________________
स्था० क० टीका- हिन्दी विवेचन ]
दुपपत्तेः स्पेनाला दुष्टत्वमेव प्रतिवन्तः । तथा महाभारते
"
मनुस्मृतावपि -
[
ज्योतिमादादिवशी कृतस्यैवाधिकाराज्ज्योतिष्टोमादीनां
'पस्तु सर्वधर्मः परमो धर्म उच्यते ।
अहिंसा हि भूतानां जपयज्ञः प्रवर्तते ॥१." इसि |
'जपेनैव तु संमिध्ये प्राणो नात्र संशयः I
कुर्यादन्यद् न वा कुर्या मैत्री माह्मण उच्यते || १ ||*
इत्यहिंसायाः प्रशंसया हिंसाया दुष्टत्वमेवोक्तम् । तथोत्तरमीमांसायामप्युक्तम्"अन्धे तर्मास मज्जामः पुशुभिर्ये यजामहे ।
हिंसा नाम भवेश धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ १||" इति । तथा व्यासेनायुक्तम्
" ज्ञानपाली परिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यं दयाम्भसि 1
↓
स्नात्वा तु विमले तीर्थे पापपक्कापहारिणि ॥ १ ॥ ध्यानानी जीच कुण्डस्थे दममास्तदीपिते असत्कर्मसमभ्रग्निहोत्रं कुरूतमम् ॥२॥ पापशुभिर्ध-कामाऽथैनाशकैः । शममन्त्रज्ञ विधेहि विहितं बुधैः
॥ ३ ।।
प्राणिघातासु यो धर्ममीते मृढमानसः साप्रति सुभाषृष्टि कृष्णाहिसुखकोटरात || ४ ||" इत्यादि ।
ततो दुष्टमग्निष्टोमादि कर्माऽधिकारिणापि दोषासहिष्णुना त्याज्यम् अन्तःकरणशुद्धेन गायत्री जपादिनैव सुपपतेः' इत्याङ्गः ।
( ज्योतिष्टोमादि यज्ञ दोषपूर्ण है- सांख्यमत )
तृष्णामूलक हिंसा पापजननो होने से हो साथियों ने भी सामरस्य मिथेन से घोषित अनर्थसायमस्व और विशेष से बाधित यज्ञाङ्गत्य का एक कर्म में समावेश सम्भव मानकर विहित में निषिद्धत्व का और निषिद्ध में विहितत्व का उपपादन किया है और प्रयतयाग के समान ज्योतिष्टोम आणि यशों में मीरा का ही अधिकार मान कर उन पक्षों को दोषयुक्त माना है। इसीलिये महाभारत में जपयज्ञ को प्राणिहिंसा से मुक्त बताकर उसे सब धर्मो से
कहा गया है :
स्मृति में भी पकी प्रशंसा में कहा गया है कि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प से ही सिद्ध होता है, दूसरा कोई धर्म चाहे वह करे या न करे क्योंकि वह सम का मित्र होता है।