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________________ [ शार वारस मुरुपयसा २-श्लोर ४५ अत पय सानध्या अपि सामान्पनिषेध-विशेप विधिोधिनानर्थ हे तुकन्ध कन्यङ्गन्योकत्र समावेशामभदाय निषिद्धस्यापि विहितत्वम्य, मिहिनम्यापि निषिद्धत्वस्य च श्वेनादिव सिद्धि के लिये विहित होने की तृलास मा . लाल होने के माते अन्य हिंसा के समान उस हिंसा से भी अधर्म का होमा न्यायप्राप्त है। इस मन्धों में यह साहो सकती है कि-' निधवाश्य यदि सामानपत अनिष्टसाधनता का पोषक होगा तो चप्स से fifes कम से पुरुष को नियत्ति न हो सकेगी क्योंकि जिन विहित को को मनुष्य बड़े उत्साह में रखा है वे कम मी कुशन कुछ तो अनिष को ही ई अत: सामाग्य अनिष्टका साथ समझाते हुये भी मनुष्य से उन कर्मों से मिस महीं होता उसी प्रकार वर लिखित कमो को भी यदि सापाप अनिष्ट काही साधन समझेगा तो उन कर्मों से भी उसका नियत्ति न होगी। इस दोष के निवारणार्थ चियाकाको बयान अनिष्टको सानना का बोधक मामा नायगा तो इयाधिनिषन के लये भी सहकार्य में मनुष्य की प्रवृत्तिम होगी क्योंकि बाहो न कार्य: इस निषेप्रवविय से बाह में बनवान् निष्ट की साधनसा काहान होने से बाद में प्रति का प्रतिबम्म हो जायगा। अतः यह मानना आवश्यक होगा कि कसे "मृस्तिकामः अन्न ज्योत मूख दरकरने के लिये अन्न का भोमन करे। यह सामान्य विधि 'विषमा भुजोत जीवितुकामः' लीवित रहने का एक विषमिले अन्न का भोजन न करे, इस विशेषनिवेश के अनुरोध से विमिष अन्न से तरिक्त अन्न केही भोमन का विधायक होता है, जपी प्रकार 'दाहो न कार्य: 'म हिस्थान सर्वभूतानि पावि मामान्यनिषेध भी याणिनित्य बाहः कार्य., श्वत वामध्यम मालमेत मुनि नाम: स्याति विशेषविधि के अनुरोध से वित्रित वाह और लिहिताहता से अतिषित पाह और fat का ही निषेध करते है. अतः निषिद प्रतीत होने पले बिहिल कमो से पापको उपसिहा बना लिया मातम्यकि.fafzaifafeतनिधी सामान्यनिषेधका लापता है, यह बात अंगों को भी मानी पड़ती है क्योंकि जनशानों में में सामान्यरूप से आषामिक मनपान आदि के ग्रहण का विषेष और असस्सरण व बशा में उस के ग्रहण का विधान है.' किन्तु विचार करने पर उसंत शहका और उसका फणित उपस मिलकर वित नही प्रतीत होता. पोंकि बाधाकमिसमावि के ग्राहम और अनाज पोमों का विधान संयमपालनकम एक इंश्य से ही किया गया है अत: वम में उत्सरा और अपवाव की व्यवस्था तो हो सकती है पर आसा और या ये बोनों पक्ष: शुस ब्रह्मसाक्षात्कार व स्वर्ग के उस पिहित हामे से एक बय से नहीं विलित है. अत: उन में उत्सग और अपराध को व्यवस्था नहीं हो सकती। इसलि सामान्यनिषेपका विशेषविधि के अनुरोध से सोच मान न्यायसंगत नहीं हो सकता मालिये सुनिकर्मा प्रभु हेमचनसरि में कहा है कि 'अन्य के लिये जासर्गप्राप्त का अन्य के लिये अपवाब नहीं होता' अर्थात "उत्सर्ग अम्म उदंश से बभपवाव भिन्न सरश से बसा नहीं बन सकता, मा अपव। उम जामगं के तबन्धित नहीं हो सकेगा। मनः उत्साशास्त्र से मिषित कर्म में किमी निधि के आधार पर बोष. विशेष के कारण मूबों की झी प्राप्ति होती है। जैसे हिसामात्र का निषेध होने पर भी वषार्ष श्येनया में,
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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