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स्था टीका-दिनी विवेचन
अभावमा भानुमामिक बोष भी होता है. अत: विविवापय से बलवान पदको साधता का मोधन उसी वस्तु में उचित सो समता है जो मन का साधन महो। इस प्रकार विधि और निषेध का परस्पर विरोष स्पा है. बर्योकि विधि का विषय यह होता है जो पान का साधन न हो और निषेध का विषय बह होता है जो समर्थका माधन हो। हाँ म योनों में घिरोप उस स्थिति में न होता मत विभिवाक्य हिसा को यमका अङ्ग प्रवर्तनमा द्वारा बनाकर सोये ही यश का भङ्ग बताता, क्योंकि हिंसा मनका भाड़ा है और हिंसा अन का साधन हैन बोधों में कोई विरोध नहीं है, अत: लिसा में विधि से मशागता का और तिष से अनसाधनता का भी बोध हो जाता, किन ऐसा नहीं है पोंकि विधिवषय हिसा में प्रबतना का जान कर उसे याका अङ्ग बताता है.मीर प्रवतता उसी में होती है जो अष्ट मामाधन और अनिष्ट का अमापन होने से पुरुषार्थ (पुरुष का अभिलषणीय) होता है। कहाँ पर या भी प्रवसना का विषय इसीलिये होता कि यह भी पट का साधन और भनिष्ट का असाधन होने से पुरुषार्थ होता है।
(विशेषविधान से निषेधसामान्य का बाथ) इस प्रसङ्ग में यह ज्ञातव्य है कि पुरुष को जिस विषय की सबसी सखा होती है उस में उस की प्रवति के लिये इण्टसाधनसा नाम की अपेक्षा न होतो किन्तु उसका स्वरूप मान हो उस
पति के लिये पर्याप्त सा है क्योंकि बस बस्तुको बलवतो या होता है उसमें पुरुष की प्रवृत्ति स्वतःहीही जाती है, इसीलिये स्वर्ग प्रावि में पुरुषप्रति के लिये विधि की अपेक्षा नहीं होसो। इससे स्पष्ट है कि फल विधिमन्यप्रसि का विषय नही होता अत: उस में इष्ट को साघमता और अनिष्ट को प्रसाधनता का बोध अपेक्षणोष नहीं होता । इसीलिये वोमयाग के शास्त्रविहित होने पर भी उस का फल पायाप भभिचार अपच का साधन होता है क्योंकि यह प्रपतनाका विषय मना होता, प्रवसना का विषय तो वह होता है जो विधिजन्य प्रति का विषय होता है और यह है धातु का अर्थ याम मावि, ओ फालका करण हा करता है । इस प्रकार यह तिषियाय है किनर्थ का हेतु प्रबलना का विषय नहीं होता। उपम्पत गति से बह निस्समोह सिब है कि शिधि
और निषेध में विरोध होता है, अतः मायाम्यनिषेध का विशेषविधि से बाप होना न्यायप्राप्त है । इसलिये न हिस्यात सर्वभूना- इस निषेयवाक्य का विषय बहो हिसा हो सकती है ओ यम का अझ न होकर केवल रागढेषादि यशही की जाती है।
(अग्निष्टोमाधि याग श्येनयाग से तुल्य नहीं) इस स्थिति में यह बात अत्यात स्पष्ट हो जाती है कि येनयाग की समानता बताकर finटोम आदि यजों को जो बोषयुक्त कहा गया है वह सचित नहीं है, क्योंकि यमबाग से अनिष्टोम आदि का वाणम्प मुस्पष्ट है और वह इस प्रकार की येनयाग शास्त्रविहित होने से पपि स्वयं अनर्ष का हेतु नहीं है किन्तु उस का फल कात्रुवरूप अभिचार विधि का विषय न होने से 'त्र हिल्यात सर्वाभूतानि' बल मामाग्यनिषेध के आधार पर अमचे का साया है, अत: अनयंतामन का प्रपोजक होमे से श्येन मी बोषयुक्तता यायसंगत है. किन्तु अग्निष्टोम बास्त्रविहित होने से म स्वप मन का साधन है और न उस को भूल हिसा ही पास्तमिलित होने से सामान्यनिषेध का विषय न होने के कारण अनपं का सायमी, और न उसका फल्न पगे हो किसी निषेध का विषय हो। के कारण मन का साधन है। प्रतः किसी भी प्रकार समधननन में प्रयोगकम होने के कारण