही हो जायगा । क्योंकि वृष्टि के बारम्भकाल में उत्पन्न होनेवाले प्रचणुक के उत्पावक परमाणद्वष संयोग में जाना परमाणु कर्म को प्रयत्मजन्य मानने पर फलत: प्रयत्नान्यप्रियाको साध्य होता है और वही बेष्टाय है । इसलिए चेष्टास्व अपने ही प्रति उपाधि नहीं हो सकता, साध्य साधन का सापक होता है अतः साध्य से अभिन्न होने के कारण लेष्टाव मो साथम का व्यापक ही होगा। जब कि उपाधि होने के लिये साधन का अध्यापक होना आवश्यक है। यदि यह कहरवास कि-हित की प्राप्ति और हित के परिहार को उत्पाषक किया घेष्टा है। अत: साध्य और बेटाव में अब हो जाने से चेष्टाप के उपाधि होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। तो यह ठीक नहीं हैं. गयोंकि विषभक्षण रूप किया और सपलंघन रूप क्रिमा भी चेष्टा है । किन्तु घेष्टा का उयत प्रकार से निर्वसन करने पर विभाग और पलान कप क्रियाएं चेष्टाम हो सकेगी, क्योंकि विषमग गावि क्रियाएँ मस्यू का जनक होने से हिल परिहार को अतक नहीं है। शरीर में समवाय HERE पहने वाली क्रियाकामाम बेटा - इस प्रकार भी वेष्टा का निर्वचन उचित नहीं हो सकता क्योंकि मत शरीर में किसी स्पर्धावान वेगवामय के संयोग से उत्पन्न होने वाली क्रिया भी चेष्टा के उक्त निर्वचनको परिधि में आ जाने से वह भी चेष्टा प्रम मे व्यवहस होने लगेगी। जोषित शरीर में सम. बाय सम्बन्ध से रहने वाली क्रिया चेष्टा -स रूप में भी चेष्टा का निकन नहीं हो सकता क्योंकि मंत्र का स्पश्वन मौर बातम्याधि से हस्तपादावि में होने वाला कम्पन भी वारीरसमवेत क्रियाला होने से चेष्टा हो जामगी। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [शाबा समुचय ०३लोक-३ श्रुतं ब्रह्माण्डादिपतनाभावः पतनप्रतिबन्धकप्रयुक्तः धृतित्वात् उत्पतत्पत िपतनाभाचन्तु यमलोकपालयतिपादका आगमा अपि व्याख्याताः तेषां तदधिष्ठान देशानामीश्वरादेशेनैव पतनामावश्यात् । तथा च धुतिः " एतस्य चामरस्य प्रशासनं गार्गी यावापृथिवीविते निवतः" इति । प्रशासनं उण्डभूतः प्रयत्नः आवेश स्तरीरावयवत्वमेव सर्ववेशनिबन्धन एवं सा स्म्यव्यवहार इति "आत्मैवेदं सर्वम्, मेवेदं सर्वम्" इत्यादिकम् । " . यदि यह कहा जाय कि स्पर्शवान् अस्य य के संयोग के बिना उत्पन्न होने बालो शरीर को क्रिया चेष्टा है तो यह भी ठोक नहीं है क्योंकि इस निर्वचन में शरीर पदा पण होने से पद्यपि जवलन और पवन आदि की क्रिया में नेष्टा का वारण हो जाता है क्योंकि वह क्रिया अस्पर्शवान् अन्यथ्य के संयोग से अनुत्पन्न होने पर भी शरीर समन नहीं होती क्योंकि ज्वलन और पवन किसी का शरीर नहीं है, तथापि चेष्टा के दस नियंचन में शरीर का शरीरश्न निवेश है और शरीर चेष्टाश्वयस्वरूप है। इसलिये बेटा के लक्षण में चेष्टा का प्रवेश हो जाने से आत्मवशेष लगेगा यदि यह कहा जाय कि-'ष्टा एक सामान्यविशेष=परम्परा काति है, जिससे वायर प्रयत्नपूर्वि का यह किया प्रयत्नजन्य हैं क्योंकि पेष्टारू है' यह अनुमान होता है' । -तो यह ठीक नहीं हैं क्योंकि क्रिया में प्रयत्नपूर्व का अनुमान क्रिया के सामान्य रूप किमत्व से भी हो सकता है। अत: क्रिया मे मनपूर्वकस्व की अनुमापकता के अच्छेजक रूप से भी चेष्टा को सिद्धि मानकर सामान्य विशेष रूप में चेष्टाव का निर्वाचन नहीं हो सकता। आशय यह है कि ०१के मत में सभी किया में ईश्वरप्रस्नपूर्वक होने से क्रियात्व मी प्रयत्नपूर्वकरण का स्थाप्य हो सकता है। इसलिये क्रियाश्य से ही प्रयत्नपूर्वकरण का अनुमान हो सकने के कारण प्रपत् के अनुमापका रूप में वेष्टाश्व को मान्यता नहीं प्रदान की जा सकती। (ब्रह्माण्डभृति- पतनाभावपक्षक अनुमान ) तेरपि पति से भी ईश्वर का अनुमान होता है। पति का अर्थ है पलन का प्रभाव । उस से होनेवाले अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होता है जैसे- ब्रह्माण्ड मादि गुरुवयों के पतन का प्रभाव पतन के किसी अधिक से प्रयुक्त है क्योंकि वह गुरु द्रव्यों के पतन का प्रभाव रूप है। गुरुव्यों का जो तनाव होता है वह पतन के किसी प्रतिबन्धक से प्रयुक्त होता है जीसे उड़ते हुए पक्षी के पतन का प्रमाण उस पक्षी के प्रयत्न प्रतिबन्धक से प्रयुक्त होता है एवं उडते हुए पक्षी से पकडे हुए तृणादि के पतन का प्रभाव तृण के साथ उस पक्षी के संयोगरूप प्रतिबन्धक से प्रयुक्त है। आशय यह है कि जिस द्रव्य में गुरुश्य होता है उस का पतन अर्थात् नीचे की ओर गमन होता है, यदि स्थानविशेष में उस को रोक रखनेवाला कोई पदार्थ न हो। इस रोकनेवाले पचार्थ को ही पतन का प्रतिबन्धक कहा जाता है जैसे वृक्ष की शाखा में लगे हुए फलों का गुरुत्व होने पर भी पतन नहीं होता क्योंकि शाखा के साथ फल का संयोग फलको रोक रखा है उस में पतनक्रिया उत्पन्न नहीं होने देता है। इसी प्रकार अब कोई पक्षी माकाश में उड़ता हुआ होता है तो उस उडते हुए पक्षी के शरीर में भी गुवत्व है। इसलिये उस गुरुश्य के कारण उस का पतन हो जाना चाहिये किन्तु उस का पतन Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. टीका-हिनीविवेचना ] इसलिये नहीं होता कि पक्षी का शरीर पक्षी की आत्मा में विद्यमान प्रयत्न से पारिस रहता है। अर्थात् पानी की प्रारमा का प्रयत्न स्थाश्रमसंयोगसम्बन्ध से अथवा प्रवाहवकता सम्बन्ध से पतन का प्रतिवन्धक होना है। इसीप्रकार नाफाश में उड़ते हुऐ पक्षी द्वारा पोंच में रखे हुए कारण प्रभवा फल प्रावि में भी गुरुत्व है और गुरुत्व के कारण उस का भी पतन हो जाना चाहिये किन्तु उस का पतन इसलिये नहीं होता कि उनके पतन का कोई न कोई प्रतिबन्धक है। इसी प्रकार ब्रह्माण्डावि प्रय भी गुरु है, अतः गुरुत्व के कारण उनका भी अपने स्थान से पतन हो जाना चाहिए किन्तु ऐसा महीं होता प्रपितु वे अपने निश्चित स्थान में अवस्थित रहते है । अतः उन के पतन का भी विरोमो कोई न कोई होना चाहिये । ब्रह्माण्डावि किसी जीय का शरीर नहीं है इसलिये उड़ते हुए पक्षों के शरीर के समान उस का धारण संजय नहीं है। किन्तु असे उड़ते हुए पनी द्वारा पक गये तृपकाष्ट माविका धारण प्रयत्नशील पक्षो के संयोग से होता है उसी प्रकार ब्रह्माण्ड प्रावि का मो धारण किसी प्रयत्नशील के संयोग से ही मानना होगा । वह प्रयत्नशील कोई जीव नहीं हो सकता क्योंकि जीव में प्रमल्न का उबम जीवके शरीर होने पर ही होता है और बह्माण्ड तो जीव के सशरोर होने के पूर्व भी रहता है। अतः एवं उसे किसी ऐसे ही पुरुष के संयोग से पारित मानना होगा जो पुरुष शरीर के बिना भी प्रयत्नवान हो सके। इस प्रकार के प्रयास से मारा गरौं हो पाता वह ईश्वर से अन्य कोई नहीं हो सकता। (इन्द्रादि देवताओं से सिद्धसाधनता को प्रासंका) भागमो-गुरगणानिशास्त्रों में इन्न, अग्नि, यम आदि देवताओं को लोकपास कहा गया है। मर्थात उन्ह निन्न भिन्न लोक का थारक बताया गया है। श्विर को ब्रह्माण्डावि का धारक मानने पर यह समस्या करती है कि जिन लोगों का धारक इन्द्रापि बेक्तामों को बताया गया है उन का धारण मी ईश्वर से हो सो आयमा । फिर उन लोगों के धारणार्थ इन्द्रादि देवतानों की कल्पना अनावश्यक है, प्रथवा इस प्रकार की समस्या हो सकती है कि घागमों के अनुसार इन्द्राव ऐकसानों के द्वारा हो संपूर्ण लोक का धारण होमे से उनके सामूहिक प्रयत्न ले बाह्माण्ड का भी धारण हो सकमे के कारण ब्रह्माण्ड प्राधि के पारण के निमित्त श्विर की कल्पना प्रनावश्यक है ।किन्तु इन समस्याओं का समाधान प्रत्यंत सरल है। और वह यह है कि इन्मादि देवतापों से धारण किये गये लोकों का मो घारक ईश्वर ही है। न्यादि में उन लोकों के धारण करने को जो बात कही गई है वह मो जनदेवतामों में विर के माबेस पर निर्भर हैं। अभिप्राय यह है कि ईश्वर ही इन्त्रीवि पारीर में अन्विष्ट हो कर समस्त लोकों का धारक होता है। यदि ईश्वर का अस्तित्व न हो तो इन्द्रादि भी उन उन लोकों के धारण में उसी प्रकार समय नहीं होता। देव मी ईश्वर को ही अलोक पृथ्वीलोक प्रादि का धारक बताता है। जैसे एतस्य च प्रक्षरस्य प्रशासमे गायों यात्रापथियो बिधत सिष्ठतः।' इस वेद बापय में गाना नामक महिला को सम्मोषित कर यह कहा गया है कि कभी भी अपने स्वरूप से व्युतम होनेवाले परमेश्वर के प्रशासन में होघ लोक और पपयो लोक अपने स्थल से पतित न होते हुए स्थित है। इस में प्रकासिन का मर्य धारण करनेवाला प्रयत्न है। इस प्रकार वेद के अनुसार समस्त लोकविर के प्रयत्न से हिपारित है यह सिश होता है । ममी को यह बात कही गई कि बन्द्रावि देवता में ईश्वर का प्रावेश होने से जन में लोकधारकत्व माना जाता है। उस में मावेश का मथं खातिरीर के द्वारा प्रस्नमान Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा.था, समुरुपय क्त-३ श्लोक-३ आदिना नाशादपि, 'नशाण्डनाशः प्रयत्नजन्या, नाशचात • पाट्यमानपटनाशषद् इति । महना सहगत नहीं प्रतीत होता फिन्तु कथन का यह भाशय है कि घर के प्रयत्न से इन्द्रादि शरोर में लोकधारक उमापार का उदय होता है और उस व्यापार से लोक का धारण होता है । उस के प्रमुसार इन्धादि में ईश्वर का प्रावित होने का अर्थ है जवादि के पारीर को अपने प्रयत्न से सक्रिय बनाना। ईश्वर का श्रावेश केवल इन्वावि देवताओं में ही नहीं होता अपितु संपूर्ण पदार्थों में होता है। इसीलिये ईश्वर में संपूर्ण पाथों के तादारभ्य का अथवा संपूर्ण पदार्थों में रिवर के तादात्म्य का व्यवहार होता है। जैसा कि 'पारमय स-यह सब कुछ पात्मा ही है। महर्मवेवं सम्' यह संपूर्ण जगर ब्रह्मस्वरूप ही है इत्यादि शास्त्रवचनों से स्पष्ट है। अभिप्राय यह है कि जसे शरीर में प्रात्मप्रयत्न से क्रिया का उदय होने के कारण शरीर को प्रात्मा से माविष्ट मानकर शरीर और प्रात्मा में 'स्थलोहं करोमि इत्यादि सम्बन्ध से तावास्यरूप पबहार होता है। उसी प्रकार ईश्वर के प्रयत्न से संपूर्ण जगत् में प्रवस्थिप्ति रूप क्रिया का जश्य होने से संपूर्ण जगत में ईश्वर का पार्षिश होता है और अस से 'ब्रहमवेवं सई' इस प्रकार संपूर्ण जगत् में ईश्वर के तावास्म्य का व्यवहार होता है। (ब्रह्माण्डप्रलय से इश्वर की सिद्धि का अनुमान) कार्यायोजनधत्पा-इस पूर्व चित कारिका में भृति' शव के साथ 'प्रावि' शब्द पठिन है। अस पाविशय से नाराहप बर्थ की सूचना होती है । इसलिये इस कारिका से यह भी मान होता है किमा कहिप में भी ईश्वर की प्रतीति होती है। जैसे घर पर प्रादि काना तो सामान्य मनुष्यों के प्रमान से भी हो जाता है। किन्तु ब्रह्माण जिस में प्रनेक विशाल लोक प्राधित है उसका नास भी शास्त्रों में बरिणत है। वह नाश सामान्य मनुष्य के प्रयत्न से नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बई बझापाको रचना की विधि जैसे सामान्य मनुरुय को हात नहीं होती उसी प्रकार उस के नाश की विधि भी सामान्य मनुष्य को ज्ञात नहीं हो सकती इसलिये बह्माण्ड के नाश के लिये प्रयत्नशील होने का स्वप्न मी वह नहीं देख सकता । अत: उस ब्रह्माण्ड का नाम जिस के प्रयत्न से हो सकता है वह घर से अतिरिक्त कोई नहीं हो सकता । ब्रह्माण्डनापा द्वारा होने वाले अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होता है कि-ब्रह्मानाषा प्रयत्न से जन्य है पोंकि वह नाश है । जो मी नाका होता है वह प्रयत्न से साय होता है। जैसे पट के टुकार पारने पर होनेवाला पट का नाश ।' इस अनुमान में पनाऽसिद्धि को शंका नहीं की जा सकती क्योंकि ब्रह्माण्ड का नाश शास्त्रों में बरिणत है । अथवा 'बह्माखम नाशप्रतियोगी, अन्यभाषत्वात् ब्रह्माण्ड भी बट होता है क्योंकि यह जन्य भाव है, जो मो जम्म भाव होता है वह नष्ट होता है-असे घटपटादि' । इस पनुमान से भी ब्रह्माण्ड का माश सिद्ध है। अतः एव पक्षाऽसिद्धि नहीं हो सकती । शंका-'पट समूह के ऊपर जलता हुमा महमारा पड जाने पर पट समूह का माण हो जाता है. समुद्र में तूफाम या भूकंप माने पर सहस्रों भवन माविका माश हो जाता है। यह नाश किसी प्रयत्न से नहीं होता यह स्पष्ट है। इसलिये इस प्रकार के माशों में नाशत्व प्रयत्मजन्यस्य का स्यभिचारी हो जाता है। अतः मासत्व हेतु से ब्रह्माण्ड माश में प्रयत्न अन्यत्व का अनुमान अशषम है।"-स प्रकार की शंका नहीं की जा सकती क्योंकि ईश्वरवावी ऐसे माशों को मो ईश्वर प्रयत्न से ही सम्पन्न मानते है। अत: ऐसे नाश मी पक्षतुल्य होते हैं। अतः एष उनके द्वारा नाशक को प्रयस्तजन्यस्व का व्यभिचारी नहीं कहा जा सकता। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ श्या०० टीका-दीन ] पदापि पद्यते गम्यतेऽनेनेति पदं व्यवहारः ततः 'घटादिव्यवहारः स्वतन्त्र - पुरुषप्रयोज्यः व्यवहारत्वात् बाडुलिपि पूर्वकुलालादिने वाऽन्यथामिद्धिः प्रलयेन सच्छेिदात् । " [ व्यवहार प्रयत्तक रूप में ईश्वरसिद्धि ] ▾ पत्र से भी ईश्वर का अनुमान होता है । पद शब्द की व्युत्पत्ति है 'पराते गम्यते ज्ञायते श्रनेनेति । अर्थात् जिस से पदार्थ ज्ञात हो उस का नाम है पर इस व्युत्पत्ति के अनुसार पत्र शब्द का अर्थ है हार और व्यवहार का अर्थ है लबू लबू अर्थों में परम्परा से प्रयुक्त होनेवाला तल शब्द जैसे घटरूप अर्थ में सुदीर्घ परंपरा से प्रयुक्त होनेवाला घट शव एवं पट रूप अर्थ में सुवीर्थ परंपरा से प्रयुक्त होनेवाला शब्द आदि । इस पयार के द्वारा जो ईश्वरानुमान प्रमित है उस का प्रयोग इस प्रकार होता है-घट दि प्रयों में प्रयुक्त होनेवाला घट परादि शब्दरूप व्यवहार किसी स्वतस्त्र पुरुष से प्रवर्तित हुआ है क्योंकि वह व्यवहार है। जो मो व्यवहार होता है यह सब किसी स्वतंत्र पुरुष से प्रतीत होता है। जैसे श्राधुनिक मनुष्यों द्वारा कन्त मावि वर्णों के लिये कल्पित त्रिपि" । आशय यह है कि जैसे कख प्रावि वर्गों के लिये विशेष प्रकार की लिपि का व्यवहार किसी श्राधुनिक स्वतंत्र पुरुष के द्वारा प्रचारित होता है उस प्रकार घट पावि प्रथों में घट मावि शब्दों का प्रयोग व्यवहार भी किसी स्वतन्त्र पुरुष के द्वारा प्रवर्तित होना चाहिये और वह पुरुष कोई प्राधुनिक नहीं हो सकता, क्योंकि यह व्यवहार अनादिकाल से चल रहा है। अतः इस अनादिकाल से प्रवृत व्यवहार के प्रारंभ में जो पुरुष रहा हो वह ही उस का प्रवर्तक हो सकता है। आधुनिक पुरुष तो घट भावि प्रथों में घट आवि शास्त्र का प्रयोग अपने पूर्ववर्ती पुरुषों से शीलकर करते हैं। वह उस के स्वतन्त्र प्रवर्तक नहीं होते हैं। उस का स्वतन्त्र प्रवर्तक यही कहा अध्यगा जिस को घट आदि प्रयों में घट आदि शब्द के प्रयोग करने की शिक्षा लेने को अपेक्षा नहीं होती किन्तु वह स्वयं निर्धारित करता है कि घटादि श्रयों को बताने के लिये घट यादि शब्दों का प्रयोग होना चाहिये। (कुलालावि से हो अन्यथासिद्धि की आशंका ? इस संदर्भ में यह शंका हो सकती है कि- 'जो जिस वस्तु को बनाता है वह इस वस्तु का नाम निर्धारित करता हैं। जैसे आधुनिक मन्त्रावि को बनानेवाला मनुष्य उस का कोई नाम निखिल करता है। उसी प्रकार घट आणि वस्तुक्रों को निर्माण करनेवाला मनुष्य ही जन के घट मावि नामों को निर्धारित करता है इस प्रकार घट का निर्माण करनेवाला प्रथम कुम्हार हो घट व्यवहार का और पट का निर्माण करनेवाला प्रथम जुलाहा ही पद व्यवहार का मूल प्रवतंक है। इस प्रकार कुलाल बाय इत्यादि आधुनिक मनुष्यों द्वारा हो घटपटादि व्यवहार का प्रवर्तन संभव होने से उस के मूल प्रवर्तक के रूप में ईश्वर की कल्पना नहीं हो सकती। किन्तु यह शंका उचित नहीं है क्योंकि शास्त्रों में सृष्टि के निर्माण और प्रलय दोनों की चर्चा है। और अनुमान से मो सृष्टि का प्रलय के बाद होना सिद्ध है। जैसे 'वर्तमानं स्थूलद्रव्यात्मकं जगत् यसन्तानशून्यंः उपादानकारणेः उपस्थूलता प्रदीप्तवासात ।' इस से यह सिद्ध होता है कि प्रलय के बाद नई सृष्टि का निर्माण होता है। छतः एव उस में घटपट मावि की प्रथम रचना प्राधुनिक कुलालादि से Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] । रा. पा. समुरुषाय स्ना -इलो ३ प्रत्ययताप्रमापा, 'षेदजन्यप्रमा चक्लपधार्थवाक्यार्थज्ञानजन्या, शाब्दप्रमावाद, आधुनिकवाक्यजशादप्रमायत् । श्रुतरांप । येदोऽपारिपुरुपप्रणीतः, वेदत्वान , इनि व्यनिरिणः । न च परमते साध्याऽप्रसिद्धिः, 'आत्मस्वमसंसारिकृति, जातियात्' इत्यनुमानेन पूर्व साध्यसाधनात् । संभव नहीं है क्य... नाक कुताय को ... मरने ना उस के निर्माण की विधि दूसरे से शीखनी होती है । अतः सष्टि के प्रारंभ में घट माविका प्रथम निर्माण करनेवाला बही पुरुष हो सकता है जिस को उस का निर्माण करने के लिये किसी दूसरे से शिक्षा लेने की पावस्यकता न हो। ऐसा पुरुष ईश्वर ही हो सकता है । इसलिये ईश्वर ही घट आदि का प्रथम निर्माता होने से घट प्रावि व्यवहार का मूल प्रवर्तक हो सकता है । विच के प्रमात्मक ज्ञान से वश्ता इंश्यर की सिद्धि] प्रत्ययतः-प्रत्यय से भी ईश्वर का अनुमान हो सकता है। प्रत्यय का अर्थ है प्रमा अर्थात प्रथार्थ ताम-इस ले होनेवाले अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होना है जैसे-वेद से उत्पन्न होनेवाली प्रमा वक्ता के यथार्थ वाफ्याचंझान से उत्पन्न होती है। क्योंकि यह पाद से उत्पन्न होनेवाली प्रमा है। जो प्रमा पाद से उत्पन्न होती है यह बक्ता के यथार्थ वा माझान से ही उत्पन्न होती है। जैसे आधुनिकबाश्य से उत्पन्न होनेवाली प्रमा। प्राशय यह है कि मनुष्य को जब कोई जान उत्पन्न होता है तब उस ज्ञान का सक्रमण करने के लिए अर्थात् उस माः को दूसरे मनुष्य तक पहुंचाने के लिये यह दापय का प्रयोग करता है और उस वायय से दूसरे .. उसी प्रकार का मान उत्पन्न होता है जिस प्रकार के मान का सक्रमण करने के लिये यवता मे वाक्य प्रयोग किया हो । यदि वक्ता का मान अयथार्थ होता है तो उस ज्ञान का संक्रमण करने के लिये प्रयुक्त होनेवाले यात्रय से उत्पन्न होनेवाला माम मी ममथार्थ होता है। और यति वक्ता का नान यथार्थ होता है तो उस के वाश्य से श्रोताको जत्पन होनेवालाजान पयार्य होता है इस प्रकार वाक्य से यथार्थजाम काजन्म यवता के यथार्थ घावयार्थज्ञानपर निर्भर है। वेव भी वाक्यस्वरूप है। अतः एव उस से उत्पन्न होनेवाला जान यथार्थ तभी हो सकता है जब वेश्यक्ता को वेदार्थ का यथार्थ ज्ञान हो । यत: वेद से होनेवाला जान यथार्य ज्ञान माना जाता है मत: यह मानना पावश्यक है कि वेद वक्ता को घेवार्य का यथार्थ मान है। घश यथार्षमान प्रामिक क्षमता को नहीं हो सकता। क्योंकि मानिक वयता को जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष अनुमान प्रावि प्रमारणों से ही होता है और स्वर्गफामो यजेत' इत्यादि वेदवाक्यों के अयं ज्ञान को प्रत्यक्ष अनुमान प्रावि से नहीं उत्पन्न किया जा सकता । मत: यह मानना प्रावश्यक है कि बेक का बरसा कोई असा पुरष है जिसे प्रत्यक्ष मनुमान मावि साघमों के बिना ही वेवाय का पथार्थशान हो जाता है। इस प्रकार जिस पुठष के वार्य विषमक यथार्थनान वारा वेव से होने पालो यथार्थ बुद्धि का उदय हो सकता है वह पुरुष ईबर से अन्य नहीं हो सकता। [वेद किसो प्रसंसारी पुरुष से जम्प है] पुति-वेद से भी ईश्वर का मनुमान होता है । और वा अनुमान श्यतिरेकी होता है। उसका प्रयोग इस प्रकार होता है-जैसे 'बेव प्रसंसारी पुरुष नारा रचित है क्योंकि वह पेव है। जो प्रसंसारी पुरुष से रचित नहीं होता वह बेच नहीं होता-जैसे प्राधुनिक कामयादि । -इस अनुमान में यह का हो सकती है कि-'संसारी पुरुष की सत्ता में कोई प्रमाण न होने से 'प्रसंसारो पुरुष से रचित होना Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका और हिन्दी विवेचना ] बाक्यादपि । वेदः पौरुषेयः, वाक्यत्वात् , भारतवत् इत्यन्वयिनः । संख्याविशेषा-थणुकपरिमाणजनिका संख्या, ततोऽपि ! 'इयं संख्या, अपेशाबुद्धिज. न्या, एकत्वाम्पसंख्यात्वाव, इत्यस्मदापेक्षायुद्धमान्यत्वादतिरिक्तापेक्षावृद्धिसिद्धौ नदाश्यतयेवरसिद्धः 1 न चाऽसिद्धिः, 'हयाकपरिमाणं संख्याजन्यम् : जन्यपरिमाणस्वात् + घटादिपरिमाणवत् । । न वा दृष्टान्तासिद्धिः, द्वि-कपालादिपरिमाणात् त्रिकालादिपटपरिमाणोस्कादिति दिग। रूप साध्य प्रसिद्ध है। किन्तु विचार करने से यह शहका उचित नहीं प्रतीत होती है क्योंकि असंसारी पुरुष अनुमान प्रमाण से सिंत हैं। जैसे-'प्रात्मत्य प्रसंसारी में विद्यमान है, क्योंकि यह जाति है ।मो मी जाति होती हैबरसंसारी में विद्यमान होती है जैसे घरव पटवमादिजाति ।' आशय यह है कि संसार का अर्थ है मिम्मामात या मिष्याशामजन्यवाप्सना प्रयवा शुभाश बन्ध । यह संसार चेतरगत होने से घट्पटावि में नहीं रह सकता । अत एव घटपटादि प्रसंसारी कहा जाता है। घटस्व-परत्व जाति प्रसंसारी घट आदि में रहती है। तो जैसे घटत्व पटस्थ जाति होने सेप्रसंसारी में विद्यमान मोती चोप्रात्मस्व-पश्यरक्षको भी जाति होने के कारण असं विद्यमान होना चाहिये। और यह सत्री हो सकता है जब किसी पुरुष को प्रसंसारी माना पयोंकि प्रात्मय पुरुष का ही धर्म है, पसंसारी घटपटावि का धर्म नहीं है । इस अनुमान से प्रसंसारी पुरुष सिद्ध है। अतः साध्याउप्रसिद्धिकी शाहका नहीं हो सकती है। (पाक्य पक्षक अनुमान] वाक्य से भी घर का अनुमान होता है और वह अनुमान प्रन्ययो होता है । जैसे, घेव पुरुष से रचित है क्योंकि वह वाक्य है। जो भी बाप होता है वह पुरुष से रचित होता है जैसे महाभारत-रामायण प्रावि । इस अनुमान में मान्यत्व हेतु है। इसलिये उसे समझ लेना प्रावश्यक है अन्यथा उस में इस आधार पर इस प्रकार के व्यगिधार को शहका हो सकती है कि कोई ऐसा मो वामय हो सकता है जो पुरुष से रचित नहीं होता।' जिज्ञासाहोती है कि चाम्य का ऐसा स्या प्रम है कि जिप्त से पुरुष से अरवित काप की संभावना न हो । उत्सर यह है कि वाक्य ऐसे पों के समूह को कहा जाता है जो पर्व परस्पर मैं साकाक्ष हो, एकदूसरे से प्रसन्न हो, योग्यार्थक हो और किसी विशिष्ट प्रर्थ का बोध कराने की ईसया से प्रयुक्त हो। तो इसप्रकार वाक्य लक्षण के गर्भ में वाक्मार्थ बोषन की इच्छा के प्रविष्ट होने से बिना पुरुष के कोई पाप नहीं हो सकता। क्योंकि विशिष्टार्थ गोषन को इच्छा पुरष में ही समय है पीर उस के बिना वाक्य की निष्पत्ति मशक्य है। (वयणकपरिमारगोत्पादकसंख्याजनक अपेक्षाबुद्धि से ईश्वरसिद्धि) संख्या विशेष से मी ईश्वर का पनुमान होता है और वह विशेष संख्या है घणुक में परिमाग को खत्पन्न करनेवालो परमाणुगत हिस्व संख्या । उस संख्या से होनेवाला मनुमान का प्रयोग इसप्रकार होता है जैसे "धणुक परिमाण की उत्पत्रिका परमाणुगत हित्वसंख्या मपेक्षावृद्धि से अन्य है, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा प्रा० स मुनभय स. ३. श्लोक ३ पयोंकि वह एकत्व से भिन्न संलया है। एकरण से भिन्न जो मी संख्या होती है वे सभी अपेक्षाकृति से जय होसी है जैसे वो घटो में रहने वालो नत्व संध्या 'अयमेक घटः प्रयमेक घटः' इस पेक्षाशि से उत्पन्न होता है।" इस प्रनुमान से यह सिद्ध होता है परमामों में भी 'प्रयमेकः परमाणः प्रथमेकः परमाणुः' इस प्रकार की प्रपेक्षाशी और जाम में लगे नाता बिस्द ममा परिमाण को उत्पन्न करता है। परमाणुमों में होने वाली यह अपेक्षाअदि जीवों में समय नहीं है क्योंकि जीवों को परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता । यदि अनुमान प्रावि मे परमाणुनों में अपेक्षाबुद्धि की कल्पना की जाय तो वह भी तष्टि कामारंभकाल में संभव नहीं है । वमोंकि पुष्टि के चार मकाल में जो मुघणुक उत्पन्न होगा उसमें परिमाण उत्पन्न करने के लिये उस समय परमाणु में द्वित्व को पावश्यकता होगी और उसकी उत्पत्ति के लिये उसी समय परमाण प्रों में अपेक्षाद्धि अपेक्षित है। और उस समय जोयों के धारीर न होने से जीवों में बुद्धि को उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। इसलिये परमाणुनों में ईश्वर की ही अपेक्षा माननी होगी। ईश्वर के बिना परमाणमों में अपेक्षापद्धि न होने से उन में द्वित्व की उत्पत्ति हो सकेगी और विश्व के प्रभाव में द्वमणक में परिमाण न उत्पत्र हो सकेगा। [सुभगक परिमाण में संग्याजन्यत्य पर प्राशंका] इस अनुमान में यह शङ्का हो सकती है- यकपरिमाण के संख्या के जन्यस्व में कोई प्रम ण न होने से दुचणुकपरिमारणजनक परमाणगानव संख्या रूप पक्ष प्रसिद्ध है'-किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि अनुमान से उमत संख्या सिद्ध है अंसे घणूक का परिमाण संख्यामन्य है, क्योंकि यह अन्परिमाण है । जो अन्य परिमाण होता है यह संख्या से जन्य होता है जैसे घटावि का परिमाण । यवि यज्ञकहा जाय-"इस प्रमुमान में हटान्त प्रसिद्ध है क्योंकि घट प्रादि का परिमागा कराल प्रावि के परिमारण से उत्पन होने के कारण संख्याजन्य नहीं होता-" तो यह ठीक नहीं है, बोंकि परिमारगजन्य परिमाग को भो संझ्याजन्य मानना प्रावश्यक है । अन्यथा समान परिमाणवाले दो कपालों से उत्पन्न होने वाले घर के परिमाण से समान परिमारण वाले तीन फपालों से उत्पन्न होने वाले घटका परिमाण अधिक न हो सकेगा। क्योंकि दोनों घों के परिमाण को उत्पत्र करने वाले कपाल परिमाण समान ही है। और जब परिमाणको मण्णाजन्म माना जाएगा तो पूर्वघट का परिमाण कपालगत द्विस्व संख्या से उत्पन्न होगा और पसरा घटकपालगत घिस्य संख्या से उत्पन होगा। त्रिस्व संख्या विश्व संख्या से बडी होती है। इसलिये पित्व संख्या से उत्पन्न होनेवाले द्वितीयघट के परिमारण का जिस्वसंख्या में उत्पन्न होनेवाले पूर्वघट के परिमारण की अपेक्षा अधिक होला युक्तिसङ्गत हो सकता है। इस प्रसङ्ग में यह शङ्का हो सकती है-'सुपणुकपरिमाण संख्याजन्यम्' इस अनुमान में पक्ष प्रसिद्ध है क्योंकि घणुक के परिमारण होने में कोई प्रमाण नहीं है। परन्तु कित्रित विचार करने से यह शङ्का मिरस्त हो जाती है क्योंकि पाक में परिमाण और उस परिमाण में जन्यता दोनों ही मनुमान प्रमाण से सिद्ध है जैसे 'बघणक परिमाणवत् वध्यत्वात् और धरणकपरिमाणं जम्मं जन्पद्रव्यपरिमाणस्वार' प्रचणुक में अन्यत्रव्यत्य के प्रसिद्धि की काया नहीं की जा सकती क्योंकि वषणुक जन्यवृष्यं सावयषावात' इस अनुमान से जम्यवघरव सिद्ध है। उधणुक में सावयवत्व की प्रसिद्धि की भी शक नहीं की जा सकती क्योंकि यह मी घणुकं साबय प्रत्यक्षद्रव्याभपत्वात् कपालाविवर' इत्मावि अनुमान से सिद्ध है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या ८० टीका हिन्दी विवेचन] [ २७ __अथवा, कार्यवान्पयं वेदे यस्य तन , स एवेश्वरः । आयोजन महारूषा, 'वेदाः फेनचिद् व्याख्याताः, महाजनपरिंगटीतवाक्यत्यान् । अव्याख्यातरवे तदानवगमेग्ननुष्ठानापः, एकदेशशिनोऽस्मदादश्च व्याख्यायामविश्वासः इति नव्याख्य येश्वरसिद्धिः । धृतिर्धारण मेधारूपज्ञानम् , आदिपदायोंऽनुष्ठानम् ततोऽपि । 'वेदा वेदविषयकजन्यधारणान्यधारणाविषयाः, अतिवाक्यत्वान् । लौकिकवाक्ययन । यागादिकं यागादिविषयकजन्यज्ञानाम्यज्ञानवदनुष्ठितम् , अनुहिनन्यान् गमनवत' इनि प्रयोगः । पदं प्रणघेश्वदिपदम् , नसार्थक्यात स्वतन्त्रोच्चारयित. शयन 'शुन्यादिस्थाऽहंपदाद् वा । न घेश्यरादिपदम्य म्यपरना, "सर्वज्ञता तृतिरनादियोधः स्वतन्त्रता नित्यमनुप्रशक्तिः । अनन्तशक्तिक विमोर्विधिज्ञाः 'पदन्तर छुगाणि माहेश्वरस्य ॥ 1 ॥ इत्यादिवाक्यशेषेण 'ईश्वरमपानी' इत्यादिविधिम्थेश्वगदिपदविनग्रहात् , यशा ययादिपदस्य "वमन्ते सर्वसम्यानां." इत्यादिवास्यशेषाचनक्तिग्रहेण म फगवादिपरना। ['कार्यायोजन' कारिका की अन्य प्रकार से योजना] कार्यापोजन त्याधि कारिका से बलर अनुमान करने का दूसरा भी प्रकार चित होता है जैसे कार्य का अर्थ है तात्पर्य । उससे ईश्वर का अनुमान इस रूप से हो सकता है-'वेदः सतास्पयंक: (अर्थातः प्रविशेषयोधनेवाप्रयुक्तः, प्रविणेषशोधकशब्बरवात आधुनिकशाम्दया ।' बस अनुमान से वेद का अर्थविशेष में तात्पर्य सिम होता है । तात्पर्य इच्छारण होता है प्रत एव वह किसी माश्रय के बिना नहीं रह सकता । प्रत: उस का कोई माश्रय मानना प्रायश्यक है। जीव उस तात्पर्य का प्राश्रय नहीं हो सकला.क्योंकि या वेब का प्राय वक्ता नहीं है। जिस शस्त्र का प्राधवक्ता होता है वह शम्द उसी के तात्पर्य से प्रयुक्त होता है प्रतः उस तात्पर्य के प्राश्रय रूप में ईश्वर का स्वीकार पावश्यक है। विद को यथार्थव्याख्या ईश्वर प्रयुक्त है। प्रामोजन का अर्थ है यथार्थव्याल्या । उस से भी ईश्वरानुमान होता है। असे वेद किसी पुरुष से ग्याल्पात है क्योंकि वह महाजन से परिगहीत वाक्य है । भ्याल्यात होने का अर्थ है मुगम पायों से मर्थ का बोपन होना या प्रर्ष का बोषित होना । और महाजनपरिगृहीत होने का अर्थ है महाजनों द्वारा पढ़ा जाना, पर्यशान प्राप्त करना, पौर जात अर्ष का अनुष्ठान या धर्णन करना । महाजन का अर्थ है सत् मोर असत की परीक्षा कर के सत् का प्रण और प्रसत् का परित्याग करने की प्रवृत्ति से संपन्न होना । यदि वेवों को व्याख्या न होती तो वेदार्थ का जान न होता और बेवार्थ के [1] "पिताम्य जगतो माता धान पितामहः[भ.गी. १] त्यासी । [२] पारमानि' इत्यस्यत्र पम्धे पाठः। [३] 'जायते पत्रमाननमा मोषमानाश्च तिष्ठमिता यषा कणीशशालिन.' इति रोपं पापम् । आदिना 'पराई गायोऽनुपास्ति' इत्यादि। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५] [शाः समुन्वय-२००३ इ० ३ ज्ञान के मश्व में वे के अनुसार कर्मो का अनुष्ठान प्रावि का प्रचलन न होता । श्रतः वेदार्थ का मनुष्ठान, वेदार्थ का ज्ञान श्रीर येवों का अध्ययन महाजनों द्वारा होता है अतः किसी नेवार्थज्ञ के द्वारा उसकी व्याख्या मानना आवश्यक है। यह व्याख्या किसी जीव द्वारा संपन्न नहीं हो सकती है क्योंकि यह अत्पन्न होता है और येवार्थ प्रत्यन्त विस्तृत और व्यापक है । अतः एव अनेक अर्थों से गभिनय की अन्जानेों को विश्वास नहीं पडता । इसलिये बेवों का व्याख्याता ऐसे ही पुरुष को मानना होगा जो संपूर्ण वेदार्थ को बिना किसी साधन के सहारे जानता हो। ऐसा पुरुष परमेश्वर से अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता (वेवविषयक विशिष्टज्ञानरूप धृति से अनुमान ) पुति का अर्थ है-धारा धारण का श्रर्म है विशेष प्रकार का ज्ञान। जिसे मेधा शम्भ से व्यषहुत किया जाता है। और कृयादि में आदि शब्द का अर्थ है अनुष्ठान | इस विशिष्ट ज्ञानात्मक भूि और अनुष्ठान से भी ईश्वर का अनुमान होता है, जैसे धृतिमूलक प्रमान का प्रयोग इस रूप में किया जा सकता है वेद वेविषयक जन्मधुति से अन्य भूति का विषय है क्योंकि पति का विषय भूत वाक्य है। जो भी पूर्ति का विषयभूत वाक्य होता है यह सब वेदविषयक जन्यवृत्ति से मन्यधृतिविषयक होता है जैसे लौकिकवाक्य महाभारत रामायण प्रभृति । भाशय यह है कि लौकिक वाक्य को प्रति वेदविभूति से प्रश्य है, क्योंकि वह जन्य धृति होते हुए भी वेदविषयक नहीं है। उसी प्रकार देव जिस वृति का विषय है उसे भी वेदविषयकभूति से ग्रन्य होना चाहिये और यह भूमि वेदविषयक होती है पति से अन्य धृति उसी दशा में हो सकती है अब उसे नित्य माना जाय । इस प्रकार यह भी सिद्ध होता है कि वेवविषयक नित्यज्ञान जो खेद को विषय करता है यह नित्यज्ञान जोव को हो नहीं सकता क्योंकि जीव में ज्ञान का सम्बन्ध साधनों द्वारा हो संपन्न होता है अतः उस तान के रूप में ईश्वर को स्वीकार करना आवश्यक है। ( यागानुष्ठान से अनुमान ) अनुष्ठान से तीसरा अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है जैसे यगयागकर्म यागविकर्म जन्यज्ञान से अन्य मानवाले पुरुषों से अनुष्ठित हुआ है। क्योंकि वह अनुष्ठित होता है । को अनुष्ठित होता है यह सब यागादि जन्यविषयक ज्ञान से अन्य जानवाले पुरुषों से अनुष्ठित होता है जैसे गमन भोजनादि प्राशय यह है गमनभोजनादि 'प्रस्माभिः गन्तव्यं, अस्माभिः मोमध्ये acurfare से युक्त पुरुषों द्वारा प्रतुति होता है और यह ज्ञान जन्यज्ञानरूप होने पर भी यागाfarrus न होने से यागाविविषयक जन्य ज्ञान से मन्य ज्ञान कहलाता है। उसी प्रकार योगादि जिस ज्ञान से होता है उसे भी यागाविविषयक जन्यज्ञान से श्रन्य होना चाहिये । और वह जान यतः यागादिविषयक है अतः उसे निश्य मानने पर हो वह यागादिविषयक अन्यान से अन्य ज्ञान हो सकता है। और शाम जीव में शाश्रित नहीं होता इसलिये उस के श्राश्रयरूप में ईश्वर की सिद्धि आवश्यक है। ( ॐॐ - श्रहं - ईश्वर श्रावि पव से अनुमान ] पत्र का अर्थ है 'प्रणव' नामक पद जिसे 'ॐ' कहा जाता है, और 'ईश्वर' मावि पद इस सेमी ईश्वरानुमान होता है जैसे-'' यह प्रणब पर और ईश्वरावि पर सार्थक है क्योंकि वह साध्य Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [: प्रत्ययो विधिप्रत्ययः ननोऽपि आप्ताभिप्रायस्यैव विध्यर्थत्वात् । न ही साधनत्वमेव पत्र है। जो साध्य होता है वह सार्थक होता है जैसे घट आदि पद । उन पदों की सार्थकता अन्य किसी पदार्थ के द्वारा नहीं हो सकती क्योंकि अन्य किसी भी पदार्थ को चाहे वह जीव हो या चाहे ओ सेमिन जब हो उसे या ईश्वर मावि पत्र से नहीं अभिहित किया जाता है। इसलिये उस की सार्थ पता को उत्पत्ति के लिये ईश्वर को उन पवों का प्रभं मानना बावमयका है. 1 स्वाद र टीका- हिन्दीविना ] T वेव में उपलब्ध होनेवाले 'ह' पद से होता है स्वतन्त्र उच्चारणकर्ता का वाचक है क्योंकि वह हर पद है। ओ भी अहम पद होता है वह सब स्वतन्त्र उच्चारण कर्ता का वाचक होता है जैसे "हं गच्छामि महं इच्छामि प्रत्यादि लौकिक वाक्यस्थ 'हम्' पर अपने मूल वक्ता का बोधक होता है । वेदश्य 'अहम्' पद का स्वतंत्र उच्चारणकर्ता कोई जी नहीं हो सकता क्योंकि जो भी सीब अहम्' पद युक्त वैविक वाक्यों का उच्चारण करता है वह अन्य पुरुष से उस वाक्य के उच्चारण को सोलकर ही करता है । धतः एवं कोई ऐसा माना आवश्यक है जिसने वेदस्य श्रहन् पब का सर्व प्रथम प्रयोग किया, जिसे उस के प्रयोग के लिये किसी दूसरे से शिक्षा नहीं लेनी पड़ी। ऐसा वैदिक अहम् पद का स्वतंत्र उच्चारणकर्ता ईश्वर ही हो सकता है । इस प्रसङ्ग में यह शंका हो सकती है- "ईश्वरादि पद श्रपसे स्वरूप का ही बोधन करते हैं। इस प्रकार पने स्वरूप के बोधन से भी उन पदों को सार्थकता उपपन्न हो जाने से उन पर्वो के अर्थ के रूप में ईश्वर को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है किन्तु विचार करने पर नहीं है क्योंकि श्वासोत' इस विधिवाक्य का श्रवण होने पर यह जिज्ञासा होती है- 'ईश्वर रात का क्या अर्थ है जिस की उपासना का इस वाक्य से विधान किया जा रहा है? इस जिज्ञासा के समाधान के लिये सर्वज्ञला तृप्ति०' प्रावि वचन प्रस्तुत होता है। उस के अनुसार 'राम' इस विधिवाक्य के जाता पुरुषों की दृष्टि में ईश्वर वह पुरुष है जो सर्वत्र हो, नित्य तृप्त हो अर्थात् जिसे कभी अपने मुख की कामना न हो, निस्पज्ञान से संपन हो, स्वतंत्र हो अर्थात् जिस की बा पुरुष की इच्छा को प्रथीन न हो और जिस को शति का कमी लोप न हो श्री प्रश्न हो । अर्थात् जिस का प्रयत्न नित्य और सर्वविषयक हो और जो विभु ध्यापक हो। इस प्रकार ईश्वरमुपासीत' इस विधिवाक्य के पूरक 'सर्वज्ञता तृप्ति श्रादि वाक्य से उक्त प्रकार का पुरुष विशेष ईश्वरकार्य है यह सिद्ध होता है। शब्दार्थ के निकाय की यह शैति उसी प्रकार मान्य है जैसे 'स यजेत इस वाक्य के पूरक "वससे सबंशस्याना जायते पत्र शातनम् । मोषमाना तिष्ठन्ति थबा कोशशालिन इस वाक्य से सब पय के अर्थ का निर्णय करने की रीति । इस वाक्य से यह निश्चय होता है कि मलेठों द्वारा यव शब्द से व्यवहुत होने वाला कगु आदि यत्र शब्द का अर्थ नहीं हैं किन्तु वसन्त ऋतु में अन्य संपूर्ण लक्ष्यों के पसे गिर जाने पर मी जो अपने कणसमर पत्तों के साथ विद्यमान होता है ऐसा सस्य ही यथ शब्द का प्रपं है । [भजेस इत्यादि में विध्यर्थप्रश्यम से अनुमान ] प्रश्यय का अर्थ है विधि प्रत्यय। उस से भी ईश्वर का अनुमान होता है। क्योंकि विधिप्रत्यय का पर्थ होता है भासाभिप्राय । जैसे गुरु यदि शिष्य को उपवेश देता है 'मुक्तिकामः हरि स्मरेत मोक्ष 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [ शा. पा, समुच्चय स्त-३ रजीक-३ सथा, 'अग्निकामो दारुणी मनीयान्' इत्युक्तो, 'कुतः' इति प्रश्ने 'यनो दारुमथनग्निसाधनम्' इत्वृत्तरेऽग्निसाधनत्त्वेन विध्यार्थवश्वानुमानानुपपत्तेः, अभेदे हेतुत्वेनापन्यारानीचित्पान , सरनि मृत्यु 'प्त्यादौ विधिवाक्यानुमानानुपपत्तेश्चेष्टमाधननायाः प्रागेव बोधान , 'कुर्याः, र्याम् इत्यादी वपन संकल्पस्यैत्र पोधात , आज्ञाऽध्येपणा-ऽनुज्ञा-संप्रश्न-प्रार्थना ऽऽशंसालिकीच्छाशक्तन्धस्यैव कल्पनाच्च । उल्लङ्घने क्रोधादिभय निकेन्छाऽऽज्ञा. अन्येषणी प्रयोक्तानुग्रहयोतिकाऽध्येपणा, निषेधाभावाचकाऽनुज्ञा, प्रयोजनादिजिज्ञासा मश्नः, प्राप्तीका प्राधना शुभेच्छाशंसा 1 निषेधानुपपत्तेश्च, इनसाधनत्यनियंत्रम्य पाघात । पलपदनिष्टाननुपन्धिवम्यापि तदर्थन्वे 'श्येनेन' इत्यादी अलसम्म यागादिनाऽपि बलबद्देपेण 'यजेस' इत्यादी बाधान् । सत प्राप्ताभिप्रायस्यैव विध्यर्थस्वात तारशाभिप्रायवदीश्वरसिद्धिः। चाहने वाले को भगवान का स्मरण करना चाहिये तो शिष्य को इस विधिप्रत्ययरितवाषय से यह भोप होता है-'भगवान का स्मरण यही मुमुक्ष का कर्तव्य है-यह गुरुदेव का अभिप्राय है ।' इस अभिप्राय को जान कर ही भगवान के स्मरण में प्रसन्न होता है. क्योंकि यह जन के मित्राय को जान कर तवनुसार कार्य करना ही शिष्टाचार-प्राप्त कर्तव्य है। वषाक्य में भी विधिप्रत्यय होता है में स्वर्गकामो पजेत में यज् धातु के उत्तर में श्रयमाण लिङ्ग प्रत्यय । इस लिङ्गप्रयम का भी अर्थ प्राप्त का अभिन्नाय' मानना होगा । अर्थात इस लिङ्ग प्रत्यय घटित वाक्य से भी इस प्रकार काही बोध मानना होगा 'पज स्वर्गकाम पुरुष का कर्तव्य है यह " स्वर्गकामो यजेत" इस पान्य के प्रयोग करने वाले प्राप्त का अभिप्राय हैं । यह अभिनाय उप्ती पुरुष का हो सकता है जिसे यह सहज जान हो कि याग स्वर्ग का साधन होता है । असा पुरूष कोई जोब न होगा, ईश्वर ही हो सकता है क्योंकि माग में स्वर्भसाधनता का सहल शान जोष को महीं हो सकता, वह ईश्वर को ही संभावित है क्योंकि वह संपूर्ण पदार्थों का साधननिरपेक्ष वृष्टा होता है। इस प्रकार वेवस्थ विधिवाश्म से सचिस होनेवाले प्राप्त के अभिप्राय के प्राभय रूप में श्विर का अनुमान होता है। प्रामुमान का प्रयोग इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है असे 'देवस्थ विधि प्रत्यय पारतामिप्राय का बोधक है, मयोंकि वह विधिप्रत्यय है. जो भी विधि प्रत्यय होता है वह सब प्राप्ताभिप्राय का बोधक होता है। जैसे 'भृत्वः प्रापणम् गच्छेन' मिष्य : शास्त्रम् पठेत वस्सदुग्ध पिवेत्' इस्पावि लौकिक वाक्यों में सुनाई देनेवाला विधि प्रत्यय । [विधिप्रत्ययार्थ इनसाधनता या प्रामाभिप्राय ? तुम प्रसङ्ग में यह शग हो सकती है-"विधिप्रत्यय चाहे लौफिकवाय हो चाहे वैविकवाक्य हो, सर्वत्र उस का अष्टसाधनत्य ही अर्थ होता है न कि प्राप्ताभिप्राय । क्योंकि मनुष्य को प्रवृत्ति इष्टसाधनताज्ञान से ही होती है। न कि माताभिप्राय के शान से। अतः प्रासामिप्राय को विधिप्रत्यप का पथं मानने पर मो यही मानना होगा कि निषि प्रत्यय से प्रासाभिप्राय का ज्ञान होता है मौर Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा कर टीका हिनीविवेचना ] प्राप्ताभिप्राय से इष्टसाधनता का मान होता है और उस शान से मनुगत को प्रवृत्ति होती हैं। से, गुग के मोक्षकाम हरि मरेन इस वाग्य से हारस्मरणम मोभकामकाव्यतया गुरोः अभिप्रेतमा अर्थात् 'भगवान का स्मरण मुल पुरुष के कर्तव्य रूप में गुरूको अभिप्रेत सान होने पर यह गनु-भगवा क र है. नोकि मोत्रकार के कर्तव्यरूप में आप्त को अभिप्रेत है । शो जिस फल का साधन नही होता वह उस फल को चाहने वाले पुरुष के बर्तन्यरूप में आप्ताभिस महीं होता । जमे यतकशा आदि मोक्ष का साधन मोने से किसी प्राप्त वर्ष को मोक्षकाम के तस्कर में अमित नहीं होता-स प्रकार जब RAIभिप्राय के इशष्टमाषनता का बोष मनुष्य को प्रवृति के लिये अपेक्षित है तो विधिप्रत्यय से भारताभिप्रापको बोष और आप्ताभियान से साधनप्ता का अनुमान मानने की अपेक्षा यही मानना उचित है-हम साधनाता हो विधिप्रापय का अर्थ है। विभिप्रत्यय-घटित वारघ में इष्टसाधना का हो तोधा बोध होता है, मध्य में मानाभिप्राप के बोध को कल्पना अनावश्यक है। मप्रकार अब साधनता ही मुक्तिनारा विधिप्रत्यम का अर्थ मित्र होता है सो उक्त रीति से विधि प्रत्यय को ईश्वर का अनुमापक बताना सचित नहीं हो सकता। (इष्टसाधनता पक्ष में समस्या) किन्तु विषार करने पर मामला जमिन नहीं प्रतीत होती । क्योंकि विधिपत्यय के अयंका अनुमान इष्टसाधनरव से किया जाता है। यदि इष्ट साधनत्य ही विधिप्रत्यय का अर्थ होगा तो साध्य माधन में ऐषद हो जाने के कारण गटसाधनस्व विधिप्रविया का अनुमा न हो सकेगा । जैसे 'अगिमकामो वारण) मनीपात अग्मि चाहनेवाले मनुष्यों को दो कारों का घर्षण काना चाहिये ।' इस वियर्थ का ज्ञान होने पर प्रपन होता है-सा क्यों ? अर्थात् 'कुतः अग्निकामो दारणो मनीयात् ?' इस प्रश्न के उत्सर में यह कहा जाता है कि वारपणन अग्नि का साधन है। सरकार उक्त वाक्य से विध्यर्थ का शान होने में अग्निसाधनताको उसके हेतुकार में प्रसिद्ध किया जाता है। इसलिये यह मानना आवश्यक है कि विध्यर्थ ष्टमाघनता से भिन्नई और जन आप्ताभिप्रायको विधिप्रत्यय का अर्थ माना जायगा तम 'अग्निकामो दाकणी मम्मीयात इस बाश्य से वाह मचा अग्निकामी के कर्तव्य रूप में आरतको अभिप्रेत है-यह शानोगा। और उस पर जब यह प्रश्न होगा कि 'दाह का मयन निकामी के कर्तव्यरूप में भारत को क्यों अभिप्रेत है। इसके उत्तर में बाकामा समान होगा कि-यत: वामपन अग्नि का साधन है इसलिये अनिकामो के कसंपरूप में आप्त को अभिप्रेत है। (तर्रात मृत्यु से विधिवाश्य का अनुमान) इष्ट सामनता को विधि प्रत्यय का अर्थ मामने पर तरति मत्युम प्रारमवित इत्याशिवायों से विधिवाक्य का अनुमान हो सकेगा क्योंकि विधिवामानुमान के पूर्व ही उम स्थलों में इष्टसाधनता का मोम हो जाता है। आशय यह है कि 'आत्मनो भत्सनाति' यह वाक्य इस अर्थ को बसाना है कि 'भारमझानी मृत्यु का अतिक्रमण कर लेता है। सऊर्थोध के बाद पह जिलासा होती है कि आत्मज्ञान से मरघु का मतिक्रमण होता है बस में या प्रमाण है? उस के उत्सर में यह कहा जाता है कि 'आत्मनो मायुतरति इस बाघ से आरमझान के मस्यूतरणरूप फल का अक्षण होने पर इस विधिवषयका अनुमान होता है कि 'मत्युतरणकाम: आत्मानं जानीयात', यह विधिधाश्य ही आत्मनाम के मत्युतरण Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [शापार समुनव-न३ श्लो०३ को साधमता में प्रमाण है। किन्तु यदि विविस्मय का अर्थ साधमता को माना जाय तो प्रारमती मत्यतरति एम वाक्य से ही प्रारमझान मैं मरपुतरण की साधनता का बोध हो जाने से उस बोध के संपावना विधि का अनुमान रिकही मायगा : और at isधि प्रत्यय की मात्राभिप्राय माना जायगा तब आत्मसो मायुसरति स वाक्य से आत्मझान मृत्युतरण का साधन हैं यही बोध होने के कारण आमतान मामुनरण चाहने वाले के कर्तव्यरूप में आप्ताभिप्रेस इस विद्यार्थ का पान कराने के लिये विधिवावषो अनुमान को सार्थकता हो सकेगी। वपोकि मह बोध 'आत्मनो मृत्यु सरति' इस पापय से नहीं होता। विधिप्रस्थय से शिवराजमान होने का एक और भी प्रकार है जो, वेदवाक्य में मध्यम पुरुवीय और उत्तम पुरुषीय विधि प्रत्यय भी उपलव्य होते है। जैसे 'आत्मामम् विधि:-आस्मा का शान प्राप्त करो' एकोऽहं बन स्याम् प्रजायेयमें एक है अतुत होना और प्रकृपद रूप में प्रादुर्भूत होऊ ।' म वाक्यों में माये विधिप्रत्यय को उन से घटित बाक्य के पत्ता के संकल्प का बाधक मानना आवश्यक है क्योंकि मध्यम और उसम पुगबोध विधिप्रत्यय वक्ता के हो बारूप का बोधक होता है। जमे कार्य कुर्याः । इन लोकिक वाषयों में आये विधिप्रत्यय से वक्ता के ही संकल्प का प्रोप होता है। इसमकार विक वाक्यों में आये विधिप्रपय से जिस वक्ता के संकल्प का बोध होगा वह जीव नहीं हो सकता किन्तु वियर ही हो सकता है। क्योंकि वेव का माधवक्ता सवार हो हो सकता है लीव नहीं हो सकता। इसी प्रकार भाजा प्राध्यषणा अनुमा संप्रश्न प्राणना और आपसा धोषक लिङ्गप्रत्यम भी इच्छारूप वर्ष का हो बोधक होमा है और यह सभी प्रकार के लियेयों में उपलब्ध होते है । अतः एव उन से घोषित होनेवाली सच्छा के आश्रय छप में पर को स्वीकार करा आक्षक है। लिक के साशा आधि अभी के निधन से लिङ्गकी इच्छावाचकसा स्पष्ट है। जैसेभाना का अर्थ यह इच्छा है जिस का उल्लग्न करने पर यावान् पुरुष कुद्ध होने का संभव हो । अध्येपणा का अर्थ है व्हाया जिस से अध्ययणायंक लि का प्रयोग करने वाले पुषष की मध्येधणीय पुरुष के प्रति कृपा का बोध हो । भनुशा का अर्थ वह इच्छा है जिस से निषेध का अभाव सूचित हो। प्रयोजन अथवा हेतु धादि को जानने की का नाम है प्रश्न । किसी वस्तु को प्राप्त करने कोणा का नाम है प्रार्थना। गुभ की इच्छा का नाम है आशंसा । इस प्रकार आशा मावि के इस निर्वधन के अनुसार मानव बोधक लिङ्गको इच्छा को गोधकप्ता स्पष्ट है। [निषेध को अनुपसि] इष्टसाधनाव को विधि प्रत्यय का मयं मामले में एक मोर मी बाधा है और कहा है निवेध की अनुपपतिजसे 'सविषममा भुवयास निषेध वाक्य तविष बनभोजम में विध्ययंका निषेध कासाबधि बिध्ययं इष्टसाभनताधोगा तोस बाल्य का अर्थ होगा सविसन का प्रोग्राम इष्ट का साधन नहीं होता' को असंगत है गोंकि भोजनका को घण्ट होती है तृप्तिमको मिति । वह सविष बन्न के भोजन सेमी संपन्न होती है, इसलिये सचिव अम के भोजन में इष्ट. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका-हिन्दी विवेचना ] श्रुतिः ईअरविषयो वेदः सतः, 'यो वै विष्णुः' इत्पादेविध्येकवाक्यतया यत् न दुःखेन संमिन्नम्' इत्यादिमत् तस्य स्वार्थ एव प्रामाण्यात् । वाक्यात वैदिकप्रशंसा-निन्दाबाक्याव । तस्य तदर्थज्ञानपूर्वकन्वात् । संख्या स्यामभूयम् , भविष्यामि' इत्याधुक्ता । ततोऽपि स्वतन्त्रोच्चारविनिष्ठाया एच तस्या अभिधानादितिरहस्यम् । मानता रहने के कारण उषत वाक्य को पुष्टसाधनता के अभाव का बोधक मानना उचित नही हो सकता । यदि यह कहा जाप-केवल एप्प्साघस्य को विधिप्रत्यष का अर्थ मानने पर यह बोष हो सकता है, किन्तु 'बसवमिष्टाननुबन्धित्वविदिष्टमानता अर्थात बलवान अनिष्ट का साधन न होते हुए इन्टका साथम होमा' इस को विधि प्रत्यय का अर्थ मानने में उपतोष महीहो सकता क्योंकि सचिव मन का भोजन मद्यपि दृप्ति रूप ५ष्ट का साया है किन्तु साय हो वा मत्यु रूप बलवान भानष्ट का भी साधक है। इसलिये निषेध वाग्य से सलवनिष्टाननुमधिर विशिष्ट अष्टसाधना के अभा का बोध होने में कोई गघा नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'येनेन अभिवम् यजेत' इस विधि वाक्य से श्येनयाग में विधिप्रत्ययार्थ का बोध होता है। वि विधप्रस्थय का अर्ष बलबनिष्टानमन्षिस्वविशिष्टसाधनत्व को माना आपणा तो येनयाग में शवपलम्प पाप द्वारा नरकरूप बलयान अनिष्ट को साधनता होने के कारण इस में विधिप्रत्यय से विध्यर्थ का शेष न हो सकेगा। इसी प्रकार 'स्वर्गकाको प्रजेत' इस वापप से पक्ष में उस पुरुष को विध्यर्व का योग न हो सकेगा जो यम के अनुष्ठान में अवश्यंभावी अम्पन को भी बलवाल समन पर उससे इष करता है। इन सब बातों से यह निश्विाव सिद्ध है कि विधिप्ररपय का अर्थ आन्तामिप्राय हरे है अन्य कुछ महौं । सात रस अभिप्राय के आभय रूप में ईवर की सिद्धि आवश्यक है। (देव गत इश्वर निरूपए से ईश्वर सिसि। अति का अर्थ है ईदवरपरक वेव । इस से भी ईश्वर का अनुमान होता है। कहने की आपाय यह है कि वेव में ऐसे अनेक पचन प्राप्त होते हैं जिन में ईश्वर का वर्णन होता है। ऐसे वचन यपि विषिरूप नहीं होते क्योंकि उन से किसी प्रकार के विधि मा निषेध का उपयश नहीं होता। जो विमान से मोमसिकादि विधिनिषेध योषक वाक्य को ही प्रमाण मानसे उन को दष्टि में भी से वचन जो विधि-निषेध रूप नहीं होते अपने अर्थ में प्रमाग होते हैं. क्योंकि उन वाक्यों की विधि धामों के साथ एकवाक्यता होती है । अर्थात् विधिवाषय और विधि से भिन्न विधि के अक्षाभूत वाक्य मिलकर एक अर्म का प्रत्यायन करते हैं। जमे विष्णु उपासीत' यह विधि वाक्य और यजा विष्णबह विधिभिन्न वाक्य बोनों 'यशस्वयम् विमुपासीत' इस मयंका चोधक होता है । यह बोष सभी हो सकता है जय 'यशो वं विष्णु स विधिभिन्न वामय को भी अपने अर्थ में प्रमाण माना जाय | इसी प्रकार कामरे योत' यह विधिवास्य और मन सुखेन संमिन्नं न च प्रस्तम् अनन्तरम्। अभिलाषोपनीसंतरसुखं स्व:पदास्पदम || यह विधिभिन्न वाक्य मे बोनों मिलकर इस अर्थ का बोधन करते हैं कि यह ऐसे मार्ग सुख का साधन है जो दुःख से भिध नहीं है, जिसे बाद में भी दु:ससे प्रस्त होने की संभावना नही है और मोछामात्र से ही प्राप्य है। पह बोध भी संभव है जब Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [ शा. वा. समुश्चय स्त०-३ श्लोक-३ श्रुतवं सकदे नमीश्वरपर साख्याऽक्षपादागम, लोको विस्मय मातनोति न गिरो याचन स्मरेदाईतीः । किं तावदादरीकलेऽपि न मुहुर्माधुर्यभुनायते, यावस्पीनरसा रसान् पसनया द्राक्षा न साक्षात्कता 1 ||शा ___* इत्यभिहिता ईश्वरक त्वपूर्वपश्चयाता - 'या दुःखेन संभिन्न मह विभिन्न वाक्य अपने अर्थ में प्रमाण है। इम उचाहरणों से यह अत्यन्त स्पष्टक घेव के ऐसे बचनजा विधि-विंषरूपननांत ये भी बरका वर्णन करते है ईश्वर को ससा में प्रमाण है । इस प्रकार श्रुति अर्थात् ऐश्वर परक येव से भी ईश्वर को सिद्ध होता। (प्रशंसापरक और निवापरक वेदवाक्यों से ईश्वरसिद्धि) वापर का अर्थ है वेव में प्राप्त होने वाले प्रशंसा और निन्दा का वाक्पउन वाक्यों से भी ईश्वर का अनुमान होता। जैसे, बैदिक प्रशसा और निक्षा के पक्म स्वार्थकामपूर्वक है क्योंकि वे काश्य है ओ भी वाय झोता है वह स्वायनामपूवक होता है जैसे 'घटमानय परभानय प्रत्यानि सौकिक वापय । कहने का आशय यह है कि किसी भी वाक्य का प्रयांग सिसी विशेषमय को प्रताने के लिये किया जाता है और यह विशेष अर्थ वही होता है जो वक्ता की बात हो और जिसे सताने में प्रयुक्त होनेवाला वाषय समय हो । साम ifuषम सोही : लिये देव के प्रांता-निन्धा वाक्म जिस की प्रशसा या निदा का बोध कराने के लिये प्रयुक्त होते है-यह मानना आवश्यक है कि वक्ता को उनके गुण और बोष का ज्ञान रहता है। क्योंकि वक्ता को जिस का गुण गौर घोष शासन होगा वह उस का प्रवासा या निरवा के वाक्प का प्रयास नहीं कर सकता । तो इस प्रकार जब यह सिखो किबंधिक प्रशसा और निम्मावाक्य भो स्वाधमानपूर्वक हाते है तो उस मान के आश्रय रूप में जाव को स्वीकार करना संमषम होने से ईश्वर का अस्तित्व मानना आवश्यक है। (उसम पुरुषीय प्राण्यात प्रत्यय से इंश्वर सिद्धि) संख्या का प्रथं है बेद में प्राप्त होनेवाले उत्तमपुरुषीय तिङ्-माख्यात प्रत्यय से याच्य संख्या 1 प्रामाम यह है कि उसम पुरुषीय माख्यात अपने स्वतंत्र उच्चारण कसी को संस्था का मोधक होता है। जैसे मंत्र कहता है कि विद्यालयं गमिष्यामि' इस वाक्य में गम् पातु के उत्तर उसम पुरष का एकवचम प्रारमात जो 'मि सुनाई देता है वह अपने स्वतंत्र उच्चारपाका चंद्र की एकत्यसंख्या का बोधक होता है । वेव में भी 'स्याम-मसूबम्-भविष्यामि' इस प्रकार उत्तम पुरुषोय प्रात्यात के प्रयोग प्राप्त होते है । नतः उन मायात पदों से संख्या का मभिधान उपपन करने के लिये उन का भी कोई स्वतंत्र उच्चारणकर्ता मानना मावश्यक है जो ईश्वर से अन्य दूसरा नहीं हो सकता । इस प्रकार वेवस्थ उत्तमपुरषीय माल्यास से वासघ संख्या द्वारा इधर का अनुमान होता है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है जैसे 'वेवस्थ उत्तमपुरुषोम प्राख्यातपर बोष्य संण्या तारामास्थान के स्वसंत्रोच्चारणकर्तृ पुरुष गत है, उत्तम पुरुषीप पाण्यातवाय संख्या होमे से, जैसे सौकिक वाक्यस्थ उत्सम पुरुषोय प्राण्यात वाच्य संख्या। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० श्रीका-हिनी विवेचना ] [ ३५ अथ पमाधानवार्तामाह अन्ये त्वभिदत्यत्र पीनरागस्य भावतः । इत्य प्रयोजनाऽभावात् कर्तवं युज्यते कथम् १ ॥1 अन्ये तु जैनाः, अन ईअरविचारे, अभियधनिः परीझन्ते । किम् ? इत्याह बीतरागस्य-राग्यवतः ईश्वरस्य पान लैरभ्युपगतम्य, इन्थं प्रेग्नन्वे, प्रयोजनाऽभावात , भावतः-इन्द्रातः, कन न्वं क्रयं युपते ? यो हि परप्रेरको दृपः स स्वप्रयोजनमिच्छन्मिएर, नतोऽत्र न्यापिकायाः फलेछाया अभावाद् व्यागमय परप्रेस्कन्वयाऽभावः या एनदेव स्पश्यत्राह नरकाफिले कांचिकांश्चितस्वर्गाविसाधने । कर्मणि प्रेरयस्याशु स जन्तून् फैन हेतुना ? ॥६॥ ईश्वर को सिति के विषय में सांख्ययोग पोर न्यायवैशेषिक की उक्त प्रक्तियों के सम्बन्ध में मालोचना करते हुए व्याख्याकार का कथन है कि मनुष्य जब तक ईश्वर के सम्बन्ध में भगवान अनन के वचन को नहीं समझसा तब तक वह सांस्य-योग न्याय वशेषिक शास्त्रों के ईश्वर विषयक निपादन को मुनकर यदि विस्मित और मानन्वित होला है तो यह प्रत्यन्त स्वाभाविक है क्योंकि मिस मनुष्य को रस से मरी दरक्षा का रसास्वाद करने का अवसर नाब तक प्राप्त नहीं होता तब तक यह बैर जैसे निकृष्ट फल की मधुरिमा की भी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते नहीं थकता ॥३॥ (वोतराग ईश्वर कर्ता नहीं हो सकता-उत्तरपक्षारम्भ) चौथी कारिका में ईश्वर को सिद्ध करनेवाली सांरूपयोग सम्मत युक्ति का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जन विद्वानों का कहना है कि ईश्वर वीतराग होता है । सांख्य योग में भी श्विर को वीसराग माना गया है, इसलिए यह जगत् का होना संगत नहीं हो सकता, क्योंकि कर्तृत्व साक्षात हो या दूसरे की प्रेरणा द्वारा हो, प्रयोजन की इच्छा होने पर ही संभव होता है। प्रति जिसे किसी फल की इच्छा होती है वही साक्षात मा पर को प्रेरणा के द्वारा फा होता है । वीतराग ईश्वर में फलेवासप व्यापक धर्म नहीं है इसलिए उस का न्याय होने से लाक्षात् या परप्रेरणामूलक कर्तृत्व भी उसमें नहीं हो सकता। (नरकारिफलक कृत्य में ईश्वर प्रेरणा का प्रतीचित्य) पांचवी कारिका में पूर्व कारिका में कही हुई बात को ही स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-इवर कुछ जीवों को बाहत्या प्रादि ऐसे कार्यों में प्रवृत्त करता है जिस से कर्ताको नरक की प्राप्ति होती है और कुछ जीवों को यम नियमावि कर्मों में प्रवत करता है जिस से कर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति होती है । प्रश्न होता है-वर सीबों को इस प्रकार विभिन्न को में यों प्रवास करता है। इस प्रकार जीवों को प्रवृत्त करने में उसका क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 शा. वा. समुनयस्त३-०६ " 1 स= ईश्वरः कचिज्जन्तून नरकादिफले हत्यादी फर्मणि, काचित् स्वर्गादिसाधने यमनियमादौ वा आशु शीघ्रम् केन हेतुना प्रेस्थति क्रीडादिप्रयोजनाभ्युपगमे रामपा वैराग्यव्याङ्गतिः प्रयोजनाऽनभ्युपगमे च तन्मूलकप्रेरणाभावात् सिद्धान्तच्याघातः इत्युतः - पाशा रज्जुरिति भावः ॥५॥ ३६ ] पराभिप्रायमाशङ्कय निराकरोति स्वयमेव प्रवर्तन्ते सत्त्वादचित्रकर्मणि । निरर्थक मिहेशस्य कर्तृत्वं गीयते कथम् ? ॥ ३ ॥ 'सच्चाः, चित्रकर्मणि= ब्रह्महत्या यम-नियमाडौ, स्वयमेव नमः मुखोद्रेकेण तथा वि'शष्या रागदेशेय प्रवर्तन्तु स्वनाऽभिमन्यन्ते, प्रयोजनज्ञानार्थं परमीश्वरापेक्षेति चेत् ? इह कर्मण, निरर्थकमीशस्य कर्तृत्वं कथं गीयते प्रयोजनज्ञानं हि प्रव नार्थमुपयुज्यते प्रवृत्ति यदि रूप एवोपपना नदेश्वरसिद्धिव्यमनं गृहलब्ध एव धने विदेशगमनप्रायम् । ६।। यदि यह कहा जाय 'विभिन्न जीवों को प्रधुल करना यह उस का खेल है। खेल खेलने के लिए ही वह विभिन्न कर्मों में जीवों को प्रवृत करता है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि खेल से भी मवि मनुष्य को किशो प्रकार का सुख प्राप्त होता है तभी वह खेल भी खेलता है प्रत्यधा खेल से विरत हो जाता है 1 प्रामाय यह है कि ईश्वर यदि किसी प्रकार के सुख की ईच्छा से बेल खेलता है तो उसे सुख और सुख के साधन के प्रति रागवान मानना । यवि यज्ञ मनोविमो के लिए था यदि मानसिक कष्ट करे दूर करने के लिए खेल खेलता है तो कष्ट और कष्ट के साधन के प्रति द्वेषवान् मानना पड़ेगा। फलतः ईश्वर को वीतराग कहना असंभव हो जायगा | और यदि ईश्वर का खेल खेलने में कोई प्रयोजन न मात्रा जामगा तो जीवों को विमिश कर्मों में प्रवृत्त करना यह उस का खेल नहीं घट सकता क्योंकि परका प्रम मी किसी प्रयोजन से ही होता है। फलतः ईश्वर परका प्रेश्क होकर कत्र्ता होता है' इस सिद्धान्त की हामि हो जायगी। उक्त रूप से विचार करने पर सांख्य और अन्य बाबी के लिए दोनों ओर से बांधने बाली रस्सी तैयार रहती हैं, अर्थात् जसे बीतराग माना जायगा तो वह पर कर मेरक नहीं हो सकता और यदि पर क प्रेरक होगा तो वीतराग नहीं हो सकता । श्रतः सत्य और अन्य वादी को ईश्वर के सम्बन्ध में वीतरागता और पर-प्रेरकत्व इन दोनों में किसी एक का त्याग करना मावश्यक है। (बुद्धि स्वपक्ष में भी ईश्वरकर्तृत्व निरर्थक ) पट्टी कारिका में ईपवर के सम्बन्ध में सांख्ययोग के एक और भाषाय को प्रस्तुत कर उस का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जीव ब्रह्महत्या और यम नियमादि जैसे विभिन्न कर्मों में स्वयं हि प्रवृत्त होते हैं। आशय यह है कि सांख्यमतानुसार प्रवृत्त-निवृत्त होना पुरुष का काम नहीं है किन्तु उस की बुद्धि का काम है। बुद्धि त्रिगुणात्मिका होती है। बुद्धि के तीन गुण सत्व रजस्तमस कहे जाते है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान का टीका हिन्धी विधेमा ] अभिप्राधान्नरमाशझ्यय निराकुरुतेमूलम्-फलं ददाति चेत्सर्वं ततेनेह प्रचाषितम् । भफले पूर्वदोषः स्यात् सफले 'भक्तिमानना ॥७॥ सर्व ताम्-चित्रं कर्म, इह-जगति, तेन ईश्वरेण, प्रमोदितम् अचिटिनं मत , फलं= सुखदुःखादिकम् , बदानि-उपचने, अचंतनस्य नेतनाधिछिसम्यैव कार्यजनकत्वादिति चेन ? अफले-म्बमभिप्रफलदानाऽसमर्थे कर्मण्यम्युपगम्यमाने, पूर्वशेषः पूषोक्तः स्वर्ग-नरकादिफलानियमदीपः स्यात् । सफले स्वतश्चित्रफलदानसमर्थकणि वभ्युपगम्यमाने, भक्ति. मात्रता-ईश्वर भक्तिपात्रं स्यात् , हरीतकारकन्यायान् । 'अचेतन चननाधिष्ठितमेय जनकमि'मि नियमम्त्वताशस्यापि वनवीजम्याडकरजननबदशेनादसिद्धः तस्यापि पशतायाम् , अन्यप्रापि व्यभिचारिणः पक्षनायां निवेशेऽन कान्निकोच्छेदप्रसङ्गादिति भावः ||५|| जब बुद्धि के सत्व गुण का उत्कर्ष होता है तब उसे घया भक्ति-यम्यादि प्रशस्त साविक भाव जाग्रत होकर सत् कर्तव्यों को करने का संकल्प होता है और उम के अनुसार रजोगुण के सरकार से वह सत्कर्म करती है। जब बुद्धि के रजोगुण का उद्रेक होता है तव सत्त्व मा तमो गुण से प्ररित हो सस् या असत कर्मों करने का संकल्प होता है पीर उन के प्रमुसार वह सत् बा प्रसत फर्मों को करती है। जब बुद्धि के तमोगुण का प्राधिक्य होता है तब उस में प्रवल राग उप ईर्ष्या निर्दयतादि तामस भावों का प्राकट्य होता है । बुद्धि को इस पार्तृत्व का पुरुष को केवल अभिमान होता है और यह इसलिए होता है कि पुरुष अपने को वृद्धि से पृथक नहीं समझता। विभिन्न फमों में पुष को स्वतः सस्व का अभिमान प्रवृत्त होता है । अनि के विभिन्न कामों में वृद्धि को प्रवृत्ति के लिए न प्रयोजन का माम अपेक्षित होता है जो पिवर के संनिधान से ही संभव है अर्थात वर लि को तत् तत् सौ के प्रयोजन का ज्ञान संपादित करता है और उसी से सुद्धि तस् तत् कर्मों में प्रवत्त होती है। ईश्वर को परप्रेरक मानने में योगदर्शन का यह अभिप्राय है किन्तु इस संबन्ध में प्रकार की यह मालोचना है-त्रिगुणारिमका बुटि स्वभाव से ही प्रवृत्तिशील है। प्रतः उस के प्रशासन के लिए प्रयोजन धान का कोई उपयोग नहीं है और यदि है तो वह भी धि को स्वयं ही संपन्न हो सकता है। प्रातः उस के लिए रिसर को सिद्ध करो का प्रयास ठीक उसी प्रकार निरर्थक है जैसे घर में ही धन की प्राप्ति संभव रहने पर धन कमाने के लिए विवेश को यात्रा निरर्थक होती है । (कर्म को ईश्वराधीनता का निरसन) ७वों कारिका में योग दर्शन के एक और अभिप्राय की चर्चा कर के उस का निराकरण लिया गया है। कारिका का प्रयं इस प्रकार है___सभी कर्म ईश्वर की प्रेरणा से हो फलप्रद होता है क्योंकि प्रवेतन में वेतन के संयोग से ही कार्यजनकता होती है । अतः कर्म की सफलता उपपन्न करने के लिए ईश्वर का अस्तित्व प्रावस्यक है। इस अभिप्राय के सम्बन्ध में ग्रन्थकार की यह समीक्षा है कि पांच विभिन्न कर्म विभिन्न फलों को प्रवान करने में स्वयं समपं न हो तो विर का अस्तित्व मानने पर भी उन कर्मों से स्वर्ग नरकवि विमिन्न Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] शा. बा. समुच्चय न०-३१-८ आदिम तस्यैव स्वातन्त्र्यमित्याशङ्क्य निराकुरुते -- आविसर्गेऽपि नो हेतुः कृतकृत्यस्य विशते । प्रतिज्ञातविरोधित्वात् स्वभावोऽप्यप्रमाणकः ॥ ८ ॥ आदिसर्गेऽपि कृतकृत्यस्य वीतरागस्य हेतु: प्रयोजनम्, न विद्यते मनः कथमादिसर्गमध्यय कुर्यात् १ । अधेरशः स्वभाव एवास्य यत्प्रयोजनाभावेऽप्यादिम स्वातन्त्र्येणैव कनि, अन्यायपेक्षयैवेति । अत आहह- 'स्वभावोऽपि प्रामुक्तः 'अप्रमाणकः,' धर्मिण्ट एव चासो कुन ताः स्वभावः कल्पनीयः । इति भावः ॥८॥ फलों की सिद्धि न होगी । एयोंकि यदि कर्मों मे स्वयं तद्त फलप्रवान करने का सामर्थ्य न होगा तो ईश्वर का अस्तित्व दोनों प्रकार के कर्मों के लिये समान होने से यह नियम नहीं हो सकता कि ब्रह्मादि से नर्क हो हो और यमनियमावि से स्वर्ग हो। और यदि इस दोष के परिहारार्थ उन कर्मो को त तद् फलों का प्रदान करने में स्वयं समर्थ माना जायगा तो फिर ईश्वर को मानने की या श्रावश्यकता होगी ? क्योंकि कर्म तो स्वयं हो सद् तद् फलों को प्रदान कर देते हैं। अत: उल पक्ष में भी ईश्वर को कर्म का सहकारी मानना ईश्वर के प्रति भक्त को भक्ति का अज्ञानपूर्वक प्रदर्शन मात्र है। यह ठीक उसी प्रकार जैसे किसी मनुष्य को स्वयं रेव होने पर हरितको के सेवन की प्रवृति और यह जो बात कही गई कि वेतन चेतन के सहयोग से ही कार्य का जनक होता है वह श्री सत्र नहीं हैं। क्योंकि वेतन सहायक के बिना भी वनस्थ बोज से अंकुर की उत्पत्ति होती है। यदि यह कहा जाय वनस्थ बीज भी पक्ष कोटि में ही प्रविष्ट है अर्थात् जैसे कर्म को फलता को उपप करने के लिये कर्म को सहकारी ईश्वर की प्रावश्यकता होती है उसी प्रकार बनस्थ बीज में अंकुरजनकता की उत्पत्ति के लिये भी वनस्थनीज के सहकारीरूप में ईश्वर की कल्पना की जायगी' - किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर जगत् में अनैकालिक दोष का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा अर्थात् कोई मो हेतु कहीं भी साध्य का व्यभिचारी न हो सकेगा क्योंकि जहाँ भी हेतु में साध्य का व्यभिचार प्रशिल होता उस का पक्ष में श्रन्तर्भाव किया जा सकता है ||७ ॥ ( वीतराग ईश्वर को विश्वरचना में प्रयोजनाभाव ) कारिका में ईश्वर प्रयमसृष्टि का स्वतंत्र कर्ता है इस मत का निराकरण किया गया है। ईश्वर के कर्तृत्व का समर्थन करनेवाले कुछ लोगों की यह मान्यता है कि जो सृष्टि जीव के कर्मों से संपन्न होती है यह तो ईश्वर के बिना जीव के कर्मों से ही उपपन्न हो जायगी किन्तु पहली सृष्टि जिस के पूर्व जीवक मं विद्यमान नहीं है उस की उपपति ईश्वर से ही हो सकती है। किन्तु यह मानना मुक्तिसङ्गत नहीं प्रतीत होता क्योंकि ईश्वर वीतराग है उसे किसी वस्तु को इच्छा नहीं है तो वह सृष्टि को उत्पन्न ही क्यों करेगा ? मतः सृष्टि के सम्बन्ध में भी यही मानना होगा कोई सृष्टि प्रथम सृष्टि नहीं है बल्कि सृष्टि का प्रवाह मनावि है। पूर्व में ऐसा कोई काल नहीं था जिस में यह सृष्टि न रही हो । यवि ऐसा न माना जायगा तो सृष्टि का अस्तित्व रहना किसी मो प्रकार संभव न हो सकेगा। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्याट क० भीका हिन्दीधिबेचना ] विहेतुतया धर्मग्राहकमानेन तादृशस्वभाव एव भगवान् साध्यते इत्यभिप्रायादाहलम्- कर्मास्तस्वभाव न किशि पाध्यते विभोः । विभोस्तु तत्स्वभावसे कृतकृत्यत्वयाधनम् ॥ ९ ॥ कर्मादिस्तत्स्वभावत्वे-ईश्वरमनपेश्य जगज्जनन स्वभाषत्त्रे न किञ्चित् विभोः परमेश्वरस्य वाध्यते 1 विभोस्तु तत्स्वभावत्वे स्वातत्र्पेण अन्यहेतुमापेक्षमया वा जगज्जनन स्वभागवे, कृतकृत्यश्वत्राधनम् वीतरागत्वव्याहृतेः कारणतया प्रकृतित्वप्रसङ्गाच्च । अप परिणामवादन प्रकृतित्वम् प्रयोजनाभावेन जन्येच्छाया अभावेऽपि नित्येच्छा सच्चाद नराम्यन्याहृतिः जन्येच्या एत्र पदार्थत्वात् । ऐश्वर्यमपि न जन्यम्, किन्तु सतफला - वच्छ सर्गादि रजःप्रभृत्युदेकोऽपि तत्र तत्कार्यकारितयैव गीयत इति न कूटस्थ दानिरिति चेत् ? , I 1 [** जल्पता गिरिसाधने गिरं न्यायदर्शन निवेश पेजलाम् । I सांख्य संमति निर्ज कुलं वया हन्त हन्त ? सफलं कलङ्कितम् ||11| यत एवं कार्यजनकज्ञानादिसिद्धी नाश्रयतया बुद्धिरेव नित्या सिध्येत न न्वीश्वरः, बुद्धित्वस्यैव ज्ञानाद्याश्रयतावच्छेदकत्वात् आत्मत्वस्य तदाश्रयतावच्छेदकत्वे तु जन्यज्ञानादीनामध्याम्मानितया विलीनं प्रकृत्यादिप्रक्रियया इति किमशेन सह विचारप्रपञ्चेन १ । 1 यदि यह कहा जाय - 'नहीं, सृष्टि अपूर्व भी होती है जिसे प्रथम सृष्टि कहा जा सकता है। और उसे किसी प्रयोजन के बिना यो परमेश्वर अपने स्वभाव से ही उत्पन्न करता है। किन्तु जब पहले सृष्टि हो जाती है और उस में जोष शुभाशुभ कर्म करने लगते हैं तब उस के बाद की सृष्टि उन कर्मों के अनुसार होती है। प्रति वाद की सृष्टि को ईश्वर कर्मानुसार संपक्ष करता है' यह कहना भी ठोक नहीं है क्योंकि यदि ईश्वर किसी प्रमारण से सिद्ध हो जाय तब उस में बिना प्रयोजन के भी निर्माल करने के स्वभावरूप धर्म की कहपता की जा सकती है किन्तु जब तक वह स्वयं ही सिद्ध नहीं है तो उस में स्वभाव की कल्पना कैसे हो सकती है? यदि यह कहा जाय- प्रथम सृष्टि के कर्ता रूप में ईश्वर का अनुमान होता है और प्रथम सृष्टि का कर्तृव ईश्वर का उक्त स्वभाव मानने पर ही संभव है पतः सृष्टि मूलक जिस अनुमान से ईश्वररूप धर्मीकी सिद्धि होगी उसी प्रमाण से उक्त स्वविशिष्ट हो ईश्वर को सिद्धि होगी । अतः यह मावश्यक नहीं है कि ईश्वररूपधर्मी को पहले सिद्ध किया जाय और खाब में उस में उक्त स्वभावरूप धर्म को कल्पना को आय।' किन्तु यह कहना मी ठीक नहीं है क्योंकि प्राद्य सृष्टि में हो कोई प्रमाण नहीं है । (निष्प्रयोजन चेष्टा से वीतरागता की हानि ) बों कारिका में इस मभिप्राय की चर्चा और उसको प्रालोचना की गई है- विजय के कर्ता कप में जिस मानप्रमाण से ईश्वररूप धमों की सिद्धि होगी उस प्रमाण से प्रयोजन बिना Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा.पा.समुकपप स्त-३ श्लोक । भी कार्य करने का उस का स्वभाव भी सिद्ध होगा । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-कम ईश्वर को अपेक्षा न कर के स्वयं ही अगत् का कारण होता है-कर्म का ऐसा स्वमाष मानने पर ईश्वर के सम्बनि प्रकारको सपा नहीं मोटी कमर पनिलप मे प्रथवा किसी अन्य हेतु के सहयोग से जगत का निर्माण करता है-ईश्वर का ऐसा स्वभाव मानने पर उस को कृतकृत्यता अर्थात् पूर्णता की आपा होती है । क्योंकि उसे कर्ता मानने पर उस के बीशरापयशी हानि होती है और उसे जगत का कारण मानने पर उस में प्रकृतिरूपता की भापति होती है। क्योंकि सांख्ययोगपर्शन में प्रकृति को ही जगत् का कारण माना गया है । सभापति को इष्टापति नहीं कहा जा सकला बयोंकि ईश्वर जस प्रकृतिरूप होगा तो उसे सविकार होना पडेगा। इस सन्दर्भ में सांस्ययोग की पोर से यह कहा जा सकता है कि ईश्वर को जगत का कर्ता मानने में उपयुक्त दोषों में कोई भी दोष नहीं हो सकता । जैसे. वर को अगत् का कर्ता माममे पर भी उस में प्रकृतिरूपता की मापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि परिणामो कारण को ही प्रकृति कहा जाता है । ईश्वर जगत का परिणामो कारण न होने से प्रकृतिरूप नहीं है। ईश्वर पो जगत्मा मानने पर उस को चौतरापता का विघटन नहीं हो सकता, क्योंकि जन्म इच्छा को ही राग कहा जाता है। पौर ईश्वर को कोई प्रयोअन न होने से उस में जन्य इरादा नहीं हो सकती । निरय इच्छा होने पर भी उस की वीतरागता सुरक्षित रह सकती है. क्योंकि जन्य इच्छा के प्रभाय को ही बीतागसा कहा जाता है । उस का ऐश्वर्य भी जन्य नहीं हो सकता क्योंकि यह सत् तत् फल विषयक नित्य इच्छापही है। सुष्टि के प्रारंभ में रजोगुण का उत्कर्ष होता है-इस कथन से ईश्वर में सगुणता की भी प्रासा नहीं की जा सकती क्योंकि समयानुसार उत्कृष्ट प्रौर प्रफ्कृष्ट होना यह गुणों का अपना ही स्वभाव है। हावर की इच्छा गुणों के यथा समय होने वाले उत्कर्ष और परकर्ष को विषय करती है। इसी से ईश्वर गुरषों में बंधमाका उत्पावक' कहा जाता है। प्रतः ईश्वर को जगत का कर्ता मानने पर उस को कूटस्थता अर्थात निविकारता की हानि नहीं हो सकती'-किन्तु वाल्याकार का कहना है कि यह कथन ठीमा नहीं है । इस कथन पर उन्होंने यह कहते हुए सांख्य को भर्त्सना की है कि ईश्वर को सिंह करने के लिये जो बात अभी कही गई है वह पायदर्शन को मान्यता पर प्राधारित होने से समीचीन प्रतीत होती है। किन्तु उसे अपनी मान्यता के रूप में यदि साहयवादी स्वीकार करते है तो इस से उन की पुरी परम्परा ही कलाकात हो जाती है । तात्पर्य यह है कि (सोरस्यमत में शानादि का प्राश्रय ईश्चर नहीं हो सकता) उस रीति से ईश्वर को सिद्ध करने का प्रपास सार्थक भो महीं हो सकता क्योंकि उक्त रीति से कार्य सामान्य के कारण रूप से ज्ञान या पौर प्रयत्न की सिद्धि होती है। ईश्वर को उक्त मान पादि के प्राश्रयरूप में मतलीकार करना होता है जो सोझ्य की दृष्टि से उचित नहीं है। क्योंकि उनके मत में मान माविका प्राश्रय बुद्धि ही होती है पर नहीं होता। इस मत में बुद्धिस्व ही जान प्राधि कीमाश्रयता का नियामक होता है । और यक्षिात्मस्व को जान मादि की प्राधपता का नियामक माना जापगा तो प्रसे कार्य सामान्य का कारगमूस निश्प झाम मावि पास्माभित होगा इसी प्रकार जम्पशाम भावि मी प्रास्माश्रित ही होगा । इस प्रकार स्पायवर्शन के समान जीव पीर ईश्वर की पढाच प्रसि के प्रति पटावि के उपादान का तद तन् पुरुषीय प्रत्यक्ष कारण है। फलतः तद् सद कार्यों को प्रवृत्ति मौर तक तह कार्य के उपादान का प्रत्यक्ष इन्हीं के दोष कार्यकारणभाव पानायक Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायक दीका-हिन्दी विधेचना ] [. यायिकीस्तरीत्यापि नेश्वरसिद्धिः । तथाहि-कार्येण तामाधने अायानुमाने नाऽनुकूलम्तकः, तत्तत्पुरुषीयपटार्थिप्रवृसिन्धावच्छिन्न प्रति सत्तत्पुरुषीयपटादिमयप्रकारकोपादानप्रत्यक्षत्येन हेतुत्यावश्यकत्वात् , प्रत्यासत्येन कार्यमामान्यहेतुन्वे मानाभावान , विकीर्षाया अपि प्रश्चावेच हेतुल्यात , तेपि विलक्षणकृतित्वेनैव घटत्व-पटत्वावच्छिमहतुन्याच | ----- - - . . .-- मान्यता सांस्य शास्त्र में भी पा जायगी । फलत: त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही जगत का मूल कारण है और उस से उत्पन्न वृद्धि हो जानादि गुणों का प्राश्रय और कर्ता है-यह सब सांस्य दर्शन को माम्यता समाप्त हो जायगी । तो इस प्रकार जो सम्मशास्त्र की मान्यता का प्रमिल होते हुए सांख्य को मोर से विचार करने को उद्यत होता है उसके साथ विचार करना पनुचित है पसलिये इस पर्धा को इतने में ही समाप्त कर देना ठोक है, क्योंकि इसने से ही ईश्वर के सम्बन्ध में सख्यियोग द्वारा प्रशित युक्तियां निर्थक सिद्ध हो जाती है। (कार्यसामान्य के प्रति उपावानप्रत्यक्ष कारणता को पालोचना) नैयायिकों ने ईश्वर को लिद करने की जो रीत बताई है उस से 'मी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती-जैसे उन्होंने कार्य द्वारा रियर को सिद्ध करने के लिये सर्व प्रथम इस अनुमान का प्रयोग किया है 'कार्य सफ के कार्यत्यत. संपूर्ण कार्य कर्तृ सापेक्ष है क्योंकि कार्य है ।' किन्तु यह अनुमान समीचीन नहीं हो सकता क्योंकि-मो मी कार्य होता है यह सभी कर्तृ सापेक्ष होता है इस नियम का निनायक कोई तर्फ नहीं है। कहने का प्राशय यह है कि कार्यसामाग्य के प्रति सामान्यरूप से उपवान विषयक प्रत्यक्ष कारण है इस कार्यकारण भाव पर हो उक्त प्रनुमान निर्भर है किन्तु स कार्यकारण भाव में कोई प्रमाग नहीं है। क्योंकि इस कार्यकारणभाव को मानने पर भी यह प्रश्न होता है कि पट-उपगवान के प्रत्यक्ष से घटा को और घटोपादान के प्रत्यक्ष से पटाची की प्रवास क्यों नहीं हाती? क्योंकि जब सामान्यरूपले उपावान का प्रत्यक्ष सामान्यरूप से कार्यमापका कारण है तो किसी भी उपादान के प्रत्यक्ष से किसी भी कार्य की उत्पत्ति होना युक्तिसङ्गात है। प्रतः इस प्रश्न का समाधान करने के लिये इस प्रकार का विशेष कार्यकारणभाव मानना होगा कि तत् तत् पुरुष को पटानर्थ प्रपति के प्रति पटावि के उपादान का तद् तव पुरुषीय प्रत्यक्ष कारण है। फलतः सत सात कार्याधों को प्रति पोर तब सद् कार्य के उपादान का प्रत्यक्ष इन्हीं के गोत्र कार्यकारणभाव प्राचायक है। इसी से उमादान प्रत्यक्ष के प्रभाव में कार्योत्पति की प्राप्ति का परिकार हो जायगा मत: 'कार्य सामान्य के प्रति उपादानप्रत्यक्ष कारण है। इस सामान्य कार्यकारणभाव की कोई मायायकता न रहेगी । तो जब इस प्रकार कार्य सामान्य के प्रति उपादानप्रत्यक्ष या उस प्रत्यक्ष का पाषयभूत कर्ता कारण है यह कार्यकारणभाव ही पलित है सो कार्य सामान्य से कर्तृ सामान्य का अनुमान कैसे हो सकेगा। (कृति और कार्य का भी सामान्यतः कार्य-कारण भाव नहीं है) जिस प्रकार उपावान का प्रत्यक्ष उपयुक्त रौति से प्रवृत्ति का ही कारण है सप्तो प्रकार चिको भी प्रवृत्ति का ही कारण है, का सामान्य का कारण नहीं है। और कृतित्व रूप से कृसि मी कार्यप रूप से कार्य सामान्य का कारण नहीं है किन्तु घटपटादि तब तब कार्य के प्रति कुलाल तन्वाय Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४२ } [पास्त्रयातासाचय स्त० ३-रलो.. नच प्रवृत्ताविध घटादावपिशानेन्छयोरन्ययाव्यतिरेकाम्या हतत्वसिद्धेः तत्र घटत्व-पटत्यादीनामानन्त्यात कार्यस्त्रमेत्र माधारण्यात कार्यनावरुछेदकम् , शगंग्लाघरमपश्य संग्राहकलाघघस्य न्याय्यत्यात , कृतम्तु 'यद्विशेषयोः' इनि न्यायात मामान्यतोऽपि हेतुबमिनि वाच्यम्, माविको कति विलक्षण कृतित्व रूप से ही कारण है । कहने का प्राशय यह है कि कार्य सामान्य के प्रतिकृति सामान्य को कारण मानने में घट के लिये होनेवाली कृति से पट की पौर पद के लिये होनेवाली कृति से घट की उत्पत्ति होने की प्राप्ति हो सकती है। प्रतः जिन कृतियों से घट उत्पन्न होता है उन में विलक्षण जाति और जिन कृसियों से पट उत्पन्न होता है उस में बुसरी विलक्षण जाति मानकर-घट पट प्रादि कार्यों के प्रति भिन्न भिन्न विजातीय कृसिया कारण है-यह कार्य-कारणभाव मानना मावायक है । और इस कार्यकारणभाव को मान लेने पर कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य को कारण मानने की प्रावश्यकता नहीं रह जाती । इसलिये कार्यसामान्य से उपावानप्रत्यक्ष वा चिकीर्षा अथवा कृति का अनुमान नहीं हो सकता। और इसीलिये का सामान्य के कारणभूत उपावाप प्रत्यक्ष, विकीपर और कृति के प्राश्रयम में जगत् कता र सि नहीं हो सकता। व्यापकरूप से कारणता को सिद्धि का प्रयास-पूर्वपक्ष] इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि जसे उपाबान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा रहने पर प्रवृत्ति होती है मौर उस के म रहने पर प्रति नहीं होती है-इस मन्त्रय व्यतिरेक से उपादान प्रत्यक्ष प्रौर विकीर्ण को प्रवृत्तिका कारण माना जाता है उसी प्रकार उपाशन प्रत्यक्ष और चिकीर्षा के अन्यय व्यतिरेक का अनुविधान पद में भी है। इसलिये घटपटावि के प्रति उपावास प्रत्यक्ष प्रौर विकर्षा को कारण मानना प्रादायक है । तो इस प्रकार जब प्रवृत्ति के समान अन्म कार्यों के प्रति उपादाम प्रत्यक्ष और चिकीर्षा की कारणता सित होती है तब घटरव पठत्व मावि मनन्त अविच्छिन्न के प्रति उपावान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा को कारण मानने की अपेक्षा कार्यरय रुप सामान्य धर्मायनिधन के प्रति उन्हें कारण मानना उचित है । यदि यह कहा जाय कि-'घटत्व पटत्मावि की अपेक्षा प्रागमावप्रतियोगिस्वरूप कार्यस्व का शरीर ग्रह है प्रतः उस की अपेक्षा लघुरोरो घटत्व पटत्यादि को ही उगवान प्रत्यक्ष और पिकीय का कार्यतापकछेवक होना चित है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि घटरब पटवावि धर्म संपूर्ण काबोका सहपाशक नहीं है और कार्यस्व संपूर्ण कार्यों का संग्राहक है। इसलिये उसी को उपादान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा का कार्यताबसाधक मानना न्यायसङ्गत है क्योंकि उसे कार्यताछेवक मानने पर कार्य सामान्य के प्रति जपावाम प्रत्यक्षादि में एक एक कारणप्ता कोही सिद्धि होगी मार घटस्व पटव मादिषों को कारणतावरदेवक मानने पर सद् तइ धर्मावनि के प्रति विजातीय उपावान प्रत्यक्ष और चिकीयों में अनन्त कारणता माननी पड़ेगी। तो इस प्रकार व कार्यसामाग्य के प्रति उपादान प्रत्यक्ष और चिकोर्षाको कारणता सिद्ध हो जाती है तो कार्यसामान्य से कार्य लामान्य के उपादान प्रत्यक्ष और चिकीर्षा का अनुमान होने में और उस के मात्रय रूप में ईश्वर का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। इसी प्रकार घटपटावि कायों के प्रति पृथक रूप से विआतीय कृतियों को कारण मानने पर प्रो-कार्य सामाग्य के प्रति कतिसामाग्य कारण है- यह सामान्य कार्यकारण भाष Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ ४३ कार्यकालिन पत्यादिस्वरूपस्य नानात्वात् ध्वंसव्यावृत्यर्थं देवस्य सवस्य 申 विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनानिविगुरुवाच । नामि जन्यसम्वम् अवनिसमवेत या सज्जन्यतावच्छेदकसू तथापि प्रत्येकं विनिगमनाविरहात्, 'यद्विशेषयोः '० इति न्याये मानाभावात् । किञ्च एवं प्रायोगिकत्वमेव शैलादिव्यावृत्तं देवकुलाद्यनुवृत्तं सकलजनव्यवहारसिद्धं प्रयत्नजन्यतावच्छेदकमस्तु व्याप्यधर्मत्वात्, इदमेवाभिप्रेत्य हेतुविशेषयिकल्पने कार्यसमत्वं सम्मतिटीकाकृता निरस्तम् | } भी सिद्ध होगा क्योंकि पहिशेषयोः कार्यकारणभावः स तत्सामान्ययोरचि' यह सर्वमान्य नियम है। इसका श्राशय यह है कि जिन पदार्थों में विशेषरूप से कार्यकारणभाव होता है उन पदार्थों में सामान्यरूप से भी कार्यकारणामास होता है। जैसे एक घट को उत्पन्न करनेवाले कपाल से अन्य घट को उत्पत्ति का वार करने के लिये त त घट के प्रति तद् कपाल को कारण मानने पर घट सामान्य प्रति कपाल सामान्य कारण है यह भी कार्यकारणभाव माना जाता है, उसी प्रकार कार्यविशेष और कृतिक्षेत्र में कार्यकारणभाव मानने पर कार्यसामान्य और कृतिसामान्य में भी कार्यकारणभाव मानता न्यामसङ्गत है । यदि यह कहा जाय कि विशेष कार्यकारणभाव से ही कार्य सिद्ध हो जाने से सामान्यरूप से कार्यकारणभाव की कल्पना कहीं भी मान्य नहीं है। अतः 'पविशेषयोः कार्यकारणभाव: स तत्सामन्ययोरपि यह नियम नियंत्रितक है।' सो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जहां कोई कपाल नहीं है वहां fe यह प्रश्न हो कि ऐसे स्थल में घट की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है तो इस का उत्तर यह नहीं दिया जा सकता कि ल ल कपाल का प्रभाव होने से घट की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि तस्कपाल के अभाव में भी श्रन्य कपाल से घट की उत्पत्ति होती है। अतः स त कपाल का प्रभाव त त घट की शी प्रतुति का नियामक नहीं हो सकता है। अतः घटसामान्य की अनुत्पति का नियामक कपालसामान्य के अभाव को ही मानना होगा और यह तभी संव है जब घट और कपास में सामान्यरूप से कार्यकारणभाव हो। उसी प्रकार जहां कोई कृति नहीं है वहां कार्यमामान्य को अनुत्पत्ति का नियामक प्रतिसामान्य का प्रभाव है इस बातको उपपत्ति के लिये कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य को भी कारण मानना श्रावश्यक हैं। तो इस प्रकार जब कार्य सामान्य के प्रति कृतिसामान्य की काररता पुलिसिद्ध है तब उसके बलसे 'कार्य सफ के कार्यत्वात्' यह प्रतुमान निर्बाध रूप से संपन्न हो सकता है" : ( व्यापक रूप से कारणता को सिद्धि को असम्भव - उत्तरपक्ष) किन्तु यत् कथन विचार करने पर समीचीन नहीं प्रतीत होता है क्योंकि कार्यत्व भी जो संपूर्ण काका संग्राहक है एकधर्म रूप न होकर कालिक सम्बन्ध से घर पटवादि रूप है। आशय यह है कि कार्यत्व को सफल कार्यों में एक अनुगतधर्म के रूप में तभी स्वीकार किया जा सकता है ज संपूर्ण कार्यों का अनुगम करने का कोई मार्ग न रहे किन्तु ऐसे मार्ग का प्रभाव नहीं है। क्योंकि कालिक सम्बन्ध से घटत्व सभी कार्यों में रहने से समस्त कार्यों का अनुगमक हो सकता है, मतः कालिकसम्बन्ध से घटपटादि से भिन्न कार्यत्व नामक एक मतिरिवत धर्म को सता में कोई प्रमाण नहीं है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४] [ शा.. ममुकायम. -इजो ९ (सामान्यकार्यकारणभावकल्पना में गौरव) फानसः 'कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य कारण है। इस नियम का पर्यवसान 'कालिक सम्बन्धसे घटस्वादिमस के प्रति कृतिसामान्य कारण है-इस कार्यकारणमा में होगा। और यह कार्यकारणभाव घटस्यपटस्थावि कापताछेवक व से अनन्त होगा। प्रस:-'घरपटावि तष्ट्त कायों के प्रति पृषक रूप से विजातीय कृति कारण है-इस कार्यकारणभाम से मतिरिक्त उक्त रूप से 'कार्यसामान्य के प्रति कृतिसामान्य कारहा है। इस कार्यकारणभाव की कल्पना गौरवग्रस्त है। इसके अतिरिक्त कार्य-कारण मात्र में गौरव का अन्य हेतु भी है असे कालिक सम्बन्ध से धत्व पटस्वावि धर्म माघभूत वस्तु में रहता है इसी प्रकार धम में भी रहता है और स्वंस के प्रति उपायान प्रत्यक्षाषि कारण नहीं होते पयोंकि उसका कोई अपाकान ही नहीं होला। प्रतः वरुरूप कार्य के प्रति उपाबानप्रत्यक्षादि कारणों का व्यभिचार वारण करने के लिये ध्वंस को उम के कार्यवर्ग से ज्यावत करने के लिये कार्यतावभवककोटि में सत्व-भावश्व का निवेश करना होगा। फलत: मावस्य और घटत्व प्रादि के विशेषविशेष्यमाब में कोई विभिगममा न होने से 'स्वादिविशिष्टमावं प्रति उपावानप्रत्यक्षाविक कारणं' एवं 'मायाबापEEfisदि . क्षाविक कारण इस प्रकार से गुरुतर कार्यकारणभाव की प्रापत्ति होगी। जन्यत्व अथवा अवछिन्नत्व का निधेश व्यय है। वि यह कहा जाय कि-'भाषक:य की उत्पत्ति प्रध्य में ही होती है गुणादि में नहीं होती इसलिए जन्ममाव के प्रति द्रव्य कारण है यह कार्यकारणभाव मानना बावश्यक होता है। इसके अनुसार जन्यसस्व द्रव्य का कार्यतावच्छेदक होता है। अन्यसश्व का अर्थ है जन्यायधिशिष्ट सपथ । इस में जम्बरप का नियम निरप भावगवाओं को व्यावृत्ति के लिए किया जाता है और सत्व का निवेश ध्वंस की ब्यावृति के लिए किया जाता है। मित्य भाषपदार्थों की प्यावृति के लिए जन्याय के बले अर्वाच्छन्नत्व का भी निवेश किपा मा सकता है । प्रवच्छिन्नत्य का अर्थ है कालावस्छिन्नत्य अर्थात् किञ्चितकालतित्व । इस प्रकार द्रव्य का जन्यतावश्यक जन्यसत्व मा किश्मिकालवृत्ति समवेतत्व होता है। उप्ती को उपादान प्रत्यक्ष विकोर्षा और कृति का कार्यताघधक माम कर अन्यभाव सामाग्यके प्रति उचाधाम प्रत्यक्ष प्रावि को कारण माना जा सकता है.तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्व के संबन्ध में यह बात पूर्ववत काही आ सकती है कि अश्यष अतिरिक्त धर्म न होकर विनिगमना विरह से कालिफसधेन घटत्व-पटरव प्राविरूप ही है । इसीप्रकार प्रमत्व के संबंध में भी कहा जा सकता है कि प्रसिधनत्य विभिगमनाविरह से सब तब घटाविरुप को तत् तत् काल. तन्निरुपितत्तित्व रूप है इसलिए पूर्वोक्त दोष से निस्तार अशक्य है ।। (सामान्पाभाव विशेषाभाषकूट से अन्य नहीं है। इस सन्दर्भ में 'पविशेषयो कार्यकारणभाव: स तस्सामाम्ययोरपि' इस न्याय से कार्यसामान्य मौर कृसिसामान्य में कापंकारणभाष सिद्ध करने का जो प्रयास किया गया है वह मी सफल नहीं हो सकता क्योंकि उस न्याय में कोई प्रमाण नहीं है । उस न्याय के समर्थन में जो यह बात हो गई है कि जिस स्थान में कोई कपाल नहीं है उस स्थान में कपालसामा घ.नाव को घट सामाग्य की अनुस्पति का नियामक सिद्ध करने के लिए एवं जब कोई कृति नहीं है उप्त समय कृतिसामान्याभाव को कार्यसामान्य की अनुत्पति का नियामक सिद्ध करने के लिए 'षट सामान्य के प्रति कपालसामान्य Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० ० टीका-हिन्दी विवेचन ] यत्तु पटस्याच्छिन् कृतित्वेन हेतुत्वेऽपि खघटाद्युत्पत्तिकाले कुलालादिकृतेरस ध्वादीयसिद्रिः, इति दोघिसितां तत्तुच्छम् अस्माभिस्तत्र घटे लण्डन्यवा भ्युपगमान् । युक्तं चैतद्, प्रत्यभिज्ञापतेः । नत्र सादृश्यादिदोषेण असकल्पने गौरव | 1 [ ४४ और कार्य सामान्य के प्रति कृतिसामान्य कारण है- यह कार्यकारणभाव मानना प्रावश्यक है वह ठीक नहीं है क्यों विणेामाद से ही सामाग्याभाव की प्रतीति आदि उप हो जाने से विशेषाभावकूट से नित्र सामान्यामाथ की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं हैं। अतः जहाँ कोई कपाल नहीं है यहाँ घट सामान्य की अनुत्पत्ति का प्रयोजक तन्तत्कपालानाय समुदाय से है । एवं जहाँ कोई कृति नहीं है तब उस समय कार्यसामान्य की अनुत्पत्ति का प्रयोजक लक्ष्त कृतिकाश्रमाव समुदाय हो है यही मानना युक्ति संगत है। अतः 'यविशेषयोः'० न्याय में कोई युक्ति न होने से कार्यकारण के बीच सामान्य कार्यकारणभाव नहीं सिद्ध हो सकता । श्रतः कार्यसामान्य से - सामान्य के अनुमान करने का प्रयास असंभव है। इस से अतिरिक्त व्याख्याकार का कहना है कि प्रयत्न से प्रायोगिक कार्यों को ही उत्पत्ति होती हैं । प्रायोगिक उसे कहते हैं जो प्रयोग मध्य को है। इसलिए प्रायोगिकत्व हो कार्यत्व का व्याप्य होने से प्रयत्न का जन्यतावच्छेदक है । और वह ल आदि कर्तृ होन का वायु है और बेबकुलादि कर्तृ सापेक्ष कार्यों में अनुगत हैं और उस के अस्तित्व में गृहाधिकार्य प्रायोगिकम्' और 'लाविकार्य न प्रायोगिक यह सार्वजनिक व्यवहार हो प्रमाण है। इसी प्रमि sa से सम्मति के टीकाकार मे तुलबन्धी विकल्प प्रस्तुत होने पर यायिका प्रावित कार्यसमत्व का निराकरण किया है। इस विषय को स्पष्टता के लिए सम्मसिटीका है । ( खण्डघट का ईश्वर कर्ता है - दोषितिकार को युक्ति) तामणि ग्रन्थ के उपर दोषित नाम की व्याख्या करने वाले रघुनाथ शिरोमणि से ईश्वर की सिद्धि के पथ में यह कहा है कि कार्य सामान्य के प्रति कृतिसामान्य की कारणता न मामने पर भी घट आदि के प्रति कुलपति की कृति कारण है इस कार्यकारणभाव के बल पर भी ईश्वर को सिद्धि को आ सकती है। उदाहरण के रूप में उन्होंने घट को प्रस्तुत किया है। उनक यह है कि घर से कुछ अंग निकल जाने पर पूर्ववर्ती पूर्ण घर का ना होकर नये अपूर्व घटको उत्पति होती है उसे पर कहा जाता है। जब यह कार्यकारणभाव है कि घट सामान्य के प्रति कुलालकृति कारण है तो इस घर के भी सामान्य के होने से इसके लिए भी कुलालकृति का होना आवश्यक है । किन्तु वह कुलालकृति आधुनिक कुलालको कृति नहीं हो सकती। क्योंकि उस घट का निर्माण करने के लिए कोई आधुनिक कुलाल उपस्थित नहीं होता । अतः यह मानना होगा- यह घट जिस कुलाल की कृति से उस होता है वह कुलाल ईश्वर है । यही कारण से वेदों में गम कुलसेकर कुलरल के रूप में ईश्वर को वंदना को गई है। (घट याने पूर्णतापर्याय को निवृति] sererrarतिकार के इस प्रयास को यह कहकर बताया है कि घट का कोई अंद निकल जाने पर पूर्व का नाश होकर किसी नये को पति नहीं होती किन्तु पूर्व घर में हो Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] [शा. पा. समुरुचव स्तर-३ लोक । अत एव पाकेनापि नान्यघटोत्पत्तिः, विशिष्टसामग्रीचशाद् विशिष्टवर्णस्य पदादेव्यस्य कश्रिदविनाशेऽप्युत्पत्तिसंभवात , इति नसक्नं सम्मनिटीकायाम् । परेषामपि स्वप्रयोज्यविजातीयमयोगसंपन्धन तत्काले किलालक मत्वाच्च । न च वै शोपिफनो श्यामघटादिनाशोत्तर रक्नघटा घुस्पनिकाले प्राक्तापामासु यसंयोमा परमादेश सीमि पूर्णपर्याय की नियुक्ति होकर व पर्याष की उत्पति होती है । तो जब कोई नपा घट उत्पन्न ही नहीं होता तब उसके कर्ता रूप में किसी पुरुषविशेष की कल्पमा केसे को जाये? व्याख्याकार ने अपने इस कथन के समर्थन में प्राथभिमा को प्रमागरूप में प्रस्तुत किया है। उनका आशय पह है कि किसी घट में से कुछ मंचा निकल जाने के बाद भी एव प्रय घट:' = यह वही घट है। इस प्रकार यतमान घट में पूर्वघट के तावास्भ्य काशन होता है। म पूर्व घटका मामा होकर नये घट की उत्पत्ति मानो जायेगी तो इस तावात्म्य बसमरूप प्रत्यभिज्ञान को उपपास नहीं हो सकती। मवि यह कहा जाय कि यह प्रत्यमितान यथार्थ नहीं है किन्तु भ्रमरूप है । अत. इस से पूर्णयट और खंघट की एकता नहीं सिसहो सकती-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त प्रत्यभिज्ञा को भ्रम मानने पर उसके हारमारूप में साहाय प्रावि वोष को कल्पमा कामी होगी । और जहां भी प्रत्यभिजा होती है वहां सषेत्र उसे भ्रम मानकर प्रणभिमान पायको पुष पार्थ से भिन्न मामले की स्थिति उत्पन्न झोमे से अनेक पदार्थों की काल्पना का गौरव भी हो सकता है। यदि यह कहा काय-कि-खण्यघट में पूर्वघर के ताबारम्प का वर्शन श्रम है. जो रोमों में माशिम होने पर साहस्य के कारण होता है :सो यह ठीक नहीं है. क्योंकि इस पाल्पता में पूर्वपट कामाचा भोर मौत घट की उत्पत्ति तथा इन दोनों में ताबारम्यान के लिए सारश्म में दोबारको कल्पना होने से अतोष गोरख है। (पाकक्रिया से अश्यघट उत्पत्ति प्रक्रिया को समालोचना) इसीलिए सम्मति टीका में भी यह बात स्पष्ट की गई है कि पाक से श्यामघट का मा होने पर पाय घर को उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु विशिष्ट सामग्री के प्रभाव से पूर्ववर्ग से विलक्षण घणेशालो जमी पटतव्य की उत्पत्ति होती है उस के पूरणं को मिति हामे परभी उसका नाश ना होता। बयोंकि प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण में पूर्व पर्याय के रूप में मष्ट होते हुए और उत्तर पर्याय के रूप में उत्पन्न होते हुए भी अपने मूषप्रध्य के रूप में स्थिर रहती है। शेविक आदि के मस में यदि पाकरयल में पूर्वघट का नाश होकर नवीन घर को उत्पत्ति होती है, तथापि सत घटके कारणरूप में ईश्वरीयकृति की कल्पना आवश्यक नहीं है क्योंकि कृति घटने प्रति साक्षात कारण न होकर स्वप्रयोज्य विमातीष संयोग समंध से शो कारण होती है। और स्वत सपोगसम्बन्ध से पाहाचल में भी कुलाल की पूर्वकृति होने में कोई बाधा नहीं है। क्योंकि उस समय मिस कपालमय संमोग से घटको उत्पत्ति होती है उसे 'मी कुलाल की पूर्वकृति का प्रयोगप माना जा सकता है, क्योंकि कुलाल को पूर्वकृति से उसी प्रकार का संयोग होकर यवि पूर्वघट म होता तो उसके पाक और पाक से नये घट की उत्पति को स्थिति ही न होतो। प्रतः यह कहा जाना सर्वथा सगत है कि या घट जिन्स कपालद्वम संयोग ले उत्पन्न होता है वह भी परंपरा से पूर्वघर के उत्पाबफ कुलाल की पूर्वकृति का प्रयोज्य है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका-हिन्वीयिवेचना ] चाल्यम् । पूनमंयोगादिध्वमपूर्णपणुकादिध्वमानामृत्तग्मयोगद्रवणुकादायततः कालोपाधिस्तयापि जनकन्वान , तत्कालेऽपि कुलालादिकने स्वप्रयोज्यविजातीयमयोगेन मन्त्रात; अन्यथा घटत्यचिछन्ने दण्डादिहेतुत्वमपि दुर्वच म्यात् । 'दण्डादिजन्यताबछेदफं विलक्षणघटत्या. दिकमेवे' ति चेत् ? कृतिबन्यतावच्छेदकमपि तदेवेन्यताम् । 'कृतेलाचाष्ट्र विशेष्यवयव हेतुत्वात् था दण्डस्य म्बप्रयोज्यकपालयमयोगेन सत्त्वम् , न तु विशेष्यनया कुलालकृतिः, मोद खण्डघटे तलिद्धिरिति चेत् ! न, कृतेर्गय स्वप्रयोज्यसंपन्धेनच हेमन्यात् । विजानीग प्रयोगत्वेन मंबन्धन्वे गौग्यान, पदन्धामिछन्ने विजानीयकृतित्वेनैव हेतुत्वाच्चैति दिक् । [ वैशेषिकमतानुसारो पाकप्रक्रिया को पालोचना ] यपि यह कहा जाय कि-'शेषिक मस में पाक से श्यामघट का नाश होने के बाद जब रक्तघट की उत्पति होती है तो इसके पूर्व श्यामघट का पाक पर्यन्त माश हो जाता है। केवल विश्वत परमाणु रह जाते हैं और फिर परमानों के संयोग से दूषणुक श्यणक सादिकी उत्पत्ति होकर कपालउपके मोसंयोग से नये घट की उत्पति होती है। इस प्रकार मये घट की उत्पत्ति के समय लाल की पूर्वकृति से होनेवाला संपूर्ण संयोग मावि का नाश हो जाने से उक्त कृति के स्वप्रमोम विजातीयसंयोग सम्बन्ध से अस्तित्व की कल्पना प्रसंभव है'- सो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पाक स्थल में नये पर की पत्ति के लिये किलर कमान पन्त नयों को प्रावण्यकता होती है उनके प्रति वर्षवर्ती परमाणुसंयोगावि मौरचणुकावि का नाश कारण होता है। बाकि किसी भी प्रध्य में किसी कार्यव्रम्प के रहते नये ट्रन्म की उत्पत्ति नहीं होती एवं दो द्रव्यों में पूर्वोत्पन्न संयोग के पते जन प्रज्यों में नये संमोग को उत्पति नहीं होती इस उत्सर पूण्य के प्रति पूर्व क्ष्य का नाश और उत्तर संयोग के प्रति पूर्व संमोग से नाश को कारण माममा प्रायश्यक होला है और इसके अतिरिक्त कालोपाधिहप में भी पूर्व संयोग और पूर्व सघणकादि का नाश, उसर संयोग और उत्तरायणकादि के नाश का कारण होता है। अतः पाक स्थल में नवीन घट को उत्पत्ति के समय बु.साल 1 पूर्षकृति फे स्वप्रयोश्य विजातीय संयोग सम्बन्ध से रहने में कोई बाधा नहीं हो सकतीयोंकि महीन घट के लिये अपेक्षित परमाण संयोग और यघणुकावि पुर्व संयोग और पूर्व क्षणवावि के नाम से जन्म है पोर उपत नापा अपने प्रतियोगी से जन्म है और प्रतियोगी पुलास की कृति से अन्य है। मरकुलाल कृति से जन्म होने वालों को परम्परा में ही नवीन घर के उत्पाबक कपालद्वय संयोग के होने से उसे कुलाल को पूर्व कृति से प्रयोग्य मानना सर्वथा खास है। इस प्रसङ्ग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि परमाणुनों का संयोग और दूधकारिकी उत्पत्ति कुलाल कति से नहीं होती। कुलाल कृति से तो कपाल मौर कपाश्यका संयोगही उत्पघ्र होता है, प्रतः नवीन घर के उत्पादक नवीन कपालदूध संयोग को कुलाल कृति से प्रमोश्य इसलिये मानना चाहिये कि वह कुलाल कृति से उत्पादित पूर्व कपाल और पूर्वरुपालाय संपोग के माश में उत्पन है । माल्पाकार का कहना है कि पाक स्थल में नवीन घट की उत्पसि के समय स्वप्रयोज्य विजातीय संयोग संबंध से कुलाल की पूर्वकृति का अस्तित्व माममा मावश्यक है। यदि ऐसा न माना जायगा तो घट सामान्य के प्रति वण्डमादिको कारणता का समर्थन न हो सकेगा । पोंकि पाक से मवीन घट को उत्पत्ति के समय व मावि मी नहीं रहते। मतः उस षट के लिये यदि ईश्वरीय कृति Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] [ शा. त्रा, समुच्चय म्त :- Rोक किडच, उपादानप्रत्यक्षम्य किकम्य हेतुन्यात कथमीश्वरे तन्मिद्धिः ? अपि च, प्रणिधानाद्यर्थे मनोवहनाइयादी प्रवृत्तिम्बीकाराद् यदावचिन्ने यप्रिनिः सद्धर्मापनिछाने की कल्पमा अावश्यक है तो उसी प्रकार ईश्वरीय दण्डादि को मौ कल्पना करने की प्रासश्यकता पर सकती है सर्वाक ग्रह वात वर कटुंश्ववादो को भी मान्य नहीं है । प्रत: पाकस्थल में नवीन घट के उत्पावक नवीन कपालस्य संयोग को पूर्ववडप्रयोज्य मानकर स्वप्रयोज्यचिजातीय संघोग सम्बाघ से वयादि का अस्तित्व मानकर उस घर में वण्डादि जन्यता की उपपत्ति जिस प्रकार की जायणी उसी प्रकार लाल को पूर्वकृति जभ्यता को भी उपपत्ति की जा सकती है। प्रतः पाकस्थलीय घट की उत्पत्ति के अनुरोध से ईश्वरीय कृति की कल्पना नहीं हो सकती। यदि यह कहा आप कि-वाधि को घट सामान्य के प्रति कारण न मानकर विलक्ष घट के प्रति कारण माना जायमा : पाक स्थलोय घट के लिये वण्डादि की भावश्यकता नाी होगी।'- तो यह बात कृति के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। प्रर्थात घट सामान्य के प्रति कृति को कारण न मानकर साण घट केही प्रतिकृति को कारण माना जा सकता है । प्रत: पाकस्थलीय घट के लिये कृति की मी कल्पना अनावश्यक हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि-'कृति को स्वप्रयोश्य विजातीय संयोग सम्बन्ध से घट का कारण मानने में गौरव है । प्रस: लायष के लिये समयाय सम्बन्ध से घट के प्रति विशेष्यता सम्बन्ध से ही कृति को कारण मानना उचित है । ऐसी स्थिति में जिस खण्ड घट की उत्पत्ति के पूर्व वण्ड स्वप्रयोज्य कपालय संयोग सम्यम से है किन्तु कुलालकृति विशेष्यता सम्बन्ध से नहीं है- उस ववष्ट के लिये ईश्वरीय कृत्ति की कल्पना प्रावश्यक है तो यह वीक नहीं है, क्योंकि कृति भी स्वप्रयोज्य सम्मान से ही घट के प्रति कारण है न कि स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बाध से क्योंकि विजातीयसंयोगस्व रूप से स्वप्रयोज्य को कारणतायसवक सम्रय मानने में गौरव है। पौर स्वप्रयोज्यसम्बन्ध से कारण मानने में विशेग्यता सम्बन्ध से कृति को कारग मानने को मपेक्षा कोई गौरव नहीं है क्योकि विशेष्यता सम्बन्ध मे कारण मामने में कारणसापच्छेदक सम्बन्धतावस्थेवक विशेष्यप्तास्थ होगा और स्वप्रयोग्य सम्बन्ध से कारण मानने पर कारणतावस्थेवक सम्मन्धतापबाहेवक-प्रयोज्यत्व होगा। और प्रयोक्याव और विशेष्यतारध में कोई लाघव-गौरव नहीं है क्योंकि दोनों ही स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप है । उसके अतिरिषत यह भी सातव्य है कि कृति को घट सामान्य के प्रति कारण न मानकर विजातीय घट के प्रति कारण माममा उचित है। अंसा कि ममी रण्डादि को विजातीय घर के प्रति कारण बताया गया है। तो इस प्रकार जब घट सामान्य के प्रति कृति कारण ही नहीं है तो कृति के बिना भी पाकस्थलीय घट की या खाया की उत्पत्ति हो सकती है। मप्त: उसके अनुरोध से ईश्वरीय कृति को कल्पना नहीं की जा सकती। [ ईश्वर में लौकिक प्रत्यक्षज्ञान का प्रभाव ] इस प्रसङ्ग में यह मी विचारणीय है कि उपावान कारण का लौकिक प्रत्यक्ष हो कार्य का देत होता है।पयोंकि उपायान के अलौकिक प्रत्यक्ष के प्राधार पर मम्म देशस्थ या अन्य कालस्य जमावान में कोई भी का कार्य को उत्पन्न करने का प्रयास नहीं करता और उपावान का लौकिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय के लौकिक समिकर्ष से हो संपन्न होता है। अतः जबर में उमावि के उपादान पर Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ] [४३ तत्प्रकारकमानमात्रस्य हेतुन्वात कथमुपादानप्रत्यनमीश्नरम्य । तस्यानुमिनिन्वे जन्यानुमितित्वं व्यापिकानजन्यनावन्द कमिति गौग्योहावनं तु अत्यन्मन्ने अन्यप्रत्यान्यस्यन्द्रियादिजन्यताकछेदफन्त्रकपनागौग्वं नातिशेते । अपि च, तदुपादानप्रत्यक्ष निराश्रयमेवाऽम्त, रविषगतकल्पनभिया त निन्यज्ञानादिकमपि फर्थ कल्पनीयम् ! अभिहितश्चायमचों 'बुद्धिश्वेश्वरस्य यदि नित्याच्यापिक्रवाऽम्युपगम्यते, तदा मेवाडचेतनपदाधिष्ठात्री भविष्यति, इति किमपन्तदाधारेश्वरपरकल्पनया ?" इत्यादिना अन्धेन सम्मतिटोकायामपि । माणु धादि का लौकिक प्रत्यक्ष सिल नहीं हो सकता क्योंकि स्विर इन्मियामि से रहित होता है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि जिस कार्य की इच्छा से जिस कारण में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है उस कारण में उस कार्य का ज्ञान सामान्यरूप से हेतु होता है न कि उस कारण में उस कार्य का प्रत्यक्षज्ञान । क्योंकि यदि कारण में कार्य के प्रत्यक्षज्ञान को ही हेतु माना जायगा तो मन का प्रणधान -मन की एकाग्रता करमे के लिये मनुष्य की ममोबहनाडी में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि मनो बहनाढी का उसे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता । तो कार्यकारणभाव की इस स्थिति में ईश्वर में उपणुकावि के उपादान का प्रत्यक्ष न सित होकर केवल इसमाशी सिम हो सकता है कि ईश्वर में घणुकावि के उपादान कारण का ज्ञान रहता है। प्रतः ईशवर सर्वहनदा न सिद्ध होकर सबंजातर ही सिर हो सकता है। सच मात तो यह है कि कार्य के प्रति उपावान कारा के नामसामान्य को कारण मानने पर प्रचणकाधि के उपावान कारण के जाप्ता इ.पमें भी बिर की सिद्धि मझी हो सकती, क्योंकि एक अमाग को समिट के समान अन्य पूर्वोत्पन्न ब्रह्माण्ड में विधमान योगी को किसी प्रधीन उत्पन्न होने. वाले ग्रह्माण्ड के अन्तर्गत विद्यमान परमाणुनों का योगजन्य ज्ञान हो सकता है और उसी शान से नपे ब्रह्माण्ड में वृषणकावि को उत्पत्ति हो सकती है। प्रत. ब्रह्माण्य ईश्वरकतृक न होकर योगिकतंक हो सकता है । इसलिये विश्वकतारूप में ईश्वर की सिद्धि की माशा चुराशा मात्र है। यदि यह कहा जाप कि-संपूर्ण बयाण्ड का एक साथ खा प्रलय होता है और बहु प्रलय की अवधि पूरी हो जाने पर नये ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है। प्रत; खण्ज प्रलमकाल में कोई योगी नहीं रहता इसलिये मये बह्माण में वृधमाविको उत्पत्ति परमाणों के योगिजान द्वारा समर्थित नहीं हो सकी। अतः घणुकावि के उपादानभूत परमाणुओं का झाम सृष्टि के मारम्म समय में हावर में ही मानना प्राधायक है और उसे प्रत्यक्ष रूप हो होना उचित है। क्योंकि अमिति रूप मानने पर मनुमितिरबको स्माप्तिज्ञान का जायत.वग्रेक नहीं माना जा सस्ता, बोंकि वह क्याप्तिकान से प्रजन्य वरीय अनुमिति में रहने के कारण क्याप्सिजानन्यताका प्रतिप्रसक्त धर्म है । अतः जन्यानुमितिरवको व्याप्तिकान का जन्यतावस्थेदक मानना पड़ेगा और उसमें गौरव होगा।"- नी यह कथन होकन क्योंकि ईश्वर मान को प्रत्यक्षारक मानने पर भी, ईश्वरीयमित्यप्रत्यक्ष में प्रियता मही है अत: इन्द्रिय जन्यता के प्रतिप्रसक्त होने से प्रस् प्रक्षरमको इन्द्रियजन्मता का अवरोधक न माना जा सकेगा किन्तु जयप्रत्यक्षरा को ही प्रम का जन्प्रसस्वरवा मानना होगा । प्रतः वरीयमाम की प्रत्यक्षरूपता का समर्थन उपसरीति से नहीं किया जा सकता। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० 1 मुरुड-०३-१०९ , किञ्च एवं नानात्मस्त्र व्यायवृत्ति तत्कल्प्यताम् स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगमंत्रन्धेन तेषु तत्कम्पनापेक्षया समवायेन तत्कल्पनाया एवं तब न्याय्यात् । न घटादिभ्रमोदाचिः बाधबुद्धिभ्वादिति वाच्यम् बाधबुद्धिप्रतिबन्धकसाया चैत्रीयत्वस्यावश्यं नियेश्यत्वात् । तच समवेतत्व संबन्धेन चैत्रवश्यं पर्यासन्वेन या इति न किश्चिद् चैपम्यम् । अपि च, 'देवतासंनिधानेन' इति पण प्रतिष्ठादिना स्वाभेद- स्वीयत्वादिज्ञानं नाहिस्काररूपं कादो स्वीकृतम्, न अमादीनामीश्वरमेदः, भगवद्गीताविरोधात् । एवं से इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि फार्म प्रत्यक्षाविजन्यं कार्यस्थात इस अनुमान का कार्यों के कारणभूत प्रत्यक्षावि सिद्ध होने पर भी उसके प्राश्रमरूप में ईश्वर को सिद्धि में कोई प्रभाग नहीं है। क्योंकि कवि के उपावनभूत परमाणुओं के प्रत्यक्षादि को मिराश्रय माना जा सकता है। यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षात किसी माश्रय में हो रहता है। अतः परमाणु के प्रक्षादि में निराश्रयस्व की कल्पना ष्टविरुद्ध होने के कारण नहीं की जा सकती' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तब तो जीव में श्रनित्य ही ज्ञान प्रावि सिद्ध होने के कारण ईश्वर के ज्ञान आदि में विश्व की भी कल्पना विरोध के कारण नहीं की जा सकेगी। इस बात को सम्मति टीका में यह कहते हुए स्पष्ट किया गया है कि यदि ईश्वर की बुद्धि नित्य और व्यापक है तो ईश्वर के बिना भी बुद्धि को प्रवेतन पदार्थों को प्रभिष्ठात्री मान लेना चाहिए उसके माधारभूत ईश्वर की कल्पना निरर्थक है । इस सन्दर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि चणुकादि के उपादान कारणभूत परमाणुनों कान ईश्वरर किसी एक अतिरिक्त आत्मामें न रह कर संपूर्ण प्रात्मानों में ही व्यायवृत्तिपर्याप्त सम्बन्ध से रहता है क्योंकि उस ज्ञान को अन्य मात्मायों का अधिष्ठाता बनाने के लिये उनके लाय उस जान का स्वाश्रय संयुक्त संयोग सम्बन्ध मानना होगा जैसे स्व का अर्थ है ज्ञान, उसका चाय है ईश्वर उससे संयुक्त है मूर्तद्रव्य और उसका संयोग है जीवात्मा में तो इस स्थिति में मही उचित प्रतीत होता है कि उस ज्ञान को स्वाश्रय संयुक्त संयोग सम्बन्ध से जीवात्मानों में न मानकर समवायसम्बन्ध से हो माना जाय । यदि यह कहा जाय कि 'उस ज्ञान को समस्त जीवों में मानने पर किसी को घटादि का भ्रम न हो सकेगा, क्योंकि जिस देश में घटादि का भ्रम होता है उस वेश में प्रस्येक मनुष्य को घटाभाव को बुद्धि विद्यमान है जिससे घदाबि के भ्रम का प्रतिबन्ध हो जाना अनिवार्य है तो पह ठीक नहीं है क्योंकि एक gas को बाधबुद्धि से धन्य पुरुष की विशिष्ट बुद्धि के प्रतिस्थापति के निवारणार्थ चैत्रादि तखपुरुषीय विशिष्टबुद्धि में मंत्रादि ततपुरुषीय बाथबुद्धि को प्रतिवश्यक' मानना आवश्यक होता है । जिस में तत्पुरुषीयश्य का अर्थ तसरपुरुषसमवेतत्व म कर पुरुष पर्याप्त कर देने से जगत के कारणीभूत सर्वविषयक ज्ञान को सर्वात्मगत मानने पर होने वाली घटादि काम के उच्छेद की मापत्ति का परिहार सुकर हो जाता है क्योंकि सबंधिकशाम किसी एक मामा में न होकर सभी प्रात्मा में पर्याप्त होता है । धतः तसपुरुष पर्याप्तमाधवृद्धि को मानने पर सज्ञानामक वाघद्धि से विशिष्टबुद्धि का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा०० टीका हिन्दीधिवेचना ] [ ५१ सुखदुःखादिश्रवणाद वर्मा-त्रिपि तत्राऽङ्गीकर्तव्यौ । न च विरोधः, ब्रह्मादिशरीरावदेनाऽनित्यज्ञानादिमध्येऽप्यनवच्ज्ञिानाविरोधात् । अत एवाऽन्ये तु 'स तपोऽतप्यत' इति श्रुतेः अणिमादिप्रतिपादक थुनेम धर्माऽधर्मावनित्यज्ञानादिकमपीश्वरे स्वीकुर्वन्ति इति शशधरेऽभिहितम् । एतन्मते च बाधादिप्रतिबन्धकतायामसमवेतत्वेन चैवादिलक्षणदेवर निवेश्यत्वाद् नातिरिक्त नित्यज्ञानाश्रय सिद्धिः । [ ईश्वर में जन्यज्ञान की प्रापत्ति ] इस प्रसङ्ग में इस विषय पर ध्यान देन्दा मी आवश्यक है कि स्यायशास्त्र में ब्रह्म प्रावि देवलरों की प्रतिमाओं में शास्त्रोक्त प्रतिष्ठाविधि से बेषताओं का सन्निधान माना गया है । देवतानों के सत्रिधान का अर्थ है प्रतिमा में देवता को प्रभेदबुद्धि या श्रात्मीयत् बुद्धि। इसी को प्रतिमा का प्रतिष्ठा जन्य संस्कार कहा जाता है। इस प्रकार जब बह्मर्शद देवताओं में अपनी श्रभितामामात्मीयता का जाम उत्पन्न होता है तब यश कसे कहा जा सकता है कि ईश्वर में जन्यज्ञान नहीं होता किन्तु नित्यज्ञान ही होता है ! यदि यह कहा जाय कि सावि वेबता ईश्वर से भिन्न है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अपने को ही जगत् का स्रष्टा-पालक श्रोर संहर्ता बताया है और अपने ही को ईश्वर कहा है। इसलिये ब्रह्माविको ईश्वर से भिन्न मानना मगीता के विरोध के कारण उखिल नहीं है। उसी प्रकार पुराणों में यह भी सुमने को मीलता है-ह्मादि देवताओं को अनायास उपलब्ध होने वाले विषयों से सुख और राक्षसों के अत्याचार से दुःख भी होता है। प्रतः बह्मादि में सुख और दुःख के कारणभूत धर्माऽधर्म की भी सत्ता माननी होगी और ब्रह्मादि के ईश्वर से नि होने के कारण ईश्वर में मो धर्माऽयमं को मला अनिवार्य होगी । इस प्रसङ्ग में यह भी कहा जा सकता है कि-ट के आरम्भ में काट की उत्पत्ति के हेतु के उपादान कर परमाणु का ज्ञान ईश्वर को मानना आवश्यक होता है और उस समय कोई शरीर न होने से उस ज्ञान को वीरादि से अनवचित्र निश्य हो मानना पहुंगा । तो फिर उसमें प्रमिस्य ज्ञानादि की सत्ता मानना विरोध है किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि बहाव के शरीर द्वारा प्रमित्यनवि को ससा और किसी सशरीर आदि को द्वार बनाये बिना होमिन की सत्ता मामले में कोई विरोध नहीं है । इसीलिये शशधर' नामक पंडिरामे स्वराग्य मे कह कहा है कि य विज्ञान सपोतायत' इस श्रुति के अनुसार और ईश्वर में प्रणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वयों का प्रसि पादन करने वाली श्रुति के अनुसार ईश्वर में धर्माधर्म और मनिश्यज्ञानादि का प्रति मानते हैं। इस मत में विशिष्टबुद्धि के प्रति बधद्धि को शरीरावचित्र समवेत स्वरूप से या पर्याप्तत्वसम्बन्धेन क्षेत्र निष्ठ रूप से प्रतिबन्धक मानकर भ्रम को अनुपपति का परिहार किया जा सकता है क्योंकि सर्वfareerक बाधबुद्धि शरीरावच्छेदेन समवेत नहीं होती और न पर्याप्तत्व सम्बन्ध से wafa एक व्यक्ति में ही विद्यमान होती है। मतः उससे भ्रमति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार समस्त जीवों में धणुकादि के उपादान कारणों के नियज्ञान को व्यासज्यवृत्ति मान लेने से संपूर्ण प्रावश्यक उपपत्तियां हो जाने के कारण नियमास के ईश्वररूप प्रतिरिक्त प्राय को सिद्धि नहीं हो सकती Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा०या० समुच्चय न. ३-लोक : किश्च, प्रवृत्तिविशेपे इछान्वयगतिरेकान्, प्रनिविशेष द्वेषाऽन्वयन्त्यतिरे कावपि दृष्टी, पुरमा मापनमःकानुन कारकादी शंबात । न च जिंहासर्थव द्वेषान्यथामिद्धिः, 'तर्दूतो" इति न्यायान् । अन्यया द्वेषपदार्थ एव न स्यात् , 'इंग्मि' इत्यनुभवे चिनिष्टमाधननाज्ञानम्प, क्वपिचानिष्टत्वज्ञानम्यैव द्वेषपदेन नवाभिलापाद । एवं च कार्यसामान्ये द्वेषस्यापि हेतुबमिती निस्पद्वेषोऽपीश्वर सिद्धशत । द्वेषवतः मंसारित्रप्रसङ्ग इति चैन ! चिकीवितोऽपि किन सः ? 'द्वेष-चिकीर्पयोस्तन ममानविषयन्वे करणा-ऽकरणप्रसङ्गः, भिन्नविषयत्वे च तस्कार्य न कुदिन, इति बाधकान् वैपकल्पना त्यज्य' इति चेत् ? एवम् भरकालोपस्थितबाधकेन तदाधीपगमे, नित्यज्ञानादिकल्पनागौरवादिषाधकेन क्लुप्तोऽपीश्वर स्त्यज्यताम् । [प्रवृत्ति से ईश्वर में द्वेष का प्रतिप्रसंग] इस संदर्भ में यह भी विचारगोष है कि जैसे प्रवृत्तियिशेष में पछा का अन्य मध्यतिरेक होता है पर्थात् जिस विषय को इसका होती है उस विषय में प्रवृत्ति होती है और जिस यिश्चम में हुया नहीं होती उत्त विषय में प्रति नहीं होती, उसीप्रकार प्रवृत्तिविशेष में देष का नो अन्वय-व्यतिरेफ वेझा जाता है। जैसे दुख के प्रतिष होने के कारण दु:ख लाधन कष्टकावि के प्रतिष होने से उन का नाश करने के लिये कण्टकावि में प्रवत्ति होती है, मोर जिस विषय में वेष नहीं होता उस विषष के नाश के लिये उस में प्रति नहीं होती। जैसे पुत्रकलयादि। फलतः ईश्वर में अगत निर्माण की प्रत्ति मानने पर जैसे उस में निस्य इच्छा मानी जाती है उसीप्रकार जगत् निर्माण के विरोधी वस्तु के नाश के लिये उस के पर वेष मानना भी आवश्यक होगा। इस प्रकार ईश्वर का वेषी होना अनिवार्य हो जायगा जो ग्यायशास्त्र की दृष्टि से मान्य नहीं है। यदि यह कहा आय कि"तु:ससाधनों के नासार्थ जो प्रवत्ति होती है वह उन के प्रति वेष के कारण नहीं होती अपितु उन के परित्याग की इच्छा से होती है। क्योंकि जिस वस्तु के प्रति दुवेष होता है उस कातु के स्यागकी भी इममा अवश्य होती है अतः एष त्याग कोमछा से दवेष प्रन्ययासिद्ध हो जाता है । प्रत: अनिष्ट साधनों के नाशार्थ होनेवाली प्रवृत्ति से वषेष का अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस को उपपत्ति निहासा प्रति त्याग की इच्छा से ही सम्पन्न हो जाती है." सो यह ठीक नहीं है “योंकि ततोरेवास् कि तेन ? इस ग्याष से नाशार्य प्रति के प्रति वेषजन्य मिहासा को हेतु मानने के बजाय सीधे वेष को हो हे मानने में मधिस्य है। पौर यदि जिहासा से वेष को प्रन्यथासिझमाना जायगा तो वेय पदार्थ ही सिद्ध न हो सकेगा। क्योंकि दुःख स्वरूपतः अर्थात सिनाष्य हुए और उस का साधन अनिष्ट का साधन होने से सोघे ही, जिहासित हो जायगा । जिज्ञासा के पूर्व खुश्ख मा दु:ख के साधन प्रलि वेष मानने की कोई प्रावस्यकता मिशन होगी। यदि यह कहा जाय कि 'वेष्मि-मुझे इस विषय के प्रति वृषेध है-म अनुमब हो वृषेष के मस्तित्व में प्रमाण होगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दुख के साधन कण्टकावि में प्रमिष्ट साधनता Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका और हिन्दी विवेचना ] तत्त एन- 'पुरेषु पुरेशानामिव जगदीशज्ञानेनादिव एव तत्तत्कार्यार्णा स्वल्पतमाऽधमदेश - कालादिनियमः वदन्ति हि पामरा अपि - 'ईश्वरेन्द्रव नियामिका' इति न के ज्ञान को लथा दुःख में शिश्न को ही द्वेष पद के व्यवहार का विषय मानकर उन शानों द्वारा ही 'वेध' इस अनुभव की उपपत्ति को जा सकती है। इस उपर्युक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि जैसे पादि कतिपय कार्यों में ज्ञान इच्छा अवि का प्रश्वयध्यतिरेक देखकर कार्य सामान्य के प्रतिशत प्रादि को कारण माना जाता है और उस के श्राधार पर कार्य सामान्य में ज्ञानादि अन्यत्व का अनुमान करके कार्य सामान्य के कारणीभूत शानादि को ईश्वर मिठ माना जाता है। autoere दुःखसायनीभूत कष्ट्रकवि के नाशरूप कार्य में कष्टावि के प्रति द्वेष का श्रन्यममसिरे देखकर कार्यसामान्य के प्रति द्वेष को भी कारण माना जा सकता है और उस के आधार पर कार्य सामान्य में वषजन्यथ का अनुमान कर कार्य सामान्य के कारण भूत द्वेष को भी ईश्वरनिष्ठमानना अनिवार्य हो सकता है । फलत: ईश्वर में नित्यज्ञानादि के समान निश्य इंष की श्री सिद्धि का परिहार नहीं किया जा सकता यदि यह कहा जाय कि ईश्वर में द्वेष मानने पर वह ईश्वर ही नहीं हो सकेगा मपि संसारी हो आएगा तो यह आप ईश्वर में चिकीयां मानने पर भी परहा है। क्योंकि विकी भी संसारी में ही देखी जाती है। यदि यह कहा जाय कि द्व ेष और चिको को समानविषयक मानने पर एक ही समय एक सो कार्य के करने और न करने दोनों को हो आपत्ति होगी । अर्थात् चिकीर्षा से उस कार्य का उत्पावन और द्वेष से उसी कार्य का अनुत्पाचन भी प्रसक्त होगा। जो प्रत्यन्त विरुद्ध है और यदि द्वेष और विकीष को भिन्नविषयक माना जायगा तो जो द्वेष का विषय होगा वह fanta का विषय न होने से ईश्वर द्वारा उत्पान हो सकेगा। फलतः ईश्वर में सर्वकार्यकत्व के सिद्धान्त की हानि होगी। अतः ईश्वर में द्वेष को कल्पना नहीं की जा सकती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ईश्वर में द्वेष कल्पना का जो बाधक प्रस्तुत किया गया है वह ईश्वर मेंष को सिद्धि हो अश्ते पर उपस्थित होता है अतः उसेष कल्पना का बाधक नहीं माना जा सकता। और यदि किसी वस्तु की सिद्धि के बाव उपस्थित होने वाले साधक से भी उस वस्तु की सति का बाथ मात्रा जायगा तो ईश्वर को मिद्धि का भी प्रतिबन्ध उस वाक से हो सकता है जो ईश्वर मानने के फलस्वरूप उपस्थित होता है जैसे, ज्ञान और प्रयत्न में निश्वस्व अर्थात संपूर्णकाल के साथ सम्बन्ध की कल्पना एवं ईश्वर में संपूर्णकाल के सम्बन्ध की कल्पना और निश्य ज्ञान प्रावि में संपूर्ण वस्तुओं के विषमस्व को कल्पना एवं घटाभाव पटाभावादि श्रनन्त श्रमाषों के सम्बन्धों को कल्पना से होनेवाला गौरव सब कल्पित ईश्वर को भी छोड देना होगा । [ ५३ [ ईश्वर की इच्छा से देश-काल नियम को उपपत्ति का प्रयास ] इस सन्यर्भ में कतिपय ईश्वर करववादियों की ओर से यह कहा जाता है कि जिस प्रकार नगरों में नगरा की ज्ञान के अनुसार ही प्रत्प अथवा अधिक देश काल और परिमाण में मिन मित्र कार्यों के उत्पादन का नियन्त्रण होता है उसी प्रकार यह मामला मी प्रावश्यक है कि जगत् का कोई सथीश्वर है और उसके ज्ञान इच्छादि से ही जगत में विभिन्न कार्यों के उत्पादन का नियत्रण होता है। यह मान्यता इतनी मूल हैं कि शिक्षित भी ऐसा कहा करते हैं कि 'संसार में Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] ( शा वा. समुश्चय १० -लोक देश-कालनियततत्तन्कार्योत्पत्तिज्ञानादित एवं हनन्कामानयहि गतं दण्डादिकारणत्यनेनि घाच्यम् , तदनुमनत्वमेव दण्डादीनां घटादित्वात् । न हि 'दण्डादिरेव घटादेरनन्यथासिनियतपूर्वबनीं न वैमादिः' 'कपालादि गमवागि, न तन्वादिकम्' इन्स्त्राऽन्य नियामकं पश्याम इनि सदनुमत्यादिकष तथा, नदनुमत्यादिकं म साक्षात् , किन्न नसकारणद्वारा तत्तसंपादकम् । नहि गजानादितोsiq दिनांक. ननचादि, विना तन्वादिक पटादि-इति पामराशयानुसरणसंक्रान्सपामरभावान मतमपासतम, गजासादितल्यतयेश्वरेच्छाया अहेतवान् सामग्रीसिद्धसर नियनदेश-कालवस्य तज्जन्यताघटकलया सदनियम्यादात , अन्यथा तन्काला. जो कुछ होता है यह सब ईश्वर की ही इच्छा से होता है। यदि यह कहा जाय कि त तन् वेश प्रोर ततव कार्य की उत्पत्ति नियत है और इस नियतत्व के ज्ञान मादि से ही सबसवेश और तद तह काल में तहत कार्य की उत्पत्ति का नियन्त्रण होता है-ऐसा मानते पर घटपटादि कार्यों के प्रति इण्डमाविकी कारणता काही लोप हो जायगा -तो यह ठीक नहीं हैं क्योंकि दण्ड-वेमाटि घटात कार्यों के प्रति जो कारण होते है वह मौ ईशवर की अनुमति से ही होते है। यदि ऐसा न माता जायगा तो वपाधि ही घटादि का अनन्यथासिद्ध नियतपूर्ववत होता है और मार नहीं होता, एवं कपालाविही घटादि का समय सम्बन्ध से प्रावध होता है तन्तु मावि नहीं होता' इसका ईश्वर को छोडकर दूसरा कोई नियामक नहीं हो सकता। और यज्ञ भी जातव्य है कि ईश्वर की अनमति मी तत्तत्कार्यों का साक्षात् उत्पादक न होकर तत्तकारणों द्वारा ही उत्पादक होती हैं । यह मानना लोकस्थिति के अनुकूल मोहै क्योंकि राजा को प्रामामादि से भी तन्तु प्रावि का निर्माण अंशुकादि के मिना मोर पदादि का निर्माण तन्तु पावि के बिना नहीं होता। प्रतः जैसे किसी भी राज्य में विभिन्न कार्य का उत्पादन राजा की प्रामा अनुसार होने पर भी उस कार्य के लोकसिद्ध कारणों के माध्यम से ही होता है उसी प्रकार प्रणा में मी जगत के रामा ईश्वर की पहा से भी तत्तत्कायों का उत्पावन तसस्कायों के लोक सि कारणों द्वारा ही होना उचित है. पोंकि परमेश्वर की वैसी ही अनुमति है। इस सम्बन्ध में प्याख्याकार श्रीमवयशोविजयजी महाराज का कहना है कि यह मत पामरों में प्रमिप्रायानुसार प्रसत्त होने के कारण संकारत पामरमाव वाले व्यक्तियों के लिये ही मान्य हो सकता है, खिमान मनुष्य इस मत को नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि राजाको पाशादिके समान ईश्वर की दयाको कारण मानना प्रमाणसिद्ध नहीं है। क्योंकि इस मत में तसद्देश और तस्सस्काल में तत्सत्कार्य के नियतश्व को ही-जो तत कार्य की उत्पादक सामग्री से संपन्न होता है-तद् तद् धेगा भोर ततकाल में ससत्कार्य को जस्पति का नियामक कहा गया है। किन्तु यह र होता क्योंकि उस नियतत्व तत्तरकार्यगतजन्यता का घटक होता है मत एवं उससे तत्तत्कार्य को पति का नियमन मीमो सकता. क्योंकित्सस्कार्य की उत्पत्तिका नियमन उस्सीसे संभवशी मसत्कार्य की उत्पत्ति के पर्व उपस्थित हो सके. किन्स जो ससकायंगल अत्यताका घरकतो सरकार्य के साथ ही उत्पन्न हो सकता कि तसस्कायोत्पत्ति के पूर्व । अतः उसे सत्ताकार्य की उत्पत्तिका नियामक माममा संभव नहीं हो सकता। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीजा-हिनदीविवेचना ] [५५ पच्छिमटाया मत्रिशेध्यतयापादाननिष्ठनधीपासनात्यमादित्रयझेलनाकल्पने मारयात् । समयेनत्वगंबन्धेनेचीयत्वेन नन्नयानुगमेऽप्य संगायात्मवलक्षणेश्वरत्वनिधेश गौग्यात् प्रन्यकमादाय विनिमनाविरहाचच नन्कालावधेन निगम हेरक-पोजगात , हर रफारण यध्यापसे । तदनुमानदण्इत्यादिनाऽहंतत्वात , पहादीना इनवनियमस्य च स्वभारत एव संभवान् न नार्धमपीश्वगनुमाणाम् , अन्यथा तज्ज्ञानादेम्नत्तत्कारणानुमतित्वेऽपि नियामकान्तरं गवेषणीयम् : 'धामग्राहकमानेन नन बनोनियतमेवेति चेत् । दमपि तत एव किन नया ? व्यरस्थितश्चायमों 'न बाचेनना नामपि स्वहेनुसंनिधिममासादिनोपनीनां चेतना. धिमालष्यतिकेणापि देश काला कारण नियमोऽनुपपन्नः, तन्नियमस्य स्वहेतुबलायातत्वात इत्यादिना ग्रन्थेन सम्मतिरीकायामपि । सत्सदेश और तत्तकाल में ससत्कार्य के नियतत्व को ससत्कार्य की उत्पस का नियामक न मानने में यह भी एक युक्ति है कि-पदि तत्तद्देश और तत्तकाल में तत्तकार्य खे निमतत्व को हो कारण मान लिया जायगा सीततत्कालौर तत्तइदेगा में ससत्कार्य के प्रति तत्तकालीन सतहकार्य के उपाधान का प्रत्यक्ष और तत्सत्कार्य को धिकार्षा तथा तसस्का के लिये तत्तकाय के उपावान में होने वाले प्रयत्न को तत्तकार्य के प्रति कारण मानना गौरव के कारण त्याज्य हो जायगा । यदि तीनों को सिर में समधेस होने के कारण समवेतत्व सम्बन्ध द्वारा ईश्वरीयत्व रूप से तीनों का अनुगम कर तीनों में एक कारण मानी जामगी सो भी कारणसाबस्वफ के शरीर में प्रसंसारी प्रारमत्व लक्षण ईश्वरीयस्व का मिवेश करने में गौरव होगा। और यदि ईश्वरीयत्वरूप से प्रनगम न कर पारमसमयेतस्वरूप से अनुगम किया जायगा तो तस आत्मा को लेकर बिभिगमनाविरह होने से तत्तदात्मसमबेजस्व कप में जान-छा प्रयत्न में अनन्तकाता को प्रापलि होगी । और उसके बारण के लिये तत्कालास्ट्रिप्रस्थ संबन्ध से उक्त निर्यात को कारण मानने पर घर पटादि के अन्य कारणों का यम्य भी होगा। इस प्रमझ में नो यह मात कही गई कि- घटपटादि कार्य के प्रति वड माथिको कारण मानने के लियेश्य की अनुमति आवश्यक हैं अन्यथा वेमा र का और बापट का कारण होने लगेगा'-माह होम नहीं हैं । मोंकि समावि में घरपटाविको कारणता का नियम पावक । अर्यात बगड-घट काही कारण हो पर कामहो और बेमा पट होका कारण हो चटकान हो यह बात दश और वेमा स्म पर ही निर्भर हैं। उसके लिये वरामुमति को काममा अनावश्यक है। और यवि ससकाय को कारणता को ईश्वरानुमति के साधान माना जायगा तो यह प्रश्न हो सकता है कि व में हो घर को कापणता ईश्वरामुमत पथों हैं? बेमा में घट को कारणावरानुमत पगों नहीं? मत. मत्सव बस्तु में तत्तकाय-काणता को ईवर मुमति का भ। कोई पूमा नियामक अपेक्षणीय होगा । भोरम प्रकार नियामकों की कल्पना में अनबस्थाको प्रससि होगो । यदि यह कहा जाप कि -वण में ही घट की कारजता विरानुमस हैं यह बात पर साधक प्रमाणों से ही सिब है अपक्ष यवि विरानुमताव को भी माय नियामकको अपेक्षा होगी तो उसकी सिदिहोम हो सकेगी-तो यह कचन भी कोकमही है पयोंकि ऐसा मामले पर यह भी कहा जा सकता है कि पाधि में घटावि को कारणता मी स्वत: हो मियत है। उसके लिये ईश्वरानुमति मैसे भाप नियामकको आवश्पकसा नहीं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ शा. पा समुच य स:-३श्लोक- किश, एताशनियामकत्वं मयस्थ-सिद्धादिज्ञान एव, इति कि शिपिविष्टकल्पनाकादेन ? सविदयुक्त हेमगिभिः "मभाषेषु अन्य बातृत्त्वं यदि मनम् । मतं नः, सन्नि सर्वशा मुफ्नाः कापभनोऽपि हि" ।। [वी०स्तो०७-७] ॥ इति । युक्त चैतत् . "जहा भगवा दिड तंतहा रिपरिणाम" * इति भगवतमानस्यापीत्थमेय व्यवस्थितन्त्रान् । एवं च-- "समालोच्य क्षुद्रपि भवननाथम्य भवने, नियोगानु भृताना मिससमय-देशस्थिति-लयम् । अये ! केयं भ्रान्तिः सतप्तमपि मीमामन जुषा, व्यवस्थानःकार्य जगांत जगदीशाऽपरिचयः ॥१॥" हैं । अन्यथा नियामक के मियामक का प्रान उठाने पर अवस्था होने के कारण सावि में घाव की कारणता हो नहीं मिली। सम्मति टीका में इस विषय को इस प्रकार यवस्मित किया गया है कि अचेतन पदार्थो को उत्पत्ति उन हितुओं के सविधान से ही सपन्न होता है। उनमें 'चनके देश, काल और आकार का नियमन वेतनरूप आvिgासा के बिना नहीं हो सकता यह बात नही कहीमा सती । मौक कार्यो के देश, काल और आकार का नियम उन के हेतुभों के ही सामध्य से हो जाता है अर्थात् जो हेतु जिस कार्य का उत्पादक होता है वह उसे नियत आकार में ही उत्पन्न करने के मामध्यं से स्वभावतः सपना होता है। [भवस्थित केवली के शान से नियमन का सम्भव) इस सम्वर्भ में एक दूसरी बात यह भी मातग्य है कि तत्तत् का और तत्तत् काल में सत्तत् कार्य की सत्पत्ति का नियमन तथा दण्डाधि में पदाधि की ही कारणता का मिममन भवस्थसिद्ध के कान में मो सभव हो सकता है. अत: उप्त के लिये महेश्वर की कष्टमय कल्पना आनावश्यक है। इस बात को मोहेमचन्द्र प्रतिमहाराज ने यह कहकर समधन विण है कि-यदि तपूर्ण भागों के प्रति कतच मातृवस्थ. रूप स्वीकार्य हो सब माहंसों कीमत में जो ममेक शरीरधारी सम्रजमोवस्मयात माने गये हैं उन्हीं में सपूर्ण भावों का विस्व हैशी तो उन्हीं में सबभावकत्व मान लेना आवश्यक है। किसी नये सद्या को कल्पना निरर्थक है-यही मुक्तिसङ्गत भी है. क्योंकि भगवान ने जिस वस्तु को जिस रूप में देना है वह वस्तु उसी रूप में निष्पन्न होती है। भगवान के इस बयान की मी व्यवस्था इसीप्रकार हो सकता है। इस प्रसङ्ग में यायिक-मीमांसकों की और से कोई इस प्राशय का पत्र पढे कि-'सामान्य जनों को भी जब इस बात को आनकारी होती है कि किसी गृहपति के गृह में मियत वेषा और नियतकाल में ही भूतों को उत्पति आदि को को व्यवस्था की जाती है वह अकारण नहीं होती किन्तु महपति कोइरछा से ही होता है, ता देववचनों को निरसर पीमांसा करनेवाले विधामों को या सा भ्रम है कि व्यवस्था को बेलते इए भी वे अपने को जगवीश के सम्मान में परिणयानन्य बताते हैं? और बगीचा का अस्तित्व बिना माने ही कार्यों की स्पवया पर अपनी भाषा प्रगट करता है।" * यार यथा मगवहारष्ट्र सम तथा विपरिणामते। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्या०० टीका-हिन्दी विवेचना ] । इति पग्रेऽपि प्रतिपद्यमेवं मदीयम्पिनष्टीयं पिट भवनियमिद्भिव्यमितिः स्वभावाद भूताना मितसमयदेशस्थितिगिति । अग्रे । केयं प्रान्तिः सनतमपि तव्यमनिमा पृथा ययापागे जगति जगदीशस्य कथिमः ॥२॥ इति दिग । अत एचाऽनिमाण्यप्यनुमानान्यपाम्सानि । वि., पीयानुसार शासन लादल्यापादिपर ये साध्यामिद्धिः, घटादिपरस्बे पटादों मंदिन्धानकान्तिकत्वम , म्बोपादानगोचरत्वादिनाऽपाततोऽपि हेनुस्वाभावतोऽत्यप्रयोजकत्वं च । तती ये बानेन्मापदोपादानप्रयासः। चतुर्थे सऽरिया एवं प्रनि पक्षाऽसिद्धिः। तो सपछले विरोध में नैयायिक के प्रति मायाकार पूज्यशोविजयी महारान इस माश्य का अपना पत्र प्रस्तुत करना चाहते हैं कि-नियत देश और निमतकाल में भर्गों के जन्मादिको व्यवस्था बामा धक है । अतः जगत में होमेवारी कार्यों की उत्पत्ति आदि के नियमों को उपयप्ति के लिये हवचरको मित करने का हवाम विषेषण मानमतः निरन्तर काही व्यसन करमेव यायिकों को पद एक कसा भ्रम है कि वे समाव सिज व्यवस्था के लिये जगदोश के व्यय व्यापार का समयन करते हैं।' [ इंपवर साधक शेषानुमानों को दुर्बलता ] 'कामं समर्पक कार्यवान ईश्वर सिद्धि के इस प्रथम प्रनुमान में जिस प्रकार के दोष बताये गये हैं उसी प्रकार के वोपों के कारण अग्रिम अनुमामों भी निरस्त हो जाते है। अग्रिम अनुमानों में दूसरे नये शोष भी दे । जसे रोगगवानगोचर एव स्वजनकादष्ट के अजनककृति से अजन्य समवेत अन्य में-बापादान गोचर एव नकाइष्टको अजनक अपरोक्ष जान चिकोष जन्यत्व का अनुमान पूषा ईपपरानुपान है . रा अनुपान में यदि माय के शारीर में स्वपन से प्रचणकाधि का प्रहार किया जायगा को बचणकाहि उपादान का अपरोक्षजानामि सिम होने से साध्यातिथि दोष होगा। यदि गव से घटादिका पहण किया जाणगा तो पटावि में कार्यन्व हेतु सस्विप कान्तिक होगा, क्योंकि पटावि में घटा के उपादान को विषम करने वाले अपरोक्ष आविज्ञान की माता सविग्य है इस अनुमान में अप्रमोमकस्य दोष भी है. मयोंकि घदापि कार्यों के प्रति कालाब के अपोक्षारत को कपालगदिगोत्रस्य रूप से ही कारणता होती है स्वोपावामगोचरस्वरूप से नहीं । अत: स्वोपावागोवरण रूप से कारगना न होने से अप्रयोगकाप कोष का होना अपरिहा है, क्योंकि ग्रह का निर्विवाद रूप से की जा सकती है कि जिम कार्यों में प्रस्तुत मायका अनुमान करना हैं कार्य होते हए मो सदोषावान पोखरस्वरूप से अपरोक्षजानादि से जन्य-वसी प्रकार नहीं हो सकते जिन्न प्रकार घटादि ही स्योपादान गोचरस्वरूप से अपरोक्ष प्रामावि से जाम नहीं होते'-और इस शाहका का कोई परिहार नही है। बिर का तीसरा अनुमान यह है कि ब्रम्य विशेष्यता सम्बम्ब से शान, या और कृति से युगत है, क्य कि उन में समवाम सम्बम्ब से कार्य होता है। जैसे कपाल में समवाय सम्माध से घटरूप कार्य के होने से वह वियोग्यता सम्बन्ध से कुलाल के शान, इच्छा और कृति से पुक्त होता है। मनुमान में साध्य पोषक दिमाग में कान और इच्छा पका पादान लिएर्षक है क्योंकि विशेष्यता Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा. वा. समुच्चयल०३-रलो । पञ्चमे त शिन्यादायक कत्वस्यैव न्यबहाराइ बाधः । विशेषान्वय-व्यतिरेकाम्यो कनस्वेन कार्यसामान्य एव हेतुत्वग्रहान बाध' इति चेत् ? महिं शीरचेष्टयोरप्यन्त्रयनिरेकामा कायंसामान्यहेतुन्याच साप निपयोगीश्वरं प्रमाक्तः । अथ 'नित्यागर्गमप्यत एव भगवतः । नत्र 'परमाणन एवं प्रयत्नवदीश्वगत्मसंयोगाधीनचेष्टावन्त ईश्वरस्य शरीगणि' सम्बन्ध से केवल कृति का अनुमान करने पर भी उसके प्रारूप में ईर यी अभिमान मिद्धि हो समतोक्योंकि विधा में संपणं काया के उपाय करनेवालो कति सिट ॥ने पर ससकेकारा पान और एका षक अनुमानो जाने से सपणं कायं के क सर में सपर्णकायो के उपादान का मान और उसके उपाबानों में चिकीर्षारूप दमछः को सिद्धि होकर ईयर में सवंताधि की सिद्धि हो सकती है। (४) संग के भारम्न काल में विद्यमान नध्य बिमोध्यता सम्बन्ध से ज्ञाननाम क्योंकि उसमें समवायसम्बध से काम होता है यह पक्षमा मगे के आरम्भकाल में इम्य में सानप साक्ष्य के साधन द्वारा ईश्वर का सापक नौथा धनुमान है। इस प्रनुमान में मोमासकाधिको दृष्टि से पक्षाऽमिति रोष है। क्योंकि उनके मत में सर्ग का आरम्मकाल असिद्ध है। वा प्रदुगाल में लाभ दो । "क्षिप्पादि कार्य समान कई क्योंकि यह कार्य है.यह अनुमान प्रकृत विचार के प्रयोजक विवादले विषाल्य कामे मित्यादि को पक्ष रूप में विषय कर सकत्व के साधन द्वारा ईश्वर का साषा यांखदा अनुमान है। इस अनुभान में बाघ दोष है क्योंकि क्षिरयावि में लोकव्यवहार से अमर्तृत्वही सिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'घावि विशेष काषं ओर कुलालादितिशेष कर्ता के अवय-मयतिरेक से घटाव विशेष कार्य के प्रति कुलालादि विशेष कर्ता कारण है, कंवल तिमाही सिबम होकर सामान्य रूप से कार्यमान के प्रति सामान्य रूप से का कारण होता है। यह भी सिद्ध होता है। अतः इस कार्यकारणमाद के विरोधी क्षियावि में अकर्तृ करव के सबहार को यथार्थ नहीं मामा जाला । इसलिये इस अनुमान में माष बोष नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर घाव कार्य और कुलाल का पारीर एवं कुलाल की श्रेष्टा आदि के अन्ज्य-व्यतिरेक से का सामान्य के प्रति सामान्य र ते शरीर और देष्टा की भी कारणता सिब होती है और इस कार्यकारण माव के आधार पर सिर में नित्य शरीर और नित्य चेष्टा की मी प्रमक्षित हो सकता है। इस सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि-भगवान को नित्य शरीर होना इष्ट ही है। इसी लिये कुछ लोगों को यह मान्यता है कि परमाण हो स्वर के शारीर हैं कि हममें घिर के प्रयान से चेष्टा उत्पन्न होती है और यह नियम है कि बिम पुरुष के अयस्त से निप्तमें चेष्टा उत्पन्न होती है बजस पुरुषका शरीर होता है। यह शासठया कि प्रयत्न समवाय सम्बन्ध में पुरुष में galta किशरीर में 1 अत: व समवाय सम्बन्ध से शारीर में चेष्टाका उत्पादक न होकर स्वाश्रय संयोग सम्बम्ब से वेष्टा का उत्पादन होता है । सका अर्थ है प्रयम-उसका आश्चय होता है अमरमा और उसका संयोग होता है शारीर में, अत: उस संयोग केरा प्रयत्न को उस शरीर में पेष्टा को उत्पन्न करने में कोई बाधा नहीं होती। दूसरे विद्वानों का कहना है केवल बायु के परमाणु ही विवर के धारीर है क्योंकि उनमें ईश्वर प्रयत्न से किया वेष्टा का उवय सवैध होता रहता है। प्रत एवं उन्हें Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टीका-हिन्दी विवेचना ] प्रत्येके । 'बायपरमाणव एव नित्यक्रियायन्तस्तथा, अत एव तेर्या सदागतित्वम्' इत्यन्यं । "आकाशशरीरे ब्रह्म''इति भ्रने 'आकाशम्सकहरीरम् इत्यपरे । चेष्टाया नित्यन्ये तु मानाभाया, निन्यज्ञानसिदी त अनिरपि पनपातिनी "नित्यं विज्ञानं." इत्यादिकाः, अन एव ज्ञानवानछे देनाऽऽन्म-मनोयोगजन्यत्वं न बाधकमि नि चेतन, ईश्वरबन्धस्य क्षेत्रावशेषण इदमरवशिरीरम' इति नियमाऽयोगान, चेष्टाया अपि वानवंदेकम्पा नित्यायाश्च स्वीकारीचित्पात, उक्तचनेम्वदभिमतेश्वरमशानास्पक्षपातित्वाच, अन्यथाऽऽनन्दोऽपि तत्र मिध्यंत ज्ञाना-नन्दमेदश्चेति दिग् । आयोजनापपि नेश्वरसिद्धिः, ईश्वराधिष्ठानस्य सर्वदा सुचेय दृष्टविलम्यादेवा:या. क्रियाविलम्चात् तत्र तद्वेगवावश्यकत्वात । दृष्ट कारणसच्च एवाइष्टविलम्बन कार्याविलम्बात् . मवासियोल मोकहा आता है। कुछ दिनुानों का यह मत है कि भाकामा वरार ब्रह्म'म भूति के अनु सा आकाश ही ईश्वर का शरीर है और वह नित्य है । इस प्रकार विधामों की दृष्टि में ईश्वर का निस्य शारीर संयुक्न होना युक्तिसत है।हां उसमें प्रिय चेटा का अभ्युपगम नहीं किया जा सकता है क्योंकि बेटा की नित्यता में कोई प्रमाग महीं है । चटा के समान ज्ञान में अनित्यता की सिद्धि नाता जा सकती क्योंकि नाम की नित्यमा 'निय विनानमानावं वा इत्यादि शुतियों से सिस है। हमलों के कारगहो संपूर्ण ज्ञान में आम मनोयोग की जन्यता को बाधक नहीं माना जा सवासा, क्योंकि संपूर्ण बात को धारममनोयोगजन्य मानने में ये श्रतिमा ही बाधक है 'तो यह कथन मोटोक नहीं है वोंकि ईश्वर के विभु होभे से उसका सम्बन्ध सभी द्रव्या में समान रूप से विद्यमान है अत: यह माना-परमाण हो अथवा बायु परमाणु ही या आफाश हो ईश्वर का सागर ईटीक नहीं हो सकता । इसी प्रकार शान के समान एक नित्य चेष्टा की करूपमा भी धित हो सकती है। क्योंकि जैसे जीवों में मानक अनित्य होने पर मोर में लाघय की मसि एक मित्यमाम की कल्पमा होती है उमी प्रकार जीवों के अनित्य शरीर में अनित्य पेष्टा होने पर भी पवर के नित्य शरीर में एक नित्य चेटा मानने में कोर वाषा नहीं हो सकती। बेष्टा मोर मात की असमानता बताते हए तान को नियता में आधुति प्रमाण रूपमे प्रसिडकोगा? सग से ईश्वर में यायिक के मतानुसार मान को लिदिनहर हो सकी पोंकि बहति ईश्वर में झान के क्षेत्र का प्रतिपादन करती है म कि शामकी आश्रयता का। यदि जमने बिर में ज्ञान को मिशिहोगी तो उसी से ईश्वर में मानव को भी सिद्धि हो सकती हैं जो नवाधिकों को मान्य नहीं है। एवं उस भूमि में जाम और प्रामन्याय का पृथक उपासान होने से कान और आम का मेद भो सियशोगा । जब कि घर में मान से भित्र आन्त को सता नवाधिकों को मायमही है। (प्रष्ट से हो पायपरमाणक्रिया को उपपत्ति) ।६सायोजन='प्रथम उपाक के बारम्भक संयोग को अस्पन्न करनेवाले परमाणुकर्य' से भी ईश्वर किसिशि नहीं हो उसकती, क्योंकि मत कम में प्रयनारस का मनुमान कर उस प्रयान के आभयरूप में हो सबरही सिद्धि की जाती है। किन्तु उक्त कमे में शिरप्रयत्नजन्मस्व मानमा संभव नहीं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ] [ शा.पा. समुरूषय१०३-लो। अष्टस्य दृशघातकत्वात् , बेष्टावस्याऽनुगतत्वेनोपाधित्वात्र । तदवनिमम एव हि जीवनयन्नव्यावृत्तेन प्रवृत्तिवेन गमनत्यादिव्याप्यत्वे तु विलझणयत्नत्वेनैष हेतुत्वात् क्रियासामान्ये यत्नत्वेन हेतुल्वे मानाभातात , 'यद्विशेषयोः' इत्यादिन्याय मानाभावात् । है क्योंकि उक्त कर्म को उत्पत्ति नियत सपा में ही होती हैं। पवि ईश्वर प्रयत्न से उसको उत्पति मानी जाय तो उस में प्रश्नवान ईश्वर का सदैव सयोग होने से नयतकाल में हो उसकी स्पति न होकर पूर्वकाल में भी उस की उत्पत्ति की आपत्ति होगो । अतः भादल विसम्म से ही परमाणुगत पाच कर्म की उत्पत्ति में विलम्स मानना होगा। ओर वह तभी हो सकता है कि अब अपृष्ट को उस कर्म का कारण माना जाप । और जब अदृष्ट उस फर्म का कारण होगा तो बसोमे उसकी उत्पत्ति सभव हो जाने के कारण उसके प्रति ईश्वर का प्रयत्न कारण न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-'अष्ट के विलम्ब से कार्य का विलम्ब अप्रमाणिक है क्योंकि कार्य के इष्टकारणों के उपस्थित होने पर अदष्ट के विना से कभी भी कार्य में विलम्व नहीं देखा जाता'-तो यह ठोक नहीं है क्योंकि जिप्त कार्य जो जो रप्त कारण प्रमाणसिट होते हैं उन सभी कारणों के रहने पर ही अदृषट के विलम्ब से कार्य में विलम्ब होना अप्रमाणिक है क्योंकि यदि उस कशा में भी अरष्ट के बिलम्ब से काय यशोगाउासा के हो धन मे से रष्ट कारणों का विघात हो जायगा : अब कि अष्ट से इष्ट कारणों का विधान किसी को भी मान्य नहीं है। अस: जिस कायं का कोई सार कारण सिद्ध नहीं है कि जिसके विलम्ब से बस कार्य की अस्पति में विलम्ब हो सके तब भी उस कार्य की उत्पत्ति में मौ यदि विलम्व होता है तो उसे अष्ट के विलम्ब ही उपपन्न करना होगा । परमाणु के आय कमका कोई ऐमा अप्टकार मित नहीं है कि जिस के विलम्स से उस की उत्पत्ति में विलम्ब मामा नाय | बत: अरष्ट के विलम्ब ही उस की उत्पत्ति में विलम्व मानना होगा, इस प्रकार नियत समयमें कार्योन्मुख होने वाले अष्ट हो निकाल में परमाणु के आध कर्म की उत्पत्ति का संभव होने से उसके कारणरूपमें ईश्वरप्रयत्न को मिति नहीं सकती। इम के अतिरिक्त प्रस्तुत अनुमान में खेष्वास्थ उपाधि भी है क्योंकि सनसम्म समी कर्मों में बेवाल्वरूपएक अनुगत पम रहता है और कर्मत्वरूप साधन के आश्रयमूत चतुकाराम्भक परमाण के आशाम में नहीं रहता है अतः यह कर्मभ्वरूप माधन से अपमिदना विशिष्ट प्रयत्नान्यत्वरूप साध्य कायापक और कर्मस्वरूप साधन का अग्यापक उपाधि है। प्रस्तुत अनुमाम इसलिए भी नहीं हो सकता कि वह क्रिमासामाग्य और प्रपन्नतामाग्य के जिस कार्यकारणभाव को प्रथीम है उस कार्धकारमभाव में कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि क्रिया को पोपों में यौटा जा सकता. से जीबमयोनियन जोवराहण्टकारणक प्रयरम' से होने वाली प्राण अपामारको नियाएं और अन्य प्रयत्नों से होनेवाली चेष्टात्मकत्रियाएँ जम में प्रपासवर्ग की निया के प्रति जीवन-पोमि ग्रस्न ही कारण है और द्वितीयवर्ग को किया नोटा के प्रति प्रति कारण है। नितीयवर्यको क्रिया को कारणता का अवाशेवरुभूत प्रवत्तित्व जीवायोमि से मित्र समी यस्नों का प्रम है। अत एक प्रकृति को वितीपवर्ग की समस्तक्रियाओं का कारग मानने पर पलायन मावि किमामो में उसका स्थरिचार नही हो सकता क्योंकि पलायनावि किया जिस प्रयास से होती, बहमी प्रवृत्ति नामक प्रमल के अन्तर्गत आ जाता है। यदि वितीय वर्ग की हयाम को पमनावि Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ स्पा० का टीका-हयोषिषेचना ] - . -. . . . धृते नेश्वरसिद्धिः, गुरुत्वायतनामावमात्रस्य गुसन्वेनरहेन्यभावप्रयुक्तम्याऽऽम्रफलादावेर भिचारियाद । पनिवन्धकामावेतमामग्रीकालीनत्व विशेषणेऽपि गदिपुपतअनेक स्याप्य क्रियाओं के रूप में वर्गीकृत किया जाय तो गमनादिरूप तप्तत क्रियामों के प्रति विभातीविजातीय रुप से जीवन योनिमित्त प्रघात काम होगा, अतः क्रिया सामान्य के प्रति प्रगलसामान्य को कणसा नहीं मिद्ध होगी। जिम कार्यकारणों में विशेष रूप से कार्यकारणभाव होता है उन में सामान्य रूप से भी कार्यकारणभाव होता है स माय में कोई प्रमाण नहीं होने से इस न्याय के बल से भी किया और प्रगल में सामाधप से कार्यकारणभाव नहीं माना जा सकता है। अत: उनके आधार पर प्रस्तुस अनुमानका मन अशक्य है। (घृप्ति हेतु ईश्वरासद्धि में अनेकान्तिक) ( ति से भी ईश्वर की अनुमानिक सिजि नहीं हो सकती. पोंकि पति का अर्थ है गुरास के शाश्रय मूत भय के पतन का अभाव, और उस से ईश्वरानुमान तभी हो सकता है. इस प्रकारको स्यानि भने कि 'गुरु थप के पतन का जो हो अभाव होता है वह गुठव मे इतर, पतन कारण के अभाव से प्रयुक्त होता है। किन्तु यह श्याप्ति नहीं कर सकती। क्योंकिपन को शाखा में लोहए थाम्रफल में व्यभिचार है। आशय यह है कि आम्रफल गुरुद्रव्य है। किन्तु जब वह शाखा म लगा हुआ होता है तब माता पापा से हर किसो हेतु का अमान नहीं है। यदि यह कहा जाय किशासाप धुक्स के साथ भानफाल का संयोग की भाम्रफल के पसन का प्रतिबन्धक है इसलिये गुरुत्व में सर परन का कारण हुआ 'न्त के साथ आनकल के संयोग का अभाव और उसका अभाव हम! वृन्त के साथ धाम्रफल का संयोग, आम्रफल का पतमामा' उस संयोग से प्रयुक्त है अतः मात्रफल में उक्त व्याप्त कामभिवार बहाना असङ्गत है."तो यह कथन ठीक नहीं कहा जा सकता, किसके साथ आप्रफल के संयोग को मात्रफल के पसन का प्रतिमन्धक नहीं कहा मा सकता, क्योंकि वह यदि प्रतिबन्धक होगा तो उस का अभाव होने पर ही मात्रफल का पतम होना चाहीए किन्तु ऐसा नहीं होता। अपितु आम्रफल में पसनान्य कर्म पहले उत्पन्न होता है। तत्पश्रात उस कम से खम्त के साथ भान. फल का विभाग होकर वन्त के साप मान्नफल के सयोग का स्वामक प्रभाव निष्पन्न होता है। सारांश, न्यायमतप्रकियानुसार पतनकम पहले हुआ, वसंघोगाभा बाक मे आ । तो इसम में संमोगाभात्र कारण कहां बना? यदि यह कहा जाय कि-'पात्रफल में जो पतनकम होगा वह वेगवान वायु प्रषया वेगवान् वण्डाविक प्रमिधारा से उत्पन्न होगा। जिस समम यह मभिधात उपस्थित नहीं है उस समय में माम्रफल का पतनामाव मुरुत्व से इतर पतन के कारणभूत उस अभिघात के प्रभाव से ही प्रयुक्त होगा । प्रतः प्राम्रफल के पतनाभाव में गृशस्वेतर पतनकारण के प्रभाव का प्रयुक्तत्व होने के कारण मात्रफल में व्यभिचार का प्रदर्शन फिर भी प्रसङ्गात है-जो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योकि उक्त अभियात पतन का कारण नहों, किन्तु सामान्य कर्म का कारण है, क्योंकि धेगवान बायु पावणाषि के भनिधात से भूसल में एक स्थान में स्थित गुशाग्य का स्थामास्तर में अपरूपण भी होता है, जिसे पताम्म मही कहा जा सकता । प्रतः उक्त प्रमिधान से प्रान्नकल में जो सामान्य कर्म उत्पन्न होता है यह पात्रफल Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा या ममुरुचय स्म० ३- दो। नाभाचे तथात्वात् । बेगाऽप्रयुक्तन्यम्यापि विशेषणचे मन्त्रविशेषप्रयुक्तगोलकपतनामावे तथावाद । अष्टप्रयुक्तत्वस्यापि विशेषणस्त्रं च स्वरूपामिद्धिः, ब्रह्माए इधृतरप्यदएप्रयुस्तत्वात् । नयनम् -- [ोग :-१.] के गुरम से भी जन्म होने के कारण पत्तनरूव हो जाता है। इसलिये वन्तमयुक्तमानकल के पतमाभा में गुरुस्वेतरपसानहेरबभावप्रयुक्तस्य म होने से पाम्रफल में व्यमिनार का प्रदर्शन न्यायसङ्गत है। फावत: उपलव्याप्तिान बन सकने के कारण पति से ईश्वशनुमान प्रशश्य है उतन्यभिचार का पारण करने के लिये यदि पुरुस्वमत पतनाभावरूप धति में प्रतिबन्धकामाव से इतर जो पतन की सामग्री, तत्कालीन विशेषण वेकर इस प्रकार व्याप्त बनायी जाय कि "गुरस्यवत्पतमाभारुप मोति पतनप्रतिवम्भकाभाव से भिन्न पतनसामग्रीको समकालीन होती है वह मुरत्खेतर पतन कारण के प्रमाण से प्रयुक्त होती है तो पचपि व्यभिचार नहीं होया क्योंकि प्रतियधकामाव से इतर पतन की सामग्री पतनप्रतिबन्धकालीन सामग्री की होगी। अतः तत्कालीन धलि में गुरबार प्रतिधकामावरुप पनि कारण कं प्रतियधकरूप अमाव से प्रयुक्त होन क नाते व्यभिचार नहीं हो सका। उक्त विशेषण विशिष्ट पति में भी गुरुत्वेसरपतनस्वभावयुक्त की व्याप्ति सिद्ध नहीं है पाकिगवान माण को पतनाभावरूप तिवादश सामग्रीकालीनति, जिसमें सत्तर पतनकारणाभाषप्रयुक्तस्य नहीं है। अत: उस ति में उक्त व्याप्ति का व्यभिचार हो जायगा। यवि यह कहा जाय कि बेगवान धारा के पलन का कारण गरूप निबन्धक का प्रभाव है। प्रत: वेगवान् बाण का पसमाभाव प्रतिबन्धकानावरसामग्रोफालोन महीपार प्रतिबन्धकमासान ही सामग्री है। प्रतः प्रतिबन्धकामावेतरसामग्रोकालीनस्वविशिष्ट तित्व उस में नहीं है अतः उस में स्मभिचार का प्रयशन असगत है'-तो यह टाक नहीं है. क्योंकि बाणगत के भी पास के पनाम का प्रतिबन्धक नहीं माना जा सकता। क्योंकि बाण का पतन होने पर ही बाण के वेग को निरस्त होती है। यदि वगको घाण के पतन का प्रतिबन्धक माना जायगा तो बाण का पतन कमी ही न हो सकेगा। यदि इस व्यभिचार का धारण करने के लिये धेगाऽप्रयुक्तस्व को भी धति का विशेषण मनाकर इस प्रकार प्याप्ति बनायो जय शि-'प्रतिबन्धकाभावतरपतनसामग्रीकालीन एवं वेगाप्रयुक्त गुरुत्ववपतमाभाष रूप पति गुरुत्वेतर पतन कारणामात्र प्रयुक्त होती है तो यह भी ठीक नहीं है। क्यों कि मन्त्रवेत्ता व्यक्ति मन्त्रविशेष से किसो गोलम्ब्रव्य को प्राकाश में स्थिर कर देते हैं । मन्त्रविशेष के प्रभाव से उसका पतन नहीं होने पाता। प्रप्त: उस गोलकतव्य के पतनामाव में उक्त ध्याप्ति का ध्याभधार हो जायगा, क्योंकि गोलाद्रव्य का उक्त पतनाभाव प्रतिबन्धकामाचेतरपतनसामग्रीकालीन है और वेगाप्रयुक्त भी है, किन्तु गुरुस्वेतर पतनकारण के समाव से प्रयुक्त नहीं है । मन्त्रविशेष को गोलक द्रव्य के पतन का प्रतिबन्धक मानकर उस के पतनाभाव में उक्त सामग्रीकालीनस्वरूप विशेषण का प्रभाव बता कर उस में व्यभिचार का वारग नहीं किया आ सकता। क्योंकि मन्त्रविशेष का पाठ बमकर देने पर मो गोलकद्रव्य पर्याप्त समय तक माकाश में स्थिर रहता है। प्रतः मधिशेष को उस के पतन का प्रतिबन्धक नहीं कहा जा सकता । यदि इस व्याभिचार का बारण करने के लिये पति में पत्रपटाप्रघुक्सत्य मी विगोषण देकर इस प्रकार ब्यास्ति बनायो जाय कि 'प्रतिबन्धकामामेतर पतनसामग्रीकालीनवेगाप्रयुक्त एवं बदष्टाप्रयुक्त गुरुपवत पतनामावम्प पति गुरुत्वेतरपतमकारणामावप्रयुक्त होती है। तो इस व्याप्ति के संभब होने पर भी इसके द्वाराबहाण्डको पति में गुजरबेतर Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ स्वाक टीका-हिन्यचना ] "निरालम्बा निराधारा विश्वाधारा विन्!" ▸ युक्तं चैतत् ईश्वग्प्रयत्नस्य व्यापकत्वेन समरेऽपि शरपाताऽनापतेः । पतनाभावावछिन्नेरयत्नस्य तथान्ये तादृशज्ञानेच्छास्यां दिनिगमनाविरहात् क्लुप्नजातीयस्यादृष्टस्यैव श्राधारकत्वकल्पनौचित्यात् । न श्रात्माऽवित्ववादिनः संबन्धानुपपत्तिः, अचापि सन्कार्यजननशक्तस्य तत्कार्यकारित्वात अयस्कान्तस्याऽसंबद्धस्यापि लोssकर्मकत्वदर्शनादिनि अन्यत्र विस्तरः । प्रयत्नस्य तु विलक्षणप्रयत्नत्वेन पतनप्रतिबन्धकसंयो विशेष एवं हेतुम् | " कारणाभावप्रयुलर का अनुमान करके भी ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती क्योंकि ब्रह्माण्ड की पति में भी अप्रयुक्त होने से उस में प्रयुक्तत्व विशेषणविशिष्ट उक्ल अपितु स्वरूपासिद्ध हो जाता है । इसीलिये श्रीचन्द्रसूरि कहा है कि विश्व की आधारभूत पृथ्वी बिना किसी श्रालम्बन और प्राभार fret एक निश्चित स्थान में स्थिर रहती है। वहां से उसका पतन नहीं होता उस में धर्म से प्रतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। इस प्रकार प्रा श्रुति के धर्म रूप ष्ट से प्रयुक्त होने के कारण उसमें मुक्लत्वविशिष्ट उक्त धृतित्वरूप हेतु की स्वरूपाऽसिद्धि निषिधाय है । यही बिसगत भी है. क्योंकि यदि ईश्वर प्रयत्न को ब्रह्माण्ड पतन का प्रतिबन्धक माना जायगा तो व्यापक होने के कारण यह सङ्ग्रामभूमि में भी रहेगा। धतः उस भूमि में सैनिकों द्वारा प्रक्षिप्त बाणों का पतन भी न हो सकेगा क्योंकि ईश्वर का जो प्रयत्न के पत्र को रोक सकता है यह सामान्य बारा के पतन को क्यों न रोक सकेगा? यदि यह कहा जाय कि प्रतियोगिव्यधिकरण वसनाभाव विशिष्ट ईश्वर प्रयत्न सो पतन का प्रतिबन्धक है। अतः ईश्वरप्रयत्न से याण के पतन का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । क्योंकि बाण में प्रतियोगिव्यधिकरणपलनाभाव नहीं रहता । ब्रह्माण्ड का कभी भी पतन न होने से उम में प्रतियोगिव्यधिकरपपलमाभाव रहता है । अतः एव ब्रह्माण्ड में प्रतियोगीध्यधिकरणवसमा भाष विशिष्ट ईश्वर प्रयत्न के रहने से वह ब्रह्माण्ड के पतन का प्रतिबन्धक हो सकता है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रतियोगिव्यधिकरणतमाभावविशिष्ट प्रयत्न श्रह्माण्ड के पतन का प्रतिप्रत्यक हो उस में कोई विनिगमनात्र होने से प्रतियोगिव्यधिकरणवतना भावविशिष्ट ज्ञान पर को 1 प्रतिबन्धक मानना श्रावश्यक होगा । इसलिये ज्ञान का प्रयत्न ये सीम को ब्रह्म के पतन का प्रतिक मानने की अपेक्षा अष्ट को हो ब्रह्माण्ड के पतन का प्रतिबन्धक मानना उचित है, क्योंकि अष्ट में जीवित शरीर के पतन की प्रतिबन्धकता सिद्ध है। अतः एवं ष्ट में पतनप्रतिबन्धकत की कल्पना नहीं है । यदि यह कहा जाम कियाण्ड का धारक नहीं हो सकता क्योंकि प्रष्ट जीबात्मा में रहता है। प्रतः जिस मन में जोवारमा विभु नहीं होता उस मत में जीवात्मा में रहमेव से घट का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के साथ नहीं हो सकता और जब ब्रह्माण्ड से प्रष्ट का सम्बन्ध नहीं बन सकता तब उसे ब्रह्माण्ड का धारक कैसे माना जा सकता ?' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ओ जिस कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उस कार्य के उत्पति देश से सम्बद्ध होने पर मी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शावा. समुच्चय स्त३ रखोर ब्रामण्डनाशक्तयापि नेश्वरमिद्भिः, प्रलगाऽनभ्युपगमान , अहोरात्रम्यागत्रपूर्वकन्यच्या पत्त्यात् । न च वर्षादिनत्वेनाऽव्यवहितवर्षादिनपूर्व कन्वे माध्ये राशिविशेषावछिन्नरविपूर्वकत्ववाऽध्यवहितममारकत्वमुपाधिः, गशिविशेष वादिनस्य हेनुत्त्वेन तत्रानुकूलन पोपायः साध्यव्यापकन्वग्रहेऽप्यनुकूलतको मावेन प्रकन उपाधसमर्थयान, कालन्यम्प माग्यव्याप्यत्वाचन । कर्मणां विपक्षविषाकनया युगपद् निगेधाज्मभयान , सुगुप्तौ कतिपयाऽदृष्ट्रनिरोधस्य दर्शनावरणरूपाऽप्रमामध्यांदवीपपनवेलचनाष्टान्तरपतिगेघदर्शनात , प्रलय न कथं ताशाहएं यिनाऽनिरोधः स्यात् ? अन्यथा न्यना यागिद्वो मोक्षः इति किं नमाचर्यादिवले. शानुपरेन ? इत्यन्यत्र वितरः । म कार्य को उत्पन्न करता है। जैसे लोरखण्ड से असम्बर भी प्रयकान्तमणि (लोहनाबक) लोहखण्ड में प्राकर्षण उत्पन्न करता है। अत: कार्य में उत्पत्ति देश से सम्बद्ध हो कारण कार्यका उत्पावक होता है इस नियम के सावधिक न होने के कारण ब्रह्माण से प्रसम्बाह भी जीव का प्रष्ट ब्रह्माण्ड का धारक हो सकता है। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यान्सर में टटव्य है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रयत्न कहीं भी स्वयं पजा का प्रतिबन्धक महीं बनता। फिन्त विलक्षण प्रयत्न के रूप में पतन के प्रतिबन्धक संयोग विशेष को ही उत्पन्न करता है । पतन का प्रतिबन्ध तो उस संयोग से ही होता है। जैसे आकाश में उड़ते हार पक्षी के शरीर के पतन का प्रतियध पक्षी शरीर के साथ पक्षोको प्रास्मा के संयोग से होता है और वह संयोग पक्षी के प्रयश्न से उत्पन्न होता है। सभी प्रपन पतन के प्रतिबन्धक संयोग को नहीं उत्पन्न करते किन्तु विलक्षण प्रयत्नही उत्पन्न करता है। अन्यथा सोषित प्राणी का वृक्ष ममन पर्वत मादि मे कमी मी पतन न होता 1 ईश्वर का प्रपन एक हो होता है । अतः उस में वैज्ञात्य की कल्पना नहीं हो सकती। मत एव उप्स ले पतन के प्रतिबन्धक संप्रोग की उत्पत्ति ममत्र नहीं हो सकती। इसलिये ईश्वर प्रयत्न की बमामा का धारक मानना न्यायस मत नहीं हो सकता। [प्रलय के अस्वीकार से इश्वरसिद्धि निरसन] बयाण-नाशक के रूप में भी ईश्वर की आनुमानिक मिति महीं हो सकती क्योंकि प्रमाग का मावा प्रलमहीम म्यता पर मिमर है और प्रालय अप्रामाणिक होने से असिव है। अत: आश्रयाशिव पोष केकारण ब्रह्माण्वनामा को पक्ष बनाकर को अनुमान नहीं किया जा सकता । यवि या कहा आय कि-बागकामाश मनुमान से सिद्ध है। जैसे ब्रह्मा नपरम् । नासप्रतियोगी) अन्यभाबस्पात घटा वियत्।' यह अनुमान ब्रह्माणनाश में प्रमाण है। प्रतः ब्रह्माण्डनावापक्षक अनुमान में मात्रयासिद्धि नहीं हो सकती".तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ब्रह्माण्ड में नाशप्रतियोगीरबके सवत मनुमान का पायक मनुमान विद्यमान है जैसे विवादास्पद महोरात्र अब्यवहित प्रहोरात्र पूर्वक है। क्योंकि ओ मो महोरात्र होता है वह सब महोरात्रपूर्वक होता है। यदि ब्रह्माश का माण माना जायगा तो पिम बह्माण्ड में होनेवाले प्रथम महोरात्र में प्रव्यवहित अहोरात्र पूर्वकस्व न होने से सभी महोरात्र महोरात्रपूर्वक होते है इस भ्याप्ति का मन हो जायगा । अतः किसी भी महोरात्र को प्रथम Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ १०० टीका दिदीविवेचना ] महोरात्र नहीं माना जा सकता और यह तभी हो सकता है जब महारात्र की परंपरा प्रशि बनी रहे और वह सभी बनी रहती है जब ब्रह्माण्ड का नाश न हो। अतः इस अनुमान से ब्रह्मा के नाश का मनुमान शषित हो जाता है। इसलिए भाषयाऽसिद्धि के कारण ब्रह्माण्ड नाशपक्षक अनुमान का होना सर्वधा मसंभव है। [ अव्यवहितसंसारपूर्वकरण उपाधिको शंका ] free में यदि यह कहा जाय कि जैसे वर्षानित्य हेतु से प्रथम कहे जाने वाले वर्षावन में प्र वति दिन कर का साधन करने पर 'राशिविशेष में रविपूर्वकत्वरूप उपाधि होने से वर्षादिनरव में प्रतिवर्षातिपूर्वकत्व को ध्याति नहीं होती। उसी प्रकार महोरात्रस्थ हेतु से प्रथम कहे जाने वाले अहोरात्र में व्यवहितमहोरात्र पूर्वकरण का साधन करने पर भी मध्यवहित संसारपूर्वक स्वरूप उपाधि होने से अहोरात्रश्व में मवहितबहोरात्रपूर्वकत्व की व्याप्ति नहीं हो सकती यह है कि राशिविशेष (संभवत: सिंहराशि) से सूर्य के सम्बन्ध के साथ मर्यादिन का प्रारम्भ होता है । श्रत एव प्रथम वर्षावित के पूर्व रवि राशिविशेष से सम्बद्ध नहीं होता। अतः राशिविशेषाव छत्र रविपूर्वकरण प्रायमविन में वर्षादिनश्वरूप साधन का अध्यापक होता है और द्वितीय-तृतीयादि वर्षावन में प्रयहित वर्षापूर्वक तथा राशिविशेषावच्छिन पूर्वक दोनों के रहने से राशिविशेषपूर्वक पतिवर्षाविनपूर्वकःस्वरूप साध्य का व्यापक होता है। इसलिए बनिपूर्वकत्व की व्याप्ति नहीं होती क्योंकि वर्षाविनश्य भव्यवहितयविश के व्यापक राशिविशेषा व निरविपूर्वकत्व का व्यभिचारी होने से अव्यवहितवनिकस्व का भी व्यभिचारी हो जाता है क्योंकि व्यापक का व्यभिचार व्याप्य व्यभिचार से नियत होता है। इसी प्रकार जिम प्रहोरात्रों में श्रव्यवहित महोरात्र पूर्वकरण सर्वसम्मत है उनमें मव्यवहितसंसार पूर्वकस्व है क्योकि उन अहोरात्रों के पूर्व अहोरात्र विद्यमान है और महोरात्र संसार रहने पर हो होता है। अतः उस महोरात्रों में प्रध्यक्ष हितसंसारपूर्वकत्व का होना प्रतिवार्य है प्रतः सव्यवहिल संसारपूर्वकत्व अव्यवहितमहोरात्रवंक्रत्वरूप साध्य का व्यापक होता है। ग्रहोरात्रस्वरूप साधन अभिन ब्रह्मा के आद्य महोरात्र में जो है किन्तु उसके पूर्व संसार न होने से उसमें अव्यवहित संसारपूर्वक्र नहीं है, अत एव प्रत्यवति संसारपूर्वकश्व महोरात्रत्वरूप साधन का अव्यापक है। इसलिए अन्यतिमी रात्रपूर्वकरम के व्यापक व्यवसंसारपूर्वकस्म का व्यभिचारी हो जाने के कारण महो शव साधन प्रव्यवहितमही राजपूर्वक स्वरूप साध्य का व्यभिचारी हो जायगा । मतः अहोरात्र स्वहेतु से समस्त ग्रहोरात्र में मध्यवहितअहोरात्र का अनुमान करके प्रलय का खण्डन महाँ किया जा सकता । पूर्व [ उपाधिको शंका तर्क शून्य है ] किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है, राशि विशेष वर्षाffan का कारण होता है । प्रत: एम राषि के साथ सूर्य का सम्बन्ध और वर्षादिन की एक साथ प्रवृत्ति होती है। इसलिये मि वर्षाचिन राशिविशेषाव झिरविपूर्वक हो जाता है। यदि किसी प्रश्यम हिलवर्षाविनपूर्वक बिन को राशिविशेषारिविपूर्वक न माना जायना तो उस वर्षा दिन के मव्यवहित पूर्ववर्ती वर्षानि राशिविशेष से अव नहीं है यह मानना होगा चोर यह तब होगा जब उस वर्चायत के पूर्व राशिविशेष का प्रवेश न हो। और ऐसा मानने पर वर्षावन के प्रति राशिविशेष को कारणता का मङ्ग Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] {शा ना ममुग्यय 10 ३-मोम-र हो जायगा । प्रतः प्रव्यवहित वर्षावितपूर्वक सभी वर्षाबिन को राशिविशेषामितविपूर्वक मानना पहेगा। प्रत एष राशिविशेषावच्छिन्तरविपूर्वकत्व में अत्यहितवर्षाधिनपूर्वकालरूप साध्य को म्यापकता का ज्ञान हो सकने से राशिविशेषावनिछ भरविपूर्वकन्न उपाधि हो सकता है । किन्तु मध्यवाहितसंसारपूर्वकस्व में प्रध्यवाहितबहोरात्रपूर्वकस्व की व्यापकता का पाहक कोई तक नहीं है। पर्यात किसी ग्रहोरात्र के पूर्व में अहोरात्र माना जाय और संसार न माना जाय तो इसमें कोई भापति नहीं हो सकती। मतः पम्पबाहितबहोरात्रपूर्वकस्व माहितसंसारपूर्वपरव के बिना भी हो सकता है इसलिये अध्यक्षिप्त संसारपूर्वकत्व में प्रत्यहित महोरात्रपूर्वकत्व को प्यापकता काजाम हो सकने से अव्यवहितसंसारपुवकरण उपाधि नहीं हो सकता ।अतः अहोरात्रत्व में मध्यवहिलाहोरात्रपूर्वकत्व का व्याप्तिशाम होने में कोई बाधा न होने से पहोरावस्व हेतु से समस्त अहोरात्र में प्रव्यवहितम्रहोरात्रपूर्वका का सामन कर प्रलय का खण्डन किया जा सकता है। प्रलय का खण्डन एक मोर मी अनुमान से हो सकता है। वह है-संपूर्ण काल में भोग्य पवाओं के प्रतिस्व का अनुमान । जैसे कालः भोग्यवान कालत्वात अर्थात् संपूर्णकाल भोग्यपदार्थ का प्राश्रय है, क्योंकि वह काल है, जो भी काल झोता है वह भोग्यपदार्थ का माश्रय होता है जसे सृष्टिकाल' । इस अनुमान का फल यह होगा कि भोग्यपदार्थ से शूग्य कोई काम नहीं माना जा सकता। प्रलयकाल भोग्यपदार्थ से शून्य माना जाता है, सानुमान के Exisa ही विहीं सका। [एकसाथ समस्त कर्म का वृत्तिनिरोध प्रशक्य ] प्रलय की सिद्धि में मोर मी एक बाधा है और वह यह है कि कर्म की फलप्रवृत्तियों का एक काल में सर्वथा निरोध नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रलय तभी हो सकता है जब समस्त जीपों के समस्त कर्मों को फलोम्मुख पृत्तियों का फिसी एक काल में संपूर्ण निरोध हो जाय, क्योंकि जब समस्त जीवों के सभी कर्म अपना फल देने के प्रति उदासीन हो जायेंगे तो किसी भी जन्म द्रव्य की कोई प्रावश्यकता न रह जायगी । क्योंकि जन्य वय कमो का पल प्रदान करने में कमी के द्वार होते है और जब कमो को फस वेना ही नहीं है उस समय द्वारभूत पवाया की कोई मावश्यकता मही रह जाती। अतः संपूर्ण जन्यद्रव्यों का प्रभाव हो जाने से वह काल प्रलयकाल हो जाता है. जिस काल में कोई जन्यष्य न रहे उसी काल को प्रलयकाल कहा जाता है। किन्तु समस्त जीवों के समस्त कर्मों का संपूर्ण वृत्तिनिरोथ एककाल में नहीं हो सकता, क्योंकि जोख के कर्म विषमविपाकी होने से प्रर्यात् परस्परविरोधी फलों के जनक होने से नियत समय में ही फलप्रद न होकर भिन्न भिन्न समयों में किसी न किसी फल के जनक होते है। यदि यह कहा जाय कि-जैसे मुक्ति के समय साहस्रों प्राणियों के कर्मों का प्रतिनिरोष हक साप हो जाता है-इसी प्रकार कोई ऐसा मो काल हो सकता है जिसमें समस्त जोत्रों के समस्त को का संपूर्ण वृत्ति-निरोध हो जाप और एसा जो काल होगा उसो को प्रलयकाल कहा जायेगा - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति में जो सहस्रों प्राणियों के कर्म का एक साथ संपूर्ण वृत्तिनिरोध होता है वह वर्शनावरण रूपमाष्ट के कारण होता है अमर्मात् जिन प्राणियों का दर्शनावरणरूप प्ररष्ट जब जाप्रप्त होता है तब अन्य कर्मों को वृत्तियों का प्रतिरोध हो जाता है क्योंकि इह पय कर्मों से अलवान होता है और बलवान अहष्ट से बुधल प्रहाट के वृत्ति का प्रतिरोध इपितसंगत है किन्तु ऐसा कोई प्रष्ट प्रमाणिक महीं हैं जिससे समस्त जीवों के समस्त कर्मों का वृत्तिगेध हो सके प्रा: प्रलय की कल्पना ग्यायसंगत नहीं हो सकती और मवि तमस्त जाबों में समस्त कर्मों का प्रतिरोध प्रकारणही Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्या कर टीका-हिन्दीविवेचना ] . [६७ एनेन 'आधव्यवहागडीपरसिद्धिः, प्रतिमर्ग मन्त्रादीना बहना त्र्यवहारप्रवर्तकानों कल्पने गौम्यादकस्यैव भगवतः सिद्ध इत्पपास्नम् । मर्गादेरेवाऽसिद्धः, इदानीमिय सर्वदा पूर्वपूर्वव्यवहारेणवोत्तरोनरव्यवहारोपपत्तेः । यदि तु सर्मादिरूपेयते, तदा तदानी प्रयोज्यायोजकद्धयोरभावान कथं व्यभार ? मान लिया जाय तो जीवमात्र को अनायास हो मोक्ष मील जायगा । फिर ब्रह्मचर्यादि पालन का कष्ट उठाने की मावश्यकता नहीं पड़ेगी । फलतः मोक्ष को प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्यादि का उपयेश शास्त्रों में किया गया है वह निरर्षक हो जायगा। इस विषय का विस्तृत विचार प्रन्यान्तर में सदस्य है। [ सर्गादि की प्रसिद्धि से पाच व्यवहारादिकथन को व्यर्थता ] पित्रों में शामिहार से मप्रदर्शक रूप में भी श्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि "मिन्नमिन्न सष्टि में मनुनावि अनेक पुरषों को व्यवहार का प्रयतंक मानने में गौरव होगा और सभी सुष्टि में एकमात्र ईश्वर को ही प्रबर्सक मानने में लाघव होगा इस प्रकार ईश्वर की कल्पना का मापाततः प्रौबिस्य प्रतीत होने पर भी वास्तव द्रष्टि से उपतरोति से ईश्वर को कल्पना उचित नहीं हो सकती, क्योंकि सष्टि का प्रारम्म ही किसो प्रमाग से सिद्ध नहीं होता । अपितु पही कल्पना उचित प्रतीत होती है कि जैसे इस समय के व्यवहार अपने पूर्व व्यवहारों से ही सम्पन्न होते है उसी प्रकार संपूर्ण समय के ध्यवहार अपने पूर्व व्यवहारों से ही मम्पन्न होते हैं। और ऐसा मानने पर कोई प्राद्य व्यवहार सिम होने से व्यवहार के प्राध प्रवर्मक की कल्पना की संभावना ही समाप्त हो जामगी 1 [सर्ग के प्रारम्भ में व्यवहार की प्रसिद्धि ] इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि यदि सृष्टि का प्रारम्भ माना जायेगा तो उस समय प्रयोज्य और प्रमोजक पटके न होने से व्यवहार कसे प्रतित हो सकेगा कहने का तात्पर्य यह है कि सन्टिकाल में व्यवहार का प्रवर्तन प्रयोज्य पौर प्रयोजकममस्थ पुरुषों द्वारा होता है, जैसे-जब कोई अयस्थ व्यक्ति किसी बालक को ध्यबहार को शिक्षा देना चाहता है तब वह उस बालक को पास में विकाकर अपने किसी कनिष्ठ क्यस्य व्यक्ति को प्रादेश देता है कि 'घवाले ग्रामरे या घडाले जाम्रो। कनिष्ठ अपस्य सक्ति जिसे प्रयोज्य पर कहा जाता है, उस आवेग वाक्य को सुनकर घट को ले आता है मा ले जाता है। पात्र में हुआ बालक प्रयोयट के घट सानयन को देखकर उसके कारणरूप में प्रयोश्यपटो घसानधन में संग्यता के कान का अनुमान करता है और फिर उस वामय में उस नामको कारबता का अनुमान करता है। उसके बाव ज्येष्ठ वयस्थ व्यक्ति जिसे प्रयोजकान कहा जाता है यह मावेश देता है कि 'घट मेय. पदमानव और प्राज्य पशु घट को हठा कर पट का आनयन करता है सब बालक या अनुमान करता है कि 'घटमामयपस कास्य के भीतर ओ घटनाब है वही घर जान का जमकर कोंकि आनय शव के साथ सब घटनामा पाता प्रयोज्य बद्धको घटानया में पतंग्यता का ज्ञान हुमा पौर अब 'मामय'मन के साथ घट बाद भी चा किन्तु पट शाम्ब पा सब घटानमन में संबधता का जान नहीं भा । इस प्रकार हमरा के भावाप अर्थात काय काय के साथ उसका प्रयोग और घटना के जव्वाप अर्थात भानय शव के साथ उस Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा. बा० समुच्चयक्त ३.श्लोक ९ ' अथ' यथा मायावी सूत्रसंचाराधिष्ठितदारुपुत्रक 'परमामय' इत्यादि नियोज्य घटाऽऽनयन' संपाद्य बालकस्य व्युत्पत्ती प्रयोजकः। तथेश्वगेऽपि प्रयोज्य प्रयोजक वृद्धीमय म्यपहारं कृत्वाऽऽयव्युत्पत्ति कारयति । न चाऽत्र चेष्टया प्रवृतिम् । तया शानम् , नमाने उपस्थितवाक्यहेतुत्वम् , तज्ज्ञानविषयपदार्थ चाऽऽवापोझापाम्य- तत्तत्पदनान हेतुत्वमनुमाय तसत्पदे तत्तदर्थेनानानुकूलत्वेन नचदर्थ संवन्धयचमनुमेयम् । एवं चाऽयं संबन्धग्रही भ्रमः झ्याउ , जनस्तानम्य भ्रमत्वात् इति वाच्यम् । तस्वेऽपि विषयाऽमाधेन प्रभावान , परम परामर्शस्य प्रमारसंभवाच्च । एचमीश्वर एव कुलालादिशगर परिगृह्य घटादिसंप्रदायप्रवर्तकः । अत पर श्रुतिः (नमः) कलालेभ्यो नमः कर्मारभ्यः' इत्यादीप्ति ।" चेत? के भप्रमोम से बालक ग्रह भनुमान करता है कि शाम्ब घट का बोधक है और उसके बाद 'घट शम्ब से हो घट का बीच होता है, पटवा से क्यों नहीं होता। ऐसा विद्यार करते हुए या अनुमान करता हैं कि घटना अयं से माना है और घटक असे नहीं है। इस निचय के अनन्सर मालक कालान्तर में स्वयं घट का बोध कराने के लिये हायं घट शब्द का ध्यवहार करने लगता है और अन्य द्वारा घट नाम का व्यवहार होने पर स्वयं घट का नाम प्राप्त करने लगता है । इस प्रकार प्रयोज्य और प्रयोजक पक्षों के द्वारा व्यवहार का प्रवर्तन होता है किन्तु यदि सृष्टि का प्रारम्भ माना जायेगा तो उस समय प्रयोज्य और प्रयोजक पूजन होने मे पास उयवहार का प्रवर्तन नहीं हो सकेगा। [मायाजालिक के समान ईश्वर को शिक्षा-पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा जाय-क जैसे मामात्री पुरुष जब अकेला होता है उसके साथ कोई कनिष्ठ वयस्थ व्यक्ति नहीं होता और वह कोई किसी मालक को व्यवहार सिखाना चाहता है तम यह कनिष्ठमयस्य के स्थान में एक लकडो का मनुष्य बना लेता है और उसको सत से इस प्रकार बांध लेता है कि वह उस सूत्र के द्वारा गतिशील हो सके और सब वा 'घटमानय' इस शब्द का प्रयोग करके सूत्र के संचालन से उस काष्ठ निमिस पुरुष के द्वारा घटानयन का संपावन कर मालक को घट शम्द के व्यवहार की शिक्षा देता है। तो जैसे मायावी फाष्ठ से बने हुए मनुष्य को प्रयोज्य पडके स्थान में रखकर ग्यवहारको शिक्षा देता है, उसी प्रकार पर प्रयोज्य और प्रमोजकशरीरों की रचना कर प्रयोजक शरीर के द्वारा 'घटमानय' इस शब्द का प्रयोग कर मोर प्रयोज्य शरीर द्वारा घटानयन का संपावन कर सृष्टि के प्रारंभ काल के मनुष्य को व्यवहार की शिक्षा दे सकता है। इस सन्दर्भ में यह सड़का हो कि-'उक्स कम से व्यवहारविक्षा की जो पति है उस के मनुमार घेष्टा से प्रवृत्ति का और प्रवृत्ति से कसंम्पताशान का और ज्ञान के प्रति उपस्थित गाय में कारणता का और उस तान के विषयभूत तत पदार्थज्ञान के प्रति प्राचाप और जवाप प्रति क्रिया५५ के साथ तस पद का प्रयोग पोर पप्रमोग से तत्व पर में तत्तव पवार्य के सम्बाप का अनुमान किया जा सकता है। किन्तु इस स्थिति में सुष्टि के प्रारम्म में प्रयोग्य और प्रयोजक शरीर का निर्माण कर उसके शाराविरको म्यवहार का प्रवर्तक मामले पर तत्सद पदार्थ के समाप का जपतानुमान प्रम होगा। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा०क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ ६ नष्टाऽभावेन प्रयोज्यादिशरीरपरिग्रहस्य भगवतोऽयुक्तत्वाद् अन्यादष्टेनाऽन्यस्य शरीरपरिग्रहे चैत्रकृष्टं शरीरं मैत्रोऽपि परिगृह्णीयातुं । 'प्रायष्टेन घटादिवत् ततच्छतत्परिग्रहस्तु मतस्तदाश एवेति म दोष' इति चेत् न घटादावतथावे ऽपि तदीयेशरीरे नदीष्टत्वेनैव हेतुत्वात अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । • · क्योंकि उस अनुमान के कारण में होने वाली प्रवृति से शाम का अनुमान और उस ज्ञान के प्रति उपस्थित वाक्य में कारणता का अनुमान प्रादिभ्रम है, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में प्रयोक्य प्रयोजक शरीर का प्रयत्न और शान निश्ये होता है। घनः उन में कारण को अपेक्षा न होने से उन के कारण नुमान का भ्रम होना अनिवार्य है। और जब कारभूत ज्ञान भ्रम है तब उसके कायंमूल उक्तानुमान भ्रम होना स्वाभाविक है और जब ससद् पद में तल पदार्थ के सम्बन्ध का अनुमान भ्रम हगा तब उससे ससद् पद में तब पवार्थ के सम्बन्ध की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि भ्रम विषय का व्यभिचारी होता है । अतः भ्रम से पदार्थ की सिद्धि नहीं होती ।' तो इसके उत्तर में, यदि कहा जाए कि यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि किसी ज्ञान का भ्रमात्मक होमर उसके कारण गल दोष पर ही निर्भर नहीं है किन्तु तान जिस विषय को ग्रहण करता है उस विषय के अध पर निर्भर है इसीलिये वह्निम पुष्याप्ति का भ्रम होने पर बलि से यदि महानस में को अनुमिति होती है तो वह अपने कारण उक्त व्याप्तिज्ञान के अमरूप होने पर भी स्वयं भ्रमरूप नहीं होली क्योंकि महान में धूम का बाध नहीं होता है, अतः सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर के प्रयोक्यप्रयोजक शरीर द्वारा उस काल के मनुष्य को जो तस पत्र में तब पवार्थ के सम्बन्धको प्रति होगी वह भी काम नहीं हो सकतो क्योंकि तत्तत् पवत पार्थ सम्बन्ध होने के कार उसका बाध नहीं है और दूसरी बात यह है कि अनुमिति का अन्तिम कारण सो पक्षमें साध्य माध्य हेतु का परामर्श' होता है जिसे करम परामर्श कहा जाता है । प्रकृतस्थल में वह परामर्श ल पद में तय पवार्थ सम्बन्ध व्याध्यरूप से तत्तवपदार्थ मानानुकूलस्वरूप का निश्चयरूप है और व विश्व में प्रमात्मकही है श्रतः उक्तानुमिति का जो प्रधान एवं प्रश्लिम कारण है उसके भ्रमरूप न होने से कारण शेष द्वारा हो तत्तत् पद में तल पवार्थ सम्बन्ध को मनुमिति को भ्रमात्मक कहा जा सकता। मत: उस अनुमिति से तल पव में तल पदार्थ के सम्बन्ध को सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती, इसी प्रकार ईश्वर कुलालादि शरीर को धारणकर घटपटादि का प्रथम निर्माण करके के निर्माण की परंपरारूप संप्रदाय का प्रदत्तक होता है। इसीलिये श्रुति में कुलाल बाद से उस का अभिवादन किया है तो जैसे 'नमः कुलालेभ्यः नमः कमरेभ्यः' इत्यादि । [ ईश्वर के शरीर ग्रहण का प्रसंभव उत्तरपक्ष ] : सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर द्वारा व्यवहार प्रवर्तित किये जाने का यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि ईश्वर में मष्ट नहीं होता । एष उसके द्वारा प्रयोग्य और प्रयोजक के शरीर का ग्रहण मी पुति सङ्गस नहीं हो सकता क्योंकि शरीर का अशा अपने होमट से होता है। यदि धन्य के अष्ट से की शरीर ग्रहण की स्वीकृति की आयनों तो चैत्र के मष्ट से निर्मित होने वाला शरीर मंत्र द्वारा मी गृत हो सकेगा और उस पारीर से मैत्र को भी सुखदुखादि भोग को प्रति होगी । कब कि यह बात कथमपि मान्य नहीं हो सकती। क्योंकि ऐसा मानने पर तो मुक्स को भी शरीर प्रण का प्रसङ्ग हो सकता है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा.पा. समुच्चय स्त०-३-2 किञ्च कोऽयमात्रेशः तदवभिप्रयत्न एवेति चेत् न तदजन्यस्य प्रयत्नस्य तदनवच्छिनत्वात् । अथैवंशानुपपत्तिः, तत्र हि भूतात्मन्येव चैत्राद्यन्येन प्रवृत्तिग्गीक्रियते, अन्यथा मृतशरीरे तदावेज्ञानापतेरिति चेत् १ इयमपि तत्रैवानुपसः, ७० 1 पवि यह कहा जाय कि शरीरण का मयं है शरीर के साथ भोग प्रयोजक सम्बन्ध को प्राप्ति । किन्तु इस प्रकार का शरीरमा ईश्वर में नहीं होता। अति ऊंसे प्राणियों के से घटपटावि की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार प्राणियों के से हो सृष्टि के आरम्भ में तत् सम्प्र चाय के प्रवर्तनार्थ विभिन्न वाशेरों की भी उत्पत्ति होती है जिनके साथ ईश्वर का भोग प्रयोजक सम्बन्ध नहीं होता अपितु उन में ईश्वर का प्रावेश होता है और उस प्रवेश से ही उन शरीरों में चेष्टा होकर उनके द्वारा तत्तत् सम्प्रदाय का प्रवर्तन होता है अतः सष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने वाले शरीरों का ईश्वर द्वारा इस प्रकार का ग्रहण संभव होने से उक्तदोष की प्रसयत नहीं हो सकतीतो यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि घटादि पार्थी और शरीरों में वैषम्य होता है । विपदार्थ किसी भी व्यक्ति के भोग के प्रायतन नहीं होते किन्तु भोग के रस्य साधन होते है । अतः उन की उत्पत्ति प्राणियों के से हो सकती है, उस की उत्पत्ति में किसी प्राणीविशेष के हो प्रष्ट को कपेक्षा नहीं होती जब कि शरीर भोग का प्रायतन होता है इसीलिये भिन्न भिन्न प्राणी को पृथक पृथ शरीर की घावश्यकता होती है। जो शरीर जिस प्राणि विशेष के अहट से उत्पन्न होता है उस शरीर से उसी प्राणी को भोग होता है। इसीलिये कोई भी शरीर किसी प्राणि विशेष के भोग का यतन होने के लिये हरे उत्पन्न होता है और इसीलिये तत्पुरुषीय शरीर में तत्पुरुषीय दृष्टको कारण माना जाता है। ऐसा न मानने पर शरीर सभी प्राणियों के भोग का आयलन हो सकने के कारण अव्यवस्था हो सकती है। अतः यह कल्पना उचित नहीं हैं कि सृष्टि के पारम्भ में ससद् सम्प्रदाय का प्रवर्तन करने के लिये प्राणियों के प्रष्ट से कुछ शरीरों की उत्पति होती है जो भोग का प्रायतन नहीं होते किन्तु सम्प्रदाय के प्रवर्तन में ईश्वर के सहायकमात्र होते है। और ईश्वर उन शरीरों में आविष्ट होकर उनके द्वारा त सम्प्रदाय का प्रवर्तन करता है।' ['प्रवेश' पदार्थ की समीक्षा) इस सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि सृष्टि के आरम्भ में प्राणियों में प्रदृष्ट से उत्पन्न होनेवाले कतिपय बारों में ईश्वर का जो भावेश होता है उस का क्या अर्थ है। यदि कहा जाये कि तलवारीर में श्राविष्ट होने का अर्थ है तत शरीरावयवेन प्रयत्नशील होना' तो इस प्रकार का प्रवेश ईश्वर में नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर का प्रयत्न उम शरीरों से जन्य न होने के कारण जन मारीरों से भय नहीं हो सकता। क्योंकि यह नियम है कि जो प्रयत्न जिस शरीर से उत्पन होता है पशु प्रयत्न उसी से अच्छे होता है । और कोई भी प्रयत्न उसी शरीर मे उत्पन्न होता है जो शरीर उस प्रयत्न के आश्रयभूतं मात्मा के अदृष्ट से उत्पन्न होता है। इसीलिये शरीरा मंत्र- प्रयत्न को उत्पत्ति नहीं होती। यदि यह शङ्का की जाय कि इस प्रकार ईश्वरावेश की अनुत्पत्ति बताने पर प्राणियों के fafe शरीरों में मूतावेश (पिशाचावेश) को भी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि ये शरीर भूतात्मा के प्रहष्ट से नहीं उत्पन्न होते किन्तु मंत्रादि अन्य प्राणियों के प्रष्ट से ही उत्पन्न होते है। अतः उपल Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका-हिम्पीविवेचन ] अम्माकं तु नत्र संकोच-विकासम्बभावभूतात्मप्रदेशानुपवेशादुपपत्तेः । नब सवाछेदकतरा चैत्रप्रयत्ने प्रति चैत्रशरीरत्वेनाऽवश्य हेतुता वक्तव्या , अन्यथा मैत्रशरीरावनछेदेन चैत्रप्रयस्यापतः, पाण्यादिचालकप्रयत्नसय एष पुनस्तदापत्तिवारणायावच्छेदकतया मन्प्रयाने ग्यवस्था के अनुसार उन शरीरों द्वारा भूसास्मा में प्रवृत्ति न हो सकेगी । जब कि उन शरीरों द्वारा मृतात्मा में प्रति तो होती है और इस प्रवत्ति का झोनाली उन शरीरों में भूतात्मा का शावेश कहा जाता है। यदि यह कहा जाय कि- 'प्राधिके शरीर में मतावेशका यह अर्थ नाहीं है कि श्रादि शरीराघसदेवेन तास्मा में प्रवत्ति होती है किन्तु चैवारमा के साथ भूतात्मा का एक विशेष प्रकारका सम्बन्ध हो जाता है। जिस के कारण उन शरीरों के अधिष्ठाता प्राणियों के प्रयत्न से ही उस में मसाधारण प्रकार को भेष्टाएं होने लगती हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मसशरीर में तावेश की उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि मतशरीर के साथ उस व्यक्ति का सम्बन्ध सूट जाता है समास के असा पग परः । स भूवेश से उस शरीर में होनेवाली चेष्टाएँ उस शरीर के प्रधिष्ठाता जीव के प्रपरन से उत्पन्न नहीं मानी जा सकसी । प्रत: उन्हें मूताश्मा से ही उत्पन्न मानना होगा और यह तब ही हो सकता है जब मसशरीरावम्वेवेन भूतात्मा में प्रबरन की उत्पत्ति मानी जाय । प्रतः इस पवस्था का साग करना होगा कि जो पारीर जिस के प्रकट से उत्पन्न होता है उसी शरीर से उस में प्रयत्न को उत्पत्ति होती है । इसोसिये सृष्टि के पारम्भ में जो शरीर उत्पन्न होते हैं वे यवपि भगवान के नहीं उत्पन्न होते तब भी भगवान में तस पारीद्वारा प्रयास का उचय हो सकता है. जिस से उन पारी में चेष्टा की उत्पत्ति हो कर उनके द्वारा व्यवहार का प्रवर्तन हो सकता है और यदि ईयर में प्रपन की उत्पति कथमपि प्रमोष्ट न हो तो ईश्वर का नित्य प्रपरन ही तसद पारीर से प्रश्नमदेव हो सकता है। वह प्रक्षच्छेचस्व जन्यत्वरूप न होकर स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप हो सकता है । असे नित्य पाकाशमें धारयत्व होता है" [प्रात्मा के संकोच-विकास से भूतावेश ] सो यह शाहका ठोक महीं है, क्योंकि बत्रवारीरावन मंत्रप्रघरम की उत्पत्ति के परिहारार्थ यह नियम मामना अनिवार्य है कि जो शरीर जिस प्राणी के प्रा से उत्पन्न होता है तशरीरावध्वेमंव उस प्राणी में प्रयत्म की उत्पत्ति होती है । इस नियम के मानने पर जो भूतावेश की अनुपपत्ति प्रदर्शित की गई है बह नैयायिक के ही मप्त में प्रसास होती मंत मत में बह भनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकिमासमत में आस्मा प्रवेशवान होता और उस के प्रदेश सहकोच-विकासशासी होते है। इसलिये पंधावि के शरीर में भी भूतात्मा के प्रवेश का उसोप्रकार प्रमुप्रवेश हो सकता है जैसे चंबावि के शरीर में चैत्रावि के प्रात्मप्रवेशका मनुप्रवेश होता है । भूतात्या के प्रदेश का चंद्रादि के शरीर में यह पनुप्रवेश ही भूतावेश कहा जाता है। और इस अनुप्रवेश के कारण प्राविशरीराषच्छेवेन भूतात्मा में प्रवति हो सकती है क्योंकि जिप्स शरीर में जिस प्रारमा का प्रवेश प्रविष्ट होता है तमासेरावच्छेवेन उस प्रात्मा में प्रयत्न होने का नियम है। भूतात्मा के प्रदेश का यह अनुप्रवेश सतत शरीर में अपने प्रष्ट से प्रविष्ट होनेवाले मात्मापों के मारष्ट से होता । है। पतः यह मूतावेश उन भारमानों के लिये दुःखप्रय होता है। मंत्र के शरीर में मंत्रामा के प्रदेश का अनुप्रवेश नहीं हो सकता, क्योंकि तपनुकल कोई प्रष्ट नहीं होता । प्रस: मंत्रारीरावग्रेवेन मंत्रास्मा में प्रवृत्ति को प्रापत्ति नहीं हो सकती। किन्तु संया यिकमत में मैत्र Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ शा. बा. समुचय स्त०-१ श्लोक ह , तया सद्भावस्य हेतोपादकस्य सुधान् तत्तच्छरीरत्वेन तत्तत्मवृश्यादिहेतुत्वं गोरबा काय थलेऽपि योगाशेप गृहीतत्संबन्धेन तदात्मवस्त्रस्य मशरीरानुगतत्वात । शरीरावरखेवेन चैत्रप्रवृति की उत्पत्ति के निवारणार्थ भवदेवकतासम्बन्ध से मंत्र प्रयत्न के प्रति याम्पसम्वन्ध से यंत्र शरीर को कारण मानना पडता है। इसलिये चंद्रादि का शरीर चैत्रावि को ही प्रवृत्ति का कारण हो सकता है भूतात्मा को प्रवृति का कारण नहीं हो सकता । प्रसः न्याय मत में दि के शरीर में भूतावेश की अनुपपति हो सकती है। [ नयायिक मान्य कार्य कारणभाव में गौरव ] यदि यह कहा जाय कि ' प्रचच्देवकला सम्बन्ध से चैत्र-प्रयत्न के प्रति वाशेर तावात्म्य सम्बन्ध से कारण है यह कार्य कारणभाव नैयायिक को भी मान्य नहीं है। क्योंकि इसके मानने पर भी यह आपत्ति हो सकती है कि हस्त में गति उपन करनेवाले प्रयत्न की अवच्छेदकता सम्बन्ध से चरण में भी उत्पति होनी चाहिये। क्योंकि वरण में प्रयच्छेदकतासम्बन्ध से उस प्रयत्न का प्रभाव है और अबकता सम्बन्धन सत्प्रयत्न का प्रभाव तत्प्रयत्न का कारण होता है प्रत इस आपसि के बार गार्थं जो ओप्रवृत्ति जिस जिस शरीर या जिस जिस शशेरावयव द्वारा उत्पन्न होती है उस उस प्रवृत्ति के प्रति तत्तद् शरीर या तत्तद् शरीरावयव कारण होता है । भोर इस कार्यकारणभाव को मान लेने पर मैशरीरावच्छेदेन प्रवृति की आपत्ति का भी वारसा हो जाता है। धतः प्रवच्छेदकतासम्बन्ध से क्षेत्र प्रयत्न के प्रति प्रवासम्बन्ध से क्षेत्रशरीर कारण है यह कार्यकारणभाव अनावश्यक हो जाता है। इसीलिये यंत्रशरीरावच्छेदेन नूतात्मा में प्रवृत्तिरूप नलावेश और सृष्टि के प्रारम्भ में प्रयोज्य-प्रयोजक प्रादि शरीरावच्छेदेन प्रयत्तशालितारूप ईश्वरराधेश की अनुत्पत्ति नहीं हो सकतीतो यह ठीक नहीं है क्योंकि हस्त में सिजनक प्रयत्न की चरण में उत्पत्ति को आपत्ति का धारण करने के लिये जिस कार्यकारणभाव की कल्पना की गई है उस में प्रवृत्ति एवं शरीर तथा शरीरावयव के भेव से महान गौरव है। अतः उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । चरण में हस्तक्रियाजनक प्रयत्न को उत्पत्ति को आपत्ति का बाररण करने के लिये यह कार्यकारणभाव मानना उचित है कि यछेदकतासम्बन्ध से अयन के प्रति गतिप्रकारकच्छा बिशेष्यलाय से कारण है । हस्त में गति का जनक प्रयत्न 'हलचल' इस इच्छा से उत्पन्न होता है। यह इच्छा विशेष्यता सम्बन्ध से हस्त में रहती है। अत एव इस इच्छा से उत्पन्न होनेवाला प्रयत्न अवश्यकता सम्बर से हस्त में ही उत्पन्न हो सकता है न कि चरण में अथवा यह कहा जा सकता है कि कोई भी प्रश्न श्रकतासम्बन्धेन किसी भी शरीरावयव में नहीं उत्पन्न हो सकता किन्तु प्रवच्देवकला सम्बन्धेन शरीर में ही उत्पन्न होता है। और उस प्रयत्न से शुरू चरणावि में जो सवा प्रवृत्ति नहीं होती है ferg व्यवस्थित रूप में कभी हस्त में कभी चरण में होती है उसका नियामक प्रदस्त की उत्पल करनेवाली 'हस्सलतु, घरणश्चलतु' इत्यादि इच्छा है। इसका यह है कि सम्वन्य सम्बर से चलना विरूप चेष्टा के प्रति प्रयत्न 'स्वजनक वलनादि प्रकारक इच्छा विवोध्यत्व सम्बन्ध' से कारण है। प्रत: जब 'पालितु' इस इच्छा से शरीशवदेवेन प्रयत्न उत्पन्न होगा तब वह प्रयत्न उक्त सम्बन्ध से पाणि में रहने के कारण पाशि में चलन थिया को उत्पन करेगा। और जब 'रश्वतु इस इच्छा से वारा प्रयान उत्पन्न होगा तब वह प्रथम उपनसम्बन्ध से रण में रहने के कारण चरण में चलन क्रिया को उत्पन्न करेगा। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा० क. टीधा मौर बिभी विपना ] अपि च, यथाकथञ्चिद् भतावेशन्यायेन तकनीरपरिग्रह जगदप्यावेशेनैव प्रवर्तयेत् [ योगी जनों द्वारा कायम्यूह की उपपत्ति ] प्रब इस पर यह प्रान हो सकता है कि 'यवि तसत् पुरुषोम प्रयत्न के प्रति तत्तत् पुरुषीय शरीर कारण है तब जब कोई योगी विभिन्न शरीरों ले मोक्तव्य कर्मों को एक सापही मोग श समारत कर बेमे के लिये विभिन्न शरीरों की रचना करता है तो उस योगो में विभिन्न शरीरापल्लेवेन प्रयत्न कैसे उत्पन्न होगायोंकि उस योगी को प्रारक कर्म से जो गारीर प्राप्त रहता है वही उसका शरीर होता है। अत एव उसो पारीर केबारा नस से प्रयत्न होना उचित । - किन्तु मह प्रश्न उचित नहीं है पाकि जैसे उस का मातापिताज शरीर उस परष्ट से उसे उपलबध होता है उसी प्रकार संपूर्ण को का एक साथ भोग करने के लिये वह स्वयं जिन विभिन्न शरीरों की रचना करता है वे शरीर भी उसी के योग प्रदान से उसे उपलब्ध होते हैं। मतः मातापितज शरीर के साथ वे शरीर भी उसी के शारीर है अतः सम्पुरुषीयप्रयत के प्रति तत्पुरुषीयारीर-तत्पुरुषीम प्रष्टकृष्ट शरीर को कारण मानने पर स्वनिर्मित कायथ्यूह द्वारा योगी में प्रकृति की अनुपसि नहीं हो सकती। मिष्कर्ष यह है कि एक पुरुष के शरीर से अन्य पुरुष में प्रवृत्ति की उत्पति के निवारणार्थ सत्तत पुरुकीय प्रयत्न में तप्तत युकधीय शरीर को कारण मानना मावश्यक है। और जो सरीर जिस पुरुष के प्रष्ट से उत्पन्न होता हैषही उस पुरुष का शरीर होता है। प्राधिका शरीर भूतात्मा के प्रष्ट से उत्पन्न नहीं होता। मत एष बह्न सूतात्मा का शरीर नहीं कहा जा सकता और सृष्टि के पारम्भ में जो प्रयोज्य-प्रयोजक प्रादि शरीर उत्पन्न होता है वह ईश्वर के प्रहट से उत्पन्न महों होता मत वह ईश्वर का शरीर नहीं कहा जा सकता । अतः सत्ता शरीरात पावेश को सत्तत् जारीरावर वेन प्रयत्नवस्वरूप मानने पर न्याय मत में मृतावेश और ईश्वराधेश की उपाति नही हो सकती । किन्तु श्राहंत मत में उपतरूप से चूतावेगा की उपपनि हो सकती है और ईश्वरावेश की उपपत्ति की चिन्ता पाहतों को होशी नहीं सकती क्योंकि उन्हें ईश्वरवेश मानने की प्रावस्यकता नहीं है। (प्रावेश से प्रवृत्ति, वेदाविरचना को व्यर्थता) सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर द्वारा सम्प्रवाब प्रवर्तन को जो उपपत्ति बताई गई है उस सम्बन्ध में यह भी विचारणीय हो जाता है कि मधि यह मान भी लिया जाय कि भूताखेश के समान दृष्टि के प्रारम्म में कुछ शरीरों में वि. रावा होता है और उस मावेश के कारण उन शरीरों द्वारा ईश्वर तत्तत्सम्प्रदाय का प्रयतन करता तो इस प्रश्न का क्या समाधान होगा कि-'चा कतिपय शरीरों में आवेश द्वारा से सम्प्रदाय का प्रयसंम करता है से प्राबेश छारा ही समुचे अगत् का भी प्रबर्तन क्यों नहीं कर बेता? अर्थात यह स्यों न मान लिया जाय कि जगत में जिस किसी में ओ क्रिया होती है वह उस में ईश्वर का मावेश होने के कारण ही होती है, मनुष्य के विभिन्न शरीरों द्वारा ओ अवविहित कर्मों का मनुष्ठान होता है बात उन शरीरों में ईश्वर के प्रावेश से ही होता है। इस बात का सहकेत गीता-माधि के कुछ बचों से भी मिलता है। जैसे 'ईश्वरः सर्वभूतानाम् हदेशे मर्छन ? तिष्ठति। भ्रामयम् लर्वभूतानि पन्न.. ढाणि मायया ॥ एवं-जानामि धर्म म प मे प्रतिमानाम्यभम न च मे निवृत्तिःकेनापि देवेन हवि स्यिसेन यथा निमुक्तोऽस्मि तथा करोमि' । इस प्रकार ईश्वरावस से हो जगत को सम्पूर्ण प्रवृत्तियां निष्पन्न हो सकती है। प्रतःश्वर द्वारा वेवशास्त्रादि की रचना मानना मिरक है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [ शा. पा. समुरुचरा न. ३-इसी०१ इति व्यर्थमस्य वेदादिप्रणयनम । 'कर्मवदामी देशामविरुद्ध नव प्रा. या नानुपपतिरिति चत् । तर्हि परप्रवृत्तये वाक्यमुपदिशन स्वेटमाधनताज्ञानादिकपि कथमतिपतेत १ कथं या पेशवाहिन्ने विलक्षणयत्नत्वेन हेतुत्वान् तदवच्छिन्नम्य विजानीयमन:संयोगादिजन्यत्यात ताशप्रयत्नं बिना अशादिशरीर चेष्टा ? विलवणचधापी विलक्षणप्रयत्नम्य हेतुत्वान् अत्रेश्वरीययत्न एव हेतुरिति चेन् ? नहि नम्य सर्वत्राऽविशिष्टत्वात सर्वधापीश्वरमेष्टा पति: 1 "विलवणचेशवच्छिन्नविशेग्यतया तत्प्रयत्नस्य हेतुन्वाद् नानिप्रसङ्ग' इति चेत् ? तहिं पोटावलक्षण्यसिद्धी नचाहेतुत्वम् , नथाहेसुत्थे च नलक्षण्यमिनि परम्पराश्रयः ।। इस प्रश्न के उत्सर में यदि यह कहा जाय कि-जैसे प्रार्हत मत में कम ही सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का मूल कारण होता है किन्तु वह सीये उन प्रवृत्तियों का जनक न होकर जिस रप्ट-इष्ट कारण से प्रवृत्तियों का होना लोक में देखा जाता है उस के द्वारा ही उसे उन प्रवत्तियों का जनक माना जाता है। इसी लिये कर्म और प्रकृसियों के बीच दृष्ट प्रष्ट तत्तत कारणों को भी अपेक्षा होती है। उसी प्रकार ईवर यद्यपि जगत को सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का कारण है किन्तु वह भी लोक में जिप्त प्रवासियों का जिस दृष्ट-इष्ट कारण से उदय झोना देखा जाता है उनके द्वारा ही उन प्रवृत्ति का कारण होता है। प्रतः बेवादि के द्वारा लोक प्रवृत्ति को सम्पादनार्थ उसे वेवादि की रसना करनी पाती है। प्रस: बेदावि की रचना को व्यर्थ नहीं कहा जा सकता'-ना यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि वह चूमरों की प्रवृत्ति के लिये बाक्य का उपदेश वसलिये करता है कि वाक्य हारा हो पर का प्रवर्तन लोक में प्रष्ट तब तो उसे अपने इण्टसायनताशानावि की भी अपेक्षा करनी चाहिये क्योंकि यह मो लोक में वेत्रा जाता है कि मनुष्य जिस कर्म को दूसरे द्वारा कराने में मपना इष्ट समझता है उसी फर्म में दूपरे को प्रवृत्त करता हैं । अतः ईश्वर को भी इमोप्रकार दूसरों का प्रयतम करमा चाहिये। किन्तु ऐसा मानने पर ईश्वर संसारी मनुष्यों से श्रेष्ठ न हो सकेगा। कोहि संसारो मनुष्य के समान वह भी अपूर्ण होगा और जिस वस्तु की उसे कमो होगी उसे पाने की वह सुरछा करेगा और उस की प्राप्ति जिस मनुष्य को किया से संवित होगो उस मनुष्य को उस क्रिया में प्रवृत्त करेगा। [ ब्रह्मावि देयता के शरीर में चेष्टा कसे ? ] इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि-बाह्मावि देवतामों के शारों में पेष्टा कले उत्पन्न हो सकती हैं और चेष्टा उत्पन्न न होने पर उनके द्वारा राष्टि का निर्माण-रक्षण और संहार आदि कार्य किस प्रकार हो सकेगा? धमा आदि शरीरों में चेष्टा नहो सकने का कारण यह है कि चेष्टा के प्रति विलक्षण प्रयत्न कारण होता है मौर विलक्षण प्रयत्म के प्रति विलक्षण माममन संयोगादि कारण होता है, ब्रह्मा प्रावि में विलक्षण मात्ममन:संयोग न होने से विलक्षणप्रयत्न नहीं हो सकता है । और विलक्षण प्रयत्न के प्रभाव में ब्रह्मा आदि के पारीर में चेष्टा नहीं हो सकती है। यदि यह कहें कि -"विलक्षणप्रयत्न विलक्षणचेष्टा का कारण होता है प्रत: विलक्षण प्रयत्न से होनेवाली विलक्षणवेष्टा ब्रह्मा मावि के सरीर में मले म हो किन्तु ईश्वर प्रयत्न से चेष्टा होने में कोई बाधा नहीं हो सकती' Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यार का टीका-बिन्दीविवेचना ] किच, स्वाधिष्ठातरि मोगाजनकशरीरसंपादनमपि तस्यैश्चर्यमात्रमेष, इति दृष्टचिंगेनव जगत्प्रवृत्तिगयाता । एतेनेसन प्रतिक्षितम् तो यह ठीक नहीं है पयोंकि विवर का प्रयत्न स्वाश्रयसंयोग सम्बम्प ले जैसे ब्रह्मा प्रावि शरीर में रहेगा उसी प्रकार अन्य समो शरीरों प्रौर मूर्त वृक्षों में भी रहेगा, प्रतः ईश्वरप्रयम को उक्त सम्बन्ध से चेष्टा का कारण मानमे पर केवल समावि शरीरों में ही उस से भेष्टा की उत्पत्ति न होगी पिy अन्य सभी कारों में मी चेष्टा की आपत्ति होगी। . [ब्रह्माविस रीरचेष्टा की उपपत्ति का व्यर्थ प्रयास ] इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-"जैसे जीष के विलक्षणप्रयत्न से विलक्षणचेष्टा की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार ईश्वर प्रसस्न से मी विलक्षणचेष्टा को उत्पत्ति होती है और यह विलक्ष या चेष्टा जीव के प्रपस्त से होने वाली विलक्षयनेष्टा से विलक्षण होती है और इस चेष्टा के प्रति ईश्वर प्रगत स्वायसंयोग सम्बन्ध से कारण न होकर विलक्षण वेण्टावावच्छिन्न विवोत्यता सम्बन्ध से कारण होता है। यह विशेष्यता प्रामा प्रादि शरीरों में होने वाली चेष्टानों में ही रहती है अत एवं ईश्वर प्रयत्म से प्रप्सी बेटा का जन्म होताहै अन्य चेष्टानों का जाम नहीं होता है क्योंकि उवत शिल्पता सम्बन्ध से ईश्वरप्रयरल को कारण मानने पर कार्यतावशवकसम्बन्ध तावाश्म्य होता है और बझाव शरीर में उत्पाहोनेपाली विलक्षण पेष्टा का तादात्म्य उसी चेष्टा में होता अन्य पेष्टानों में नहीं होता है। वह बेटा ब्रह्मावि के पारीर में ही समवेत होती है सन्य शरीरों में नहीं क्योंकि सपकाय सम्बन्ध से उस चेष्टा के प्रति प्रावि शरीर भोगानायतनशरीरत्व रूप से कारण होता है। ब्रह्मादि का शरीर किसी मोक्ता का शरीर नहीं होता किन्त प्राणियों के प्रष्ट से उत्पन्न होने वाला ऐसा शरीर होता है जिस से किसी का मोग नहीं होता है किन्तु ईश्वर के प्रयत्न से छोटावान् होकर ईश्वर के कार्यों में सहायक होता है, प्राणियों के प्रष्ट से होमेवाले अन्य सभी शरीर प्राणियों के भोग का मायतन होते हैं प्रत एव उन में मोगानायतनहारीरत्व नहीं रहता है, इसीलिए ब्रह्मादि के शरीर में ईवर प्रयत्न से उत्पथ होनेवाली चेष्टा अन्य शरीरों में समवेत नहीं होती है । तो यह कथन ठीक नहीं है पोंकि जब यह सिद्ध हो माय कि ब्रह्मादि के शरीर में होनेवाली नेष्टा प्रन्य चेन्टानों से विलक्षण होती है सभी तावात्म्यसम्बन्ध से विलक्षण पेष्टा के प्रति विलक्षणचेष्टावाणिछन्न वियोग्यता सम्बन्ध से ईश्वर प्रयत्न में कारणता सिद्ध हो सकती है और जब उपत कारसता सित हो जाम तभी ईश्वर प्रयत्म से ब्रह्मादि शरीर में उत्पन्न होनेवाली पेष्टा में लक्ष सित हो सकता है। अतः प्रयोन्याश्रय घोष होने के कारण उक्त कार्य कारण माप की कल्पना नहीं हो सकती। (वरप्रवृत्ति में इष्टविरोध को आपत्तियाँ) सष्टि माग्न में उत्पन्न कतिपय शरीरों में ईश्वरावेगा वारा सतत् सम्प्रदायों का प्रपतन मामले में दृष्टविरोध का उरुसेख प्रभी किया जा चुका है। वह प्रापत्ति इस बात से और स्पष्ट हो जाती है कि ईश्वर ऐसे भी शरीर का निर्माण करता है जो अपने पधिष्ठाता में-अपने को सचेष्ट बनानेवाले पुरुष में भोग ना उत्पन्न करता है। ऐसे शरीर की रचना उस के एकमात्र ऐश्वयं का हो सूचन करतो हैपयोंकि ऐसा कामं जो लोकरष्ट कार्यों से सपा विचित्र हो निरंकुश ईयर के बिना Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] [ शा० वा० समुच्चय स्त० ३९ फलाभावात् प्रमाऽसति न प्रभा । "त्वमा सदभावात् प्रसिन फर्मवादेऽप्ययं विधिः ॥ १ ॥ (न्या. कु. ३-१८) इसि कर्मणः कर्त्रादिसापेचत्वेनैव जगद्धेतुत्वात्" | समर्थितं च"धर्माधम विना नाहमं विनाऽङ्गेन मुखं कुतः १ खाद बिना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथम् १ ||" (वी. स्तोत्र ७-१ ) इति । शरीरस्य स्पोपात्तनामक्रर्महेतुत्वात् तद्वैचित्रयेण नद्वैचित्र्याद, अन्यथाऽगोपात्रणां दिशि नियमानुपपत्तेरिति अन्यत्र विस्तरः । तस्माद मायाविधत् समयग्राहकत्वम्, } 1 नहीं हो सका और जब लोकष्ट के विपरीत भी कर सम्पूर्ण प्रवृत्तियों को सम्पन्न कर सकता है । मतः उस के द्वारा वेद मावि की रचना का निर्यक होना निविदा है। इसी से उस कथन की भी विस्तारता समज सेतो चाहिए जो उदयनाचार्य की कुसुमाञ्जलि में हेयभावे फलाभावात्' इस कारीका से कहा गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि उस कारिका में जो यह बात कही गई है कि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है' यह सामान्य नियम है, प्रमाण प्रभा का कारण होता है, अतः उस के प्रभाव में प्रभा की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रमा के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रत एव लोकप्रवृति के लिए प्रभा को उपस्थापित करने के हेतु वेब प्रावि प्रमाण की रचना श्रावश्यक है। यह प्रक्रिया कर्मभाव में भी श्रावश्यक है क्योंकि कर्म भो स्वयं अकेले किसी कार्य को उत्पन्न न करके लोकसिद्ध कारणों द्वारा हो उत्पन्न करता है अत एव उसे भी कार्य के लोकसि कारण का संपादन करना पडता है। क्योंकि कर्म भी कर्ता प्रावि की अपेक्षा से ही जगत् का हेतु होता है। कारिका का यह कथम उक्तयुक्ति से निस्सार हो जाता है, क्योंकि ईश्वर को जगत् कर्ता मानने पर उसे अपने अधिष्ठाता में भग्गन उत्पन करने वाले शरीर का निर्माता मानला पडता है जो हाटविरुद्ध है प्रत उसी के समान दृष्टविरुद्ध मन्त्र कार्यों के सम्भव होने से देव प्रावि की रचना का वैयथ्यं प्रसक्त होता है। कर्मवाद में उत्तरीति से लोकदृष्टि से विरुद्ध कोई कल्पना नहीं करनी पडती है। वीतरागस्तोत्र के श्लोक से इस बात का समर्थन यह कह कर भी किया गया है कि-धर्म और अधर्म के विना शरीर नहीं उत्पन्न हो सकता, शरीर के विना मुख नहीं हो सकता तथा मुख के बिना वक्तृत्व नहीं हो सकता। इसलिये अन्य लोग जो ष्टविपरीत कल्पना करने के व्यसनी नहीं होते वे अंसे ईश्वर के प्रति के उपवेष्टा कैसे हो सकते है जो बिना मुख के ही महान वेदराशि का उच्चारण कर डालता है ? अत: यह वस्तुस्थिति बुद्धिमान मनुष्यों को मान्य होनी चाहिये कि जीव को शरीर की प्राप्ति पूर्वोपार्जित शरीरसामकर्म के उदय से ही होती है और उस के यि से शरीर में वैषिष्य होता है। अन्यथा एकजातीय ही शरीर में अपाङ्ग वर्णादिपरिवार की नियत व्यवस्था नहीं हो सकती। इस विषय का विस्तृत विचार प्रन्यास में एष्टव्य है। उपर्युक्त विचार का निष्कर्ष यह है कि ईश्वर को मायायों के समान समय अर्थात् सभ्यार्थ सम्बन्ध स्वरूप संकेत का ग्राहक बताना एवं घटपटादि को निर्माणपरम्पराप सम्प्रदाय का प्रयतक कहना भी एक प्रकार की मायाविता ही है। अर्थात् कोई मायाको विद्यामर ही ऐसे ईश्वर को Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का रीका-हिन्दीविचेचना ] [ घटादिसंप्रदायप्रवर्तकन्ये च पराभिमतेश्वरम्य मायायित्तरमेव विद्याधर विशेषस्थ व्यञ्जयति । पितुरिव पुत्रादेयुगादी युगादीशस्य जगतः शिक्षया नु तथा युक्तिमत् , स्वभाव एव वार्थकता परोपकारित्वात् । अत एव 'कूलालेभ्यो नमः' इत्याषा श्रुतिः संगच्छत इति युक्न पश्यामः । अनुमानऽपि सिद्धसाधनं बोध्यम् । प्रत्ययादिना तु येदप्रामाण्यवादिनामाम-तक्त सिद्धावपि नेश्वरसिद्धिा, इति किमिह मदुपन्यासेन १ एतेन कार्यादिपदानामर्थान्तरमाप प्रयासमात्रम् । 'जन्यतत्प्रमासामान्ये तस्प्रम त्वेन गुणतया हेतुस्यात् , पाद्यप्रमाजनकप्रमाश्यतयेश्वसिद्धिः' इति तु मूढानो वचः, घटखादिमातविशेष्यतया तत्र घटस्यादिमिपरत्वेनैव हेतु तया, संस्कारणच घटत्वादिसंबन्धहेतमयैव वा सवापि निबाहान् , अस्माकं तु सम्यग्दर्शनस्यैत्र गुणत्वान् । सम्बाम का पाह: पोर घटादि पदार्थ के व्यवहार का प्रवर्तक कह सकता है जो करचर स्पमुखकणं मावि से विहीन मोर अशरीरी होने से वस्तुतः कुछ भी करने में असमय है। हो, यह घुक्तिसङ्गत प्रवाप हो सकता है कि जैसे पिता अपने पुत्र को शिक्षा देता है उसी प्रकार पुगावि में प्रारम्भिक युग का ईश प्रममतीर्थकर जगत को शिक्षा सम्मान लीक हो ग वीस होते है और वह स्वमात्र से ही सर्व जीवों का हितेन्छु होने से उन्हें जरवेश देते हैं। इसी प्रकार ताकर मी युगापि में बिना किसी निमी प्रयोजन के केवल स्वभाववश प्रजा को उपदेश देते हैं। इस प्रकार 'मम कुनालेभ्यः प्रावि श्रुतियां भी सङ्गत हो सकती है । और इसी कारण सत्संप्रदाय के स्वतंत्र प्रवर्तक के अनुमान में सिद्धसाधन दोष भी हो सकता है क्योंकि प्रत्येक युगादि में उस घुगका प्रावि तीर्थकर तत्तसंप्रदाय के प्रवर्तक रूप से सिल है। [प्रत्ययावि प्रमाणों की निरर्थकता ] प्रत्यय-प्रमा, श्रुति-वेद और वाक्य द्वारा मी ईश्वर की मिति नहीं हो सकती क्योंकि जो वेद को प्रमाण मानते हैं उन के मत में प्रमा वेब पोर वाक्य से होने वाले मनुमानों से वेदार्थ के प्रमाता बेवफर्ता की सिद्धि हो सकती है किन्तु वह विवर है। यह बात उन अनुमानों से मी सिद्ध हो सकती, क्योंकि हिरबर को सर्वकर्ता माना जाता है और वे अनुमान बिप्त पुरुष को सिद्ध करते हैं उस की सर्वशता और समतताको सिद्ध करने में उवासीन है। इसीलिये कार्य प्रायोजनात पों का प्रग्य पर्थ कर के जिन भनेक प्रनुमानों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है उन अनुमानों से भी समंजसकतः ईश्वर की सिद्धि नहीं होती. घोंकि वे प्रनुमान मी जिस पुरुष का साधन कर पाते हैं उसे देव वेसर्थविषयकतापर्य का धारक. यागावि का पनुष्ठाता, प्रणवावि पत्रों का दोध्य, बेवस्थ महं पर का स्वतंत्र उच्चारण कर्ता, मावि हो सिन्द कर पाते हैं किन्तु उस को मिला और सत्ता प्रमाणित करने में वे सर्वथा असमर्थ रहते हैं । इसलिये कार्य आयोजन स्थावि पत्रों के प्रोक्त प्रम्य की की कल्पना कर के अनुमान करने का प्रयास ही श्वर सिद्धि कोष्टि से मिरर्थक कष्टमात्र ही है। कुछ लोग ईश्वर को सिद्ध करने के लिये इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग करते हैं कि विशेष्यतासम्बन्ध से अन्य तरप्रकारकप्रमासामाश्य में विशेषयता सम्बन्ध से सरकारक प्रमा गुणविधया कारण Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा.पा ममुमचा स्त-३श्लोक है। 'गुणविधया कारण' का पर्ण कि 'गुण'इस प्रघांसा सूचक वाद से बहत होनाला कारण । प्रमा अपने विषय का प्रयभिवारीमान होता है। उस से मनुष्य पोखा नहीं होता। इसलि जप्त के कारण को प्रशंसा बोधक गुण शाम्ब से व्यवहत किया जाता है। इस कार्यकारण भाव का अभिप्राय यह है कि प्रमा उसी विषय की होती है जिस विषय को प्रमा कमी पहले हुई रहती है। मोर जो विषय पहले कमी नहीं प्रमित रजसा उस की प्रपा नहीं होती। इसलिये ममत् पदार्थ को प्रमा कभी नहीं हो सकती क्योंकि उसकी प्रमा पहले कभी हई रहती नहीं है। इस कार्यकारण भाव से ईश्वर की सिटिइस अनुमान से होती है फि 'सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाली पहली जन्यममा अपने समान विषयक प्रमा से अन्य है क्योंकि यह प्रमा है। जो भी प्रमा होती है वह समानयिषसक प्रमा से जन्य होती है जैसे बार में होनेवाली घटत्वावि की प्रमा पूर्व में होने वाली घटत्वादि प्रमा से उत्पन्न होती हैं। इस अनुमान से आचत्रमा की जनक कोई ऐसी प्रम। माननी होगी जिस को समानविषयक मन्यप्रमा की मावस्यकता न हो और यह तो हो सकता है जब वह प्रमा निस्य हो । इस प्रकार को प्रमा सिद्ध हो जाने पर उसके साश्रषरूप में ईश्वर को सिधि अनिवार्य हो जाती है। व्याख्याकार श्री पशोदिजयजी महाराज स्वर सिद्धि के सम्बन्ध में इस कचन को मूढकथन सूचित करते है। क्योंकि उनकी दृष्टि में जन्य सत्प्रकारक प्रमा सामान्य में तत्प्रकारक प्रमा कारण है यह कार्यकारणभाव ही मनावश्यक है। उन का कहना है कि घभिन्न में घटत्व प्रकारक प्रमा की प्रापसि का वारण करने के लिये नैयायिक को घटसिविशेष्यता सम्बन्ध से घटत्वप्रकारकप्रमा के प्रति घटत्व कोही समवाय सम्बन्ध में कारण मान लेना चाहिये। सभा घटत्यप्रकारक प्रमा कोही संस्कार द्वारा कारण मान लेना चाही किंवा घटत्यसमवाय को स्वरूप सम्बन्ध से कारण मान देना चाहीये । प्रथम और तृतीय पक्ष में प्रमा की उत्पत्ति में प्रमाको अपेक्षा ही नहीं होती । प्रात: आच प्रमा के लिये ईश्वरीय प्रमा की सिसि नहीं हो सकती । और द्वितीय पक्ष में प्रमा की उत्पत्ति में प्रमा की अपेक्षा होने पर भी उस के स्वयं रहने की अपेक्षा नहीं होती किन्तु उस से उत्पादित संस्कार की अपेक्षा होता है। मत: इस पक्ष में भी मात्र प्रमा के लिये ईश्वरीय प्रमा की सिद्धि नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति पूर्वसर्ग की प्रमा से स्पादित संस्कार वारा हो सकती है पद्यपि यह द्वितीयपक्षीय कार्यकारणभाव उषित नहीं नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में संस्कार अन्य होने से प्रमा मात्र में स्मात्तत्व को प्रापत्ति होगी प्रथम पक्षमें घटस्वको कारण मानने पर घटायरवको कारणसादरक मानना पड़ेगा और घटत्वष घटेसरासमवेतवे सति सफल घटसमवेतवरूप है पत घटस्थ को कारण मानने में गौरव होगा। प्रत एक प्रथम कार्यकारणभाव भी उचित नहीं हो सकता । किन्तु तृतीय पक्ष हो उचित हो सकता है क्योंकि थदश्व समवाय को कारण मानने पर समवायत्व मोर घटस्य को धर्म कारणता के प्रबच्छेवक होगे ! उन में समवायस्व प्रखण्ड उपाधि है और घटस्य समवायसम्बन्ध से अनुत्सित्यमान होने के कारण स्वरूपात: कारणतावच्छेदक होगा । इसलिये घरव समवाय को कारण मानने में गौरव नहीं होगा। इस प्रकार इस कार्यकारण भाव से हो घटभिन्न में घटस्थ प्रकारक प्रमा की मापत्तिका वारणा हो जायगा। पत: तत्प्रकारक जन्यममा सामान्य में तरकारकमा को कारण मानने को पावापकता नहीं है श्रीयशोविजयजी महाराज मेस प्रसङ्ग में यह भी कहा है कि प्राहकों के मत में तो जरत प्रकार के कार्यकारण भावों को कल्पना के प्रपत्र में पड़ने की कोई पावायकता हो महीं है । ग्योंकि उस मत में सम्पग वर्शम हो प्रमा का गुणविधया कारण होता है। घटभिन्न म घट Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्या कटीका-हिन्दीयि वेचना ] [ - - मंख्याविशेषादपि नेरसिद्धिः, तथापि लौकिकापेक्षापुढे रेव नद्रेतुन्यात् । ममाप्यपेक्षाखुदरेव तथाव्यग्रहानिमित्तवान् तज्जन्यातिरिक्तसंख्याऽसिद्धेः । परिमाणेऽपि संघात भेदादिकृतद्रय्यपरिणामविशेषरूपे संबव्याय। ओतुन्यारष । दि-फपालात त्रि-कपालघदपरिमाणोत्कर्षस्य दलीत्कादियोपपत्तेरिति । तच्चमप्रन्यमाईतवार्तायां विवेचघिष्यते । सम्मार नेश्वर्गमी किमपि साधीयः प्रमाणम् , नवा नदभ्युपगमेनापि तस्य मर्वत्रत्वम् , उपादानपात्रज्ञान मिहावयतिरिक्तज्ञानाऽसिद्धेः, कारणाभाषात , मानाभावाचेति दिम् ||२|| स्वप्रकारक सम्यग वर्शन महीं होता, प्रतः घटभिन्न में घटस्वप्रकाएक प्रमा की आपत्ति नहीं हो सकती। सम्पर्शन और सम्पयज्ञान में मेव होने से प्रमा के प्रति सम्यग्यमान की कारणला का पर्यवसान तस्त्रकारक प्रभा के प्रति तस्वकारक प्रभा को कारणता में नहीं हो सकता। [अपेक्षाबुद्धि से द्विस्वादि व्यवहार की उपपत्ति संख्याविरोष से भी ईश्वर को सिजि नहीं हो मनाती क्योंकि म्यायमत्त में भी लौकिक प्रपेक्षायद्धि में ही द्वित्वादि संख्या को कारणता सिद्ध है। ईश्वर को लौकिक अपेक्षामिहीं होती, क्योंकि ईश्वर की धुलि नित्य मानी जाती है । और सौकिकशि वही कहलाती है जो इन्द्रिय के लौकिक संनिक से उत्पन्न हो । अतः यह कहना कि- घणक में परिमाण की उत्पति परमाणु में एकस्व की ईश्वरोप अपेक्षाधुद्धि से होती है' यह उचित नहीं हो सकता । प्राति मत में तो मोक्षावधि से हिरवादि संख्या की उत्पत्ति माम्य ही नहीं है। क्योंकि उस मत में प्रपेक्षावनि से ही द्वित्वावि के व्यवहार को उपपत्ति कर सो जाती है । तारपर्प यह है कि न्यायमत में जिस पपेशाबुद्धि को विस्वादिसंख्या का जनक माना जाता है, प्राहंत मत में वह अपेक्षाभुति ही विवादि के व्यवहार में कारण होतो है । तात्पर्य, विस्वादि ग्यवहार को ही ठित्वके स्थान में प्रमिषिक्त कर दिया जाता है। उसी से हिरव का व्यवहार हो जाता है। अतः उस से अतिरिक्त विश्व संख्या की उत्पति मानकर उसके द्वारा हिरव्यवहार के उपपादन का प्रयास अनावश्यक है। प्रस: माहतमत में द्वित्वादिनाम को कोई संख्या न होने से जैन के प्रति हित्य संख्या पारा ईश्वरामुमान का प्रयोग संभव हो नहीं हो सकता, क्योंकि यह प्रयोग प्राप्रयासिशि से प्रस्त हो जायगा । बार्हत मत में परिमाण के उत्पावना मी सिरवादि संसपा को कल्पना नहीं को सातो. ज्योंकि प्राइंस मत में द्रब्य का परिमाण सात-भैस से मिल्पन्न होता है। उस में संख्या की अपेक्षा मही होतो। द्विकपालक घट के परिमाण की प्रपेक्षा चिकपालक घट के परिमाण में जो उत्कर्ष होता है वह भी कपाल के सहयाधिक्य से नहीं होता। शिक दिकपालकसइयात से निकपालकसायात के उत्कर्ष से होता है। व्याख्याकार का कहना है कि इस विषयका तात्त्वि विदेखनमात वार्ता के प्रसंग में किया आयगाइने समस्त विचारों का निसकर्ष यही है कि ईश्वर की सिद्धि में कोई उचित प्रमाण नहीं है और यदि पूर्वप्रशित प्रमागों के आधार पर ईश्वर को स्वीकार कर लिया जाय तो भी उन प्रमाणों से उनकी सर्वज्ञतानाही सिद्ध हो सकती, असे कि पूर्वोक्त अनुमानों में प्रथम अनुमान से ईश्वर जगत् का का सिख किया जाता है। और कर्ता के लिये उपादान कारणों के ज्ञानमात्र को मायापकता होती है। अतः उक्तानुमान से Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 01 [पास्वानसमुकवाय एस० ३-२०१० "संतुष्प नैयायिकमुख्य ! तस्मादस्माकमेवाऽऽश्रय पक्षमण्यम् । तबोचरीश्वरकताया मनोरथ प्रति पूरयामः ॥ नयैः परान प्यनुकूलमती प्रवर्तयत्येष जिनो विनोदे । उक्तानुमादेन पिता हिंसात् किं मालस्य नाऽऽलस्यमपाकरोति ? ॥२॥" तदिदमाह ततश्चेश्वरक स्यनावोऽयं युज्यने परम् ।। सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाः शुषसुरुयः ॥१०॥ ततष पातञ्जल-नैयायिकमनिरामाच्च, अयं तथापिघलोकप्रमिकः - ईश्वक त्वबादः, परम-उमविपरीतरीत्या. सम्यग्न्यायाऽविगेधेनप्रतिनकाप्रतिहततकानुसारेण पुज्यते, यथा शुद्धबुद्धपः सिद्धान्ताच हितमतयः परमय अनुः ||१०|| साचनमेवाऽनुषदति-- मगत के उपाबान कारणों का ही ज्ञान सिर हो सकता है, उपाचामसे भिन्न पदार्थों का मान नहीं सिद्ध हो सकता है। क्योंकि म वृस के लिये कोई कारण है, न उस के लिये कोई प्रमाग ही है।।।। पाएयाकार श्री यशोविजयजी महाराज ने न्यायवर्शम की पद्धति से विर के कस्व का पूर्णतया निराकरण कर देने के बाद नमायिक सर्वथा हतामा न हो इस लिए मई सुन्दर ढंग से मंपापिक को यह कहते हुए पाश्वासन दिया है कि नैयायिक को उक्त रीति से ईश्वर के कर्तृत्वका खणन कर बेने पर भी दुःसी होने को पास्यकता नहीं है । क्योंकि उस की संतुष्टि का प्रौषध प्रब भी बनाया है। उसे केवल इतना ही करने की पाहायता है कि वह बिर के कर्तृत्व को सिद्ध करने को अपनो पद्धति का मोह छोडकर हम आहंतों को श्रेष्ठ पति को स्वीकार कर ले । क्योंकि अपनी माहत पद्धति से हम ईश्वर को का सिद्ध करके उस के महान मनोरथ की पूति कर सकते हैं। आहतों का यह मत है कि भगवान जिनेश्वर देव नयों के माध्यम से अन्य मतों को भी अनुकूल-संगत पर्थ में प्रवाहित करके प्रतिषावी को संतुष्ट करते हैं । और यह उन के लिये उपो प्रकार स्वाभाविक है जैसे रिसा नालक का हित करने की बुद्धि से उक्त का अनुभव पर्थात पुन: पुन: प्रेरक वचन का प्रयोग कर के उसके प्रभाव को दूर करता है। ( ईश्वरकर्तृत्ववाद का कचित् प्रौचित्य ) ४ से मष कारिका में प्रतिवादी की शैलीका निराकरण करके अच बसी कारिका में अन वर्शन को शैली से ईश्वर कस्व का समर्थन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है पाताल मौर मेषायिक को अभिप्रेत रोति से ईश्वर को कटुता का अंडन हो जाने पर मगर पालिकाविलोकों में प्रसिद्ध पर कलुस्व का समर्थन करता है तम पालणाल-नैयायिक ने जो प्रणाली अपनायी थी उससे विपरोस जन प्रणाली के अनुसार विपरीत तकं से मषित न होवे ऐसी मुक्तियों से उसको संगति कर सकते है-जैसा कि शुद्ध पानी सिधारत से परिमित डि वाले परम ऋषियों में कहा है Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या ३० टीका-बिपीविवेचना ] मूलम्-ईश्वरः परमात्मंघ तक्तसतसेषनात् । पतो मुफ्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद गुणभाषतः ॥११॥ श्वरः परमात्मैव-कायादेहिरात्मनो ध्यानभिमत्वेन ज्ञेयादन्तरात्मनय तइधितापफस्य ध्यातुध्वं यकस्वभावत्येन भिन्नोऽनन्तनान-दर्शनसंपदुपेतो वीतराग एष। अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिमाघपरिणतो बाह्मात्मा, सम्यदर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, फेवलज्ञानादिपरिजनस्तु परमात्मा | तत्र व्यवत्या पाशात्मा, शक्त्या परमात्मा अन्तरात्मा च, व्यक्त्याऽन्तरात्मा तु शक्त्या परमात्मा. भूतपूर्वनयेन व पाशात्मा, व्यक्त्या परमात्मा तु भूतपूर्वन येनैव पापात्मा अन्तरात्मा व त्याहुः । तदुक्तनतसेवनात्-परमाप्तप्रणीतागमविहितसंयमपालनात , यती मुक्तिः कर्मस्यरूपा, भपति. ततस्तस्या गुणभावत: जादिषदप्रसादाभावेऽप्यचिन्त्यचिन्तामणिय यस्तुस्वभाववलात फलदोपासनाकन्वेनोपचाराव , कर्ता स्यात् । आज्ञापालन द्वारा ईश्वर कर्तृत्व) ११ वो कारिका में जन ऋषियों के उस वचन काही अनुपाय है जिन का संकेत पूर्वकारिका में किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है परमात्मा हो बिर है । परमात्मा का मन है वह पीतराग पुरुष जो अनन्तज्ञान और प्रनन्त बर्शन से सम्पन्न होता है, और जो कापादि के पधिष्ठायक ध्याता अन्तरात्मा के लिये स्वामन रूप से अयस्वरूप बहिरात्मा से मित्र होता है और ध्याता मन्लरास्मा के लिये एकमात्र ध्येयस्वरूप होने से मित्र होता है। पाशम यह है कि मारमा केही तीन स्वरूप समझा आ सकता है माहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । गहिरश्मा का अर्थ है कायावि में हो पात्मवृद्धि रखनेवाली व्यक्ति । अतरास्मा उसे कहा जाता है जो अपने को कावि से मिन प्रौर कायाविका अधिष्ठाता समझता है, किन्तु वह रागादि से ग्रस्त होता है। परमात्मा उन दोनों से मिन्न मोर वीतराग होता है। यह वीतराग परमात्मा ही ईश्वर है । कुछ अन्य प्राचार्यों ने इन तीनों प्रात्मानों का परिचय वेसेए यह कहा है कि महिात्मा मह है जो मिम्यावर्शनारि भावों में पारणत हो। और अन्तरात्मा उसे कहा जाता है जो सम्यग्दर्शनादि भावों में परिणत हो। भौर परमारमा उसे कहा जाता है भो केवजानाति से सम्पन्न हो । इन तीनों में एफान्तिक भेव महा है। जो व्यक्तिरूप में बाह्मात्मा होता है वह भी इवित रहन रूप में अन्तरात्मा और परमात्मा भी होता है । और जो व्यक्ति रूप में अन्तरालमा होता है पर शक्तिरूप में परमारमा और अपयंति से वाह्यात्मा होलाहै। एवं जो व्यषित रूप में परमात्मा होता है वह भूतपूर्वष्टि से बायास्मा पौर प्रसरात्मा भी होता है। __ परमात्मा द्वारा उपविष्ट मामलों में जिस संयमधर्म का वर्णन है उस के पालन में मुक्ति होती है। मुक्ति का प्रार्थ है समग्न कर्मों का भय । इस मुक्ति का प्रादिमूल परमात्मा का उपदेश हो होता है इसलिए ही परमात्ना को उपवार से उन का पार्ता कहा जाता है। प्राशय यह है कि रामा मादि का Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ {शावा. समुरुपय स्त० ३-लोक-१२ अत एव भगवन्तमूहिश्याऽऽरोग्यादिप्रार्थना | सार्थका-ऽनर्थकचिन्तायां तु भाज्यमेतत् , चतुर्थभावारूपस्यात् , इति ग्रन्धकष ललितविस्तरापासबमम् । अप्रार्थनीये कर्तरि प्रार्थनापर विधिपालनपलेन शुभाध्यवसायमाप्रफलत्वादिति निगः ॥११॥ अस्त्येव मुक्तिक त्वम्, भयकर्तृत्व तु रूप १. अत आह मूलम्-तवनासेवनावेष यससारोऽपि तावता । तेन तस्यापि कार स्वं कल्प्यमान न कुष्यति ॥१॥ तदनासेपनातन्तदृक्तताऽपालनादेव। यत यस्मात्र, तत्त्वतः परमार्थतः, संसारोऽपि नीवस्य भवति, अपिरतिमूलत्वात् तस्येति भायः, सेन हेतुना, तस्यापि क त्वं कल्ल्यमानम-स्वहेतक्रियाविरुद्धविधियोधितोपासनाकापरेण फत् खपदेन बोध्यमानम् जैसे प्रसाव होता है तो प्रसाव से नियमबद्ध रोष-अप्रासाद मी होता है जिस से वह अन्मों के प्रनुग्रह मौर निग्रह का कर्ता होता है, ऐसा रोष अप्रासाप परमात्मा में महीं होता। तथापि जसे चिन्तामरिण में रोष प्रौर प्रसाद न होने पर भी स्वभाव से ही उससे मनुष्य के वोधित को सिद्धि होती है ससी प्रकार परमेश्वर की उपाप्तमा परमेश्वर वस्तु के सहज स्वभाववश मनुष्य के लिये फलप्रय होत है। इसलिए जैसे चिन्तामणी के सम्पर्क से वांछित को प्राप्ति होने से चिरतामणी पोलिस का राता कहा जाता है उसीप्रकार परमात्मा को उपासना से विभिन फलों की प्राप्ति से वह विभिन्न फलों का वाता या कर्मा कहा जाता है। और इसलिये भगवान से प्रारोग्यावि की प्रार्थना भी की जाती है। वह प्रार्थना सार्थक होती है या मिरर्थक होती है इस प्रश्न का उत्सर भजना-अपेक्षामेव मे विया जा सकता है जो चतुर्थ माषा के रूप में प्रस्तुत होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि यदि यह समझा जाय कि प्रार्थना से परमात्मा प्रसन्न झाकर मारोग्यादि को प्रदान करते हैं तो इस दृष्टि से प्रार्थना निरर्थक है। क्योंकि प्रार्थना से बीतराग परमात्मा के प्रसन्न होने की कल्पना प्रसङ्गत है। पर यदि इस रष्टि से विचार किया जाय कि परमात्मा को प्रार्थना में ऐसो स्वामाविक शाक्ति है जिस से प्रारोग्यावि की प्राप्ति होती है तो इस दृष्टि से प्रार्थना सार्थक है। इसलिये भगवान से मारोग्यादि की प्रार्थना सार्थक है या निरर्थक है इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि प्रार्थना 'स्यात् सापिका, स्यात् मनपिका' इस विषय को मूल पन्थकार हरिमारिजीने 'ललित विस्तरा' में स्पन्द्ध किया है। निस्कर्ष यह है कि कर्ता प्रापनीय न होने पर भी उसकी प्रार्थना का शास्त्र में विधान होने से उस का पालन पावश्यक होता है और उस पालम से शुम पश्यबसायको उपस्धि होती है । इस रीति से गुमाध्यवसाय को उत्पारिका प्रार्थना का विषय होने के कारण परमात्मा को कर्ता कहा माता है ।।११॥ माषा ४ प्रकार की दोषी है- सस्पभाषा , भसवमाषा, सत्यासत्य मिभमा ४ सस्प। सत्य (सबहार)मााइन में से पीतराग के प्रति प्रार्थना, यह व्यवहार नाम की चतुर्थ माया स्वरूप है- सत्य न असत्प, किन्तु नाममद प्रशस्ति पदायपहार । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याक टीका-हिम्पीविवेचना ] '[३ न दुष्यसि, "अमुल्यने करिशतम्" इत्यादिवत् यथाकश्चिदुपचारेण व्यवहारनिर्वाहादिति भावः ॥१२॥ नन्त्रीशकल्पनाया को गुणः १ इत्यवाह मूलम्-कायमिति ताक्ये यता फेषाभिषापरः । ___अतस्तवानुगुण्येन तस्य फत् स्ववेशना ||१|| 'अयम्=परः कर्ता' इति हेतोः तद्वाफ्ये-नरवाक्ये सिद्धान्ते । 'अयं कर्ता' इति तदाक्ये प्रसिद्धवाक्ये वा, यतः केचित्-तथाविधभद्रविनेयानाम् , पावर:-स्यरसवाहिश्रद्धा. नात्मा भवति, अतस्तादानुगुण्येन-तथाविधविनेयपद्धाभियद्धये, सस्प-परमात्मना कायदेसना=कर खोपदेशः । श्रेवमायाभिवृद्धधर्थो हि गुरोरुपदेशा, सा च कल्पितीदाहरणेनापि निर्वायते, किं पुनरुचारेण ? इति भावः ॥१३॥ [माजाविलोपन द्वारा भवता] पूर्व कारिका में विर को मुक्ति कर्ता बताया गया है। पौर प्रस्तुत १२ वी कारिका में बह जगत का कर्ता कैसे होता है इस बात का प्रतिपादन किया गया है । कारिका का प्रर्ष प्रसप्रकार है परमेश्वर द्वारा उपविष्ट प्रतों का सेवन न करने से हो जीव को पाहतवरूप में संसार की प्राप्ति होती है. क्योंकि संसार का मूल प्रविति है । और उत्त का प्रतियोगीविषया प्रथाजक है विरति प्र.वि। मत: उत्तरोत्या संसार के प्रयोजक का उपदेष्टा होने से पवि ईश्वर में संसार के कर्तृत्वको कल्पना कोजाय तो कोई दोषहीं हो सकता, क्योंकि संसार का यह कर्तृत्व संसारजनककुतिरूप पास्तविक मतृप महीं है, अपितु प्रौपचारिक कर्तृत्व है। प्रत: 'ईश्वर संसार का कई है। इसका अर्थ है कि वर से वनों का उपवेष्टा है जिस का सेवन न करने से संसारममताईवर में संसारकतत्व का यह पौपचारिक व्यवहार उसी प्रकार उपपत्र किया जा सकता है जिसप्रकार 'प्रगुल्यने कारशतमम्प्रहगुल के अप्रमाग में सौ हाथो खडे है। यह व्यवहार प्रगुली के प्रभाग से सो हामी को गिनती होने के प्राचार पर उपपत्र किया जाता है ॥१२॥ (ईश्वर भक्ति में वृद्धि के लिये कर्तृत्व का उपदेश) १३वी कारिका में इस जिज्ञासा का समाधान किया गया है कि ईश्वर में ससार के प्रोपपारिक कर्तृत्व को कल्पना का या प्रयोजन है ? कारिका का मर्च इस प्रकार है कतिपय महशील मिच्यों को ईवर के वचन में इसलिये प्रावर होता है कि घर का है इस विश्वास से पढ़ होते है अथवा विर का है इस प्रसिद्ध लोकोक्ति में उन को श्रद्धा होती है। अत: ऐसे शिष्यों को विर के प्रतिमा की अभिवृद्धि के अभिप्राय से परमात्मा से मसूत्वका प्रतिपावन मायक होता है। मायाम यह है कि बीता के भाव का संवर्ष हो गुरु के उपदेशका फा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] साचादपि तु समर्थ यति मूलम् - परमेश्वर्ययुक्तत्वान्मत आत्मेय वेश्वरः । स च कर्मेति निर्दोषः कर्तृचादो व्यवस्थिमः ॥१४॥ परमैश्वर्ययुक्तत्वात् = निश्वयतो घनावृतस्यापि रवेः प्रकाशस्वभाव कर्मावृतस्याऽप्यात्मनः शुद्ध-बुद्वैकस्यापत्ये नोत्कृष्ट केवलज्ञानाद्यतिश्च यशालित्वात्, आरमेय-जीव एव बा. ईश्वरो मतः ईश्वरपदेन संकेतितः । स च जीव कर्ता-साक्षात्कर्ता इति हेती, निर्दोष:- उपचारेणाऽप्यकलङ्कितः, कथाव:- ईश्वरकत्वोपदेशः, व्यवस्थितः प्रमाणसिद्धः । अत एव "चिश्वतश्वशुरु विश्वतोमृग्यः" इत्यादिका श्रुतिरप्युपपद्यते जीवस्य निश्यतः सर्वक्षत्वात्, अन्यथा रागाचावरणविलये तदाविर्भावानुपपत्तेः । [शा पा० समुच्चय-१० ३.१० १४ "उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य विभत्र्त्यव्यय ईश्वरः ।। [गीता अ. १५ली. १७ ] इत्यादिकमप्युपपद्यवे, आवृतस्वरूपा नानृतम्यरूपस्य भिश्रन्वात् चैतन्यात्मक महासामान्येन लोकत्रयायेशाद् ग्राप्राकारकोडी कृत्येन तद्भरणाच्य, इत्यादिरीत्या यथागमं पराभिप्राय उपपादनीयः ॥ १४॥ होता है। और यह कार्य जब कल्पित उदाहरण से भी सम्पन करना शास्त्रसम्मत है तब इस कार्य को उपचार द्वारा सम्पन्न करना युक्त हो से इस में श्या संवे ? ।।१३॥ [आत्मा हो परमात्मा होने से निर्वाध कर्तृत्व ] पूर्व कारिका तक ईश्वर में कर्तृस्व का समर्थन उपचार द्वारा किया गया है किन्तु प्रस्तुत १४ व कारिका में ईश्वर के वास्तव कर्तृत्व का समर्थन किया जाता है | कारिका का अर्थ इस प्रकार हैजिस प्रकार सूर्य मेघमल से होने पर भी नियष्टि से स्वभावतः अश्शामक रहता है उसी प्रकार विविधकर्मों से आवृत भो मारमा स्वभावतः शुद्ध स्वरूप ही रहता है । अत एवं उस समय भी उस में केवलज्ञानवि के अतिशय अक्षुण्ण रहते हैं। और आत्मा की यह शुद्धबुद्धला एवं ज्ञानवि के अतिशयों की संता ही जीव का परमेश्वर्य से सम्पक्ष होना है और इसम चम्म सार्वदिश परमंश्वयं के कारण जीब को ही ईश्वर माना जाता है एवं जीव निर्मिताय रूप से वास्तविक कर्मा है और जम जीव ही ईश्वर है तो ईश्वर का वास्तव कर्तृश्व भी निविद हैं। अतः ईश्वरवाद निर्दोष अर्थात् अनौपचारिक रूप में प्रमाणचि है । जीव के - सोने के कारण 'विश्वतश्चक्षुः उत विश्वतोमुखः इत्यादि श्रुति द्वारा उसे सर्ववर्शी और सर्वोपवेष्टा आदि बनाना भी उपरस हो जाता है। जीव को सायंकालिक सर्वज्ञता स्वीकार करना परमावश्यक है क्योंकि यदि उस में सहज सर्वज्ञता न होगी तो रामावि अधरणों का विलय होने पर उसका आदि न हो सकेगा। गीता में परमात्मा को अन्य आत्माओं से भिन्न उत्तम पुरुष कहा गया है और तीनों लोक में आविष्ट होकर उन का शाश्वत धारक का है। गोला का यह कथन भी जीवेश्वरश्व पक्ष में निर्वाधरूप से उपपन्न हो सकता है, क्योंकि रागावि से आवृत आत्मस्वरूप से रागाधि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्याक टीका मौर हिन्दी विवेचना ] यतःभूलम-शाखाकारा महात्मानः प्रायो पीनस्पृहा भवे । सम्वार्थसंप्रवृत्ताच कथं से युक्तभाषिणः १ ॥१५॥ शास्त्रकाराः प्रायः लोकायतादीन परलोकाऽभीरून विहाय, महात्मानः धर्माभिसूखाः भवे अंसारे, पोतस्पृहा लोकमानख्याति-धगलिप्मादिहिताः सस्वार्थसंप्र. साश्च यशाबोधं परोपकारप्रवृत्ताच, अन्यधेदृशप्रवृत्त्ययोगतः, ततः कथं तेऽयुक्तभाषिणः-झावा विरुद्ध भाषिणः ? विरोधः मलु जल-ज्वलनयोरिव परोपकारित्व विरुद्धमापिस्त्रयोरिति भावः ॥१५॥ ततः किम् ? इत्पाहमूलम्-अभिप्रायस्ततस्तेषां सम्पम् मृग्गो हितषिणा ।। न्यायशास्त्राऽपिरोधेन पचाह मनुरप्यतः ॥१६॥ ततः अविस्ट्रभापित्वात् , मेष-परोपकारार्थ प्रकृनानां शाग्यकाराणाम् , अभिप्रायः शध्दतात्यामा, सम्यगच्यासङ्गापरिहारेण, मृग्याउन्नेयः, हिनापिणान्मुमुलणा, स्पाय से अनायत आत्मसाप भिन्न कहपार बसे उत्तम पुरुष और परमात्मा कहना उचित हो है और संताप महासामान्य के द्वारा लोकत्रय में बात का भावेश और महा आकार में लोकत्र को अङ्कस्चित कर उन का भरण संभव होने से आवेश द्वारा उसे लोकप्रय का धारक कहमा भी समोबीम हो है। इस प्रकार ईश्वर के सम्बन्ध में को नैयायिक का अभिप्राय है उस का समर्थन और उपपादन अपने शास्त्रको रीति से जीवेश्वरत्व पक्ष में भी किया जा सकता है ।१४।। [निःस्पृह शास्त्रकार प्रयुक्तभाषो नहीं होते ] २५ वो कारिका में न ममो विधानों को विश्वसनीय बताया गया है जो परलोक के सम्बन्ध में प्रीत होने के कारण अनुचिल मात कहना नहीं चाहते । कारिका का अर्थ इस प्रकार है प्रायः सभी पास्त्रकार जो परलोक के सम्मम्प में भिंष रहनेवाले सार्वाकवि की श्रेणी में नाहीं माते-महात्मा होते हैं । उन की सम्पूर्ण प्रवत्ति यममुखी होती है। संसार में उन्हें मानन्ध्याति धनादि किसी वस्तु को पता नहीं होती । वे अपनो मति के अनुसार परोपकार में मिरत होते हैं। इसीलिये मिर्दोष को को शिक्षा वैने के लिये शास्त्रों को रचना करते है. अत. वे शाम मकर कोई विक्ष बात नहीं कह सकसे कि परोपकार को प्रकृति और जामबुमार विरुद्ध बात का कथन इन वोनों में पानी और अग्नि के समान परस्पर विरोध है | [युषित और मागम से शास्त्रकाराभिप्राय का अन्वेषण पूर्व कारिका में सभी शास्त्रकारों की प्रशंसा को गयी है । इस प्रशासा को सुनकर पह जिनामा हो सकता है कि वपा जेन नाकारों के समान ही अन्य शास्त्रकारों को बातें स्वीकार्य है ? १६वी कारिका में इस प्रान का उत्तर दिया गया हैकारिका का आशय पह है कि जब सभी पास्त्रकार परोपकार में प्रवृत होने के कारण अनुचित बात कहना नहीं पसाव करते तो यह अवश्यक है कि उनके जो भी शम्ब हैं उनके तात्पर्य को इस प्रकार Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] [ शास्त्रमा समुच्चय एस. ३-लोक ९७ शास्त्रापिरोधेन-युक्त्याऽऽगमबाधा यथा न स्यात् तथा, न तु यथाश्रुतग्रहणमात्रेणाऽऽध्ये मज्जनीयं मनः, अन्यथा 'ग्रावाणः प्लबन्ने' इत्यादिश्रुतिश्रवणेन गगनमेवाऽवलोकनीयं स्यात् । मन पराऽभियुक्तसंमतिमाह-यथा मनुरपि अदा-वक्ष्यमाणम् आह ॥१६॥ किम् ।। हत्याहमूखम-आर्ष च धर्मशास्त्रं च वेदशास्त्राऽपिरोधिना । यस्तगानुसंधत्तं स धर्म घेद नेतरः ॥१७॥ आप-वेदादि, धर्मशास्त्रं च पुराणादि । 'आय धर्मोपदेशे च' इति क्वचित् पाठः, सनाऽप्ययमेवार्थ:-आ-मन्पादिवाश्यम् , धर्मजनक उपदेशः धर्मोपदेशः, धर्मस्येश्वरस्य पोपदेशो धर्मोपदेशस्त, 'वेदम् इत्यन्ये । वेदशास्त्राविरोधिना--परस्परं तदुभयाऽविरोधिना तःण यः अनुसंधत्ते-तदर्थमनुस्मरति, स धर्म धेद-जानाति, नेतर:-ऊहरहिनः । तस्मादीश्वरकत - समारने का प्रयत्न किया जाप जिस से मुमुल के मार्ग में कोई कठिनाई नहो और युक्तिया शास्त्रका aif पिरोषमहो। अंसा नहीं बताये कि उनके शामों से जो भी अर्थ मापाततः प्रतीत हो असेही परमार्थ मानकर उसी में अपने मन को अभिनिविष्ट कर दिया जाय, योकि एसा होने पर 'प्रामाण: सबाले परपर तैरते है ऐसे बयानों को सुनकर आश्चर्यचकित हो साकार के प्रति देखने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस विषय में प्राहंतों को ही सम्मति हैतमा ही नहीं अपितु मम्प मतावलम्बियों के सम्मान्य पुरुष को भी सम्मति है । उखाहरणार्य मनु के इस माशय का पचम प्रस्तुत किया जा सकता है (धर्म तत्त्व के मोष का उपाय तानुसंधान-मनुवचन) पूर्व कारिका में मनु के जिप्त वचन का संस किया गया है, १७ वी कारिका उस बयान में रूप में ही अवतरित की गई हैं। कारिका का अर्थ यह है को व्यक्ति भूषित वेवावि शास्त्रों को और पुराणादि धर्मशास्त्रों को पेव और शास्त्र अधिरोषीमास्त्र से विरुद्ध न पड़ने वाले, तर्फवारा समझता अर्भात ऐसे तर्क से वेद और धर्मशास्त्र के का निर्धारण करता है कोलक व मोर शास्त्री से सिद्ध न हो, हो ग्यमित धर्म के स्वको शाम पाता है। और जो तकं की सहायता नहीं लेता यह पर्म के शस्त्रको महो समान सकता । वास्या. कार ने इस कारिका की व्याख्या करते हुये 'आर्य धर्मोपदेस मनुवशम के पाठरता का भी उल्लेख किया है और उस का मोमीनार्थ किया है 'को आर्व चर्मशाम्पब इस पार से मिल मत अन्य लोगों द्वारा वार्षभर्मोपदेश' इस पाठ का दूसरा अर्थ किया गया है उसका जस्लेख ग्याल्याकार ने इस प्रकार किया है कि आर्ष शब्द का अर्थ है ममुनावि ऋषियों का वाक्य जैसे 'मनुस्मृति' आदि प्रम्प, मोर 'पर्योपवेश' साध का ब है बंद, क्योंकि देवके पाठ धर्म होता है, और वेव से पर्म और सिर के स्वरूप का नाम होता है। शास्त्र के तारपयका मिर्गय करने के लिये शास्त्राऽविरोधी तक अवलम्बन की आवश्यकता के सम्बश्य में माहतों और पराभिमत मनु आदि शिष्टपुरुषों को सम्मति ताका व्यापाकार ने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका निषिधन ] [८० त्यप्रतिपादकपरागमस्याऽप्ययमेवाऽऽशयो युक्तः, इति सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतत्वेन तत्प्रमाण्यमुपपादनीषम् । द्रष्यासत्याभिधान चेदं प्रन्थकारस्य तत्प्रमाण्याभ्युपगन्तओवपरियोधार्थम् । इत्येवं परीश्वरन्पसिकरः सचर्कसंपर्कभाग, येषां विस्मितमातनोति न मनस्ते नाम वामाश्याः। अस्माकं तु स एफ एष शरण देवाधिदेवः सुखामोधौ यस्य भवन्ति पिन्दनाय स्वः सपना संपदः ॥१॥ कारिकावार का यह भावाय बताया है कि घर में अगत्कसूत्व का प्रतिपादन करने वाले अन्य शास्त्रों का मौ अमिनग्य शास्त्राऽपिरोपी तों से ही निश्चित करना उचित है। ऐसा करने से सम्यगृष्टि से परिगृहोत होने के कारण अन्यशास्त्रों का भी प्रामाण्य सिहो सकता है | व्यापाकार यशोविजयजी का कहना है कि 'तर्क की सहायता से वेर और पुराण भाबि से भी धर्म का ज्ञान होता है सध्याइसरप का अभियान प्रम्पकार इस दृष्टि से किया है जिस से पेश और पुराग को प्रमाण माननेवाले श्रोताओं को मो गुर भी शान प्राप्त करने का अवसर मोल सके। परमपके सम्बाप में के सम्पूर्ण विचारों का उपसंहार करते हुए म्याख्याकार ने अपना अन्तिम अभिमत प्रकट किया है कि-'समोचीन तकों के सम्पर्क से रिकव के सम्मा में जो आहत सम्मत प्रभावपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है, उस से जिन मनुष्यों का मम हर्ष और विस्मय से उत्फुल्ल नहीं होता वे मिःसह हवप को मलोमता से पस्त है प्रति उनका हश्य यथार्थ बस्तु परे पता करने के है। एम एक धिरज आप्रय है-स्वास्प अवसरों को सम्पत्ति जिन के सुख समुद्र के आगे बिन्दु के समान है | [ ईश्वरकर्तृत्ववाद समाप्त ] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] [ शा. बा. समुच्चय २०-१-१ वर्षान्तरमाह मूलम् प्रधानमन्थे तु मन्यन्ते सर्वमेव हि । महदादिक्रमेणेह कार्यजातं विपश्चितः ॥ १८ ॥ अन्ये तु विपश्चितः सांख्याः इह सामग्रीविचारे, सर्वमेव हि कार्यजातं महदादिकमेण प्रधान मन्यन्ते । + तथाहि तेषां पञ्चविंशतिस्तम्वानि, तत्राऽकारण अकार्य च कूटस्थनित्य चैतन्यरूप आत्मा । प्रकृतिश्चैतना, महदाद्युत्पादकाऽशेषशक्तिप्रचिता, आदिकारणम्, परिणाविनी । तदभावे हि परिमितं व्यक्तं न स्यात् सथोत्पादक हेत्वभावात् । न च स्पाव मेदानामन्ययः, तन्मयकारणप्रभवत्वं विना तज्जातिमत्कार्यानुपलब्धेः । न च पुद्धिरेव कार्यमनुविधायिनी, साधारणत्वात् अनित्यत्वाच्च । न च महदादिहेतुशक्तिप्रवृतिः स्याद । न हि पदादिजननी शक्तिस्तन्तुवायादिकमाचारं विना प्रवर्तते । तथा कारण कार्य विभागोऽपि न स्पा, महदादौ कार्यलय्यवहारस्य संबन्धि सापेक्षत्वात् । न च स्याद झीरावस्थाय श्रीरं दग्न इष प्रलये भूतादीनां तन्मात्रादिक मेणाऽविषेकरूपोऽविभाग इति प्रकृतिसिद्धिः । तदुक्तम् + ८ कारिका से सख्यवन के सिद्धान्त का विचार प्रस्तुत किया गया है | कारिका का अर्थ इस प्रकार है [र्शन के सिद्धान्त ] यस्ता अन्य विद्वान् सम्पूर्ण कार्यो को महत् तरच आदि के क्रम से प्रकृति से उत्पन्न मानते हैं। उत का कहना है - जिन सत्यों से जगत् का विस्तार होता है उन की संख्या पोश है। उन में बलस्य सर्वापेक्षया मुख्य है। जिन में एक तत्व वह है जिसे आत्मा कहा जाता है, वह कूटस्य निविकार नित्य चैतन्यरूप है। वह न किसी का कारण होता है और न किसी का कार्य होता 1 और दूसरा तस्य वह है जिसे प्रकृति कहा जाता है. वह अचेतन होती है और महत् तस्वादि अन्य २३ तत्वों को उत्पन्न करने की शक्ति से सम्पन्न होता है। वह सब का आदि कारण है और उस में मस आदि रूपों में परिणत होने की योग्यता रहता हूँ। उसे मानना अति आवश्यक है क्यों १) उस के अभाव में परिमित एवं यवन जगत की उत्पति नहीं हो सकती, क्योंकि उसे उत्पन्न करनेवाला दूसरा कोई हेतु नहीं है। (२) उसे मानने की आवश्यकता इसलिए भी है जिससे विभिन्न कार्यों में एकरूपता हो सके, क्योंकि कार्यों की उत्पत्ति यदि एक सत्य कारण से न होगी तो कार्यों में कारण के द्वारा एकजातीयता को उपलब्ध न हो सकेगो । यहाँ एकरूपता का कार्य वृद्धि यानी महत से सम्झ हो सकता है कि वह वृद्धि सम्पूर्ण कार्यों का अनुविधान नहीं कर सकती. इसका कणवह सर्वसाधारण नहीं होती और स्वयं अभित्य होती है। 3) प्रकृति मानने का यह भी आधार है कि प्रकृति के अभाव में महत्त्व आदि कारण शक्तियों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि कार शक्तियों की प्रति किसी एक सामान्य आधार द्वारा ही होती है। जैसे पद आदि को करने वाली री सेवा आदि शक्ति वा रूपी आधार के बिना नहीं प्रवृत होतो । ( ४ ) यह मी कारण Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा०क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ "मेदानां परिमाणात् समन्ययाच्छक्तिसंप्रवृध । कारण कार्य विभागादविभागाद् वैश्वरूयस्य ॥ १॥" (सांख्यकारिका १५ ) इति । न चाऽसदेव महदादिकमुत्पद्यताम् किं तत्समन्वयार्थं प्रकृत्यनुसरणेन इति षाश्वपम् असतोऽनुत्पत्तेः । तदुक्तम् "असद करणानुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभाषात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम् ॥" [सं० का ० ९] असतः शशविषाणादेः सभ्वस्य कतुमशक्यत्वाद सत एव हि सत्कारणम्, तद्धर्मत्वात्, टच तिलेषु स एव तैलस्य निष्पीडनेन करणम् असतस्तु करणे न निदर्शनम् । न विद्यमानप्रागभावप्रतियोगित्वरूपस्यासवस्य विद्यमानत्वरूपस्य व साम्य न विरोध इति साम्प्रतम् लाघवादविद्यमानत्वस्यैवाऽयच्चरूपत्वात् तेनैव सर्वत्रानुगता सन्चयवहारात् । + 1 " रोगी है कि प्रकृति के का बहाव कारण-सा होता है। अतः यदि महत्तव आदि का कोई कारण न होगा तो उनमें कार्यय काहार नहीं हो सकेगा। (६) प्रकृतितत्त्वसमर्थक यह भी एक तर्क है कि प्रकृति के अभाव में प्रावस्था में सूत आदि कार्यों का सम्मान आदि के कम से एक कारणावस्था में अविभाग- अधिवेश - हो सकेगा जिस का होना, ठोक उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार बुध की अवस्था में युग्म और बधि का अविभाग होता है । प्रकृति के अस्ति के समर्थन में कहे गये इन समस्त सेतुओं को ईश्वरकृष्ण ने अपने 'सांख्यकाfरका' नामक प्रथ में १५ श्री कारिका से अभिहित किया है। जिस का यह अर्थ है कि कार्यों के परि मिल होने से और कारण के साथ अन्य होने से और कारण शक्तियों की प्रवृति होने से तथा कारणकार्य का विभाग होने से और संपूर्ण कार्यों का एक कारणावस्था में अविभाग होने से प्रकृति का अस्तित्व सिद्ध होता है । [ सत्कार्याव में हेतुपखक ] 1 शंका हो सकती है कि महत्तत्वादि कार्यों की उप के पूर्व असम की हो उत्पत्ति मानी जाप तो कारण में पूर्व से ही उसके अश्व को प्रश्यकता होगी। ददतः उस के लिये प्रकृति के अस्ि की नाक है किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि असत् की उत्पत्ति नहीं होतो, सा कि कृष्ण ने सयकरणात्०' इस कारिका में स्पष्ट किया है । कारिका का आशय यह है कि जो अमत् उनको अरब में आते हुए आज तक कभी नहीं देखा गया। इसलिये प्रथमतः सम्पदा ही होता है। अतः अवार्थ न कारण हो होला म कार्य ही होता है। कार्य कारण का धम होता हैं। असत् मानने पर वह कारण का धर्म नहीं हो सकता । अतः उसे उत्पत्ति पूर्व में भी कारण मैं समानता आवश्यक है। यह बेला भी जाता है कि लिल में प्रथमतः विद्यमान ही कातिल देव करने पर प्रादुर्भाव होता है। असदार्थ की उत्पत्ति होने का कोई भी नहीं है । पदि यह कहा बाय कि कार्य का उत्पतिक पूर्व में जो असस्य होता है वह विद्यमान प्रागभाव का प्रतियोगित्वरूप होता है और उत्पति होने पर जो उस का होता है वह विद्यमानरूप होता है। अतः इस प्रकार के असर और सत्वं में कोई विरोध नहीं है। पूर्वकाल में जिसका प्र Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शापा समुब्धय स्त. ३-खोक १८ तथा, उपादानग्रहणादपि सत् कार्य , अन्यथा 'शालिफलार्थिनः शालिनीजस्यत्रोपादानम् , न कोद्रषवीजादेरिति प्रतिनियमानुपपत्तेः, फलाऽयोगस्योमयत्राऽविशेषात् । 'उपादानेन ग्रहणं संबन्धस्ततोऽसतः संबन्धाभाषात' । इत्यन्ये । तथा, सर्वसंमवाऽभावात सन कार्यम् , असतः कारणेऽसंबद्धाऽविशेष सर्प सर्वस्माद भनेर+, दयानामा मामीनार संवद्धम् | यथा: "असन्चानु नास्ति संबन्धः कारणः सवसतिमिः । अर्मपद्धेषु चोत्पत्तिमिछतो न व्यवस्थितिः ।।१॥" इनि | [ ] भाव रहा उसरकाल में उस का भाष मानमे में कोई असङ्गति नहीं है। एक काल में ही किसी वस्तु का भावाभाव विराद्ध हो सकता है, भिन्नकाल में नहीं । हासोंग का हटास असत की अनुत्पत्ति बताने में इक्ति नहीं हो सकता । पोंकि शासौंग का प्रागभान होकर साविक अमान होता है, प्रागमा, उसी का होता है-माव में कमी मिस का भाव सम्भव हो।'-तो यह कथन मो ठीक नहीं। क्योंकि असरण को विद्यमान प्रागभाव प्रतियोगिस्वरूप मानने में गौरव अतः अविमानस्य अर्थात सपूर्णकाल में ममाव को हो असस्वरूप मानना साघव के कारण उचित है. उसी से सांत्र अबतक अनुगत व्यवहार की उपपति हो सकता है । अतः शसींग में सादिक अभाव से झसत्य व्यबहार का और कायों में प्रागभावप्रतियोगस्वरूप नसत्व से असत्स्व व्यवहार का उपपावन करना बषित नहीं है पोंकि ऐमा मानने पर व्यवहार की अनुगतरूपता का भङ्ग हो जाता है। कार्यविशेष के लिये कारणविदोष हो हो नियमित रूप से प्राण किया जाता है. इसलिये भी उत्पत्ति के पूर्व कार्य का अस्तित्व मानना आवश्यक है । यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व असत होगा तो कार्य के लिये सारे पदार्थ सपातहोंगे, और इस का फल यह होगा कि वालि उसपकोटि का धान्य जिस से उत्कृष्ट कोटि का चावल प्राप्त होता है-उसके लाभ के सिमे किसाम शालिगोजकाही नियम से उपासन न कर सकेगा। कोद्रव यानी निकृष्ट धाम के सीजको प्रहण करने में भी उस को प्रति को प्रसक्ति हो सकती है । क्योंकि उत्पत्ति के पूर्व वाक्ति का असत्व जालिमोज और कोरब के बोल होमों में समान है । तो फिर क्या कारण है कि किसान शालिके लाभ के लिये शालि भोज काही उपाशन करे और कोच के बीज कर उपादान न करे । उत्पत्ति के पूर्व कारण में कार्य का अस्तित्व मानने पर इस प्रश्न का समाधान सुकर होता है। बहस प्रकार कि शासि शालिपीज में प्रथमत: रहता है और कोय के सीज में नहीं रहता है इसलिये किसान ममता है कि शालिखोज से हो मालिका लाभ हो सकता है कोतव के बीज से नहीं | अत: वह शालि लाभ के लिये शालि बोज को हो प्रहण करता है कि कोयमोजको।। [उपावान और कार्य के सम्बन्ध को अनुपपत्ति माय विद्वान कारिका में आये 'उपावानपहलवान का अर्ष अपाबान के साथ कार्यसम्बन्ध बताकर उससे यह शिर्ष निकालते हैं कि यदि कार्य को उत्पति के पूर्व प्रसव माना जायगा तो कारण के साथ उसका सम्बन्ध हो सकेगा | क्योंकि सम्बन्ध सत्पबाथों में ही होता है । असत् बौर सदका सम्बन्ध नहीं होता । कार्य को उत्पत्ति के पहले सतु माममा इसलिये भी आवश्यक है Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्या० का टीका-हिन्दी विवेचना ] [१ तपा, अशक्तस्य जनकत्वेऽतिप्रसान्त स्य जनकत्वं वाच्यम्, शक्तिचास्य न सर्वत्र, सवानि , किन्तु जाणिव. इति कामयति सा काम्य शक्तिनियता स्यात, असतो विषयत्वाऽयोगात् ! तम्मात् , कारणात् प्रागपि शक्यं सदेव । तथा कारणभावान कारणतादात्म्पादपि सत् कार्य, नाऽवयवी अवयवेभ्यो भियत्ते, तथाप्रतीत्य भावात; 'कपालं पटीभूनम , तन्तुः पटीभूना, स्वर्ण कुण्डलीभूतम्' इत्यादिप्रतीतेः । तस्माद् महदादिकार्यस्योस्पतः प्रागपि यत्र सवं मा प्रकृतिः । कि किसी भी कार्य को उत्पत्ति नियत पदार्थ से ही होती है सा पहायों से उत्पसिनहीं होती। किन्तु यदि पवार्म से भरा कार्य को पति होगी तो यह मानना होगा कि पापं अपने से प्रसन्न स्तु का उपगरम करता है, तो स्थिति में किसी नियत पदार्थ से ही कार्य की सपतिन होकर लंपूण पदयों से सभी कार्य को उत्पत्तिका प्रसङ्गहगा, यांकिकार्य से किसी एक नियत पदार्थ से अभय होता है जमोग्रकार सभी पदार्थों से प्रसवय होता है इसलिये इस बात में कोई व्यवस्था मोकेगी कि अनुक कार्य अमुक पवाघ ही उत्पन्न हो और अन्य से महो । किन्तु कार्य को उ पति के पूर्व सह मामने पर पह सहन नहीं उपस्थित हो सकता, क्योंकित कहा जा सकता:तताकार्य का तलसायं के हा मा सम्बन्ध होता हे सम पदार्थों के साथ नहीं होता और पराका यह स्वभाव है कि वह सम्म कार्य का हो जापावक झोता है असम्पद का नहीं, अतः सा पदार्थो । सब कायों की उत्पत्ति का आपावन नहीं हो सससा । जैसा कि कहा गया है कि 'उत्पत्ति के पूर्व कार्य का प्रसस्त मानमें परसत् कारणों के साथ अप्तत कार्य हा सम्बाम हो सकेगा । और मवि सम्म परायों में जो कार्य की उत्पत्ति मानी मायगी तो अमुक पाहो में ममुक कार्य की उत्पत्ति हो अन्य में न हो यह व्यवस्था नहीं सकती।' उत्पत्ति के पूर्व कार्य को सत् इसलिये भी मामला सावश्यक है कि जो पदार्थ शिस कार्य के उत्पाघन की शक्ति से शून्य होता है उस से उस कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु शिम पार्ष में जिस कार्य के उत्पादन को शक्ति होती है उसी से उसकी उत्पत्ति होता है। और तत्तका के उत्पादन को पाक्ति तत्र न होकर नियत पयायों में हो होती है। किन्तु यह बात उत्पत्ति के पूचं कार्य को सत् मानी पर हो पर सकती है अपत् मानने परही, पयोंकि अस वस्तु को पसार्थ का पर नहीं हो सकती है। क्योंकि राय भाव भी एकप्रकार का सम्बन्ध हो । म एव वह मत पदार्थो केहीबीच सम्भव हो सकला है, सत् और असत्केबोच सम्भव नहीं हो सकता । उस्पति के पूर्व कार्य को मत मानना पश्यि में आवश्यक है कि उ8 में कारण का ताबाम्य होता है। यविबह असत होगा तो उस में कारण का तावाल्य न हो सकेगा क्योंकि सत् और असत प्रकाश और अन्धकार के समान अत्यन्त विलक्षण है. अत एव जल में तादात्म्म कमपि सभा नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-कापं मनमत्री होता है और कारण चसका अवयव होता है अतः का में कारण का ताबास्म्य मामना प्रसङ्गत है । अतः कार्य में कारण का साहात्म्य बता कर उसके द्वारा उत्पत्ति के पूर्व कार्य के सत होने का समर्थन करना उचित नहीं हो सकता'-तो यह ठीक न क्योंकि अवयव-प्रवषों में प्रषयों की मिन्नता को प्रसौति म होने से प्रत्ययो में प्रत्रयों को भेज Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा जान मुगदर रू-३ श्लोक ततो बुद्धचपरनामझ महत्चस्वमुत्पधने, न हि चैतन्यस्य स्वभावतो विपयावच्छिमत्वम् , अनिर्मोझापसेः । नापि प्रकृत्यधीनं सन् , तस्या अपि नित्यतया तदोषानुद्धारात् । नापि घटादिवाऽऽहत्य चैतन्यावछिन्ना, राऽप्रतस्वानुपपचे । न पेन्द्रियमानापेक्षो घटादिचैनन्यावच्छेदा, स्वीकार्य नहीं हो सकता । अपितु कपाल घट हो गया, सन्तु पट हो गया, मुवर्ण कुमाल हो गया' इन सार्वजनिक प्रतीतियों के अनुरोध से अवयव पौर प्रवयवी का तादात्म्य ही सिद्ध होता है। इन सब युक्तियों का निष्कर्ष यह है कि महतस्वादि पदार्थ कार्य है अत एव उत्पत्ति के पहले उनका अस्तित्व मानमा प्रावश्यक है और यह मस्तिस्व किसी प्राधार में ही हो सकता है। अतः महवादि कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व जिस प्राधार में विद्यमान होंगे उसी का नाम प्रकृति है। इस प्रकार सत्कार्यवाव की उपपत्ति के लिये प्रकृति का अस्तित्व मानमा मनिवार्य है। [ महत्तत्त्व से चतन्यावरच्छेद और श्वासावि का नियमन ] प्रकृति से महत्ताव की उत्पत्ति होती है जिसका दूसरा नाम बुद्धि है। इसी के द्वारा पतन्मस्वरूप पुरुष के साथ विषयावच्छिन्नत्य लक्षण विषम का सम्बन्ध मनता है । पवि उत्त का अस्तित्व न माना जायगा तो पुरुष के साथ विषय का सम्मान स्वाभाविक मानना होगा और उस स्थिति में विषय और पुरुष का सम्बन्ध विच्छेद न हो सकने से पुरुष का कभी मोक्ष न हो सकेगा । मौर पनित्यति को सत्ता स्वीकार कर उसके द्वारा पुरुष के ताप विषय का सम्बन्ध मानने पर बुद्धि को नियुक्ति होने पर विषय के साथ पुरुष के सम्बन्ध का विधेद संभव होने से पुरुष के मोक्ष में कोई बाधा नहीं हो सकती । वृद्धि का पस्तित्व न मानकर पुरुष के साथ विषय का सम्बन्ध यदि प्रकृतिद्वारा माना आय तो पुरुष पौर विषय का सम्बन्ध स्वाभाविक तो नहीं होगा किन्तु उसका उच्छेद इस पक्ष में मी न हो सकेगा, क्योंकि प्रकृति नित्य है । अतः उसकी निवृत्ति कमी मी संमवित न होने से उसके द्वारा पुरुष के साथ विषय का मो सम्बन्ध होगा उसकी मी कमी निवृत्ति न हो सकेगी। फलतः इस पक्षमें मो पुरुष का मोक्ष न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-सभ्यस्वरूप पुरुष के साप घटादि विषयों के सम्बन्ध को किसी मध्य के पारा न मानकर सोधे विषयप्रयुक्त ही माना जाप तो मह मापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि विषयों के प्रतिस्य होने से पुरुष के साथ उसका सम्बन्ध भी प्रनित्य होगा और विषयों की निवृत्ति होने पर उस सम्बन्ध की निवृत्ति हो जाने से पुरुष का मोक्ष होने में कोई बाधा न होगी-। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि वेतन्य के साथ विषषों का प्रन्मनिरपेक्ष सम्बन्ध मानने पर सभी विषय चैतन्य से सम्बद्ध होंगे, मतः विषों में प्रार-प्रष्ट का मेद न हो सकेगा । प्रति जितने विषय एक काल में विद्यमान होंगे ये सब चैतन्य से स्वतःसम्बन होने के कारण रष्ट ही होंगे। उनमें कोई प्रष्ट म हो सकेगा जबकि स्थिति यह है कि अब एक वस्तु रष्ट होती है तब दूसरी वस्तु प्रष्ट रहती है। जैसे पटावि के दर्शनकाल में पटावि प्राण्ट रहता है । यदि यह कहा जाय कि-'तन्य के साथ घटादि विषयों का सम्बन्ध इम्मिय द्वारा मामले से इस प्रापसि का परिहार हो सकता है, क्योंकि इन्द्रिय के परमापक होने से उसके द्वारा सभी विषयों का वेतन्य के साथ एकसाथ सम्पब म हो समेगा । मत: जिस समय जो विषय इग्निय द्वारा तम्म से सम्बन होगा उस समय ही विषयम Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका- हिन्दीषिवैचना ] fer ! व्यासङ्गानुपपतेः । अतो यत्संबद्वेन्द्रियस्य विषयचैतन्यावच्छेदनियामकत्वम् यापाराच्च सुमादिन्द्रियादिव्यापार विस्तापि श्वास-प्रश्वासादि तद् महत्तत्वम् । तस्य धर्मा ज्ञाना-ज्ञानश्वर्या-ऽनैश्वर्य-वैराग्याऽर्थे राज्य-धर्मा-धर्मरूपा अष्टौ बुद्धि-सुखदुःखेच्छा-द्वेष प्रयत्ना अपि, भावनायास्तैरनङ्गीकारात् , अनुभवस्यैव स्मृतिपर्यन्तं धूक्ष्मरूपताऽवस्थानात् । तस्य ज्ञानरूपपरिणामेन पद्ध दिपयः, पुरुषस्य स्वरूपतिरोधायकः । एवं च बुद्धिनाशादेव पुसो विषयाच्छेदाभावात् मोक्षः। भेदाऽप्रान्त 'चैतनोऽहं करोमि इत्यध्यवसायः, अचेतनप्रकृतिकार्याया बुद्धेश्चैतन्याभिमानानुपपत्यैव स्वाभाविकचैतन्यरूपस्य पुंसः सिद्धेः । आलोचनं व्याहोगा श्रभ्य विषय दृष्ट नहीं होगा-' तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जब किसी इसिय द्वारा किसी एक विषय का संतन्य के साथ सम्बन्ध हो जायगा तब विवान्तर का उस इन्विम द्वारा चैतन्य के साथ सम्बन्ध न हो सकेगा। क्योंकि उस विषय के साथ उस इन्द्रिय के सम्बन्ध का कोई विछेवक न होगा। फलतः विभिन्न विषयों में विभिन्न विषयों के साथ न्द्रिय संपर्क रूप इन्द्रिय का माङ्ग न हो सकेगा। जिसका फल यह होगा कि जब एक वस्तु दृष्ट होगी तो वह अकेली हो सका दृष्ट होतो रहेगी । ग्रन्य वस्तु के इष्ट होने का अवसर हो न हो सकेगा । और जब बुद्धि द्वारा इन्द्रिय और विषय का एवं दिवय मोर पुरुष का सम्बन्ध माना जायगा तब ये मापत्तियां न होगी । क्योंकि वृद्धि का दलिय के साथ सम्बन्ध और इन्द्रिय का विषय के साथ एवं विषय का चैतन्य के साथ सम्बन्ध होने पर विषय का दर्शन मान्य होगा । अतः इन्द्रिय और विषय तथा इश्रिय द्वारा विषय और पुरुष का सम्बन्ध वृद्धि के अधीन होगा। इसलिये बुद्धि के व्यापार से व्यासङ्ग की पति हो सकेगी और उसी का संपर्क न पाने के कारण इप्रिय का व्यापार न हो सकने से वुप्ति हो सकेगी और उस समय उसी के व्यापार से श्वास-प्रश्वास आदि क्रियाएं भी हो सकेगी । इसलिए fan की ण्टता और प्रष्टता तथा सुषुप्ति एवं सुप्ति के समय स्वासप्रश्वासादि और पुरुष के मोक्ष की पति के लिये वृद्धि महत् तस्म को मानना अनिवार्य है। [ बुद्धिगत धर्मों का निरूपण ] इस बुद्धि में माठ धर्म रहते हैं। जैसे ज्ञान अज्ञान, ऐश्वयं धनंश्वर्य, वैराग्य-अराग्य, वर्मइनके अतिरिक्त बुद्धि में सुख-दुःख इच्छा, ईष और प्रयत्न भी होते हैं। भावना पदार्थ सदनों के विज्ञानों द्वारा मान्य नहीं है। प्रसः बुद्धि महत्तव में भावना का अस्तित्व नहीं माना जा सकता । साक्ष्य मत में अनुभव हो समरूप से स्मृति पर्यन्त रहता है। अतः श्यावस्थापन मनुमव से अतिरिक्त भावना संस्कार मानने की कोई आवश्यकता नहीं होती। महल का इन्द्रियादि द्वारा विषयों के साथ सम्बन्ध होने पर उसका विषयाकार परिणाम होता है जिसे तथा बुद्धि की वृत्ति कहा जाता है। इस ज्ञान के द्वारा ही विषय पुण्य से सम्बद्ध होकर पुरुष के स्वरूप को मात करता है । विषयों द्वारा इस प्रकार होनेवाला पुष का प्रावरण ही उसका बन्धन है। एवं महत्तत्व का नाश होने पर मर्यात् मह्तव का मूलप्रकृति में लियाम होने पर बुद्धि के विषयाकार परिमम ज्ञान की निबुसि होने से पुरुष के साथ विषयों का सम्बन्ध बन्द हो जाता है। इस प्रकार विषयों से का तिरोधान बन्द हो जाने से पुरुष का मोक्ष सम्पन्न होता है । पुरुष के Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शा- पा समुनय स्वर-३ श्लोक-१८ पार इन्द्रियाणाम् , विफल्पस्तु मानसः, अभिमानोऽहकारस्य कृत्यभ्यवसाये बुद्धः, सा हि पुद्धिरमवयवती, पुरुषोपरागः, विषयोपारागः, व्यापाराधेशव हन्यंशाः । भवति हि 'ममेदं कर्तव्यम्' इति धेरध्यपसायः। तत्र 'मम' इति पुरुषोपरागः दपणस्यैव मुखोपागा, भेदाऽग्रहादताविक । इदम्' इति विषयोपरागः, इन्द्रियप्रणालीक्या परिणनिमदो दर्पणम्येव सुखनिश्वासहतस्य मलिनिमोपरागस्ताधिकः । तदुभयोपपत्ती व्यापारावेशोऽपि । तत्र विषयोपरागलक्षणज्ञाने पुरुपोपरागस्याऽत्तास्विकसंबन्धो दर्पणप्रतिविम्वितस्येव मुखस्य तन्मलिनिम्नति । [ पुरुष और बुद्धि का तात्त्विक भेव ] असि और पुरुष में प्रत्पन्त भेद है। फिरतु उसका प्रहान अमादिकाल से पाना पा रहा है और उसी कारण वृद्धि चेतनो शिEETर ६ गवताय होता है। सच मात मह है कि इस पथ्यवसाय को उपपत्ति के लिधं ही स्वाभाविक चतन्यरूप पुरष का मस्तित्व मानना प्रावश्यक होता है । यदि उसे न माना जायेगा तो उपस अध्यवसाय के रूप में वृद्धि में छप्तन्य का अमिमान न हो सकेगा, क्योंकि वृद्धि प्रवेतन प्रकृति से उपभूत होने के कारण स्वयं प्रवेतन होली है। उक्त अध्यघसाथ तीन मापारों से सम्पन्न होता है-इन्द्रिय व्यापार, मनोव्यापार और महाकार व्यापार । प्रिय व्यापार का नाम है मालोचन मोर मनोव्यापार का नाम है विकल्प एवं अहंकार पागर का नाम हैलिनान । प्राशय यह है कि इन्द्रिय से वस्तु का पालोचन होता है । प्रौर मन से उसका विकल्पत मानी विशिष्ट बोष एवं प्रहंकार से उसके कर्तृत्व का अभिमान होता है। और इन तोमों के सम्पन्न होने पर बुद्धि में नेतनामहं करोनि' इस प्रकार फुति का अध्यबसाय स्वस होता है । ( पुरुष-विषय व्यापार का बुद्धि सम्बन्ध ) बुद्धि में तीन अंश होते हैं। जिन्हें पुरुषोपराग, विषयोपराम पोर व्यापारावेशश कहा जाता है। पुरुषोपराग का प्रर्थ है पुरुषसम्बन्ध, विषयोपराग का अर्थ है विषषलम्बन्ध एवं व्यापाराबेश का अर्थ है व्यापार सम्बन्ध । जैसे 'ममे कर्तव्यम्घा मेरा कर्तव्य है इस प्रकार मा मध्यवसाय मुद्धि को होता है। इस अध्ययसाय से अद्धि के उक्त तीनों अंगो का स्पाट परिचय प्राप्त होता है। जैसे 'मम' से पुरुषोपराग भूचित होता है। यह उपराग वृद्धि और पुरुष में भेरमान न होने से ठीक उसी प्रकार मिश्या होता हे असे वर्षरग में मुख का प्रतिविम्बरने के समय वरण के साथ मुख का सम्बन्ध मिथ्या होता है। ' से पति के साथ विषयोपराग सूचित होता है। बुद्धि के साथ विषय का ग्रह सम्बन्ध इत्रिमद्वारा विक्याफार वृद्धिका परिणाम रूप है, यह ठीक उसी प्रकार सत्य होता है जैसे वर्षण पर मुख के निवास का प्राधात होने पर उसके साथ मलिनताका सम्बन्ध । यह सर्वविदित है किषण में प्रतिविम्ति मुल का नि:श्वास जब दर्पण पर पड़ता है तो दर्पण बास्लम रूप से मलिम हो जाता है। वृशि के लाय पुरुष और रिषय का उपराग होने पर उस में ज्यापारवेश प्रर्थात कृति का सम्प्रध भी सम्पन्न हो जाता है । प्रमो यह कहा गया है, कि विषयोपराग विषयाकार वृद्धि का परिणाम रुप जिसे ज्ञान कहा लाता है। साथ उसका सम्बन्ध सत्य है। यदि का पुरष के साथ __ मेवतान न होने से डिगत इस ज्ञानाएमक विषपोपराग का पुरुष के साथ भी सम्बन्ध होता है किन्तु यह सम्यग्य सत्य महोकर यह ठीक उसी प्रकार मिथ्या होता है जैसे मुख के नि:श्वास से वर्षण में उस मनिता का वर्ष में प्रतिविम्बित मुन के साथ सम्बन्ध मिण्या होता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा०० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ex ततो महत्तत्रादहङ्कारीत्पत्तिः । भवति is स्वप्नावस्था 'ल्यामोऽहम् पराहोऽहम् ' इत्यभिमानः, न तु 'नरोऽहम्' इत्यभिमानः । अस्ति च तत्र नरत्वं संनिहितमिन्द्रिय मनःसंबन्धश्व | असो नियतस्यामिमानय्यापारकाहङ्कारसिद्धि: । ततः पश्च तन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि च । पश्च तन्मात्राणि शब्द रूप-रस- गन्धस्पर्शाः सूक्ष्मा उदात्तादिविशे१रहिताः । एकादशेन्द्रियाणि च चक्षुः श्रोत्रम्, घ्राणम् रसनम्, स्वमिति बुद्धीन्द्रियाणि या पाणिपादपायूपस्थाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि मनश्येति । पश्च " [ स्वप्न में "मैं वाथ हूं" इस प्रतीति का उपपादक अहंकार ] महल तर का खेलनोऽहं करोमि' एवं 'ममेदं कर्तव्यं' इन श्रध्यवसायों द्वारा परिचय दिया गया है । और प्रकृति से उस की उत्पत्ति का भी युक्तिपूर्वक समर्थन किया गया है। अभी यह बताना है कि हम से शुङ्कारनामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति होती है। इस अहङ्कार का भी अस्तित्व मानमा अत्यन्त प्रावश्यक है क्योंकि स्वप्न की प्रवस्था में मनुष्य को यवा कया इस प्रकार का अभिमान होता है 'महं व्याघ्रः श्रहं वराहः न तु नरः' में व्याघ्र में कर हूँ मनुष्य नहीं हूं'। इस भ्रभुमान के समय नर सहित रहता है और इन्द्रिय-मन का सम्बन्ध भी समिति रहता है। किन्तु ध्यात्व या वराहृत्य प्रसनिहित रहता है और उस के साथ इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध भी नहीं रहना फिर भी उस का प्रमिमान होता है इसको उपपत्ति इन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं हो सकती, euter एवं अराहत्व के प्रसंनिहित होने से उस के साथ दृद्रिय और मन का सम्वस्य ही नहीं रहता फिर भी उस का अभिमान होता है । इस को उपपत्ति इन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं हो सकती, क्योंकि व्याघ्रस्थ एवं वराहश्व के प्रसंनिहित होने से उस के साथ इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध ही नहीं रहता और यह नियम है कि इद्रिय और मन सम्मवस्तु का ही ग्रहण कराने में समर्थ होते हैं। अतः इस अभिमान को उपपन्न करने के लिये महङ्कार का मस्तित्व मानने पर अमिमान को उत्पत्ति सुकर हो जाती है क्योंकि जाप्रतकाल में मनुष्य को व्याप्रत्य वरात्यादि का अनुभव होता है वह सूक्ष्मावस्था में महङ्कार में स्थित हो जाता है। स्वप्नावस्था द्वारा उस सूक्ष्मरूप से स्थित अनुभव का उद्बोधन होने से व्यानश्व वराहस्थ के उक्त अभिमान का उदय होता है । जातकालिन उक्त अनुभव का बुद्धि में सूक्ष्मावस्थान मान कर स्वप्नावस्था में उस का उद्बोधन होकर बुद्धि में ही उक्त प्रभिमान रूप व्यापार का उदय नहीं माना जा सकता क्योंकि वृद्धि इन्द्रिय आदि द्वारा विषयों से सम्बद्ध होकर श्री ज्ञानात्मक परिणाम को उत्पन्न करती हैं किन्तु महङ्कार को अपने उक्त अभिमानाश्मक व्यापार को उत्पन्न करने के लिये इप्रिय एवं विषयादि की अपेक्षा नहीं होतो । स स्वप्नावस्था में महङ्कार द्वारा ही उक्त प्रभिमान को उपपत्ति हो मकती है। अतः उक्त अभिमान के निर्वाहार्थ प्रहार का मस्तित्व मानना अनिवार्य है । इस प्रकार नामक तीसरे तस्व से पा सन्मात्रा और ग्यारह त्रिय इन सोलह तहकों की उत्पति होती है । तस्मात्रा का अर्थ 'तदेव इति सम्मानं' इस व्युत्पत्ति से इस प्रकार की वस्तु है जिस का एक हो स्वरूप होता है। जिस में भवान्तर धर्मों का सम्बन्ध नहीं होता से सूक्ष्म वाद रूपरसगन्धका सूक्ष्मशम्य में उवास प्रमुखात्तावि का मेव न होने से वह शुद्ध मात्र स्वरूप होने से शब्दसम्मान कहा जाता है। सूक्ष्म रूप भी मीलस्य पीतत्वादि भेदों से शून्य होने के कारण मतमात्र कहा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- -- ६] [शा. बा. समुजषय स. ३-श्लोक १८ सन्मात्रेग्यः पञ्चमहाभूतान्युत्पद्यन्ते । तथाहि-शब्दतन्मात्रादाफाशं शम्दगुणम् , शब्दसन्मात्रसहिसात् स्पर्शतन्मात्रा वायुः शम्द-स्पर्शगुणः, शब्द-स्पर्शतन्मात्रसहितापतन्मात्रात्तेजः शब्द-स्पर्शरूपगुणं, शम्दस्पर्शरूपतन्माप्रसहिताद्रसतन्मात्रादापः शन्दस्पर्शरूपरसगुणाः, शब्द-स्पर्श रूपरसतन्माप्रसाहिताद् गन्धतन्मात्रात् शब्द-स्पर्शरूप-रस-गम्यगुणा प्रथिवीति । तदुक्तमीश्वरकृष्णेन "प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहकारस्तम्माद् गणश्च पोदशकः । तस्मादपि षोडशकात पन्नेभ्यः पत्र भूतानि ।। [मा० का २२ ॥ मृलप्रकृतिरविकृतिमंहदाया: प्रकृति-रिकृतयः सप्त। पोडशकम्तु विकारो न प्रकृतिने विकृतिः पुरुषः ॥ [मां. का. ३] इति । जाता है । सूखम रस मधुरता बढ़ता अम्लता मादि मेदों से गून्य होने के कारण रसप्तमात्र कहा जाता। सुक्ष्म गम्भ मरमिरवाऽसमिरख मेवों से रहित होने के कारण गायत्तन्मात्र कहा जाता एवं सूक्ष्म स्पर्श शीतस्य उष्णत्वावि मेवों मे रहित होने के कारण स्पर्शप्तामात्र कहा जाता है। 'महङ्कार से ग्यारह इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, इन के तीन पर्ग है। 'जानेजिय, कर्मेन्द्रिय मोर 'सभषेन्द्रिय । पक्ष, प्रोत्र, प्राण, रसन मोर त्यक ये पांच सानिय है। वाक, पाणि, पाव, पायु (मलेन्द्रिय उपस्थ मन्द्रिय) पे पच्चि कमेंन्तिम है। एवं मन भत्रिय है, क्योंकि शान मोर की छोतों की उत्पत्ति में इस को प्रावश्यकता होती है। पंच तत्माओं से पपमहाभूतों को उत्पत्ति होती है-जैसे पाम्ब सन्मात्र से शम्वगुरापाले भाकाश की, एवं शरदतामात्र से सहित स्पर्शतामात्र से शम्ब और स्पर्श ग्ररणदाले पापु को, शम्वतन्मात्रमौर स्पर्शतन्मात्र सहित रूपतन्मात्र ले शस्व-स्पर्श-रूपगुस वाले तेज को, शाव-स्पा-कप-रस तन्मात्र से पाच, स्पा, रूप पोर रस ये चार गुरणवाले जल को तया शम्ब, स्पर्श, रूप पौर रस सम्मान से सहित गन्धतन्मात्र से शम्व, स्पर्श, रूप रस और गंध ये पांच गुरगवाली पृथ्वीको। अंसा कि ईश्वरकृष्णने अपनी प्रकृते: महान एवं 'मूल प्रकृति मावि कारिकामों में कहा है, कारिकामों का प्रर्ष इस प्रकार है प्रकृति से महल की पोर महत से प्रहार को, पहकार से पञ्चतन्मात्र एवं ग्यारह इन्द्रिय' इन षोडश की, इन षोडश में पांच तस्मात्रों से प्राकाश मावि पंच महाभूर्ती को उत्पति होती है। इन पौवोस में प्रकृति को मूल प्रकृति कहा जाता है । यह किसी की विकृति नहीं होतो अर्थात् उस की किसी से उत्पत्ति नहीं होती। महत्, अहङ्कार प्रौर पञ्चतन्मात्र पे सात तस्य प्रकृति और विकृति दोनों है, मर्थात् मे मूल प्रकृति के कार्य होते हैं पौर इन में महत्तस्व अहंकार का, और अहंकार पंचतम्मान और ग्यारह इन्द्रियों का, मोर पत्र सन्मात्र पच महाभूतों का कारण होता है। पंच महाभूत भोर ग्यारह इन्द्रियां में सोलह कार्य हो होते हैं। ये किसी तस्वातर का कारण नहीं होते । इन चौबीस तत्त्वों से भिन्न एक पुरषतत्व है जिसे प्रात्मा कहा जाता है, जो प्रकृति और विकृति दोनों से भन्न होता है । अर्थात् वह न किसी का कारण होता है और न किसी का कार्य होता है। इस प्रकार इन परधीमा तस्वों को चार वर्ग में विभक्त किया जा सकता है। 'पविकृतिः केवल कारगमात्र प्रकृति विकृतिकारण कार्य उभयात्मक, "विकृतिमात्र केवल कार्यरूप प्रौर प्रकृतिविकृतिमिन्न पानी कारणकामिन । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या ३० टीका-दिधीविवेचन1 ] पूर्व षोडशकपदेन पञ्चतन्मात्र-कादशेन्द्रियग्रहणम् , अग्रे तु पश्चमहाभूतेन्द्रियग्रहामति विशेषः ॥१८॥ इममेव क्रममाहमूलम-प्रधानान्महतो भावोऽहंकारस्य तमाऽपि च । __ अक्षान्मात्रगस्थ तन्मात्रा भूनसंहांतः ॥१९॥ मशानात्-प्रकृतितस्यात् , महतः द्वितस्वस्य, भावः उन्पत्तिः अभिव्यस्तिर्ण, ततोऽपि घ, अहकारम्प भामहत्युनत्राप्यनुपम्यने । 'सनोऽपि' इत्यूनग्नाऽऽवय॑ते, तमोऽपि अकागदीप, अक्ष-सन्मानषगरण एकादशेन्द्रिय-पञ्चमहाभूतान! ( तन्मात्रा) भावः, सन्मानानजात्यपेक्षयकवचनाद पत्रम्यान्माभ्यः भूनसंहतिः पश्चमहाभूतानां भाषः ॥१६॥ स्थूलकार्यमधिकृत्याहमूलम-घटसाप पचिटयाविपरिणामसमुधम् । नात्मन्यापार किश्चिशेष| लोकेऽपि विद्यते ॥२०॥ घटायपि स्थूलकार्यजातम् , पृथिव्यादीनां मृदास्मिकाना परिणामात् विलक्षणसंयोगादिपरिणामात् ममद्रय उत्पमिर्यस्य तत् , परिणामान्तराभ्युपगमात् । विशेषमाइ-तषां: प्रथमवर्ग में केवल मूल प्रकृति का समावेश होता है । वितीयवर्ग में महत् नत्य, अहंकार एवं पंचतन्मात्र का समावेश होता है। तृतीय वर्ग में पंचमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियों का समावेश होता है। चतुर्थ वर्ग में केवल पुरुष का समावेश होता है। "प्रकृतेमहान इस कारिका में पाये षोडशक शब्द से पश्चतन्मात्र और एकादश भय का ग्रहण एवं "मूल प्रकृतिः इस कारिका में प्राये पोशक शब्द से पामहाभूत पोर पारह इन्द्रिय का ग्रहण अभीष्ट है यह ध्यान में रहना चाहिये ।।१८।।। [प्रधान-महत् अहंकार- इन्द्रियतम्मान-पञ्चभूत का क्रम] कारिका १६ में मात्र प्रावि तेईस तस्यों को उत्ससि का वही कम स्फुट किया गया है जिसका संकेत ईश्वरकृष्ण ने अपनी 'प्रकृते महान ०' इस कारिका में किया है। इस कारिका का अर्थ प्रति सुगम है जैसे-प्रधान प्रकृतितस्व से महत-अद्धितत्व की उत्पत्ति प्रषवा अभिव्यक्ति होती है, और महत तस्व से पहंकार को, अहंकार से प्रक्ष.-मारह इन्द्रिय और पंचतन्मात्र को, एवं पंचतामात्र से पंचमहाभूतो को उत्पत्ति या प्रमिष्यविस होती है। कारिका में 'तन्मात्र शब्द से एकवचन बिमति का प्रयोग हमा है। वह तन्मात्र संख्या कीष्टि से उचित न होने पर मी, तन्मात्रत्व जाति की रष्टि से उचित है क्योंकि पांचों तन्मायों में तन्मात्रय नाम को एक जाति-एक अनुगत धर्म रहता है ॥१६॥ [साक्यमत में प्रारमा व्यापारशून्य है ] कारिका २० में स्यूल कार्य की उत्पत्ति और प्रात्मा के प्रकारणव का उल्लेख है। कारिका का मर्थ इस प्रकार है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शा.वा. समुझचय स्त०३-रल.० २१-२२ सांख्यानाम् , लोकेऽपिजगत्यपि, आत्मव्यापारजं किञ्चित् किमपि काय नाम्लि, आमध्यापारस्यैवाऽभावात सुतरा तज्जन्यवाभावः । इति सरित्याशयवानां ।।२०।। अत्र प्रतिभेषवार्तामाइसूलम्-अन्ये तु युवतं तत्पक्रियामात्रधर्णनम् । अषिचार्येव तद्युक्त्या , अबया गम्यते परम् ॥१|| अन्ये तु-असत्कार्यवादिनः अवदे, हि यतः, एतत् अनुपदभिहिना , प्रक्रियामात्रधर्णनम्म्यहच्छाक्लसपरिभाषामात्रीपदर्शनम् , न ताचिकमंत्र । तत्-तस्माद् हेतोः, युक्त्याऽभिधार्यक, परं-केवलम् , श्रमायुद्धीक्तमाल्पा, गम्यत उपादीयते ॥२१॥ मृतः । इत्याहमूलम्-गुवामा तु बायो याममा विराजिलयम् । तथापामच्युती चारय महावि कथं भवेत् ॥२२॥ पद प्राधि जितने भी स्यूल कार्य पुष्टिगोचर होते हैं वे सब को आई पचमहाभूतों के हि मावि परिणामों के विलक्षणसंयोगाविरूप परिणाम से ममुद्भूत होते हैं । उनके लिए किसी अन्यतत्त्व को प्रावश्यकता नहीं होती । यह स्वीकार किया गया है कि महाभूतों के हो एक परिणाम से दूसरे परिणाम की उत्पत्ति होती रहती है, पृथ्वी मावि परिणाम भी तत्वरूप नहीं होते, क्योंकि वे किसी कार्य के उपादान नहीं होते, मो किसी कार्य का उपावान होता है वहीं तय कहा जाता है । पृथ्वी मावि के साक्षात् या परम्प रया जिसने परिणाम हाते हैं उन सबों का उपावान पृष्ठो प्रादि तत्व हो होता है । उन परिणामों में परस्पा में उपाशन-उपादेय भाष न हो फर' विपित्तनमितिक माव ही होता है । जैसे मृतिका घट का उपादान न होकर निमित्त है, उपाश्म सो दोनों का पृथ्वीतत्व ही है। साल्पमत में पुरे जगत में कहीं भी प्रात्मा के व्यापार से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि प्रात्मा में कोई व्यापार ही नहीं होता है और जब उस में कोई व्यापार ही महीं होता तो उस का किसी वस्तु का जमक होना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता. क्योंकि किसी मो कार्य का अमल करने के लिए कारण को कुछ व्यापार करना पड़ता है मतः जो किसो प्रकार का व्यापार नहीं कर सकता वह किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता । इसीलिए सांस्य सिद्धांत में पुरुष को प्रकारण माना गया है-यह साल्पमत का प्रतिपादन हुमा ।।२०।। [युक्ति से सांस्यमत को पालोचना-उसरपक्ष] २१ वीं कारिका में पूर्ववणित सांसपमत के खण्डन का उपहन किया गया है। कारिका का मर्म इस प्रकार है असत कार्यवादी विद्यमों का यह कहना है कि रियास्त्र के अनुसार जगत पोर पुरुष के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह स्वेमाया से स्वीकार की गई परिभाषा का प्रदर्शनमात्र है, उम में कोई प्रामाणिकता महीं है इस लिये युक्तिपूर्वक विचार न कर केवल उपवेश के प्रति शुभक्षामात्र से ही यह उपाय हो सकता है ॥२१॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचन] [१९ युक्त्या तु बाध्यते, यस्मान् प्रधानं निष्णम अप्रच्युताऽनुत्पम-थिरकस्वभाषम् इष्यतेसांबारङ्गीक्रियते अस्य-प्रधानस्य, तथाषाऽमच्युतौ च प्रधानत्वाऽप्रन्युनों घ, महदादि कथं भवेत ? पूर्वस्वभावपरित्यागापूर्वस्त्र भायोपादानापामेर हेतु-हेतुमदावनियमात् । अङ्गदादि परिणाम नाशेनैव कुण्डलादिपरिणामोत्पाददर्शनादिति भावः ॥२२|| -.. ... . ...--.-... . -. ... -. . - २२ वी कारिका में 'सांख्यवणित मत कोरी प्रदामात्र से ही क्यों उपादेय है' इस को स्पष्ट किया गया है । फारिका का प्रथं इस प्रकार है युक्तिपूर्वक विचार करमे पर सांख्य का मत प्रमाण से बाधित हो जाता है क्योकि सोल्य शास्त्र के विद्वानों ने प्रधान-प्रकृति को नित्य माना है और नित्य उसी वस्तु को कहा जाता है जो सवा एक रूप में स्थिर रहे। जिस का कमी भी न किसी रूप में सालन हो और न किसी रूप में उत्पादन हो जैसे सांस्यसम्मत पुरुष । प्रतः प्रधान भी इसी रूप में नित्य होगा। फलतः प्रयानस्पप से उस का म्खलन न होने के कारण उस से यह प्रावि तत्वों की उत्पसि न हो सकेगी. पोकि कारण होने के लिए पूर्वस्वरूप का त्याग और कार्य होने में पर्व स्वकार मारण माया होता और प्रशद बाजूयंद्र प्रादि के रूप में स्थित सुवर्ण को कुण्डलाधि का कारण होने के लिए प्रशादावि स्वरूप का परित्याग और कुण्डलाधि स्वरूप का पहण करना पड़ता है। अतः प्रधान को भी महत ___एक आधुनिक विद्वान मा पर सिग्यता है-efrax की आपत्ति किसी गलतफहमी पर भाधारित प्रतीत होती है. क्योंकि यस्तुम: सांख्य दार्शनि की 'प्रकृमि' नित्य होते हुए भी रूपान्ताणशील ठोक पमी प्रकार है जैसे कि जैन-दर्शन की मान्यतानुमार विश्व की समी मनु-चेतन वस्तुएँ जित्य होते हुए भो रूपान्तरणशील है।" वस्वतः भा.भी त्रिभद्रसूरि की कोई गजमफहमी नहीं है कि सन को यह नित्यना का नहीं एकाननिया का स्वंशन अभिप्रेत है जो २४ी कारिका में स्पष्ट है। प्रतनी सम्म धान का न मम पाना बड़ी तो गलतफहमी है। मी प्राय विद्वान ने शास्त्रानि मुडमय के हिन्दी अनुषाव की प्रस्तावना में अपनी नमून विद्वत्ता का जो प्रदर्शन किया है उम का एक यह भी उदाहरण है-बर लिखता है-हरिमन ने मांख्य दार्शनिक की छूट दी है कि यदि वह अपनी प्रनि का भणन सीक भी प्रकार करे जेसे कि जैन दर्शन में कमप्रति का (अर्थाम् 'कर्म' नाम वाले मौसिक तत्व का) किया गया है तो उसका प्रस्तुत प्रन निषि पन जायेगा, ... . लेकिन यह एक विषारीय बात है कि सग्य मार्शनिक की 'प्रकृति' एक मथा षस के रूपान्तरण की परिधि समूचा जर जगन है, जय किन बान की 'कर्म कृतियां अनेक है तथा उनके रुपानरण की परिधि जम जगत का एक माग मात्र है।" सज्जनों को लोभना चाहिये फ्रि-मा. श्री हरिमद सूरि का अमिमाय यह है कि 'सांसय प्रति को सारे जगत का सपादान कारण मानता है इस के स्थान में निमित्त कारण मान लिया जाय तो मेन मस यानी वास्तविकता के साथ उसका मी मेन हो आय। इस ऋजु अभिप्राय न समझ कर इम शिवाज ने जो संट लिख दिया हैषा फेवल वाचावंबर के सिवा और क्या है? इस विद्वान ने सो से अनेक असमञ्जप्त विधान स की प्रस्तावना में कर काले है। पास में मी अस्पड होने पर भी घमंडी भौर, महामहीम पूर्वाधार्यो' के गौरव को गिराने की धृष्टता काना ही जिनका जीवनन्त्रत हैन पानि पंडितों से भारत के पुजा भावि की क्या मासा करना। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] [ शास्त्रयातासमुचय १० ३-५लो० २३ अथ "नाऽस्माभिरपूर्वस्वभावोत्पपा हेतु हेतुमद्भावोऽभ्युपगम्यते यतो रूपमेदादनित्यता प्रमज्येत, किन्त्रपरित्यक्तसर्पभाषस्प सस्य कुण्डलावस्थावपरित्यक्तप्रधानमावस्येव प्रधानम्य महदादिपरिणामाभ्युपगम इति को दोपः, युवत्व द्धन्वादिपरिणामयोरप्यवस्थित एष धर्मिणि पूर्वोसरभावनियमेनाऽपस्थासांकात ?" इत्यभिप्रायमुपर निराकुरुते - मूलम्-तस्प तस्वभावत्यादितिरिकं न सर्वदा । अत एवेति तस्य नपारवे ननु तस्कुतः । ॥२३॥ 'तस्यैव प्रधानस्यैव, एवकारेण स्वभावान्तरन्ययस्वेदः, सरस्वभावत्वात-महदादि. अननस्वभावत्वात , तथात्वाऽप्रच्युतावपि महदायत्पतिरित्युपस्कार:ति मेत् । तदा सर्वदा फिन भवति महदादिकम ! प्रकृतिसंनिधानस्य सर्वदा सस्वादेकहेलयेव जगनु म्यान , समर्थम्प कालक्षेपाऽयोगादित्याशयः। परः प्राह-अत एव कदामिज्जननस्य भावत्वादेव न सर्वदोत्पत्तिप्राविका कारण होने के लिए अपने पूर्वस्वहम का त्याग और नये स्वरूप का ग्रहण करना होगा पौर यह होने पर उसकी नित्यता समाप्त हो जायगी । अतः निरमप्रकृति से प्रनिम्प महत् प्राबि की उत्पत्ति युषितसंगत न हो कर उपदेष्टा के प्रति मतूट श्रदामात्र होने के कारण ही मानी जा सकती है ॥२३॥ (प्रकृति को नित्यता के अचाप में माशंका) २३वी कारिका सांख्यों के एक विशेष मिप्राय के निराकरणार्य प्रस्तुत है।बह अभिप्राय यह है कि-कार्यकारणभाव के लिए नये रूप की उत्पति और पूर्वका का परित्याग पावायक नहीं है जिस से रुपमेव से प्रकृति में प्रनित्यता की नापत्ति हो । किनु स जसे प्रपने सर्पभाव का परित्याग विना किये हो कुणालावस्था का जनक हो जाता है, उसी प्रकार प्रकृति अपनी प्रधान अवस्था का परित्याग बिना किये भी महत् प्राधिका कारण हो सकती है ऐसा मानने में कोई दोष नहीं हो सकता। इस बात को अन्य प्रकार से भी समझा जा सकता है-व्यक्ति में पौवन, वार्थक्य इत्यादि परिणाम व्यक्तिरूप धर्मी की स्थिरता का पात न करके ही उस में कम से उत्पन्न होते हैं और उन में पूर्वोत्तरभाव का नियम होने के कारण लोकर्ष नहीं होता । उसी प्रकार प्रधान में भी जस को नित्यताको बाधित किये बिना ही महान् पावि पसंकीर्ण परिणामों का उदप यदि माना जाय, तो कोई हानि नहीं हो सकती। समभिप्राय को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है और उस के निराकरणार्य जो बात कही गयो है वह कारिका की व्याख्या में स्पष्ट है व्याख्या इस प्रकार है प्रधान स्वयं हो ( -अपने पूर्व स्वभाव को परिस्माग मिना कियेही) मास प्रावि के उत्पावक स्वमाष से संपन्न है। मत: प्रधान अपने सहन स्वरूप में ज्यों का त्यों स्थित रहते हए भी जस से महत मादिको उत्पत्ति हो सकती है।" माल्यो की मोर से महत् प्रावि तत्वों और कार्य-कारण भाग के विषय में ऐसा ममित्राय व्यक्त किया जा सकता है, किम्नु यह टोक नहीं है पोकि महत Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.३०विदेगा । [१०१ ग्न्यिाशयः । बागाइ-इति चेत , 'ननु' इत्याशेपे, सम्प-प्रधानन्य साम्बे-नियनस्वरूपाऽविनन्वे नत्-पदाचिजननस्वभावग्यम कृतः ? एकरूपा हि प्रकृतिः सदैव महदादि जन येत , कदापि वा न जनयेन् । 'तमकालावनिकमजनना-जननोमपनिरूपिनकम्वभावस्वाश्यमदोष' इति मत ? जनमा-जननयोस्तकालावच्छिमन्ये नस्वभावधम , मम्वभावत्वे म तपोस्तमित्यन्योन्याश्रयः । बरूवभायादेव तयोलमे व विलीनं प्रकृत्यादिप्रक्रिययति भावः ॥२३॥ मादि को उत्पन्न करने के लिए यदि प्रधान में कोई मई घटना प्रावासक न होगी तो उस से मिपत समय में ही मस्त प्रावि की उत्पत्ति न होकर सर्ववो उस की उत्पत्ति को मापत्ति होगी। प्रतः प्रकृति से एक साथ की समुझे आत के जन्म की प्रसक्ति होगी. क्योंकि प्रधान में यदि जगत को उत्पन करने का सामपं है, तो जगत् की उत्पत्ति का बिलम्ब नहीं हो सकता. क्योंकि सो जिस कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उम को उपस्थिति होमे पर कार्य के उत्पावन में विलम्ब नहीं करता जैसे न्यायमस में कम विभाग को उत्पन्न करने में समर्थ होता है तो कर्म से विभाग को उत्पत्ति में विलंब नहीं होता। फर्म के दूसरे क्षण में ही विभाग का जन्म हो जाता है । यदि यह कहा जाय कि-'प्रधाम में माहस प्रादि को नियतकाल में ही उत्पन्न करने का सामय है अतः सर्वदा जस की पत्ति का प्रसंग नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रधान यदि अपने सहन स्वरूप में कुछ भी विकृत हुए बिना ही महत माविको उत्पन्न करेगा तो नियसकल मैं भी वह महत् प्रालिको उत्पन्न न कर सकेगा । कहने का आशय यह है कि प्रकृति यवि तर्षदा एक रूप ही रहेगी उसमें किंचित् मी कोई नई बात नहीं होगी वह अपने सहज सातम रूप में हो रह कर महत प्रावि का जनक मानी जायगी तो उस से या तो सर्वदा महत् प्रादि की उत्पत्ति होगी प्रषमा कमी मी नहीं होगी 'पयोंकि कमी उत्पन्न करना और कमी उत्पन्न न करना यह बात किसी पागम्तुक निमिस की अपेक्षा के बिना नहीं बन सकती। [ जमन-प्रजनन उभयस्वभाव में अन्योन्याश्रय ] यदि यह कहा जाष- प्रकृति का यह सहज स्वभाब है कि किलो काल में महत् प्रादि का जनन करेंचौर कालासर में उस का जनन न करे। अत: प्रधान से महत मावि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उक्त आपत्ति नहीं हो सकती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि महा मावि के जनन और मकान में हत्तरमालावचित्रत्व सिद्ध हो जाने पर ही प्रकृति में ससस्कालावच्छेवेन महत का जनम मोर अजान करने के स्वभाव की कल्पना हो सकेगी और इस प्रकार का स्वभाव सिद्ध हो जाने पर ही उसके वस्त्र से महत प्राषि के जनन पौर प्रजनन में ततकालावनियमाव लि हो सकता है इस में अन्योन्याभप है। इस पन्योन्याश्रय दोष के कारण यह कल्पना संभव नहीं हो सकती । मवि इस पन्मोम्याभय का परिहार करने के लिए महत मावि के जलन और प्रजनन में तत्तकालाग्छिन को भी स्वाभाविक मान लिया जायपा तो प्रकृति से महत और महत से महंकारादि की उत्पत्ति को को प्रक्रिया साल्य में वर्णित है वह मनापायक होने से समाप्त हो जायगी, क्योंकि समी कार्य प्रपने स्वमान से हो तप्तकाल में संपन्न हो जायेंगे ।।२३।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] {शा बा. समुरुपय न० ३-श्लोक-२५ उपचपमाहमूलम-नानुपादान मन्यस्य भावेऽन्यजातचितवन । भगवानलायां च न तस्वीकान्तनिष्पना ||२४॥ अनुपादान तथाभाविकारण रिकलम् , अन्याय पधा तथाभाविन्यतिरिक्त प्रयानम्प, भावनिधान, अन्यम् कान्नाऽविद्यमान महदादि; जातुचिन कदाचित । न भवेत । सर्वथाऽमन ससाऽयोगात् । तद्पादानतायां च महदादेग्भ्युपगम्यमानायां न तस्यःप्रधानम्य, एकान्तरित्यता, अनिन्यमहादाभिन्नन्वान । 'महदायणि सदामासाद् नियमेव 'नि चत ! मना महिं प्रकृति-विकृत्पादिप्रक्रिया, मुक्तावपि तत्माऽपशनं च । 'महदादे: प्रकृतिपरिणामित्वेन प्रकल्पनिषत्वेऽप्यनित्यवादिना भेद एवेति चेन् ! सहि मैदानमा इति दिग् ॥२४॥ (प्रकृति को महत का उपादान मानने में अनित्यता को प्रापत्ति) २४ वौं कारिका में पूर्व कारिका में कहे गमे प्रथ को हो संष्टि की गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है - मला मादि कार्यों को पनि उपादानहोन माना जायगा अर्थात यदि उस का कोई ऐसा कारण नहीं माना जायगर मिस में महत् प्रानि को उत्पत्ति के पूर्व में भी मात प्रावि का अस्तित्व होता हो, तो कारण में मषिम्रमान ही गस्त को उत्पत्ति माननी होगो । पालतः प्रधान का समिधान होने पर भी उस में प्रथमतः प्रविधमान होने के कारण महतमादिको उत्पत्ति न हो सकेगी कोंकि जो सर्वथा प्रसत् होता है वह कमी सत् नहों हो सकता है । भीर र प्रधान को महत आदि कार्यों का उपाबान कारण माना जाम्या, और कारगारूप में उस में महत प्रावि का अस्तित्य माना जायगा तो प्रधान की एकान्त निस्पता का भंग हो जायगा. क्योंकि उपानानकारण और कार्य में प्रमेय का नियम होने से प्रधानरूप उपादान कारण भी अपने कार्य अनित्य महत भाबि से प्रभित्र होने के कारण कार्यात्मना अनित्य हो जायगा। यदि कहें कि-महन प्रानि भी सर्धवा सस होने से नित्य ही होता है'-तो महा प्रावि सस्य और प्रकृति में कार्य कारण भाव की मान्यता समाप्त हो जायगी । और मत प्रादि नित्य होने पर मोक्षकाल में उस का अस्तित्व मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। इसप्रकार महयन कपमान बन जायगा -महत प्राधि प्रकृति का परिणाम है और परिणाम परिणामी से भिन्न होते हुए भी अतिश्य होता है इसलिए महवावि प्रकृति से प्रभिन्न होने पर भी अनिस्य होने से प्रकृति से मित्र होगा. मत एस महान मावि का अपने प्रभिस्पतरूप में सर्वदा सत् न होने से न तो उसे प्रकृति का कार्य होने में कोई पाषा होगी और न मोक्ष काल में उस के प्रस्तित्व का प्रसंग होकर सस्य सिद्वान्त की हानि होगों सो मह कपन कोक नहीं है पर्योंकि ऐसा मानमे पा. एक ही वस्तु में मेव और प्रमेव का 'प्रसंग होमे से सोधप को स्यावाब वा अनेकान्तबाव के द्वार पर दीवारिक बनना परेपा ।।२।। . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ] [ १८३ स्थू कायमधिकृत्याऽप्या:मूलम्-घटाद्यपि कुलालादिसापेक्ष दृश्यते भवत् । अतो न तत्पृधिलगाविपरिणामैकहेतुकम् ॥२५॥ घटायपि स्थलकाय ज्ञानम् . कुलालादिसापेक्ष भवद् दृश्यने, कुलालादीनां तत्राऽन्वयव्यनिरकानुविधानदर्शनगत । अनम्तन पृथिव्याटिपरिणामक हेतुक न भवनि, नियनान्वयव्यतिरेको विना नाशपरिणममऽपि हेतनाग्रहाभायात , तयोश्च कुलालादावविशेषान । 'कार्यगतयाबद्धमानुविधायिन्वान् हेनोः कुलालादी न घटादिहेतन्यमि'ति चेत् ? तर्हि बुद्धिगता रागादयोऽपि प्रकृती म्धीकर्तव्याः, इति संग बुद्धिः भावाटकसपमन्वात् , न तु प्रकृतिः । 'म्थूलम्पनामषहाय मुश्मरूपतया ते तत्र मन्नी नि चेन् ! लयाअवस्थायां सौम्यं बुद्धायपि समानम् , सूक्ष्मन या घटादिगनर्माण कुलालादी कल्पने बाधकामावश ॥२४॥ [घटादि कार्य पृथ्वो आदि के परिणाम मात्र से जन्य नहीं) २५ वौं कारिका में स्यूलकार्यों में कर्तृ सापेक्षता बताते हुए कार्य में भा निरपेक्षता के खण्डन का संकेत किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है - घटादि कार्य कुलालादि कर्ता को अपेक्षा से उत्तल होता है ग्रह बात वेलने में प्राती है क्योंकि घटावि में कुलालावि के अन्धय-व्यतिरेक का अनुविधान देवा जाता है। अर्थात् फुलाल श्रादि के रने पर घटादि का जन्म होता है और कुलालादि के अभाव में घटादि का जन्म नहीं होता है । इसलिये यह कहना उचित नहीं हो सकता कि 'घटादि कार्य पृथ्वीप्रादि के परिणाममात्र से ही उत्पन्न होते हैं, क्यों कि पृथ्वीमाधि के परिणाम में भी अन्वयव्यतिरेक के बिना घटादि की कारणता का जान नहीं होता है किन्नु अन्वय-व्यतिरेक से ही होता है और जब अन्वय-ध्यतिरेक के नाते पृथ्वी प्रादि के परिणाम को घटादि का कारण माना जाता है तो पृथ्वीमावि के परिणाम के समान हो कुलालादि में भी प्रावयव्यतिरेक होने के नाते कुलातादि में भी घटावि की कारणता मानना प्राधम क है । यदि यह कहें कि 'हेतु में कार्य के सभी धर्मों का सम्बन्ध होना प्रावश्यक होता है किन्तु लालादि में घटादि के सभी धर्मों का सम्बन्ध नहीं होता। अतः कुलालावि घटादि का कारण नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि हेतु में कार्य के सभी धर्मों के सम्बन्ध का होना आवश्यक नहीं माना जा सकता । यदि ऐसा माना जायगा तो प्रकृति में वृद्धि के रागादि धर्मों का भो अस्तित्व मानना होगा और उस दशा में धर्म-अधर्मादि पाठ मावों से संपन्न होने के कारण प्रकृति हो बुद्धि बन जायगी।। यपि यह कहा जाय कि 'धर्म-अधर्मादि पाठ भाव अपने स्थल रूप का परित्याग कर सूक्ष्मरूप से प्रकृति में रहते हैं । अतः वह बुद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि स्थल रूप से भावाष्टकसम्मन को ही बुद्धि कहा जाता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर लयादि की अवस्या में बुद्धि मी बुद्धि न हो सकेगी, क्योंकि उस समय उस में भी भावाष्टक स्थूलरूप से न रह कर सूक्ष्मरूप से ही रहते हैं। और दूसरी बात यह है कि यदि कारण में कार्यगत समी धर्मों का होना आवश्यक हो तब भी कुला Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्याक० टीका-हिन्दीविशेषता ] [ २०५ देहेन भगो देहगन, 'धान्येन वनमू' वार्थः, नैष, अस्य=आत्मनः भावतः - नश्यतः इतिवदभेदे तृतीया, देहभोगेन देहद्वारे ति इष्यते भोगः, किन्तु प्रविधियोदयात् । येवमपि सुख-दुःखाद्यन्तःकरण धर्मानुषिद्धस्य महत एवं स्वतोऽचेतनम्य चेतनोपरागेण 'चेतनोऽई सुखी' न्याद्यभिमान रूपश् चैतन्यशिलाधिको मोगः, न तु पुरुषस्य, तथापि भोक्तृबुद्धिनिधानात् तत्र भोक्तृत्वव्यवहारः । तदाह पतञ्जलिः शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं चौद्धमनुपश्यति तमनुपश्य तदात्मादि तदात्मक व प्रतिमासते' इति । केबिसु बुद्धी पुरुषोंपरागयत पृचेऽपि घुद्ध परागं वर्णयन्ति न विकतत्वापत्तिः, अनाचि कोपरागेण तदयो " गोग की होती है। कारिका का अर्थ इस प्रकार - कारिता के अन्तर्गत उत्पत्ति में देश के उसर विद्यमान तृतीयाविभक्ति का अर्थ यभेव हो सकता है जैसे 'वान्येन चतम् इस वाक्य में धान्य शब्जोवर तृतीया का प्रमेव अर्थ होता है। अतः बेहोस शब्द का अर्थ होता है बेहास्मको भोग: । ऐसा अर्थ करने पर योग शब्द को भुज् धातु से कररण अर्थ में पत्र अत्मय द्वारा निष्पन्न मानना होगा और ऐसा होने पर देहयोग शब्द का अर्थ होगा भोग का देहात्मक साघन उक्त पतिको माया घञ् प्रत्यय से निरस मारने पर देशदोत्तर तृतीया का 'वार' धर्य करना होगा। और तब देहभोग शब्द का अर्थ होगा-देह द्वारा होनेयाला भोग देहमोग के उक्त दोनों प्रथों में कोई भी प्रार्थ लेने पर यही तथ्य उपलब्धता है कि सोय के वैज्ञानि मान से देवारा होनेवाले भोग से प्रात्मा में वास्तविक भोग नहीं उपवन होता । क्योंकि माना पूर्णरूप से कुरभ है । यसः विन्ध्यवासी आदि पूर्वता विद्वानों ने यह कहा है फि ite के यात बुद्धिस्व में पुरुष का प्रतिदिन होने से बुद्धिस भोग कर आत्मा में आमा मात्र होता है। यह ज्ञातव्य है कि प्रतिविम्ब द्वारा मी आस्मा में भोग को उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि 'चलनोऽहं सुखी' इस अभिमान को हो चैतन्यरूप प्रात्मा में सुख का सात्विक भोग कहा जा सकता है । किन्तु यह अभियान की आदि प्रत्तःकरणधमों से मनुष्य एवं स्वत: चेतन महतक में हो गया होता है। सतः इस से ग्रात्मा भोग का प्राश्रय सिद्ध नहीं हो सकता। यथार्थ में भोग कामाश्रय तो बुद्धि ही होती है। अतः उस के सविधान से पुरुष में जोबश्व का व्यवहार मात्र होता है। मेला कि पालने के माध्य में कहा है-पुरुष विक्रान्त ज्ञान का मनुष्टाना होता है। और हष्टा होने केही जैसा प्रतीत होता है 'एल के इस यवन का सार पुरुष में नोहार के प्रदर्शन में हो है । ( पुरुष में बुद्धि के प्रतिविम्व से विकृति का प्रसंग ) कुछ में गुरुष के उपराग के सम्मान पुरुष में भी वृद्धि का उपराग खलाते हैं। उन का प्राय यह है कि जैसे त्रि में पुरुष का प्रतिषिडता है उसीप्रकार पुरुष में भी वृद्धि कर प्रतिपिता है। ऐसा माननेपर यह रात नहीं की जा सकती कि पुरुष यदि वृद्धि के प्रतिविध होता है। यह वृद्धि नो पर भी श्व न होने पर भी भोग Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] [ शा. बा, ममुनय 2- लोक-एक गाह । वा पात बाप! -'दिका तमप्रतिद्वनी यदपंणकल्पे पुम्य ध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य, न तु विकागेपनिः' इति । 'बुद्धिमतप्रतिविम्ब मन्येव बुद्धिगतभोगोपसंक्रमः, पिम्वात्मनि तु न किचित्' इत्यपरे। स्त्रोक्तेऽर्थेऽभियुक्तगमतिमाह-योक्तं पूर्वसूरिभिः बिन्ध्यवास्यादिभिः ॥२७॥ किमुक्तम् ? इत्याइ मूलम्-पुरुषोऽयिकृताम्मैच स्वनिर्भासमवेतनम् । ____ मनः करोति सांनिध्यादुपाधिः स्फटिक यथा ।।२८|| पुरुषः आत्मा, अधिकामात्मैव अप्रच्युनस्वभाव एव, अचेतन मनः, मानिध्यात सामीप्याव वेतोः, स्वनिर्भासं स्वोपरक्तम् कमेनि । निदर्शनमाह-यथोपाधिः पद्मगगादिः स्फटिक स्वधर्मसंक्रमेण स्वोपरक्तं करोति । न चेतायता स विकरोनि, किन्तु स्फटिक एवं विक्रीयते, तथाऽऽत्मापि वृध्युपरागं बनयन् न रिकरोनि, किन्तु बुद्धिरका बिक्रीयत इनि भाषः ॥२८॥ - -.. - - को प्रहण करेगा तो विकारी हो जायगा-' पयोंकि पुरुष में बुद्धि का जो प्रतिविम्बात्मक उपराग होता है बहतारिखक नहीं होता। अत एव यह पुरुष को विकारयुक्त नहीं कर सकता । वादमहापंप मामक प्रत्य में यह बात इस प्रकार स्फुट की गई है कि जैसे एक वर्षण में पडा हुमा किसो वस्तु का प्रतिविम्ब उस दूसरे वर्पण में भी संक्रान्त होता है जिसमें वस्तु के प्रतिमिम्ब से पुक्त पहला वर्पण प्रतिमिम्बित होता है। उसी प्रकार वस्तु का प्रतिबिम्म अनि में पता है और जहा प्रतिबिम्ब से पुक्त नि का प्रतिविम्ब पुरुष में पड़ता है । अतः बुद्धिगत वस्तुप्रतिशिम्य पुरुष में भासित होता है। बुद्धि के प्रतिविम्ब द्वारा पुरुष में वृद्धिगत वस्तुप्रतिबिम्ब का मासित होना ही पुरष का भोमतृत्व है। इस प्रकार का मोहत्म होने पर भी पुरुष में कोई विकार नहीं होता। अन्य विवादों का इस सम्बध में यह कहना है कि बुद्धि में पुरुष-मात्मा का प्रतिबिम्ब होने पर प्रात्मा के वो रूप हो जाते हैं । एक प्रतिविम्ब मारमा और दूसरा विधारमा। इन में वृद्धिगत भोग का सम्बन्ध प्रतिविम्बात्मा में ही होता है. बिम्बास्मा में नहीं होता । प्रतः प्रतिविम्यरमा के विकृत होने पर भी विम्यात्मा को निर्विकारता यथापूर्व बनी रहती है ॥२७॥ (मात्मसंनिधान से अन्तःकरण में औपाधिक चैतन्य) २८ वौं कारिका में पूर्व संकेतित सांस्यवेत्ताओं के कथन को स्पष्ट किया गया है। कारिका मथं इसप्रकार है प्रारमा अपने समिधाम से प्रवेतन मन को उपरक्त करता है अर्थात उसमें अपने बसम्म को प्रतीतिराहा और ऐसा करने पर भी वह अपने स्वरूप से विकली जाता है। यह बात स्फटिक के दृष्टान्त से बताई गई है। मामय यह है कि जैसे पारागमरिण प्रा जपाधि समीपस्थ स्फटिक मरिण को मापने पणं के संक्रमण द्वारा उपरफ्त करती है किन्तु ऐसा करने पर भी यह Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक टीका और हिन्दी विशेषना ] ततः किम् 1 इत्याह मूलम् विभक्ते परिणती बुडी भोगोऽस्य कपते । प्रतियोदयः स्वच्छे पथा नन्दमसांऽम्भसि ॥२९॥ विभकमा आत्मभिना, ईदकपरिणतिः - अभिहितपुरुपोपरागपरिणामा च इति कर्मधारयः तस्यां श्री अन्तःकरणलक्षणायाम् अस्य आत्मनः भोगः कथ्यते आसुरिप्रभृतिभिः । किंवत् इत्याह-यथा चन्द्रमसः = वास्तवस्य चन्द्रस्य प्रतिविम्वोदय: = प्रतिपिम्बररिणामः, स्वच्छे= निर्मले, अम्भसि जले ||२६ [ १०७ तदिदमखिलमाकुमा मूलम् - प्रतिविम्बोदयोऽध्यस्थ नासूनत्थेन युज्यते । मुनेरतिप्रसङ्गाच न चै भोगः कदाचन ||३०|| प्रतिभिम्बोइयोऽपि अस्य = अमूर्तत्वेन न युज्यते, खायावन्मृर्तव्येणैव हि प्रतिभास्वाकारं पास्तायो ना[प्र. म. टीका ० ३०५/२ ] "सामा उ दिया छाया अभासुरमया णिसि तु कालाभा । सभामुरगया सदेहवण्णा सुव्वा ॥ १ ॥ इति । , स्वयं विकृत नहीं होता अपितु उस के उपराम सम्बन्ध से स्फटिक ही विकृत होता है उसी प्रकार आत्मा भी शुद्धि में अपने उपराग का जनक होकर भी स्वयं नहीं विकृत होता. किन्तु उस के उपराग से बुद्धि ही विकृत होती है ।।२८ || (बुद्धि में पुरुषोपराग हो श्रात्मा का भोग है श्रासुर) २८ वीं कारिका में पूर्व कारिका के कथन का निष्कर्ष बताया गया है। कारिका का प्रभं इस प्रकार है ef अन्तःकरण रूप है और पूर्व कारिका में घणित पुरुषोपरारूप परिणाम से युक्त है एवं से विभक्त नि है, वास्तव में भोग उसी में होता है। सांख्यशास्त्र के आसुरि आदि विज्ञानों नेप्रामा में जो भोग का उल्लेख किया है वह भोगयुक्त बुद्धि में आत्मा के उपराग के कारण हो है, एवं श्रवास्तव है। यह बात जल में चन्द्रमा के प्रतिविष के दष्टान्स से स्फुट होती है। जैसे फूल चन्द्रमा का निर्मल जल में प्रतिविम्यात्मक परिणाम होता है उसी प्रकार सूक्ष्म बुद्धितत्त्व में श्रविकृत अकारे प्रतिविम्वपरिणामात्मक उपराग हो सकता है ।।२६।। [अमूर्त आत्मा का प्रतिबिम्ब प्रसंगत है ] ३० कारिका में पूर्व कारिका तक समय की ओर से प्रकट किये गये सम्पूर्ण विचार का निराकरण किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है (१) श्याम तु दिवा छायाकारगत निशितु काखामा । सा ने मागता । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [ शा. वा. समुञ्चन्न स०३-श्लो०३० युक्त तत्, अन्यथेदत्वापच्छेदेन मुखभेदग्रहाऽभावान् । 'इदं मुखम्' इति प्रतीसेः कश्चिदुपपादनेऽपि 'इदं मुखप्रतिविम्यम्' इनि प्रतीतेः कथमाघुपपादयितुमशक्यत्वात् । मुखश्रमाधिष्ठानस्वरूपमुखप्रतिविम्बत्वम्य प्रागेवाऽग्रहात , 'आदर्श मुखभनिनिम्नम' इत्याचाराऽऽधेयभायाध्यवसायानुयपश्च । एतन 'मुखे घिम्यत्वमिवाऽऽदर्श एवं प्रतिविम्बवं मुखसानिध्यदोषाऽभावादिसामग्र्याऽमित्यज्यते' इति निरस्तम् , बिम्बोत्कर्षानुपपत्ते, प्रतिषिम्बन्वाइप्राहकसामग्र्या पत्रादर्शभेदभ्रमहेतुत्वेन 'अयं नाऽऽदशी, किन्तु मुखप्रनियिम्मम्' इति सार्व पारमा ममूरी है। इसलिये बुद्धि सत्य में उसके प्रतिविम्ब का सवय मुक्तिसङ्गत नहीं हो सकता क्योंकि जो मध्य मूर्त एवं छायावान होता है यही किसी मास्थर में अपने बाकार का प्रतिविम्वक तथ्य को उत्पन्न कर सकता है जैसा कि 'सामा उचीयाः' इस ऋषिप्रणीत गाथा में कहा गया है । गाया का अर्थ यह है कि दिन में किसी ममास्यरतव्य में श्यामवर्णा और रात्रि के समय कृष्णावण दाया होती है। वही जब मास्वरद्रश्य में प्रतिबिम्बित होती है । तब अपने द्रव्य के ही वर्ण में विखाई देती है। इस गाथा से स्पष्ट है कि छायावान मूर्त ध्रव्य का ही भास्बर पब में प्रतिदिन होता है । प्रत प्राधाहीन अनुत पारमा का एति में प्रतिबिम्ब मानना सङ्कत नहीं हो सकता 1 छायावाम् मूतं वध्य भास्वतध्य में अपने समाम प्रतिबिम्ब दश्य यो जस्पा करता है। यह मानना हो मुक्तिसङ्गनात है क्योंकि यवि छायावा मूर्त द्रव्य से भास्थर व्रव्य में उसके सहश मये प्रतिबिम्ब द्रष्य की उत्पत्ति न मानी जायगी किन्तु भास्वर तथ्य को बिम्ब मूक्त स्य के समकाधिष्ठान मात्र माना जायगा तो वर्पण में मुखका प्रतिचिम्न होने पर जो 'वं मुखम्' या प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति तो हो सकती है, क्योंकि इन मुखम् इस प्रकार मेवपहन रहने के कारण व मुलभ इस प्रतीति के होने में कोई बाधक नहीं हो सकता, किन्तु अपंग में मुख का प्रतिविम्व होने पर 'इवं मुखप्रतिविम्मम्' यह मी प्रतीति होती है जिसका उपपादन महीं हो सकेगा। क्योंकि यदि वर्पण में प्रतिविम्ब मुखको उत्पत्ति न मानी जायगी तो मुख का प्रतिबिम्बत्व ओ मुलभ्रम का अधिष्ठानत्वरूप है वह प्रतिबिम्ब काल में गृहीत नहीं है अतः 'इदं मुखप्रतिबिम्बम प्रतीति का होना अशष्य है। और यदि प्रतिबिम्ब को प्रख्यात्मक न माना जायगा तो 'पावों मुखप्रतिबिम्बम' इस प्रकार अपंग मोर मुखप्रतिबिम्ब में प्राधार प्राय माय की प्रतीति भी न हो सकेगी, क्योंकि प्राय के प्रभाव में केवल प्राधार मात्र से प्राधार-प्राय माव की प्रतीति नहीं हो सकती है। इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का यह कहना है कि-वर्पण में मुष का प्रतिबिम्ब पटते समय प्रतिविम्बात्मक किसी नमे द्रश्य की उत्पत्ति नहीं होतो किन्तु मुखसानिम पीर बोषामावादि सामग्री से मुख विम्बरथ और 'दर्पण में प्रतिबिम्बत्य को अभिव्यक्ति होती है किन्तु यह 'मी ठीक नहीं है. क्योंकि इस पक्ष में प्रावर्श ही प्रतिबिम्ब कहा जायगा । मत: प्रादर्श मोर प्रतिविम्य में प्राधार प्राधेय माव की उक्त प्रतीति की उपपत्ति इस मत में भी न हो सकेगी। एवं बिम्ब के उत्कर्ष से प्रतिबिम्ब का उत्कर्ष भी न हो सकेगा। प्राशय यह है कि वर्पण में छोटे मुख का योटा प्रतिविम्ब पीनाता है और पडे मुख का बडा प्रतिविम्च वोखता है। यदि प्रतिबिम्ब नाम के नये प्रत्य की उत्पत्त नहीं होगी फिन्तु प्रादर्श में ही प्रतिषिम्वत्य को अभिव्यक्ति मानी जायगी तो प्रतिबिम्न में सिम्माधीन अपकर्षउत्कर्ष की उपपत्ति म हा सकेगी । पीर प्रतिविम्ब के समय 'श्रमं न प्राय:'-यह पंण नहीं हैं किन्तु . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ पाटीका और हिन्दी विवेचना ] 1 जननानुभवानुपपत्तेश्च । न च प्रतिविम्वम्य द्रव्यत्वे सावत्रित्यानुपपतिः प्रतिविग्वधर्मस्थव महच्यवत् सावधिकत्वात् । न चाश्रयनाशे तमाशानुपपत्तिः त्रिनिधाननिमित्तजनितस्य तस्य नाशेनैव नाशसमयात् । न चैवमनन्तप्रतिविम्पोत्पशिनाशादिकल्पने गॉग्धम्, माया तिम्ि क्वान्दोषादिकल्पनेतचैत्र गौरवात् अनुभवापापानि अधिकमाकरे । स्फटिका लहिल्यापि पद्मरागादिनिधिवन्य परिणामविशेषः, साक्षात्संबन्धेन तत्प्रमीतो परम्परासंबन्धस्थातिप्रसक्तत्वात् स्फटिकादिनिष्ठतया लोहिताश्रयमं सर्गस्य साक्षात्संबन्धेन भ्रमर तत्र विशेषदर्शनादेरुले अकल्ये, परंपरायचन्वेन लोहित्यमानियामक स्वादिकम्पनं चातिगवात् सहित्यमात्रजनकत्वकल्पनाया एव न्याय्यत्वात् अभिभूताइनभिभूतरूपः समास्याऽनुभवसिद्धत्वेनाविरुद्धवाद, नियतारमनिरासाच्चेनि अन्यत्र बिस्तर: 1 > न हो सकेगी। मुखका प्रतिधि है। यह साधजमीन अनुभव होता है । इस अनुभव की भी उप क्योंकि प्रतिविम्बत्व की ग्राहक सामग्री हो श्रादर्शके व का हेतु होती है। अतः प्राव के भवभ्रम के साथ प्रतित्रित्व का ज्ञान होना संभव नहीं हो सकता। -' 'प्रतिक को प्रतिरिक्त मध्य मानने पर उस में विश्वावधिवत्य न हो सकेगा प्रर्थात जब तक विश्व हे तब तक उनका अस्ति न होगा के भाव में भी उस के अस्तित्व की प्रक्ति होगी यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रतिबिम्म विध्यावधिक नहीं होता किन्तु उस का प्रतिबिम्बत्वरूप धर्म हो सालिक होता है । प्रर्थात् बिम्ब के न होने पर प्रतिविम्ब का प्रभाव नहीं होता । किन्तु प्रतिदित्य की बुद्धि निरुद्ध हो जाती है, क्योंकि प्रतिविम्व के प्रण में बिम्ब का सविधान कारण होता है। इसे महत्व (महत्परिमार ) के दात से समझा जा सकता है जैसे जिस द्वय में जिस प्रटको अपेक्षा महश्व की प्रतीति होती है उस य के मात्र में महत्वेन प्रतीत होनेवाला मध्य का प्रभाव नहीं होता अपितु महत्व को प्रतीत का निशेध मात्र होता है। अतः जैसे महत्व का प्राश्रयभूत द्रव्य लघुथ्य से सावधिक नहीं होता किन्तु उस का महत्व हो जरा से साबधिक होता है उसी प्रकार प्रतिबिम्बाविस्रवधिक नहीं होता किन्तु उस का प्रतिविम्व रूप धर्म ही बिग्यावधिक होता है। विनाश से प्रतिविम्यक प्रथम के नाश की अनुमति भी नहीं हो सकती, क्योंकि प्रि fare निधान रूप निमित्त से उत्पन्न होता है श्रतः होने पर उस निमित का नाश होने के भाषण प्रतिकिय का मारा हो सकता है क्योंकि रिल का ताश कि के नाश का कारण होता है। अतिरिक्त प्रतिविम्बकको उत्पान पर प्रतिक को उत्पत्ति और उन के नाश प्रावि की कल्पना में गौरव होगा' यह मो नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रतिधि को विस्वधन माननेवाले लांख्य को सत्य से अतिरिक्त भ्रमजनक अनंत दोष को कपमा श्रावक होने से सांख्या में हो गौरव है । और उस मत में बिम्बभूत मुख से भिन्न प्रतिविम्यमुख ने के सर्वजनसिद्ध अनुभव का सख्यमत में अपलाप भी होता है इस विषय का अधिक विचार आपर ग्रन्थ में है । हमक स्फटिका में जो लीशियामि प्रतीत होता है वह मी पद्मरागादि areer होनेurer स्फटिकावि का परिणामविशेष ही हैं के संधानसे और स्फटिक में उसकी प्रतीति साक्षात् Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [ शा. वः समुचय-० ३-नोः ३० तस्मादात्मनो बुद्धी विस्तया उपाधितया वार्तस्वात् न स्त्रोपरागजनकत्वम् । ये वा कथमात्मनोऽकारणत्यम् १ कथं वा तदुपरागस्याऽनिर्वचनीयस्य असतो वा स्वीकारे नोपनिषदद्धमतप्रवेशः एतेन निमृर्तस्य प्रतिविम्बामात्रः शक्यो वक्तुम् असुनि रूपपरिणामादीनां प्रभिषिम्बदर्शनात् द्रव्यस्याऽयमृर्तस्य मात्र नचत्रस्याकाशादेजांनुमा जले दुर-विशालम्वरूपेण प्रतिचिभ्यदर्शनाच्च' इत्युक्तावपि न निम्ताः । 1 · संध से ही होती है। यदि स्फटिक में प्रतीत होनेवाले लोहित्य को स्कटिक का परिणाम न मान कर उस मे भ्रमवश दोपयश प्रतीत होनेवाले पद्मरागादि उपाधियों का ही धर्म माना जायगा तो स्फटिक में उस का साक्षात संबन्ध न होने से परंपरा संबंध से ही उस की प्रतीति मानी होगी अब परपरा संबंध को उस की प्रतीति का जमक मानने पर दूरस्थ स्फटिकावि में पद्मरागादि के लौहिएम का परंपरा संबंध होने से उस में भी लोहित्य की प्रतीति का अतिप्रसंग होगा | और यदि स्प. टिक में लोहित्य के प्रायभूत पद्मरागादि के विद्यमान संसर्ग को साक्षात् संबंध से लौहित्यभ्रम का जनक माना जायगा तो 'श्पटिको न सोहित: स्फटिक लवर्ण का नहीं है' इस विशेष दर्शन काल में स्फटिक में लोहित्य का अन न होने से उति दर्शन को प्रतीति के प्रभाव से विशिष्ट पद्मराग के संसर्ग को स्फटिक में लौहित्य की प्रतोति का कारण मानना होगा एवं स्फटिक में विद्यमान सौहिस्य के श्राश्रयत पचराय के संसर्ग को स्फटिक में परंपरा संबंध से लौहित्य को प्रभा का नियामक मानना पड़ेगा। अतः साध्यपक्ष में अत्यधिक गौरव होगा । उस की पेक्षा न्यायसंगत यही है कि स्फटिकगत पद्मरागसंसर्ग को स्कटिक में लोहित्य का ही जनक माना जाय । अभिभूत और अभिभूत रूप का एकत्र समावेश अनुभव सिद्ध है असे, रात्रि के समय नक्षत्रों का रूप अनमिल रहता है किन्तु दिन में सूर्य के प्रकाश से श्रमिभूत रहता है इसी प्रकार के सनिधान में स्फटिक में प्रनभिभूत लोहित्य और प्रसंनिधान में अभि सहित्य के मानने में कोई विरोध नहीं हो सकस पराग के संनिधान में सहयो उत्पत्ति मानना सब न संभव होता जब लौहित्य याति का नियत्रारंभ माना जाता स नियत दे काल में नियत हेतु से ही प्रारम्भ मानस आता- किन्तु यह मल निरर्थक है। और इस संबंध में और विस्तृत विचार प्रत्य ग्रन्थ में दृष्टस्य है। निष्कर्ष यह है कि श्रात्मा महत है इसलिए वह से या उपाधि से बुद्धि में अपने प्रतिविश्वात्मक उपराग का जनक नहीं हो सकता, यदि जनक होगा तो उसका प्रकारणाथ सुरक्षित रह सकेगा । और वृद्धि में होनेवाले मामा के उपर को यदि प्रतियंजनीय माना आया तो श्रोपनिषद (वेवान्त) मत में, और प्रसत माना जायेगा तो म्यवादी बौद्ध मत में प्रवेश की प्राप्ति होगी । 'सूर्य द्रव्य का हो प्रतिविम्ब हो सकता है प्रसू का नहीं' इस कथन की प्रतिक्रिया में कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि मूर्त पदार्थ का प्रतिविम्ब नहीं होता है यह मत अनुचित है, क्योंकि रूपपरि माणावि अमूर्त पदार्थ का भी प्रतिबिम्ब देखा जाता है। अमूर्त य का प्रतिबिम्ब नहीं होता यह मत भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि प्रश्रनक्षत्र प्रावि से युक्त मतं आकाश द्रव्य का जानुपर्थश्तजल में वरस्य और विवाल रूप में प्रतिबिम्ब देखा जाता है।' किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्त युक्ति से प्रतिविम्ब एक नामक कार्य है। जो विम्बात्मक कारण से उत्पन होता है अतः यवि Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा का टीका और जिमी विवेचना ] अथ 'म पुरुषजन्यः पुरूषोपरागः, किन्तु पुरुषभेदाऽग्रहादसत एवं सम्योत्पतिः, सदुपगमेण भानाच नासत्यातिपरिनि वेत् ? गतं नहिं मत्कार्यादेन । 'बुद्धी सन्ने पुरुषीपरागः कदाचिदानिर्भवतीनि चेत । नहिं युद्धध पसे पूर्व पुरुषायानुपरक्तनया माधः म्याव , प्रकृतः माधारणस्नाऽनुपरचमवाव । 'पूर्वद्भिवामनावतः माधारण्येऽस्यसाधारणी प्रकनि'गिनि चेस् ? न, 'त्रुद्धिनिसावपि नदयामानानुसः' इम्यूपदर्शनम् । 'मीशान दोप इप्ति' चेन ! मुक्तावपि सन्प्रसङ्गः । 'निधिकारित्वादु धमिनि खेती नहि माधिकारा प्रसुनस्वमावा वृद्धिीव प्रकृनिरस्तु, क्रममन्तरा प्रकल्प-हवार माना शब्दानामान्तरकल्पनाया, मैं हि तनद्वयापारयोगात तेन तेग शब्देन ध्यपदिश्यते ग्वायुवत , इत्यागमम्यापि न विरोध इति । स्वीक्रियता वा यथा फवचिद् तस्या नाविको भीगः तथापन्यदूषणमित्याहमुक्तेरनिप्रसङ्गाच्च-नेपा प्रनिनिम्त्राभारान् भमारिणामपि मुक्तकम्प मारत्वात , व-निधितम् . कवाचन कदापिपि, भोगी न म्यान ॥३०॥ प्रात्मा का प्रतिविम्व माना जायगा तो प्रात्मा को उस प्रतिबिम्मका कारण मानना होगा । पौर ऐसा मानने पर प्रारना के साक्ष्य सम्मत प्रसारणस्य हिमानत का भस हो मासगा। [असत् पुरुषोपराग कि उत्पत्ति में सत्य यंत्राव विलय ] यदि यह कहा जाप कि वृद्धि में पुरुष का प्रतिविम्बाय उपगग पृरुषजन्य नहीं होता अपितु बुद्धि पुरुष के भेद का शान न होने से प्रथमतः अश्विद्यमान ही पुरुषोराग की उत्पसि होती है। पति और पुरुष इन वो सस्पवाओं के सम्पर्क से मसत भी पुरुषोपराग का भाग होता है। ऐसा मानने पर बोनु की प्रसत्स्याति का यह प्रवेश नहीं हो सकता, क्योंकि उस मत में सत् वस्तु का सथा प्रभाव होने से सस् के सम्बन्ध से असत् का ज्ञान नहीं माना जा सकता किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि मस्त पुरुषोपराग की उत्पसि मानने पर कार्य जापति के पूर्व कारण में सज होता है इस सांस्य के सुप्रसित सत् कार्य सिद्धान्त का मग हो जायगा । 'बाबुद्धि में पहले से ही दिमात पता है. समय शेष में उसका प्राविर्भाव होता है-यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एसा मानने पर वृद्धि को उत्पत्ति के पूर्व पुरुष में किसी प्रकार की उपरक्तसा-संसृष्टला नहीं रहने से प्रकृतिकाःप.से पहले हो पुरुष मुक्त हो जायगा 'बुद्धि की उत्पत्ति के पूर्व प्रकृति से उपरषत होने के कारण उस समय भी पुरष की मुक्तता नहीं हो सकती'-मह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रकृति मारमा मात्र के प्रति साधारण होने से किसी को उपराग द्वारा नहीं बांध सकती। अगर कहे "प्रकृति सर्वसाधारण होने पर मो पूर्ववृद्धि की वासना का अनुवर्शन होने के कारण असाधारण हो सकती है प्रतः उस से भी पुरुष का उपरम्मन-बनमम हो सकता है तो यह टोक नहीं है मोंकि प्रलयावस्था में वृद्धि को निति हो जाने पर भी पति के वासनात्मक धर्म की प्रमुवृत्ति मामले में सांत्य का प्रसिद्धान्त हो जाताहै। 'प्रलयावस्था में वृद्धि की पौर उसके धर्ममूत वासना की समरूप से स्थिति होने के कारण यह दोष नहीं हो सकता'-यह कपन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मोक्षवशा में भी वृद्धि और तिगत वासना का सूक्ष्मरूप में प्रवस्याम मानना होगा, असा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [ शा.बा.समुकचय ४० ३.० ३१ अथ यदि संसारिणां प्रतिविम्योदयस्वभावः, तदाहमूलम्-न च पूर्वस्वभावत्वास मुक्तानामसंगतः । स्वभावान्तरभाष च परिणामोनिवारितः ॥३१॥ न च जना सः = प्रतिबिम्बोदयस्व मात्रः, पूर्वम्षमावस्यान मसार्यवस्थैकस्वभावन्यात , मुकसानामसंगतः किन्तु संगत एन, अन्यथा नित्यत्यक्षतेः, तवपि कदाचन न मोगः किन्तु सबैदेष स्पात , इति योजना | स्वभाधानतरभावे च-अमुक्तम्बभारपरित्यागेन मुनम्बमायोपादे च मुक्तानामिन्य माणे. अनिवारितः परिमाणः, स्वभावापथात्यस्यैत्र तल्लतणन्त्रान् । मोक्ष फी उपसि म हो सकेगी। यवि कहा जाय कि-मोमवषाा में अडि मधिकारहीन हो जाती है। प्रत एष उस का बन्धन सामर्थ्य समाप्त हो जाने से उस के रहने पर भी मोक्ष की प्रमुपपास नहीं हो समासी-तीन महमा भो ठीक नहीं है। जोकि ऐसा मानों पर अधिकारमुक्त प्रसुप्त स्वभावान) बुद्धि को हो प्रकृति माना मापकता है। और इस प्रकार प्रकृति-ग्रहहकार-मन ये सभी प्रमों के अर्थ मेव की कल्पना अनावश्यक और अप्रामाणिक हो जायगी, क्योंकि पुद्धि प्रकृति, अहंकार और मन के व्यापारों के समय में प्रकृति आदि शवों से उसी प्रकार व्यपविष्ट हो सकेगी जैसे शरीरस्य कशी वायु ग्यापार मेव से प्राण-अपान आदि विभिन्न शब्दों से स्पष्ट होता है। इस प्रकार कति अहमपि विभिन्न वादों है तस्य का निरूपण करनेवाले मात्र का विरोध नहीं होगा मोर यदि किसी प्रकार आत्मा में अताविकमोग मान भी लिया जाय तो सका बोषों का मत निराकरण हो सकने पर भी संसारवक्षा में मोक्ष का अतिप्रसङ्ग होगा क्योंकि अमूतंतव्य का प्रतिविम्म म मानने पर संसारी आस्मा मी सुक्तकल्प ही होगा । और आत्मा का प्रतिबिम्ब न मानने पर आत्मा में कभी भी प्रोग न हो सकेगा ॥३१॥ (अपरिणामो प्रात्मा प्रतिबिम्बोवय स्वभाव नहीं हो सकता) सभी कारिका में संभारी आश्या में प्रतिविम्बजनन स्वभाव होता है इस.मा की समीक्षा की गई है कारिका अथ इस प्रकार है समारी आत्मा को प्रतियिम्सजनन के स्वभाव से सम्पन्न मानका भी गंमारावस्था में आरमा में पलता को प्राप्ति का परमार हो मकता है। किन्तु संगार्ग प्रात्मा शिबिम्बम समाज प्राममे पर मुश्तास्मा को उस स्वभाव से विधुर कहना सहन नहीं हो सकता। क्योंकि ससारावस्था मेमामा मे जो प्रतिबिम्बमानस्वभाव रहता है-मोक्षाव में उसको नित्ति मानने पर आत्मा की नियता का मन हो जायना और यदि FAस्या में भी उस भान का अनुयतन माना जायगा तो धारमा में भोग केएस संसार दशा में ही न होकर सब काल में होने लगेगा। जिसका परिणाम यह होगा कि आमाको मुरत न हो सकेगा इसका परियार करने के लिये यदि यह मामा माप कि प्रोक्षा में प्रारमा के मारकालीम अमूवनस्वभाव भी नित्ति हो जाती है और मुक्त स्वभावको जरपप्ति हो जाती है तो आस्मा में परिणागित्व की आपत्ति होगी। क्योंकि एक स्वभाव को छोकर स्वभावान्तर को ग्रहण करना ही परिणामी का लक्षण होता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका और हिन्धी विवेचना ] [१५३ 'घटनाशे घटायच्छिमस्याकाशस्य घटानच्छिनत्वेऽपि स्वभावाऽपरित्यागवत् सवासनयुद्धिनाशे विषयावच्छिन्नस्य चतन्यस्य विपयान नछमन्वेऽपि स्वभाषाऽपरित्याग एवेति चेत् ? अहो! अपिद्धसिद्धेन सापयत्ति भवान् पटनाशेऽप्यामाग्य पदादानिमामासाहारियो वन काशच्यवहारप्रसनन् । किन्च 'सा पुद्धिस्तमेवात्मानं विषयेणावच्छिनत्ति' इत्यत्र न किमपि नियामकं पश्यामः । तस्मात् बुद्धिरेव रागादिपरिणताऽऽत्मस्थानेमिषिच्यताम् । तस्या लयश्च रागादिलय एव, इति सव मुक्तिरिति युक्तम् ।।३१|| देवान पृथगत्म आत्मनो दोपान्तरमाह वीहा पृथकाल एषास्य न च हिंसादयः क्वचित् । तदभावेऽनिमिसम्याक बन्ध, शुभाशुभ: । ||३२|| देवात पृथक्त्व एवएकान्तती देहपृथक्त्वे, अस्य-आत्मनः स्वीक्रियमाणे, न च हिं. सादयः मित् भवेयुः । न हि नाह्मणशरीरहत्यैव चमहत्या, मृतत्रामणशरीरदाहेऽपि तत्प्रसङ्गात् । न च मरणोद्देशाभावादयमदोपः, नदुईशेनापि तस्प्रसङ्गात् । बामणात्मनस्तु नाश एव न, इति प्रामणं नतोऽपि सा न स्यात् । 'बाहाणशरीरावच्छिन्नज्ञानसनफमनासंयोग पति कहा जाप कि-'जस घट का नाश होने पर बावच्छिन्न आकाश घट से अनन्छिन तो हो जाता है किन्तु वह अपने स्वभाष का परित्याग नहीं करता। उसी प्रकार वासामायुक्त बुद्धि का माश होने पर विषयावच्छिन्न चतन्य में विषयानविद्यषर हो जाने पर भी उसके प्रभाव का परित्याग नहीं हो सकता । अतः विषयानवछिन्नस्थ हो जाने से आत्मा की मुक्तता और स्वभाव का परित्याग नशीने से उस को मुक्तता और अपरिणामिता बोनों की रक्षा हो सकता है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह कथन तो अति से असिख को सिद्ध करने का प्रयास है। आवाय यह है कि 'घताश होने पर घटाणन आकाश के स्वभाष का परित्याग नहीं होता' यह बात असिस है, क्योंकि घटनाश होने पर भी यदि आकाश का पटावठिनाव स्वभाव बना रहेगा लो घटना हो जाने पर भी 'घदाकाशः' इस व्यवहार को नापत्ति होगी। इसके आंतरिक्ष यह भो विचारणीय है कि कोई एक निश्रित बुद्धि किसी एक निश्चित आत्मा कोहा विषयोपरत कर सकती है, दूसरे को नहीं' इस बात का कोई नियामक ही नहीं है, क्योंकि सारमा परिफिन न होने से तमी नि में सभी आरमा का सामोप्य मुलभ होता है । मस: चित या होगा कि शमादिकार में परिणतद्धि को ही आत्मा के स्थान में अभिषिका किया जाय और मामा के अस्तित्व का अस्वीकार कर दिया जाय । ऐसा मानने पर यह निष्कर्ष होगा कि रागाधात्मक परिणाम हो बद्धि स्वरूप भारमा का बम्मन, और रागादिलयरूप सरागत कालय ही वरूप प्रास्मा की मुक्ति है। अत: बुद्धि से मिन्न आरमा का अस्तित्व सम प्रक्रिया के अनुसार नहीं सिद्ध किया जा सकता ||4|| बिह-प्रात्म भेव पक्ष में ब्रह्महत्या को अनुपपत्ति] ३२वी कारिका में प्रारमा को वेह से मिल मानने पर एक और अतिरिक्त पोष बसाया गया है ओकारका को प्राण्या करने से म्फुट होता है, कारिका को व्याममा इस प्रकार है Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ ० ० समुनयस्त०३-२०१२ विशेषनाशानुकूलो व्यापार पत्र बह्महत्ये ति चेत् न तादृशमनः संयोगस्य स्वत एव नश्वरत्वाद, साक्षादूषावानुपपत्तेश्व | 'ब्राह्मणशरीरावच्चिदुःखविशेषानुकूलव्यापार एव अक्षहस्ये' तिथे ? शरीराच्छरीरिणः सर्वथा भेदे तच्छेदादिना तस्य दुःखमपि कथम् ? 'परम्परासम्बन्धेन तदात्पयंत्र धादिति चेत् १ साक्षादेव कथं न नत्संबन्ध ? शरीरावयवच्छेदे एव हि शरीरात् पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिरुपपद्यते नान्यथा प्राणक्रियाया अपि तन्मात्रोपया बिनाभावात् । आत्मा को देश से एकान्ततः (पूर्णतया ) भिन्न मानने पर हिंसक को उपपत्ति नहीं हो सकली, क्योंकि ब्राह्मण के शरीर की हत्या ब्रह्महत्या नहीं होती, अन्यथा मुताह्मण के शरीर का द करने पर भी वार्ता को ब्राह्मणहत्या को आपत्ति होगी 'मरण के उसे की जानेवाली हत्या ही वास्तविक हत्या होती है, मृत बाह्मण के शरीर का वह मरण के उद्देश से नहीं होता क्योंकि बाके पहले ही ब्राह्मण मुस रहता है। अतः भूतब्रह्मण के शरीर का वह हत्यारूप नहीं हो सकता " यह कथन भी पर्याप्त नहीं है. क्योंकि ब्राह्मण के प्रथमतः मृत होने पर मौ यदि मरण के उद्देश से उस के शरीर का वाह किया जाय तब भी उस बाह्र हत्या नहीं कहा जाता किन्तु पनि शरीर की हत्या को ही त्या माना जायेगा तो उक्त शह में मी हत्या का परिहार नहीं हो सकता। ब्राह्मणाश्म के नाश को हत्या नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आमा के होने से उस का नाश होता ही नहीं है । अतः ब्राह्मणात्मा के नाश को हत्या मानने पर ब्राह्मणघाती भी हत्या से मुक्त हो जायगा । यदि यह कहा जाए कि जिस आत्ममन सयोग से ब्राह्मणशशेरावच्छेदेन ज्ञान उत्पन्न होता है। उस मात्ममन:संयोग का नाशव्यापार ही वाहत्या है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञान उत्पन्न करनेवाला मात्मसंयोग घातक व्यापार न होने पर भी स्वयं ही नष्ट हो जाता है। और उस का साक्षात् घात हो, मो नहीं सकता। 'ब्राह्मणशरीरावच्छेवेन विशेष का जनक व्यापार ही बाहर हैं'यह भी नहीं कहा जाता है, क्योंकि शरीर से प्रारमा को अत्यन्त भिन्न मानने पर शरीर के वन धावि से आत्मा में दु:ख का होना संगत नहीं हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि देश के देव श्रादि का आत्मा में परम्परासम्बन्ध होने से मात्मा में भी उस से दुःख का उबय हो सकता है-' तो यह कहने की प्रपेक्षा यह मानना अधिक उचित है कि मामा के साथ रह के वन प्रावि का साक्षात् हो सम्बन्ध होता है, इसलिए ही प्राध्मा को देश से पूर्णतया भिन्न नहीं माना जाता है । देश और प्रारमा में अध्यन्त मैव न मानकर कचित् प्रमेव मानना इसलिए भी मावश्यक है कि शरीर के किसी अवयव का छेद होने पर जब मवयव शरीर से अलग हो जाता है तब भी कुछ समय कवि श्रवयव में कम्प होता है। यह कम्प तभी हो सकता है जब शरीर के अवयव का छेत्र होने पर प्रात्मा के प्रवयव का मो देव हो और आत्मा का छिल अवयव शरीर के छत्र प्रवयव में विद्यमान हो । ऐसा न मानने पर शरीर के अवयव में आत्मा का सम्बन्ध न होने से इस में कम्प नहीं हो सकता। 'आत्मसम्बध के प्रभाव में भी प्रारण की क्रिया से भी शरीर के लि अवयव में कम्प को उत्पत्ति नहीं की जा सकती कि प्राण की क्रिया भी शरीर या शरीर के अवयव में सभी होती है जब उस में आत्मा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा०क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ ११४ 1 नन्वेवं छिभावानुप्रविष्टस्य पृथगारमत्वप्रसक्तिः स्यादिति चेत् न, तपा दनुप्रवेशात् । छिन्ने हस्तादों कम्पादितल्लिङ्गादर्शनादित्थं कन्पनाद । न चैकत्वादात्मनो विभागाभावाच्छेदाभाव इति बाध्यम्, शरीरद्वारेण तस्यापि सविभागरसात्, अन्यथा सावयवशरीरख्यापिता तस्य न स्यात् । तथा च तच्छेदनान्तरीयकरच्छेदो न स्यात् । 'छाऽच्छिमयोः कथं पश्चात् संघटन ? इनि, एकान्तेनान्छित्वात् पचनालतन्तुवपिगमात् संघटनमपि तथाभृताऽवशादविरुद्धमेष इन्त । एवं शरीरदाsssयात्मदाहः स्यादि ति स न क्षीरनीरयोरिया भित्येऽपि विलक्षणत्वेन तद्दोषाभाषामिति, अन्यत्र विस्तरः । , सस्माद्देहादात्मन एकान्तपृथक्त्ये हिंसाद्यभावः, तदभावे - हिंसाग्रभावे, अनिमिसश्वात् =निमित्तमनिधानाभावात् कथं शुभाशुभ बन्धः १ अत्र शुभाशुभश्चेति विग्रहे विश्वापतिः कर्मधारये च बाध हति शुमेन सहितोऽशुभ होते व्याख्येयम् ||३२|| 1 का सम्बन्ध हो अतः येह और प्रारमा में प्रमेव मानकर वेहावयव का होने पर प्रारम अवयव का छेद मानना और प्राम- अवध के सम्पर्क से हो दिल देहावयव में कम्प को उपपत्ति करना आवश्यक है । [शिव में पृथक् श्रात्म प्रसंग का निवारण ] 'बे और आश्मा का अमेध होने से देहावयव के छेव से आम अवयव का छेत्र होता है ऐसा माने पर के किन अवयव में आत्मा का जो भाग अनुप्रविष्ट रहेगा वह एक पृथक अक्षम हो हो जायगा यह शंा नहीं की जा सकती क्योंकि आत्मा का जो भाग निहाय के साथ बाहर आता है यह घोड़े समय बाब पूर्व शरीर में ही प्रविष्ट हो जाता है। यह कहना इसलिए की जाती है, कि वह के छत्र अवयव में कुछ समय तक कम्प होता है और बाद में रूप नहीं होता है, अतः बाद में भी छिन अवयव में अश्मभाग का सम्बन्ध बना रहता है यह मानने में कोई युक्ति नहीं है 'भारमा एक होता है अतः इस में विभाग संभव न हो सकने से उस का छेद नहीं हो सकता - यह शंका भी उचित नहीं है क्योंकि बेह और अपना में ऐक्य मानने पर देह में विभाग संभव होने के कारण बेह के द्वारा आत्मा में भी विभाग मानना विसंगत हो सकता है। यदि आश्मा को सावयवनमाना जायगा तो सावयव शरीर में व्यापक नहीं हो सकेगा और क्षेत्र के साथ अहम द्वेष की अंजिवाता भी न हो सकेगी। “छि देहावयव का तो शरीर के साथ बाव में असे संघट्टन नहीं हो पाता उसी प्रकार छि आप अवयवों का भी शरीरस्थ शेष असम के साथ संघट्टन नहीं हो सकता यह शंका भी अि नहीं होतो. क्योंकि आश्मा का जो माग रहके विषय के साथ छिन्न होता है वह पूर्ण रूप से शरीरस्य आरमा से पृथग नहीं होता । मत उम्र का संघट्टन हो सकता है किन्तु देहका जो हस्तादि अव देह से पृथग होता है वह बेह से पूर्णतया हो जाता है स ह के साथ उसका घट्ट नहीं होता। हि अंश कर अपने भी के साथ संघट्टित होना कोई अमृत बात नहीं है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [शा- वा० समुपय स्न ३-सो० ३३ तता को दोष ? इत्याह मूलम्-बन्धादने म संसारो मुनिस्पिोपपद्यते । __ यमादि तदभाचे प सर्वमेव पार्थकम् ॥३३॥ पन्धाहत-अन्धं श्निा, देय-नारकादिरूपः संसारो न । नवाऽस्य-आत्मनः मुक्तिरूपपराते, पद्धानां कर्मणा क्षय एव हि मुक्तिरिति । तदभावे चयुक्त्यभावे च, सर्वमेव किनिधितम् , यमादि यमनियमादिकं योगानुष्ठानम् अपार्थकम् विपरीतप्रयोजनम् । कः खलु फलमनमिलषन्नेव दुष्करपलेशरात्मानमवसादयेत ? ॥३३॥ पयोंकि कमलमाल के रिशन तंतु का छिन्न नाल के साथ संघटन सर्वानुमब सिख है। बिना कारण संघटन कसे हो सकता है ? इसका को मो अवसर नहीं प्राक्षको मकता क्योंकि अष्ट महाशक्तिपाली कारण होता है। अत एवं जिस दिन भर का छिन्न अशी के साथ संघटनकारी अाए रहता है उत का अंगी के साथ संघटन होने में कोई माधा नहीं हो सकती। यदि पहा वांका की शाम कि देह मोर आत्मा में ऐक्य मानमे पर शरीर का दाह होने पर प्रात्मा का भी वाह हो जायगा-सो यह ठीक मही हैं क्योंकि मोर और नौर के समान अभिन्नता होने पर भी वेह और आत्मा में FD मिता भी होती है । उस भिन्नता के कारण ही शरीरवात होने पर भी आत्मवाह नहीं होना, जो मौर को पाप हो जाने पर उसके साथ हो ओर का विनाश नहीं हो जाता। इस विषय का विस्तृत विचार अन्यत्र स्टम्य है। ___निष्कर्ष यह है कि-आत्मा को देह से अत्यन्त भिन्न मानने पर हिसावि का अमाप हो जाया और हिंसाविका अभाव होने पर शुभाशुभ बग्ध का कोई निमित न होने से शुमाशुभ धन्ध भी न हो सकेगा। कारिका में आये शुभाशुम शम्ब का 'शुभ अशुभश्च ऐसो व्युत्पति मानकर द्वन्द ममास वा साधुपन नहीं हो सकता क्योंकि उक्त युति से अन्त मानने पर विचन विभक्ति को आपति होगी। कर्मधारय समास से भो साधुग्न नहीं माना जा सकता क्योंकि शुभ और अशुभ में ऐषय नहीं होता और नमधारय के लिए पूर्व और उत्तर पब के अर्थों में अमेव आवश्यक होता है. इसलिए 'शुभेन सहित अशुभ यह व्युत्पत्ति कर मध्यमवलोपीसमास से हो उसका साथुपन समनना चाहिए। [बन्ध न होने पर मुक्त और संसारी के भेद की अनुपपत्ति ] ३वी कारिका में शुमाऽशुम अन्ध के प्रभाव में क्या घोष हो सकता है इस बात का प्रतिपाबन करतेए कहा गया है कि यदि पुमाशुभ बन्धन होगा तो मारमा संसारी न हो सकेगा, क्योंकि देव-नरफ, मत्युलोक प्रावि के साथ प्रात्मा का सम्बन्ध ही संसार कहलाता है मोर शुमागुम बन्ध ही उसका निमत माना जाता है। पत: उसके प्रभाव में मिमित का प्रभाव हो जाने से संसार का होना असंभव हो जायगा। शुभाशुभ बम्ब के प्रभाव में मात्मा का मोक्ष भी नहीं हो सकता क्योंकि कसवय अकोही मोक्ष कहा जाता है। जब प्रात्मा में कर्मबन्ध ही महीगा सो फिर उसका क्षय कसे संभव हो सकेगा? यदि 'प्रात्मा का मोक्ष महीं होता है। पहमान लिया जाय तो यम मियम प्राधिका साध्य पालन मिरर्थकोजायगायोंकिकोई भी मनुष्य बिना किसी फल को कामना फिये तुःसह मलेशों से अपने आपको पीडित करने का कष्टमय व्यापार नहीं करता ॥३३॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्या० . टी दिन्नौविवेचना ] पराभिप्रायमाईमूलम्-आत्मा न पाते नापि मुगऽसौ कदाचन । पध्यते मुच्यते चापि प्रकृतिः स्वात्मनेति चेत् ॥३॥ असी प्रत्यक्षसिद्धः आन्मा: न पध्यनेन प्राकृतिकादियधपरिणतो भवति, मवामनमलेशकशिपानां पन्धत्येन समानाताना पुरुषऽपरिणामिन्यासंभवात् । नापि कदाचन मुच्यते, सुचेन्धनविश्नोपार्थवान तम्य म सदाऽवत्यात कुन तहि पन्ध मोक्षी इत्यत आह-वध्यते प्रकृतिरेव स्वारममा स्त्रपरिणामलमणेन बन्धन, पुच्यते नापि तेन प्रकृतिरेष, नत्रय बन्धविश्लेपान । पुरुष तु तानुपचने, मृत्यगतचिव जय-पराजयो स्वामिनीति । तदुक्तम् 'तम्माद् न वष्यने नापि मुच्यते नापि मंगति कश्चित् । संसरति यज्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ मा, का, ६२]इति । (ममाधने इमि घेल ? [ प्रकृति के बन्ध और मोक्ष को प्राशंका ] ३४ वी कारिका में बन्धमोक्ष के सम्बन्ध में सत्यशास्त्र का मत प्रशित किया है जो इस प्रकार है-मारमा यथार्य रूपमें म कभी भद्ध ही होता है न कमी मुक्त होता है। बद इसलिए नहीं होता है कि प्रात्मा प्रपरिणामी होता है प्रतः वासमा. पलेश और कर्माशयरूपी बघ उसको नहीं हो सकता, क्योंकि यह सन्ध परिणामात्मक है, प्रतः प्राकृतिकमादि के रूप में सपरिणामी मारमा में उसका होना असमय है । प्रात्मा का मोक्ष पूरा लिए ना हो सकता कि ग्रह सर्ववा बन्धमहीन होता है. प्रात: उसमें बन्धननिसिप मोक्ष की सम्भावना नहीं हो सकती । इसलिये आत्मा में कार मोक्ष की अनुपपत्ति बताना प्रसङ्गत है । वस्तु स्थिति यह है कि अन्ध मोर मोल प्रकृति में होते हैं । और प्रकृति में उनकी उपपसि होने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि प्रकृति परिणामिमी होती है, पप्तः अपने परिणामों से बांधालाना उसके लिये स्वामाथि है। और जब उसमें बन्ध होता है तो निमित्त उपस्थित होने पर उसमें अन्धनितिरूप मोक्ष का होना भी मुक्ति सकत है। प्रकृति में बाघ पौर मोक्ष मानने पर प्रारमा में बन्ध-मोक्षका ध्यवहार से होगा।' इस प्रश्न का उत्सर यह है कि जैसे युद्ध में जम्पराजय वस्तुतः राजा के सेवक संनिको पाहता है किन्तु उसका प्रौपचारिक व्यवहार राजा में माना जाता है, उसी प्रकार प्रकृति में हाने वाले अन्धमोक्ष का उसके अधिष्ठाता पास्मा में प्रौपचारिक व्यवहार माना जा सकता है। जैसा कि ईश्वरकृष्ण ने 'तस्मात न बध्यते' अपनी इस कारिका में कहा है कि-प्रात्मा के कटस्थ निस्य होने के कारण कोई भी प्रास्मा न कभी संसारी होता है म कभी बह होता है और न कभी मुक्त होता है किन्तु अनेक रूपों में परिणत होने की योग्यता रखने के कारण प्रकृति में संसार, बन्ध मोर मोक्ष होते हैं पुरुष में उनका व्यवहार मात्र होता है जो पूर्णरूप से मौपचारिक-गौण । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] [ शा० १२० समुचय ०३ ३४ अशेत्तरम् - मूलम-एकान्तेनैकरूपाया नित्यापास सर्वधा । तस्याः क्रियान्तराऽभावान्धमोक्षी सुयुक्तितः ॥३५॥ एकान्तेनेकरूपाया:सर्वथैकस्वभावायाः, सर्वथा निश्यायाश्च सर्वैः प्रकारः प्रवृतिरूपकक्रियायाश्च तस्याः प्रकृतेः क्रियान्तराभावात् = निवृत्तिक्रियाया अभावात् मृयुततः सन्न्यायाद, बन्ध मोक्षौ न । प्रकृति-पुरुषान्यताख्यातिरूपो हि व्यापारः पुरुषव इति तस्यैव मोक्ष उचिता न तु प्रकृतैः, तस्याः प्रत्येकरूपत्वात् पुरुषार्थमचेतनत्वेन व्यापाराऽयोगाच्च | " किञ्च प्रकृते ती पुरुषस्य स्वरूपापय्याने तस्याः साधारणत्वादेकमुक्ती समारोहछेदः, प्रकृतिवदात्मनोऽपि सर्वगतत्वेन 'एकावच्छेदेन मुक्ति, नान्यावच्छेदेन' इत्यपि वक्तुमशक्यस्वात् । तब्बुवन्न मुक्तत्वम्, नान्यमुद्धावच्छेदेन हत्या श्रीयान स्वादनुघोष्यम् बुद्धियोगेन पुरुषस्य संसारित्वे तस्यैव मतप्रसङ्ग || ३ || + + [ नित्य एक स्वरूप प्रकृति में ऋन्ध मोक्ष प्रसंभव ] ३५ व कारिका में पूर्व कारिकार्याणित सांख्यमत का समाधान करते हुए यह कहा गया है कि प्रकृति सर्वा एकरूप और निश्य है। सदा प्रसिसोल रहना हो उसका स्वभाव है । अतः उस इसीलिये उसमें अन्ध और मोक्ष घ्यायल में निवृत्तिरूर अन्यक्रिया नहीं हो सकती । नहीं हो सकते । प्रकृतेरहं पृय में प्रकृति से पृथक हूं जैसा प्रकृति और पुरुष में मेव का ज्ञान पुरुष का ही काय है और वही मोक्ष का साधन है इसलिये पुरुष में ही मोक्ष हो सकता षिहै प्रकृति में नहीं, क्योंकि प्रवृतिशील रहना ही उसका सहज स्वभाव है। यह कहना 'प्रकृति हो पुरुष के भोग और मोक्ष दोनों प्रयोजन का सभ्याधन करने के लिये व्यापाररत होती है अतः वनों प्रयोजन प्रकृति के ही व्यापार से सम्पण होने के कारण प्रकृति के ही धर्म हो सकते हैं। प्रकृति ही उन में पुरुषप्रयोजनत्य उपपन्न करती है। ठीक नहीं हो सकता क्योंकि पृथ्वी प्रचेतन होती है अत एव पुरुष के लिये उसका व्यापाररत होना सम्भव नहीं है। व्यापाररत होने के लिये सत्य का होना प्राणायक है क्योंकि संसार में किसी भी में स्वतन्त्ररूप से सक्रियता नहीं देखी जाती । यह भी जाता है कि पुरुष का मोल न मानकर यदि प्रकृति का हो मोक्ष माना जायगा और प्रकृति के मोक्ष से ही पुरुष का अपने सहज स्वरूप में प्रवस्थान होगा तो प्रकृति के सर्वसाधारण होने के कारण एक की मुक्ति होने पर समस्त संसार का उच्छेव हो जायगा क्योंकि प्रकृति जब किसी एक आत्मा के लिये अपना व्यापार बन्ध करेगी हो उसका वह व्यापार निरोध श्रारमा मात्र के लिये हो जायगा, क्योंकि यह सम्भव नहीं है कि एक ही समय में प्रकृति निर्व्यापार मी हो और व्यापार भी हो कि सध्यापारत्व और निर्यापारस्य में विरोध है । यदि यह कहा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ere स्था०] [२] टीका-हिलीविवेचना ] दोपान्तरमप्याह मूलम् - मोक्षः प्रत्ययोगो भवतोऽस्याः स कथं भवेत् । रूपचिगमापतेस्तथा तन्त्रविरोधतः । 11 24 1 · मोनः प्रकृत्ययोगः, यत् - यस्मात् कारणात्, 'प्रकृतिवियोगो मोक्षः' इति वचनात् । असो हेतोः अस्याः प्रकृतेः सः मोत्तः, कथं भवेत् ? कुन इत्याह स्वाविगमापतेः प्रकृतिस्वरूपनिवृत्तिप्रसङ्गात् पुरुषे सु तत्र्यापार निश्चिद्वारा नियुज्येवापि न तु स्वस्मिन स्व निवृत्तिः संभवति घटे घटनित्यदर्शनात् अप्रमत्तस्याऽप्रतिषेधात् । तथा तन्त्रविरोधोऽपि प्रकृतेर्मोक्षः कथम् १ ||३३॥ " H जाय कि सव्यापारता और निर्ध्यापररता में विशेष होने पर भी मिन भित्र प्रात्मा के प्रति उन दोनों का समावेश प्रकृति में एक काल में भी हो सकता है। प्रत प्रकृति में एकपुरुषा वलेमुक्ति रोक्का होते से सुमित को प्रकृतिगत मामने पर भी संसार के उच्छेव की प्राप्ति नहीं हो सकती। सी यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रकृति जैसे सबंगल है उसी प्रकार धारना भी सर्वगत है । श्रतः यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति का एक माग एक ही प्रात्मा से सम्बद्ध होता है और श्रम्य श्रात्मा से सम्बद्ध नहीं होता । श्रौर जब ऐसा नहीं हो सकता तब यह बात कैसे युक्ति संगत हो सकती है कि प्रकृति में एक प्रशासन मुक्ति और अन्यात्मानमुक्ति का प्रभाव होता है । यदि यह कहा जाय कि- 'पुरुष के सर्वगत होने के कारण पुरुष से प्रकृति का प्रवच्देव सम्भव नहीं हो सकता किन्तु वृद्धि के मसवंगत होने के नाते बुद्धि से प्रथमदेव हो सकता है। अतः यह मानना सम्भव कि प्रकृति जब एक पवन मुक्त होती है तब प्रत्यबुद्धधयच्छेवेन भक्त भी रह सकती हैंतो यह ठीक नहीं है क्योंकि वृद्धि का क्षय होने पर ही यह मोक्ष होता है तो फिर क्षीणबुद्धि को मोल का प्रवच्छेवक कैसे कहा जा सकता है ? और मुख्य बात तो यह है कि यदि पुरुष में संसार का वास्तविक सम्बन्ध न होता किन्तु संसार का वास्तविक सम्बन्ध बुद्धि में ही होता है तो फिर बुद्धि का ही मोक्ष मानना युक्तिसङ्गल हो सकता है, क्योंकि जो वास्तव रूप में संलारी हो वास्तवरूप में वही मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। अतः पुरुष को संसारो और मुक्त कहना प्रसङ्गत है ॥ ३५॥ ( प्रकृतिवियोगात्मक मोक्ष श्रात्मा का हो संभावित है ] ३६ कारिका में मोक्ष को प्रकृतिगत मानने में एक अन्य दोष बताते हुए कहा गया है कि 'प्रकृतिवियोगो मोक्षः इस सायशास्त्रीय वचन के अनुसार प्रकृति के साथ सम्बन्ध का अभाव होता हो मोक्ष है । इसलिये वह प्रकृति में नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति में प्रकृति का सम्बन्ध मामले पर प्रकृति के स्वरूप की ही निवृत्ति हो जायगी । पुरुष में तो प्रकृति का असम्ब माना जा सकता है, क्योंकि पुरुष के साथ प्रकृति का सम्बन्ध प्रकृति के व्यापार से ही होता दे मतः प्रकृति के व्यापार को निवृलि होने पर प्रकृति के सम्बन्ध को निवृत्ति हो सकती Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pac 1 [ ० ० समुद्रचय - एक ७-२८ 'एतदेोपदर्श यनाथ मूलम् - पञ्चविंशतिस्वो यत्र तत्राश्रम रमः 1 जदी मुण्डी शिवी वापि सुरुगते नात्र संशयः | ३७ || पञ्चविंशतितत्वज्ञः = प्रकृति महादादिप चिंशनिनचरहरूपपरिज्ञाता यत्र तत्र-गृहस्थाद आश्रमे रतः तवज्ञानाभ्यास्वान् जटी जटावान, मुण्डी निशिराः शिखी वापि शिखावानपि ते प्रकृति-विकारोपधानविलयन स्वरूपावस्थितो भवति, बाह्यलिङ्गसत्राऽकारणम् । नात्र संशयः - इदमित्थमेव वचनप्रामाण्यात् ॥३७॥ 2 + निगमयति मूलम् - पुरुषस्योदिता मुक्तिरिति चिरंतनेः 1 पुरुषा । इथं न घटते यमिति सर्वमयुक्तिमत् ||३८| इति एतत्प्रकारे तन्त्रे शास्त्रे, चिरंतन:- पूर्वाचार्यैः न रुपस्य मुक्तिः, इथं उक्तप्रकारेण विचार्यमाणा, घटते इति हेती, सर्वसोक्तम् अयुक्तिमत् पृक्तिरहितम् ||३८| , है । जैसे, घटादि किसी भी वस्तु में उस वस्तु को निवृत्ति नहीं देखी जाती। क्योंकि स्थ में स्व की प्रसारित नहीं होती, छतः स्व में स्व का प्रतिषेध भी नहीं हो सकता, और प्रसवत का ही प्रतिषेध होता है अलक्स का नहीं । प्रकृति में मोक्ष मानना शास्त्रविद्ध मो है जो मान्य श्रमि कारिका में स्पष्ट है ।। ३६ ।। [ सांस्यसिद्धान्त में पुरुष का ही मोक्ष कहा गया है ] ३७ श्री कारिका में पूर्वारिका में कधित शास्त्रविध का प्रदर्शन करते हुए कहा गया है किप्रकृति-महत् श्रामि पचीस तत्त्वों का रहस्य जानेवाला मनुष्य गृहस्थादि किसी भी माश्रम में रहने पर मुक्त हो सकता है, चाहे वह जाता हो या शिर का मुण्डग कराता हो अथवा चाहे वह शिखा धारण करता हो। प्रवृति के लवज्ञान का अभ्यासद्वारा तरदर्शन हो जाने पर प्रकृति के विकारों का विलय होने से श्रात्मा अपने स्वरूप में अवस्थित हो कर मुक्त हो सकता है। मोक्ष के लिये किसी भी प्रकार का महा चिह्न अपेक्षित नहीं है। सत्वज्ञान से किसी भी स्थिति में पुरुष के मुक्त होने में कोई संशय नहीं है- यह तथ्य शास्त्रवचनों से सिद्ध है। इस स्थिति में यह स्पष्ट है कि ज्ञाता पुरुष ही मुफ्त हो सकता है। श्रवेतना प्रकृति तत्ववेत्ता नहीं हो सकती है एवं उसको सुि नहीं मानी जा सकती ||३७ ८ व कारिका में निषमताया जा रहा है शास्त्र में वायों ने पुरुष की हो मुक्ति होती है ऐसा कहा है किन्तु सांख्यमत में पुरुष की सुक्ति नहीं हो सकती। जैसा कि विचार-विमर्श द्वारा सिद्ध हो यूका है। अतः सांख्य जो कुछ भी कहा है यह सब युक्तिहीन होने के कारण प्रामाण्य है || 18, Ron GPAR-Aga unegalarım şfa 4157 1 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ] [१२१ अत्रापि यावा यथोपपन्नं तावतस्तथाचार्मामाइमूलभू-प्रापि पुरुषस्यान्ये मुक्तिमिच्छन्ति वादिनः । प्रकृति चापि सन्न्पायारकर्मप्रकृतिमेय हि ॥३६॥ अत्रापि साख्यवादे, अन्ये वादिनः जनाः, पुरुषस्य मुक्तिमिच्छन्ति प्रकृतिवियोगलक्षणाम् । प्रकृति वापि सन्न्यागातू-मसात् , हिनिश्चितम् , कर्मप्रकृतिमेषेति, बुद्ध्यादीना निमित्तस्वान् । तत्समन्ययश्च कश्चिदात्मादायोपपद्यते । सर्वथा सन्कार्यवादे तु सतः सिद्भन्धेनाप्रकरणान , साध्यार्थितये वोपादान ग्रहणात , नियतादेष श्रीरादेः सामग्र्या दध्याविदर्शनात , सिद्धे शक्त्यव्यापागन , तादात्म्ये स्वस्मिाभित्र कार्यकारण[व]भावाद् [इति] विपरीत हेतुपश्चकम् । ( सांख्यमत में तभ्यांश का निरूपण ) ३६ बी कारिका में सांस्पोक्त विषयों में निस रोति से उपपत्ति हो सकती है उस रीति से उस की उपपसि बताई गई है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है-- सायशिक्षान्त में पुरुष को मुक्ति और प्रकृति का प्रतिपावा किया गया है। इस प्रकार जैन विद्वानों ने पुरुष की मुषित व प्रकृति मान ली है और उनका कहना है कि पुरुष की प्रकृतिषियोगरूप मुक्ति होती है यह ठीक है किन्तु प्रकृति का जो स्वरूप सांस्य ने माना है वह न्यायपूर्वक विचार करने पर अन शासन में वणित कर्मप्रकृति से भिन्न नहीं सिद्ध होती । मत: कर्मप्रकृति के रूप में ही प्रकृति मान्य हो सकती है, पयोंकि यही वृद्धि प्रादि सम्पूर्ण जगत् की निमित्त कारण होती है। उसका सम्मम्म मी कथञ्चित् प्रात्मा में उपपन्न हो जाता है। [ सत्कार्यबाद विरोधी हेतुपश्चक ] सांख्यशास्त्र में सत्कार्षवाद का वर्णन किया गया है, वह भी यथापित रूप में जैन विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है क्योंकि कार्य को सर्वथा सत् मानने पर सत्कार्यषाव को लिा करने के लिये सांविधानों द्वारा प्रयोग में लाये गये पांचों शेतु विपरीत हो जाते हैं । अर्थात् (१) जसे असत का करण-जन्म नहीं हो सकता उसी प्रकार सर्वपा सेल का भी स्वतःलित होने के कारण-जन्म नहीं हो सकता। (२) एवं जो सिद्ध है उसके लिये जपावान का ग्रहण भी नहीं हो सकता है, क्योंकि सर्वधा सिद्ध में कुछ साघनीय नहीं होता और उपादाम का प्राहरण साधनीय के लिये ही होता है। (३) समी पवाओं से सभी कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती' यह हेतु मी सर्वथा सिलवस्तु के सम्बन्ध में उपपन्न नहीं होसा, क्योंकि नियत दुग्धाविसामग्रो से वधि के रूप में पूर्व प्रसिल का हो संपावन होता है । (४) शक्य द्वारा शक्य का ही करण होता है-' यह हेतु भो सर्वधा सिलवस्तु के सम्बन्ध में युक्त नहीं हो सकता क्योंकि पाक्ति का व्यापार भी सिद्ध में नहीं देखा जाता । (५) कार्य मोर कारण के तादात्म्य को मी सरकार्यवाद का समर्षक नहीं किया जा सकता, क्योंकि कार्य और कारण में सर्वथा सारारम्प मानने पर कार्यकारण माव हो नहीं हो सकता-असे यहो पातु उस का कार्य और कारण नहीं होती। मतः Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ [ शा. रा. समुच्चय स्तम्-३लोक ३ यदि कारणव्यापारान् प्रागपि पटस्तुन्तुषु सन्नेत्र, तदा किमित्युपलब्धिकारणेषु मान्सु सन्यामपि जिज्ञासायर्या नोपलभ्यते ? 'अनाविर्भावादिति चेत् । कोऽयमनाविर्भावः १ उपलब्धेरभावश्षेत् । सेव कथम् इत्याक्षप तदेवोत्तरम् , इति घटुकुट्टयां प्रभातम् । अधोग्लब्धिपोग्यस्याक्रियाकारिरूपस्य विरहोऽनाविर्भाव इति छन् ? अमत्कार्यवादः, ताशरूपस्य प्रागसनः पश्वाझावात् । 'रिजातीयगंयोगस्य तदवच्छेदेन सभिकस्य वा व्यजफस्याऽभाषाद न प्रागुपलब्धिरि नि चेत् ? सहि तस्यैव प्रागसरवेऽसत्कार्यापातः । 'प्राक सन्नेवाविभूनो व्यानक' इति चत्न , आविर्भावस्यापि सदसद्विकल्पग्रामात् । 'स्थूलरूपावच्छिनास्प प्रागसम्वाद नोपलब्धिः, धर्म-धर्मिणो मौदम्यस्थौल्य योश्चकत्वाद् नानवस्थेति चेत् ? नहिं यक्ष्मरूपानिनस्पाऽहेतुफत्वेऽतिप्रसङ्गाः । प्रकृतिमात्र हेतुकत्ये च स्थूलतादशायामपि तापमिा, अनिमोशाय इति न किश्चिदेतत् । तस्माच्छबलस्यैव वस्तुनः कश्चित् सत्यम् असत्वं चोपपत्तिमत् । तथा च शुद्धयादीनामइंत्वसामानाधिकरणयेनाऽध्यवसीयमानत्वात् तदर्मतया तष समन्वयः, कर्मप्रकतिस्तु सत्र निमित्तमात्रमिति प्रतिपत्तव्यम् ॥३९॥ इन हेतुनों से उपसि के पूर्ण कार्य को एकान्त सस्ता नहीं सिद्ध हो सकती अपितु यह सिद्ध होता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारणपर्याय के रूप में सात होता है और कार्य पर्याय के रूप में प्रसत होता है। परमपने कारणों के व्यापार के पूर्व मी सम्मों में यदि सस्मिना सत होगा तो इस प्रश्न का कोई उत्तर बिया आमा कठिन होगा कि कारण व्यापार के पूर्व भी पट की उपलब्धि के समस्त कारणों के रहने पर और पट को उपलब्ध करने की इच्छा होने पर भी पर की उपलधि क्यों नहीं होती? 'उस समय पट का प्राविर्भाव न होने से पर की उपलग्धि नहीं होतो' मह नहीं कहा जा सकता स्पोंकि पाविर्भाव न होने का अर्थ है उपलस्थि का प्रभाष । प्रात: कारणम्यापार के पहले सायं को उपलस्पि नहीं बयों होती? इस प्रश्न का उत्तर यह नहीं दिया जा सकता कि कार्य को उपलब्धि का प्रभाव है, क्योंकि जिस उपलब्धि के प्रभाव से काय को अनुपलविध मानी जायगी वह उपलग्धि क्यों नहीं होती?' यह प्रान भी उठेगा । प्रतः यह उत्तर नवी के घाट पर नदी पार करने का कर ग्रहण करने के लिये बनी हुई कुटी में ही प्रमात होने के समान होगा । श्राशय यह है कि जैसे कोई पति रात्रि के समय नदी पार कर नयी भोर कुटी के बीच ही किसी रास्ते से इस मनिप्राय से मीकले कि जिससे करी पर उसे नमामा पड़े मौर यह करवान से मुक्त हो जाय किन्तु रात के मधेरे में चलते चलते जल फूटी पर ही पहुंचने पर प्रमात हो जाय और वह कर प्रहण करने वालों के घेरे में या नाम उसी प्रकार कार्य को उत्पत्ति के पहले सर्वथा सत् मारने पर कारख व्यापार के पूर्व काकी उपास्थि क्यों नहीं होती' इस प्रश्न का उक्त उत्तर देने पर उत्तरका पूर्वप्रश्न की परिधि में ही फेंस जाता है। यदि यह कहा जाय कि-माविर्भाव न होने का अर्थ है उपलब्धि योग्य वस्तु को उपसग्धिका विषय बनाने वाले रूप का प्रभाव ।सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मप्सत्कार्यबाद सिर पर ना हो जाता है। पोंकि उपलमिष योग्य को उपलषि विषय बनाने पाले रूप का पहले Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका-हिनीविषेचना ] एवं ध न पूक्तिदोष इत्याहमूलम्-तस्गाश्यानेकरूपत्वात् परिणामिन्षयोगतः । ___आस्मनो बन्धनस्वाच्च नोक्तदोषसमुनयः ॥४०॥ तस्याश्च कर्मप्रकृतेः अनेकरूपत्वात् एकानेकशयलस्यभावन्वात् , परिणामित्वपोगतः ज्ञानावरणादिविपाकपरिणामोपपत्तेः, एकरूपत्य स्वाऽनेककार्यजनकन्वाइसंभवात् । आत्मनोऽन्योन्यानुप्रवेशेन पन्धनल्यात् स्वरूपतिरोधायकत्वात् , क्रमांऽऽत्मनोयोरपि बन्धनयध्यस्वभावपरिणामाव लथोपपतेः, नौस्तदोषम्याऽनिर्मोक्षादेः समुचोऽवकाशः ||४॥ मभाव भौर बाद में उस का भाव मानमे पर ही उक्त बात कही जा सकती है । यदि यदि यह कहा जाय कि-'पट व्यापार के पूर्व कार्य के साथ इणिय का विजातीय संयोग अथवा जिस स्थान में कार्य को उपसविध होती है तत्स्थानापोवेम इन्द्रियसन्निकार्यरूप व्याक का प्रभाव होने से कारण व्यापार के पूर्व कार्य की उपलविध नहीं होती--'तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस उत्तर में भी उक्त संयोग या सन्निकर्ष का पहले प्रमाव और बाद में माव मानने से प्रसत्कार्यवाव की प्राप्ति होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'उक्त संयोग पा सधिकर्ष पहले भी सप्त रहता है किन्तु ग्यञ्जक मानित होने पर व्यक्त होता है क्योंकि उसके अधिमान के विषय में मो सत और असत् का विकल्प उह सरता है। वि यह कहा आम कि-कार्य स्थूल रूप से प्रवजिटल होकर पहले नहीं रहता इसलिये पहले उसकी उपलस्थि नहीं होसी और धर्म मोर धर्मी में ऐक्य होने से कार्य के सूक्ष्म और स्थल रूप में ऐक्य होने से अवस्था भी नहीं होतो -तो यह कहना भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि मूक्ष्मरूपास्निकार्य को यदि महतुक माना जाषगा तो कार्य समरूप से किसी मियत देश ही में न रहकर प्रम्य वेचा में भी उसके अस्तित्व की मापत्ति प्रोगी और यदि प्रकृतिमात्र को ही उसका हेतु माना आया तो कार्य की स्पन्नत्व दशा में मो कार्य में सूक्ष्मता की मापत्ति होगो पर उस सूक्ष्मता के कारण पहले के समान कारणव्यापार के बाद भी कार्य की उपलपिमझो सकेगी और सूक्ष्मरूपायिन कार्य को महतकपा प्रकृतिमात्र हेसकामागने पर उसका कभी भी प्रभाव हो सकने से उसका बन्धन बोके कारण मोक्ष का प्रभावहो जायगा इसलिये वस्तु को अनेकान्तात्मक मानकर ही उसके सस्व और प्रसवका कधित उपपावन पुषितसंगल हो सकता है 1 निश्कर्ष यह है कि युद्धपादिका अध्यवसाय महमर्य भारमा में होता है, अत एव उसे महमर्थ का धर्म मानकर माहमर्थ में ही उसका समन्वय मानमा उचित है। कर्म प्रकृति सो उस में निर्मित मात्र है ॥३९॥ [ प्रकृतिस्थानीय कर्म से बन्ध और मोक्ष का सम्भव ] ४० कारिका में यह बताया गया है कि-साल्पमत में मास्मा में संसारिराव मोर मुक्तत्व को अनुपपत्तिरूप दोष जैन मत में महीं हो सकता है। इस बात का उपचारन करते हुए कहा गया है कि कर्मप्रकृति ममेकरूप है प्रति एक-पक स्थिर क्षणिक सत् असत् पापि रूपों से उस का स्वभाव पाबल-बबिध है। प्रतः उस में प्रामावरणावि के विपाकास्मक परिणामों की उप Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ] [शा. वा समुचय स्त-३ नोक-५२-५२ परः शकते मूलम-नामू मूर्तता पाति मूर्स नापात्पमूर्तताम् । __यता बन्धावती न्यायावा:मनोऽसंगतं तया ॥३१॥ न अमूल रूपादिसंनिवेशरहितम् , मुर्तता रूपादिमत्यरिणनिम् , याति-आश्रयति, आकाशादी तथादर्शनात् । तथा मूर्तरूपादिभव , अमूर्तनां अमूर्तपरिणतिम् न आयाप्ति परमापयादिषु तत्सद्भावाऽसिद्धः, यतः यस्मादेवं न स्वरूपविपर्ययो भवति, अता:-अस्मात् , न्यायात-नियमान् मयाकर्मप्रकृत्या आत्मनो बन्धाधसंगतम् ॥४१॥ अनोत्तरम्मूलम्-वहस्पाविसविस्या न गायेवेतपयुक्तिमत् । अन्योन्यव्याप्तिमा यमिति पन्धावि संगतम् ॥४२॥ देहे स्पर्शः काटकादिस्पर्शः उपघासहेतूपमिपातोपलमणमेनन , आदिनाऽनुग्रह-हेतूप. निपातसंप्रदा नरसंदिपा ताजनितसुखदुखानुभून्या, 'न पात्रोत्र अमूर्त मूर्तताम्' इति प्राक्तपति हो सकती है । यदि उस का कोई एक हो रूप माना जाता तब वह अनेक कार्यों को जन्नी न होतो । कर्मप्रकृति और मात्मा का एक दूसरे में अनुप्रवेश होने के कारण कर्मप्रकृति के द्वारा मात्मा का बंधन मामा के सस्वरूप का तिरोधान भी हो सकता है, क्योंकि कर्म में बन्धन स्मिक परिणाम और भात्मा में बढस्वभावात्मक परिणाम होता है। प्रतः फर्म को मारमा का धन और आत्मा को कर्म का बध्य होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, इसलिये न मत में प्रारमा में संसार और मोक्ष के प्रभाव का प्रसग महीं हो सकता ॥४॥ [ मूर्त और प्रमूर्त के अन्योन्य अपरिवर्सन को प्राशंका ] ४१ वी कारिका में कर्म और प्रात्मा के जन सम्मत पम्योन्पानुप्रवेश सम्बन्ध में सांस्यवेत्तानों की यह शंका प्रशित की गई है कि जो पवार्य प्रमूर्त होता है, जिसमें रूप-स्पर्शादि का अस्तित्व नहीं होता वह पदार्थ मूस नहीं हो सकता । रूप स्पर्श प्रादि के माधयरूप में उसका परिणाम नहीं हो सकता जैसा कि प्राकाशावि में पेशा जाता है। यह सर्वमान्य है कि प्राकाश मावि प्रमूर्त रूपस्पर्शाविहीनपदार्थ कमी भी मूतं रूपस्पादि से युक्त नहीं होता । इसी प्रकार जो पदार्थ मूर्त होता है.रूपस्पर्शावि से युक्त होता है उसका कमी प्रमूर्त परिणाम नहीं होता जैसे मृत परमाणु प्रावि में अमूर्त परिणाम कमी नहीं होता । इस प्रकार अब मह सिद्ध है कि वस्तु के स्वरूप में बंपरीत्य नहीं होता तब पात्मा के स्वरूप में भी बंपरीत्प की संभावना कैसे हो सकती है ? पतः कर्मप्रकृति से प्रात्मा का बंधनादि होना पर्सगत है ॥४१॥ [ मूर्त-प्रमूर्त परिवर्तन की उपपत्ति ] १२ वी कारिका में साक्ष्य को पूर्वोक्त बांका का उत्तर दिया गया है जो इस प्रकार है-ोह में उपचातक कटकमावि का स्पर्श होने पर पुःखकी एवं मनुपह हेतुभूत माला परवा मावि के स्पर्श से सुपाको मनुभूति होती है, जिससे प्रमूतं पारमा का मूल होमा सिश है । प्रतः यह कथन कि-'अमूतं Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा०० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ १२४ नानुप:, इति एतत् अशुक्तिमत् = अनुभवाचितम्। घटादिमंविस्तिव देहस्पशादियांत्रनिरात्मनोऽतन्मयन्येऽप्युपपत्स्यत' इत्यत आह- इयं च - देहम्पदिनेवितिश्व अन्योन्यष्यामिजा गुड शुण्ठीच्ययोरिव शरीराऽऽत्मनोजव्यन्तरायशिप्रभवा प्रतिप्रतिकं तदनुभवाद एकामावेऽप्यभावाच्च । युक्तं चैतत् अविभागदर्शनात् नवत्यादेरेक निष्टत्वेऽतिप्रसङ्गात् पा सज्यवृत्तित्वे च परस्यापसिद्धान्तः, व्यासज्यवृत्तिज्ञान्यनभ्युपगमात् एफाश्रयत्वानुभवषिरोधात् शरीराऽप्रत्यक्षेण्यन्धकारे नरत्वप्रतीत्यनुपपतेव तदिदमाह भगवान सम्म तकारः*apavargamot at a é ufo ikeamage, 1 } 1 7 . जह बुद्ध-पाणियाणं ज्ञावंत विसेसपज्जाया ।। [सम्मति० गाथा ४७ ] ॥ अन्योन्यानुगतयोरात्म-कर्मणोदुग्ध पानीययोग्य यावन्तो विशेषपयार्यस्तावत्सु 'हर्द # वा तद् वा इति विभजनमयुक्तम् प्रमाणाभावात् । एवं तर्हि ज्ञानादयोऽपि देहे स्युः देहरूपाकभी मूर्त नहीं होता' अनुभव से वापिस होने के कारण प्रयुक्त है । यदि यह कहा जायजामा में घटादिरूपता न होने पर भी उसको घटादि का अनुभव होता है, उसी प्रहार देह स्पर्शाति न होने पर भी स्पर्शादि का अनुभव आत्मा को हो सकता है। श्रतः मात्मा को देहस्परिमय मानकर अमूर्त्त को मूर्त के रूप में परिणत होने की सिद्धि नहीं की जा सकती तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा को पद की अनुभूति होती है यह बेह और मामा को एक दूसरे में व्याप्ति होने से ही होती है जैसे गुड और के इन दोनों द्रव्यों का परस्पर में मिश्रण हो जाने पर ही एक में दूसरे के धर्म की अनुभूति होती है उसी प्रकार देह और श्रात्मा का परस्पर में मिश्रण हो जाने पर हो एक में दूसरे के धर्म की अनुभूति होती है, वह और आत्मा का परस्पर में मिश्रण अर्थात धारमा में देश रूपता और देह में प्रारमरूपता होने पर ही प्रामा में देहस्पचादि की अनुभूति हो सकती है। [ सांख्यमत में देहात्म विभाग को अनुपपत्ति ] यह इसलिये मानना आवश्यक है कि दोनों में दोनों के धर्मो को अनुभूति होती है और एक के प्रभाव में दूसरे को अनुभूति नहीं होती और यही युक्तिसंगत भी है क्योंकि देह और श्रात्मा में विभाग देखा जाता है । सरियल और मात्मा का यह अविभाग नहीं उपपत्र हो सकता है क्योंकि नरश्व आदि धर्मो को एकमात्रगत मानने पर दूसरे में उसका प्रतुभव मानने पर प्रसिद्ध होगा और उभयलि अर्थात् देह-प्रारम उभयगत मानने पर अपसिद्धान्त होगा, क्योंकि साश्य मत में व्यासवृति जाति नहीं मानी जाती है। नरत्व और आत्मस्व में 'अहं नर:' इस प्रकार एकाधिकरणता का अनुभव होता है सांख्यमत में इसकी उपपत्ति नहीं हो सकत। एवं प्रभ्धकार में शरीर का प्रत्यक्ष न होने पर भी नरव को प्रतीत होती है, सायमत में इसकी भी उपपत्ति नहीं हो सकती । जनमत में इन त्रुटियों की संभावना नहीं होती क्योंकि देह और श्रात्मा का प्रयोग्य मिश्रा होने के कारण पश्मा में देह धर्म मोर येह में परमधर्म को अनुति होने में कोई बाधा नहीं होती । भगवान् सन्मतिकार ने इस बात को 'प्रयोगा' इस गाया से स्पष्ट किया है। गाया का अर्थ इस प्रकार है १] अन्योन्यनुनयोर बात बेसि विभाजनमयुक्तमपानीययोर्यायो विशेषपर्यायाः । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [शास्त्रबार्तासमुच्चय-स०३ सो०४२ दयोऽप्यात्मनीति चेत् ? इटापत्तिः । तदाह 'रूवारपज्जवा जे देहे जीववियम्मि सुद्धम्मि । ते श्रवणोणाणुगया पण्णाणिज्जा भवाम्म ॥१॥ इति । सन्मति ४८] 'गोरो जानामि' इत्यादिधियस्तथैवोपपता, रूपादि-बानादीनामन्योऽन्यानुप्रवेशेन कञ्चिदकत्या-ऽनेकत्व-मूर्तत्वादिसमावेशात् । अत एव दण्डात्मादीनामेकन्य अनेकत्वं च स्थानाको व्यवस्थितम् । तदाह___ " एवं एगे आया, एगे दंडे अहो किरिया प । कम्पप विस सेण य निबिहजोगसिद्धी वि अविरुदा ॥ १ ॥ [मन्मति: ४६] नन्येवमन्सहर्ष-विपादाबनेकविचत्मिकमेकं चनन्यम् , बहियाल कुमार-यौवनायनेका (नन्योन्यानुगत में विभाग की प्रयुक्तता ) 'जो इस्म परस्पर में अनुगस ते है अर्थात् किनमें परस्पा साहात्म्य होता है उनमें यह और यह एवं घे भर्म इसके और धर्म उसके इस प्रकार का विभाग युक्तिसंगत नहीं होता। मेसे दूध और पानी में जितनेही विशेष पर्याय होते हैं उन्हें दुग्ध पर्याय और जलपर्याय इन वो वर्ग में विभक्त नहीं किया जाता है उसी प्रकार प्रारमा और कम पन्योन्यानुगत होते है अतः उनके पर्यायों को भी बेह पर्याय और मरमपर्याय के रूप में विभक्त नहीं किया जा सकता है, पयोंकि इस प्रकार के विभाजन में कोई प्रमाण नहीं होता।' इस प्रसंग में घाट आपत्ति उठाना कि-'ऐसा मानने पर ज्ञान प्रावि वेह के धर्म हो जायेंगे और स्पाधि भारमा के धर्म हो जायेंगे-'यह ठीक नहीं है. क्योंकि जब मत में पह बात माश्य ही है बसा कि 'पाक्षिपर्यना 'प्रावि गाया में स्पष्ट कहा गया है कि-देह के रूप माधि पर्याय एवं जीवनध्य के पर्याय वेज प्रौर जीवय्य के अन्योन्य प्रनुगत होने से जीवको अवस्थ दशा में एक दूसरे के धर्म रूप में मान्य है।' ऐसा मामले पर 'गोरोऽहं जामामिलइप में देह के धर्म गौरहप और पातमा के धर्म ज्ञानका एक माश्रय में अनुभव हो सकता है। और यति धेह और प्रात्माका अन्योन्यानुवेध-परस्पर तावात्म्म न माना जायगा तो इस अनुभव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। वेह और मात्मा में प्रन्योग्यामप्रवेश होमे से रूप प्राधि घेह धर्म मौरमान मादि मारमों में भी भन्मोन्यानुप्रवेश तावातम्यरूप होता है और उनके धर्म का अनुप्रवेश सामामाधिकरण्य यानी एकाश्रयनिष्ठत्व रूप होता है। प्रन्योम्मानुप्रवेश के कारण ही एक वस्तु में एकस्व प्रकल्प तया मूर्तस्व अमूर्तस्य मादि धमों का कथित समाबेश होता है । इसलिए टाणागसूत्र में भी प्रात्मा और दण्ड आदि में एकत्व और प्रारकाव का समावेश बसाया गया है। जैसा कि "एवं एगे माया." इस सम्मति सत्र से भी स्पष्ट होता है। सूत्र का प्रर्ष पह है कि मास्मा स्वकपष्टि से एक होता है और वह तय कियामो सामान्य कोटि से एक होता, किन्तु करण वि से तीन प्रकार के योग की सिद्धि में कोई विरोध नहीं होता इसलिये एक ही मारमा पार पड मावि त्रितयात्मक हो जाता है। समाविण्येवा में दो जीपदय शुद्ध । ते योग्यानुगताः प्रजापनीमा अवस्थे । २ एखमेवारमा एक इश्व भात कियाऽपि । रणविरोषेण विविध योगसिसिपिरुमा। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था कीका-हिन्दीविवेचना ] [१२ वस्थापकमेकंशरारमध्यक्षमा संवेधत इत्यस्य विरोधः, पाया-ऽभ्यन्तरविभागामावारिति ये १ सत्यम् , आन्मभिवन्त्राभ्यां य द् - 'ण य बाहिरमो मायो अम्भनरओ अ अस्थि ममयाम्म | णोई दियं पुण पटुच्च होइ अन्तरधिमेमो ॥ [सन्मति ५०] सर्वम्येच मृर्माऽ मृतादिरूपतयाऽनेकान्तात्मकल्यान् 'अयं बाहा, अयं चाभ्यन्नरः' इति समये न बास्तयो विभागः । अभ्यन्तर इति उपपदंशस्तु नोइन्द्रियं मनः प्रतीत्य, नस्याऽऽतम परिणतिरूपस्य पराऽप्रत्यक्षात्यान , शागर-वापोरिष । न च सददेव तम्य प्रत्यक्षस्वाचिः, इन्द्रियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकल्याऽयोगान् । एवं ष स्याद्वादोक्तिरेव पृचता न तु परस्परनिरपेक्षनपोक्तिबिना श्रोतधीपरिकर्मणानिमितम् , वस्तुनोऽनेकान्सानमफत्वाच । नदाइ { विवत्तों के बाह्याभ्यन्तरविभाग अनुपपत्ति की आशंका ) मेह और आत्मा में अन्योन्यानुवैध मानने पर यह शहका हो सकती है in..'हवं विषावाद अनेक आभ्यस्तर विषों से अभिन्न एक तम्य है, और पास्य-कोपार्य, पौवनावि अनेकवियावस्थानों से अभिन्न एक वारीर है यह जो प्रत्यक्ष अनुभव होता है वह नहीं हो सकेगा । क्योंकि वह और आरमा एवं खनके विबर्स और अवस्थाओं में अन्योन्यामुघ सामने पप गाय और आम्मन्तर का विभाग नहीं हो सकता। किन्तु यह शंका केवल आपाततः उचित हो सकती है, क्योंकि आत्मा के भेवाऽमेव के कारण तम्यस्वरूप आत्मा के उक्त विर्स और बेहको जनतावस्थाओं में माह्य और आम्मसर के अनुभाग न होने पर भी ममोनास्प और ममोग्राहस्वाभाष रूप से बाहाम्यम्तर का व्यवहार हो सकता है। कहने का आशय यह है कि देश और आस्मा के अन्योन्यानुसंध होने से भारमय भी वेगगत होने से बाझोर देहधर्म आत्मगत होने से आम्यन्तर हो जाते हैं। अत: बह और आत्मधर्म को बाघ और माम्परतररूप में विभवत नहीं किया जा सकता । किन्तु हर्ष-विषादावि चतन्य के वियतों का मानसशान होता है मोर देह की पाल कौमारावि अवस्यानों का मानसशान नहीं होता। प्रत एवं मानसस्वकार से उनका विमाग हो सकता है। और उस विभाग के माधार पर चेतन्य मोर वेह के उक्त प्रत्यक्षानुभव को उपपति भी हो सकती है। जैसा कि-' प बाहिरमोम गाथा में स्पष्ट किया गया है। गाथा का अर्थ यह है कि जन प्रवचन में देह मोर मारमा के मावों का बाह्य पौर पाम्यता इस प्रकार मेव नहीं होता है किन्तु नोहन्द्रिम-ममसे होने वाली प्रतीति और अमतीति के माधार पर उनमें मी माझ पोर माम्यन्तर का व्यवहार होता है। जैन मत में सभी वस्तु मूर्स भौर अमूर्त प्रावि रूपले अनेकान्त स्वरूप है। यहवाम भाव, यामाम्यस्तरमाष-यह मावों का दिमाग केवल प्रवचन का विषय है, वास्सबरहीं है।वंषिषावावि मारमयमा म है वह उनको ममोपाह्यता के कारण होता है। वे धर्म प्रास्मा के परिणाम रूप होने से शारीर और पाणीकोतरह दूसरेको प्रत्यक्ष नहीं होते। वसरों को उनका प्रत्यक्ष न होनाही उन्हें बाराध्यवहार से वंचित कर प्राभ्यन्तर म्पबहार का पात्र बना देता है । पारीर और शमी के समान हर्ष-विषाबाद में परप्रत्यक्षरण की प्रापत्ति नहीं की जा सकती है-पयोंकि परप्रत्यक्ष अमिय से होता है १ न पाको भाषोऽभ्यन्तरवास्ति समये । नोत्रियं पुनः प्रतीरम भवत्पभ्यतविशेषः ।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [ शा० पा समुच्चय स्व० ३.खक ४२ 'दट्टियस्स आया बंधा फम्म फलं च वेएछ । विझ्यस्स भावमेतं ग कुणइ ण य फोर वेपद ॥ मं०.५१] दवालियरस नो पेव कुणद सो चेष व्या नियमा। अपणो करे अण्णो परिभुजा पन्जवणयस्म ॥ [में-५२] जे पयणिज्जविअप्पा संजुर्जतमु होति पासु । सा ससमयपपणप्रणा विस्थायरामायणा अण्णा ॥ [मं०-४३] परिसज्जायं तु पहुच जाणो पणविज्ज अण्णवरं । परिफम्मणानिमिसं दाएहा सो बिसेपि ।। [सं०-४] तस्माद् देहात्मनोऽन्योन्यध्यातिजैव देहस्पादिसवित्तिरिति सिद्धस् । इप्ति हेतोः, वन्वादि संगतं-पुक्तम् कार्यान्यथानुपपत्तेः ॥४२।। •--- और इन्नियजन्यज्ञान प्रशेषपचार्य का प्राहक नहीं होता है। इस प्रकार स्याद्वाप का मत ही पुक्ति संगत है। जो कथन परस्पर निरपेक्ष जयसूलक होता है वह श्रोता की बुद्धि को अयुत्पत्याधान रुप निमित के बिना प्राहा नहीं हो सकता । क्योंकि बस्तु अनेकान्तिा होती है और नय एकान्ताष्टिरूप होता है अतः वा मन्यनय से निरपेक्ष होकर वस्तु के मयार्थरचस्प को प्रस्तुत नहीं कर सकता। अंसा कि 'दयट्टिम्स प्रादि कारिकामों में स्पष्ट है। कारिकाओं का प्रथं इस प्रकार है-व्रज्यास्तिक मय की इष्टि ले प्रारम् । कर्मवश्व को उत्पन्न करता है और उसके फल का अनुभव भी करता है किन्तु पर्यायास्तिक नय की दृष्टि से प्रास्मा माघमात्र होता है वह अल्पकालिक होने से न चिरस्थायी कर्मबन्ध को उत्पन्न करता है म वही उसके फल का अनुभव करता है। प्रत्यास्तिक नय की इस्टि से जो कर्म करता है नियम से वही फल का मोक्ता होता है, किन्तु पर्यायास्तिक नयको दृष्टि से कम करने वाला मामा वसर होता है और फल का मोक्ता पूसरा होता है क्योंकि कर्मकाल का प्राविमपर्माम भोगकाल में नहीं रहता इसोलिये पर्यायमेव से प्रास्म मेव हो जाता है। स्वास्तिक और पर्यायास्तिक दोनों का प्राश्रय लेकर जो विकल्पवचन कहे जाते हैं उससे प्रपने सम्यक प्रवचन का परिज्ञापन होता है. तीर्थकर का प्रबमान नहीं होता। उपवेष्टा को उपदेश्य पुरुष के प्रति उपसुपत मपों में किसी मो मम के माधार पर वस्तु के स्वरूप का ज्ञापन करता १ ग्यास्तिकस्याऽस्मा वनति कर्म फलं च पयसि । द्वितीयम्य मापमार्च, न कीविन कोऽपि चेदयति ॥५१ अध्यास्तिकस्य य एन करोति एव वेदयति नियमात् । अन्य करोत्ययः परिभुक्ते पवनयम्य ॥१५॥ ये अपनीयधिकल्पाः संयुज्यमानयोभंवरयेषयोः । सायसमयप्रकापना तीर्थयराबासमाSPAL IN पुरुषमा सु प्राप्तीत्य नायकः महापदायतरन् । परिसणानिमितं पशयेत् स पियोधमपि ॥५४॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० ८० टीका-हिम्पीविवेचना ] [ १२५ न च सहचारमाप्रदर्शनादुक्तनियमोऽपीत्याइमृलम्-मूर्तयाऽप्यारमनो योगो घटेन नमसो यथा । उपचाताविमावरच ज्ञानस्येष सरादिना ॥४३॥ मूतपापि-प्रकृल्या आन्मनो गो:: हायति' इति । । .. १९६.६ . न नमः । 'घटेन संयुक्तमपि नमो न घटस्यभायन यातीति न दोष' इति चेम् । स संयोगः कि घटस्वभावः, नमःस्न भावः, उभयस्वभावः, अनुभयस्य भायो पा ? आधयोरुमयनिरूप्य. खानुपपतिः । तृतीये च बदतो व्यापासा, घटस्यमावमयोगाचया नभसो घटस्वभावत्वाद । चतुर्थे त्वनुपाख्यत्वापतिः, इति न किश्चिदेतत् । चाहिये किन्तु उत्पावनीय ज्ञान में सम्यक्त्व का संपावन करने के लिये उसे विशेष-अन्यनम सम्मत पात का भी उपवेषण करना चाहिये ।। इस प्रकार यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि प्रारमा को देह स्पावि की पनु मूति बेह और पात्मा की अन्योन्यम्याप्ति-एक में दूसरे के प्रमुप्रवेश से ही होती है। अतः कार्य को प्रका. रान्तर से उपपत्ति न होने के कारण जनशास्त्रोक्त प्रकार से ही प्रात्मा में बन्ध मोर मोक्ष का होना मुक्तिसंगत है। (मृतं और अमर्त के सम्बन्ध की उपपति) । ४३ वी कारिका में यह बताया गया है कि-दो वस्तुषों के केवल सहचारमात्र से उनके धर्मों की एक दूसरे में अनुभूति का निपम नहीं बन सकता। किन्तु उसके लिये वस्तुमों का प्रन्योन्यामकत्व पाया है कारिका का अर्थ इस प्रकार है-प्रभूर्त आस्मा का मो मूर्त प्रकृति के साथ सम्मन्ध हो सकता है। जैसे प्रमूर्त प्रकाश का घटके साथ । यदि कहा आप कि-'माकाश घट से संयुक्त होकर भी घटस्वमाय महीं होता इसलिये उनका सम्बन्ध तो बुद्धिगम्य है किन्तु प्रकृति और प्रात्मा का सम्बन्ध तो प्राप ऐसा मानते हैं जिस से प्रारमा प्रकृतिस्वमाय बन जाता है। अतः प्रकृति और प्रात्मा के बीच अभिमत सम्बन्ध के मनुफूल यह दृष्टान्त नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इष्टात और बार्दान्तिक में पुतिया साम्म नहीं अपेक्षित होता । मसः प्रकृति सौर प्रास्मा में घदीर प्रकाश का पूर्ण साम्यन होने पर भी 'मर्स के साथ प्रभूतं का सम्बन्ध संभव है इस बात को अवगत कराने के लिये तो यह दृष्टान्त हो हो सकता है। पट माकाश के संयोग से जो प्राकाश को घटस्वभावसा या घंट को माफाशस्वभावता नहीं होती उसका कारण यह है कि उन दोनों का संयोग इसके लिये समर्म महीं है, जैसे घटाकाश संयोग के सम्बन्ध में यह प्रान उठता है कि वह संयोग घटस्वभाव है या माकाशस्वभाव है प्रसवा घट-माकामा उभय स्वभाव हैं किपा अंनुभम स्वभाव है? पहले दो पक्ष माग्य नहीं हो सकते क्योंकि उन पक्षों में वह संपोग घट-पाकामा उभय से निकाय न हो सकेगा, क्योंकि घटस्वभाव प्राकाश और माकायस्वभाव घर से निरूपम नहीं होता। और तृतीय पक्ष तो कथन मात्र से ही व्याहत हो जाता है. क्योंकि यदि यह संयोग उभय स्वभाव होगा तो प्रकाश में घटस्वभावात्मक संयोग रहने से प्रापाश घट स्वभाव हो जायगा फिर पटाकावा के प्रभिन्न हो जाने से उमय का मस्तित्व ही नहीं सिद्ध होगा। प्रतः संयोग को उमय स्वभाव कहना उपपन्न न हो Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. ] [शा वा समुपय-स्स० ३ श्लो० ४३ 'अस्तु तहि नमसो घटादिनेव कर्मणा जीवस्य संवन्धः, ससोऽनुग्रहोपघानौ तु तम्य नमस्वदेव न' इत्पत आह-लपघातादिभाषश्व उपघाताऽनुग्रह भाषश्च मूर्तीया अपि कर्मप्रकृतेः सकाशात् सुरादिना=सुरा-चाकी-घृतादिना ज्ञानस्येष युक्तः, अझाङ्गिभावलक्षणसंबन्धप्रयोज्यत्वात् तस्येति भावः । ननु 'सर्वमिदमात्मनोऽवि भुन्चे संभवति, सदेय पाद्यापि न सिदिमिति चेत् । न मारीरनियतपरिमाणवस्त्रेनचाऽत्मनोऽनुभवानु , मूर्त्तन्यमंशयस्य शानप्रामाण्यवंशयादिनोपपत्तेः । न च द्रव्यप्रत्यारवाचछिन्ने हेतोमवस्याऽऽत्मनि सिद्धी तस्यावषयमाघजन्यवन नित्यत्वे 'आत्मा विभुः, नित्यमहचाव , कायन्इत्यनुमानात प्रम्य टिममेट यूमिति वाध्यम् ; नित्यमहत्वेऽप्यपष्टपरिमाणवश्वे बाघकाभावेनाऽप्रयोजकत्याच | 'अपकृष्टन्धे नस्य सकेगा । धौया पक्ष भी प्राशन हो सकेगा, क्योंकि घट और पाकामा का संयोग मवि घरस्वभाव एवं प्रकाश स्वभावनगा तो उस में किसी प्रश्य स्वभाव होने की कल्पना मी शक्य न होने के कारण वह असम हो जायगा । इस प्रसङ्ग में पाक हो सकती है कि-जैसे घटाव के साथ प्रकाश का सम्बन्ध होने पर भी घटादि के अनुग्रह सौर उपघात का आकार में कोई प्रभाव नहीं होता उसी प्रकार कर्म कृति से जोय का सम्बन्ध होने पर भी उससे मास्मा में कोई अनुग्रह एवं उपयात नहीं होना चाहिये तो पाह ठीक नहीं है पयोंकि कर्मप्रकृति के मूर्त होने पर भी उस में उपधात और अनुग्रह होता है इसलिये उसके सम्बन्ध से अरस्मा में उपधात पौर अनुग्रह हो सकता है । इसको समझने के लिये मद्यावि का इण्टाल उपादेय है । प्राशय यह है कि जैसे मनुष्य में मच-एवं शाही घृत प्राधि के सम्पर्क से उस का शान मद्य और घृत के वोष मौर गुणों से विकृत पौर संस्कृति होता है उस प्रकार कर्मप्रकृति के सम्बन्ध से प्रास्मा भी उस के उपघात घऔर अनुग्रह से उपाहत मौर अनुगृहीत हो सकता है । यह उपधात और अनुग्रह प्रकृति और प्रारमा में मनाङ्गीमावरूप सम्बन्ध के मासे होता है और मूल प्रकृति उस का मन होती है । घटावि और पाकाश में प्रङ्गाली भान सम्बन्ध नहीं होता । अतः पदाबि के उपधात मोर अनुग्रह से भाकावा में उपघात और अनुग्रह नहीं होता। ऐसा मानने पर माझा हो सकती है कि-'यह बात तमी मुक्तिसङ्गत हो सकती है जब प्रात्मा को मषिभ माना जाप, किन्तु प्रविभुरव उस में सिद्ध नहीं होता अत: मूल प्रकृति और श्रात्मा के बीच शिक्षित समय नहीं हो सकता' तो यह टीक नहीं है, क्योंकि प्रास्मा में शरीर के समामपरिमाणप्ता का अनुभव होता है। इसलिये पारमा का प्रविभुव मनुभवसिद्ध है। इस अनुभव के होने पर भी जो कभी किसी को धारमा के मुस्वि विषम में सन्चेह होता है वह इस अनुभव में प्रामाण्य का सन्देह होने के कारण होता है । वस्तुत: उप्स में कोई मूर्तरव का संशयापावक धर्म महीं है। [प्रात्मविभुत्व को शंका का परिहार] । घडा हो सकती है कि-'ज्य प्रत्यक्ष के प्रति महत्व कारण होता है प्रतः प्रात्मा के प्रत्यक्ष के अनुरोध से उस में भी महत्व मानना होगा। और वह महत्व अवयवगत महत्वावि से उत्पन्न न होने के कारण निस्प होगा। प्रस: नित्य महस्व से भारमा में विश्व का इस प्रकार मनुमान हो जायगर Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका-हि-वीविवेचना ] जन्यत्तापसिर्वाधिका, गगनमहसाधिकापकर्षस्य बहत्वजन्यतावच्छेदकत्वादिति चेत् । न, परमाणुपरिमाण साधारणतयाऽस्य कार्यताऽनयाछेदकत्वान , अटिमहच्यावधिकोकण सम सफिर्यात् ताजात्यसिद्भश्र, अस्तुतः प्रदीपप्रभाया वात्मना संकोष विकानाम्यो परिमाणभेदस्याऽधूपगमेन सवा नित्यमहत्याऽसिद्वश्च । ___चात्मनो विभुत्वे स्षम्मिन क्रियादिप्रनीतिः, तीर्थगमनादेष्टहेतुत्यश्रवणादिक घोफ्पादनीयम् १ । कथं बात्मनः सर्वगतत्यान् स्वशरीगदन्यत्रापि न ज्ञानाद्युत्पादः १ 'शरीगकि-प्रारमा विभु है क्योंकि वह नित्य महत्व का प्राश्रय है । जो नित्य महत्त्व का प्राश्रय है वह विभु होता है जैसे माकरण । 'प्रतप्रात्मा को विभु मानना हो युक्त है। और इसी कारण प्रात्मा में शरीर के समानपरिमाणता का प्रमष भ्रम है। भ्रम से विषय की सिद्धि मशी होती प्रतः प्रारमा का मूर्तस्व प्रसंभव है- किन्तु यह पाया ठीक नहीं है क्योंकि प्रात्मा मे नित्य महत्व होने पर भी उस में अपकृष्ट परिमाण मानने में कोई बाधा न होने से नित्म महस्व से विभुत्व का अनुमान प्रयोजक है। 'मात्मा के परिमाण को अपकृष्ट मामले पर उसे अन्य मानना होगा, क्योकि गगन के महत्व से अपकृष्ट परिमाण मवयवात बहुत्य से अन्य होते हैं यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्राकास के महत्त्व से प्रपाल लानु के परिवार में समय लग : मांधार है। और प्राकाशगत महस्व से घटाविगत महत्त्व में जो अपकर्ष होता है उसे जाप्तिस्यरूप न मान सकने के कारण वह प्रकाशयत महस्व से अपकृष्ट समो परिमाणों में प्रवयव बहत्त्व की जन्मताका प्रवच्छेवक नहीं हो सकता। उक्त अपकर्ष को जातिस्वरूप इसलिये भी नहीं माना जा सकता कि-उस में श्याकगत महत्वायधिक उत्कर्ष के साथ सांकर्य हो जाता है। जैसे त्र्यणुकगत महत्वावकि पर्ष माकाश परिमाण में है किन्तु उस में प्राकाशगत महत्वाधिक प्रपरषं नहीं है । एवं यह अपकर्ष परमाणू और तुघणुको परिमाण में है किन्तु उस में पशुक महत्वावधिक उत्कर्ष नहीं है मौर घटावि में ग्यणुक महत्त्वावधिक उत्कर्ष मोर प्राकारामास्वायधिक अपकर्ष दोनों विद्यमाम है। प्रतः सकिर्य होने के कारण उक्त अपकर्ष के जातिझप न हो सकने से उसे प्रवयवात महत्व की जन्यता का प्रवन्धक मानना असंभव है। और सच बात तो यह है कि प्रास्मा का महत्व एकान्सरूप से निस्य हो भी नहीं सकना क्योंकि पारमा प्रदीप की प्रभा के समान संकोच-विकासशील है पप्त: उसका परिणाम परिवत्तित होता रहता है । और परिवत्तित होनेवाली वस्तु एकान्तनित्य हो नहीं सकती। प्राश्मा को विभु मामने में माधक भी है और वह है मारमा में क्रियावि को प्रताति, पो प्रात्मा को विभू मानने पर महाँ उपपन्न हो सकती। इस के मतिरिक्त तीर्थगमनादि में शास्त्र जो पुण्यजनकता का प्रतिपादन करता है उस को मो उपपसि महीं हो सकती, क्योंकि विभु का तीर्थगरम कसेही सकता है? मात्मा अपने शरीर को छोडकर प्रम्य प्रव्य में ज्ञानाधिमान नहीं होता। किन्तु यदि उसे सवंगत माना जायगा तो यह बात न बन सकेगी क्योंकि बले अपने शरीर के साथ उसका सम्बन्ध होता है उसी प्रकार मन्य व्यों के साथ भी उसका सम्बन्ध होता है। यदि यह कहा जाय किमानादि के प्रति पारोर कारण होता है प्रतः शरीर भिन्न तथ्य में पाएमा सानाधिमान नहीं होता-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भी प्रात्मा को मय शरीर में Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [ शास्त्रयातासमुचय स्त० ३-रलो० ४४ मावादिति चेत् । न, अन्यशरीरस्य सवात | 'स्वशरीरामावादिति' 'येत् ? न, स्वसंयुक्तस्वेन तस्याऽपि स्वीयत्वात् । 'स्वादृष्टीपगृहीतशरीराभावादि' ति चेत् ? तर्हि उपजीयत्वात् अदृष्टस्यैव तत्वानादिहेतुन्वान तस्य शरीरक्याफ्तियाऽऽत्मनस्तथास्वसिद्धिः । तदुक्तम् "यत्रैन यो दृष्टगुणः स तत्र" इत्यादि । अपि च, आत्मविभुत्वषादे मानादीनामव्याप्यवृतित्वादिकल्पने गौरवमिति न क्रिश्चिदेनन् । अधिक न्यायालोकादौ ॥१३॥ उपरहिरबाह एवं प्रकृतिवादोऽपि चिज्ञगः सत्य एव हि । कपिलाक्सत्यतश्चेष दिल्यो हि स महानिः ॥४४॥ नानाविमान होने की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता । यघि यह कहा जाय कि-'तत्तद् मास्मा के शानावि में सप्तव प्रात्मा का ही पारीर कारण है- सो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पात्मा के विभु होने से सभी रोरों में उसका सम्बन्ध होने के कारण शरीर का सत्ता प्रात्मा के स्वशरोर और पर पारीर के रूप में विभाग नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'स्वपारीर का अर्थ है स्व के पष्ट से प्राप्त गरीर और परशरोर का अर्थ है स्व के पटष्ट से अप्राप्त पारीर, इस रूप में विभु मारमा का भी पारीरषिमाग हो सकता है तो यह भी ठीक नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर मष्ट शरीर के विभाग का उपभोव्य होने के कारण तस प्रारमा के प्रष्ट को हो ससन प्रारमा के गानादि का कारण मानमा उचित होगा । पौर उस अदष्ट एक शारीर मात्र में ही व्यास्त होने के कारण प्रास्मा का भी एक शरीर मात्र में ही पाप्त होना उचित होगा। प्रतः पारमा शरीर का समपरिमाण हो सकता है, विभु माही हो सकता । पू.हेमचन्द्राचार्य महाराज ने अपनी अन्ययोगव्यवच्छेद वात्रशिका स्तुसिमें "पत्रक यो इकटगुणः' इस कारिका से इस बात का समर्थन करते हुए कहा है कि-"जितने देश में जिसका गुण देखा जाता है उसने देश में ही उस का अस्तित्व होता है। इससे अतिरिक्त वेश में उस का अस्तित्व मानने में कोई युक्ति नहीं होती। इसके अतिरिक्त प्रात्मा के विभुत्व पक्ष में यह मो बोष है कि यदि प्रात्मा विभु होगा तो उसके शानादि में पम्पाप्मवृत्तिस्य की कल्पना करनी होगी। क्योंकि विभु प्रात्मा के पूरे भाग में जानावि को उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। पौर यदि मानी जायगी तो प्रात्मा से सम्बस समस्त ब्रज्यों में उसके फलाडफल की प्रापत्ति होगी । प्रतः प्रास्मा मे विभुत्व के सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाता है यह तर मगण्य है। इस विषय का विस्तृत विचार न्यायालोक भादि प्रमों में एष्टव्य है।॥४३॥ (प्रकृतिवाव की सापेक्ष सत्यता का अनुमोवन) प्रस्तुत विचार का उपसंहार करते हए ४४ को कारिका में यह बताया गया है कि माहतो की प्रनेकात इष्टि से विचार करने पर साण्य का प्रकृतिवाव भी सत्य सिद्ध होता है। मिथ्या नहीं। वह मिथ्या हो भी नहीं सकता क्योंकि ग्याषिक नय का प्रवलंबन कर कपिल मुनि ने प्रकृतियाव के * 'कुम्माविषनिष्पतिसमेतत् । तथापि देवानुवाहरात्मतस्वमत यादोपहसा पठन्वितिषपात्रयं हेमचन्द्राचार्यविरचितामामन्ययोगम्पयकछेपानिशिकायां इमो.।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · [ १३३ स्वा० क० टीका और हिन्दी विवेचना ] एवम् उक्तप्रकारेण हि निश्चितम् प्रकुनियादोऽपि सत्य यत्र विज्ञेयः नानुतः उपपस्यन्तरमाह- कपिलो तस्वतीवद्रव्यार्थिकना बलकि पिलप्रणीत्वाचैत्र । नेनानृत एवायं बाद उस्तो भविष्यतीत्यत आह-हिन्यतः स महामुनिः दिव्यः =अद्भुतशीलाचरणशाली, अतो नानृतं ब्रूयात् इति तस्याऽप्ययमेवाऽभिप्राय इति भावः ॥४४॥ सक्रिय सख्यमिदमेव केवलं मन्यसे प्रकृमिजन्म यज्जगत् । आत्मनस्तु मणित विधर्मणः संयमेव भजदेवमाषयोः ॥१॥ आत्मानं समायो यः कर्मप्रकृतिं जगाद जगतां बीजं जगणर्पणे । नद्योऽषि दर्शनानि निखिलान्यायान्ति यद्दर्शने 5 तं देवं शरणं भजन्तु भविनः स्याद्वादविद्यानिधिम् ||२| इति पण्डित श्री पद्मविजय लोदर न्याय विशारद पण्डित शोविजय विरचिताय स्याद्वादकल्पलताभिधानाय शात्रवासमृचपटी काय तीयः स्तबकः संपूर्णः ॥ अभिप्रायः यूरेग्हिहिं गहनो दर्शनसतिर्निररूया दुर्धर्षा निजतसमाधानविधिना । तथाप्यन्तः श्रीमन्त्रयविजयचिद्दिभजने । न भग्ना तिर्न नियतमसाध्यं किमपि मे ॥ १ ॥ यस्यामन् गुरवोऽत्र जीऩविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः 1 प्रेयस्य च म पो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचिते ग्रन्थे मतियताम् १२ || समर्थक सांख्यशास्त्र की रचना की है। कपिल एक महान् मुनि है और अद्भूत शील पोर श्राचरण से संपन्न है अतः वे मिथ्या नहीं कह सकते । इसलिए प्रकृतिवाद के संबन्ध में उन्हों ने जो कुछ कहा है उसका मी वही अमिय मानना चाहिए जो कर्मप्रकृतिवादी मात महषियों का है। व्यापार पू. उपा. यशोविजयजी ने इस विचार का यह कहते हुए उपसंहार किया है कि सांख्य से उनको मित्रता केवल इस कारण है कि सौख्य भी उन्हीं के समान जगत् को प्रकृतिजस्य मानता है। किन्तु आत्मा के सबन्ध में उसने जो यह कहा है कि मात्मा निर्धक होता है। उस विषय में उसके साथ हमारा वैचारिक संग्राम सदा चलता रहेगा ॥ १ ॥ व्याध्याकार ने इस विचार के पर्यवसान में अपनी महाकोशा प्रकट की है कि जिस देव ने श्रात्मा को अत्यंत स्पष्ट रूप में सांसारिक योग के पाय बताया है और जिस देव ने जीवमात्र के कल्याण मार्ग के उद्घाटनार्थ कर्मप्रकृति को जगत का भीज बताया है एवं जिसके दर्शन में समुद्र मे तदीयों के समान अन्य सभी वर्शन समाविष्ट हो जाते है स्याहार विद्या के महान् आश्रम उस देव की ही शरण में संसार के मध्य मनुष्य को उपस्थित होना चाहिये ||२|| अभिप्राय: ० इसको ध्याख्या पहले स्तबक में पा गयी है । wwww तृतीय स्तवक संपूर्ण Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-तृतीयस्तरकश्लोकाकारादिक्रमः एजो०/५० श्लोकांचाः | दलो कोशः मनो जम्मुनीशोथ __ ! २० घटायपि धिम्माधि १५/८४ परमेश्वययुक्त ३/१२१ भारि पुनस्पाग्ये बालमनिर्घ यस्य । ३८/२० पुरुपस्यादिना मुक्तिरित २५/५ मन्ये तुमपते १०/८० लनश्वेश्वरकस २६०६ पुरुषोऽनिकलात्मत्र ४/३५. अन्ये स्वमित्यत्र । २६/१०४ सचापि देहाती घेद | ३०/५.७ प्रतिबिम्पनियोऽपस्य १३/८५ मिमा ननम्नेग | २/२ नाइनासेयनादेव । १:/९७ प्रधाना-महको मात्रा ३४/११७ भारमा न पश्यने { ४१२६ तम्याश्वानेवरूपवादः | ८/८ प्रधानाद्रमसन्तु ___/आदिसऽपि ना हेतुः | २३/१०० तस्य रस्त्रमावत्यन्तु ३. फलं ददानि च मध १७/८६ भाषं च धर्मशास्त्रं च | २७/१०४ पेटमोगेन नैषास्य | ३३.२६ बन्धादसे में घंसारो ११/१ ईश्वरः परम मेघ ४२११२४ नेहम्पादिसंबिरया । ४/१२६ मुर्मयाप्यात्मनो १२ । प्रेरकन्धेन ३२/११३ देवत्पृथक्त्वे यास्य | ३६/3 भाभ: प्रन्ययोगों १५/५१८ प्रकारतेनेकरूपाया ३१४११२२ च पूर्षस्थमावत्यान । २२/८ बायः तु बायते ४४/१३२ प प्रकृति पापोऽपि १/३५ नरकादिफले कांश्चिन | २६/१०. विभक्तेरारिणी १३/८ मिति सवाक्ये २४/५०० नानुगवान मन्यम्य १५/५ शास्त्रकारा महात्मानः ३ कर्मादेस्तरस्त्रमावस्य ! ४१४१२५ नामू मूर्ततां याति | ६/३६ स्वयमेव प्रयन्ते २५/३०३ घटायपि कुलालापि १२० पक्राषिशतितत्वको परिशिष्ट २-तृतीयस्तरकटीकायामुदतवाक्यांशाकारादिकगः पृष्ठांकः पयांशः २६५मण्णापागाण इम [सम्मति-] " अविद्या बापरेषांक [योगसूत्र २.४] 1. समस्यामास्ति सम्बन्ध ८. असहकरपाद [सांयकारिका-10 ५ माकाशशरीरं प्रय २० मावे लष [छाम्बोग्यपनिषद -५-२] (नृसिंहोत्तरतापनीय सपनिषद -1 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क परिशिष्ट २- तृतीयस्तरकटीकायामुतयाक यांशाकारादिमः समः पुरुषस्त्यन्य एनस्य चामरस्व० १२६ एवं एगे अश्या ७ कार्यायोजनछ्रुत्यादेः ४ कलेश कक्षेत्रि राका० ४.३ जहा मगमय ० १२६ मे वयश्विविद १२७ पाय बाहिरओ मात्र० ३० तरभिमृषु ११८ तास वयते नरपि १२७ दट्टियम्य माया נ ६ जो चैत्र " ३ वशमन्वग्लराणीक ५३ नित्यं विज्ञानं ६ निरालम्बा निराधारा ३६ प्रकृतेमंस्तो १२८ पुरिसमा पदुक ३ पूर्ण वासवख तु ६ वा शतसहमि मेवानां परिणामान ● मयाध्यक्षेण प्रकृतिः प्रकृतिरवितिः ३६ ३३ यज्ञो विष्णुः २५२ पत्रे यो गुण ३३ या दुखेन संभिनं १२६ वापर जे देवें सपऽनध्यात ४१ ४६ समालोकय प्रेषवि शामि० ५६ सर्वभावेषु कर्तृ एवं १० सामा दिया छाया मावे फळामाचातु दिना [२०] ३-८-१] [६] (Punggongla 2-t] [ योगसूत्र १-०३) [ [ सम्मनित्र.४३] [सन्मति सूत्र- ५२] [ [ सांख्यकारिका-६२॥ [मम्मत्तिसूत्र - ४१] -५२ ] [ [ [ [ योगशास्त्र ४-१८ ] (सांख्यकारिका-६२] [सम्मतिसूत्र -५४] । [ " सांसारिका- १२] शिवसा ९.९० ] [ सांयकारिका-३] [ अन्य०श्य०1० - [] [ [सम्मति०४८] I [बीतरागस्तोत्र ७७[ [निशीय भाष्य, प्रज्ञापनागरिटीका ] [०कु०३-१८] ३ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृनीयस्तबके शुद्धिपत्रकम् पत्र/पक्ति भशुद्धं अमृद्धं शुद्ध धोगत्र-४) योगसूत्र {1-23) क्योकि क्योंकि पत्रपति 64/22 वर द्वारा 1/28 1/4 10/16 TIT सटि मृष्टि प्रमे 21/18 2014 3/10 श्वर तो जैसे न आत्मप्रवेश, प्रभा कारीका चतुर्थ a भाचा प्रशस्ति माकोक्ति पाठ धर्म प्रधान रा१३ E2/2 // के अष्ट से नही भारमप्रदेश प्रमा कारका चतुर्थ होवो (2) मापा प्रशस्त जोकोक्ति पाठ में धर्म प्रधान पुद्धि में बन्धः श्र ईइबर निम्म्यपण निरूपण याशन पोजन निस्याध्यापि. नित्या हपाप रिपरेका ईश्वरेष तसकारण सरकारण मच्छिश्रद्ध) वच्छिमानद गताऽकारगान० ला55कारनिय नुमति अनुमति सकती Y/1/2 86 18/10 104/27 113/ 120/18 12/2 बन्ध 4/25 मा सकती श्वा अन्यकर्म