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[शा० वा० समुच्चय-स्त २-ौर पर
अन भादूटा1-"न क्रत्यर्थी हिंसाऽनहेतुः, विधिम्पुष्टे निषेधानवकाशात् । तथाहिविधिना बलवदिच्छाविपयमाघनताबोधरूषा प्रवनना कुर्वताउनर्थसाधने तदनुएपसे, म्वविपयम्य प्रवर्तनागोम्यानर्थसाधनन्याभावोऽज्यांदाक्षियने, नेन विधिविषयस्य नानधहेतुत्वं युज्यने । न हि त्वर्थन्य माझाविध्यर्थः, ग्रेन विगधो न स्यान , किन्तु प्रवर्तनयं । प्रवर्तना तु पुरुषार्थमेव विषयीकोनी क्वचिन् ऋतुमगि तथाभावमापन्नं विषयोकगति इत्यन्पंदता । पुरुषप्रवृत्तिश्च बलवदिछोपवानदशाया जायमाना न भाव्यम्यार्थहेतुतामाक्षिपति किन्तु यथाप्राप्त मेवाऽवलम्वते, बलरदिनछाविषये स्वत पय प्रवृत्तः, स्वर्गादो विध्यन पेक्षणात् । अन एव बहिनश्येनफलस्याऽपि शत्रुवधस्पाभिचारम्यानहेतुन्यमुपपद्यत एच, फलस्य विधिजन्यप्रवृतिविषयत्वा प्राधान् , विधिजन्यप्रनिविश्य तु धान्धर्थ करणं प्रयन नाश्यगाहले । याच नाउन बेहेतु विपपीतक इति निको परिधिपधि नगर निधन भय- पादिरला. कन्वर्थहिंसाविषयम् । तेन श्वेना-ऽग्निष्टोमयपिम्यादुपपन्नमदृष्टयम् | ज्योनिधीमादेविधिस्पृष्टस्यापि निषेधविषयन्वे, पीडशिग्रहणस्थाप्यनर्थहेतुन्धापत्तिः, 'नानिगने पोशिनं गृहाति' इनि निषेधान ! तम्माद् न क्रिश्चिदेनत" इत्याहुः ।
तथा उत्तरमोमामा में भी कहा गया है कि जो लोग पशुओं में पार करते हैं ये मात्र अन्धकार में प्रवेश कर रहे हैं कि यह मिश्रित है कि हिंसा से कमी न म हश्रा है और न कभी होगा।' ___सास ने भी कहा है कि-मानपाली में सुरक्षित ब्रह्मचर्य और बयारुप नल पायप को दूर करने वाला निर्मल तीर्थ है, मनुष्य को चाहिये कि उस प्लीय में स्नान कर के नौवरूप पुण्ठ में बमकप चाप से ध्यानरूप अग्नि को प्रयोप्त करे और उस में अशुभकर्मों का मिथ (=उभ्यनाकालकर उत्तम कोटि का अग्निहोत्र करे और विद्वान पुरषों द्वारा विहित उस याका अनुष्ठान करे जिस में शान्तिमात्रों से प्रमं, अर्थ और काम का नाश करने वाले वासना रूपी दुष्ट पशुओं के हवस का विधान है। जो मनुष्य प्रागियों को हिसा से धर्म का अजन करना चाहता । यह मूव है. वह काले नाग के मुख से अमन को वर्षा चाहता है।
अतः अग्निाटोम आदि कर्मों में जिन का अधिकार है वि वे पाप का मार जाना नहीं चाहते तो उन्हें भी जन पागमन कर्मों का रयाग करना चाहिये और अन्तःकरण को शुक्षि लिये गायत्री जप मावि हिंसारहित कमाँ का हो अनुष्ठान करना चाहिये।"
(यज्ञादिगत हिसा निर्दोष है. भट्ट का पूर्वपक्ष) भदमसानुमापी मीमांसकों का कहना है कि जो हिमा कालिये की जाती है वह अनचं का कमही होती, पयोंकि शास्त्र के विधि बाघ से जो पिहिम हात उस में मिषेषवाय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। आशय यह है कि विषिवाक्य प्रवर्तमा का जनक होता है और प्रवर्तना भनके साधन में नहीं हो सकती. क्योंकि प्रवर्तना का अर्थ है जिस वसु की मनुष्य को बसवनी इच्छा हो उस वस्तु की साधमता का बोध', को अनर्थ साधर में बुघर है और पूर्घट इसलिये है कि लिस में शिघिवापय सं बलवान पर को साधनता का बोमन होता है उस में अभयसाधमता के