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स्या कटीका हिन्दी विवेधन ]
प्रकते दाष्ट्रान्तिकयोजनामाङ्ग
भूतम् -एवं तरफलमावेऽपि चोदनानोऽपि सर्वधा ।
ध्रुवमौसर्गिको दाया जायने फलचावनात् ॥४८॥ एवं योदनानाऽपिः क्रत्याहिंसाविप्रेरपि, सफलभावेऽपितरोधितफलभावेऽपि, ध्रुनंजिश्चितम् , मथाऽन्यहि पातल्यतीमार्गको सामान्यमिपंधवाधिनः दोषः-पापलक्षणः जायने, फलगोपनात्--फलोदेशात , प्रणालकहिंसात्वयाऽधर्मजन क्रन्चात् ।
ननु निपेविधिनाऽनिष्टमाधनस्वमात्रबोधने ततो निवृश्यनुपपत्तिः, बलबदनिएमाधनन्यबोधने च व्याधिनिवृषार्थ दाहेऽपि प्रवृत्पनुपपत्तिः, इमि विशेषनि सामान्यविधतदितरपरन्यवद् विपरियों मामान्पनिमावि तक्षिक गायमै :: काप : आई चैतदभ्युपेयम् । कथमन्यथा तवापि सामान्यत आधाभिकारिग्रहणनिषेधऽप्यसंग्नम्णादिदशायर्या तविधानम् १ इप्ति अन् ? न, आधार्मिकरणाऽग्रहणयोः संयमपालमाथेमे कोईशेने विधानादन्मां--ऽपवादभावव्यवस्थितावपि प्रकुनेमा-यागयोरेकार्थत्वाभावेनोमर्गाऽपवाद. व्यवस्थाया पयाऽयोगाव , सामान्यनिषेधे संकोचम्याऽन्याग्यन्यात् । तदुक्नं 'स्तुतिकता "नोन्सृष्टमन्यार्थमपोयते च" [अन्य कयता श्लोक ११] नि । प्रवृतिस्तु नत्र मृदानी श्यनादाविथ दोषादेन । ___ 'वाहो । कार्य: स निषेधवाक्य से वाह सामान्य में अनिष्टसाधनता का बोध होने का कल पाह है कि व्याधिनित्यर्ष वाह कार्यः' इस शास्त्रवचम् से वाद का विधान होने पर भी मामान्यनिषेध के कारण विहितगह से भी दोष को उत्पत्ति का होना शिस होता है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि वाह व्याधिनिवृत्तिरूप विशेषफल के जद्देश्य से शास्त्रहित है अत: सामान्यनिषेध होने पर भी उस में पोषही होता'-पपीकि यानिति के लिये भी वाह करने पर उस से पोष का होमा तो निविषाव है।
(फलान्तर प्राप्त होने पर भी प्रोत्सगिफ दोषानिवृति) इस कारिका में बाहरूप मानत के द्वारा य अङ्गभून amefसिक हिंसा में पापप्रकरण का प्रतिशरम किया गया हैं । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
जिस प्रकार म्याधिनिवृति के लिये वाह के विधायक वचन से वाह में फलसाधनता का बोध होने पर भी बाहो म कायम सामान्यांमध के कारण पंचशस्त्र में विहित भी वाह ताप बोध । जनक होता है. उसी प्रकार Anो अनभूत हिंसा के विधायकवाय से उस हिसा में फलसाधनता का बोष होने पर भी हिलामामाम्य का पात्रत: निवेष होने के कारण उस हिसा से मी पापात्मक रोष को उत्पत्ति अनिवार्य है क्योंकि वह हिसा मी अन्य हिंसा के सपा समान है क्योंकि फल मिशेष की
१- न धर्महेत पहिनाऽपि मा. नोत्सृष्टमन्यामपोयते ।।
पुत्रथावानुपतिस्परिप्सासहचारिस्कुरित परेषाम् ॥१५॥