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________________ [० वा० समुचय०२०४८ " मायाकारातु कल्लापार्न नियोगस्य प्रवर्तकत्वम् तेन श्येनस्य रागजन्यप्रवृत्तिविपयत्वेन विधेरौदासीन्याद् न तस्यानर्थहेतुत्वं विधिना प्रतिशिष्यते । अग्नीषोमीयसाय तु त्वगभृताय फलमात्वाभावेन रागाभावाद् विधिरेव प्रवर्तकः, सच स्वविषयानतुत प्रतिक्षिपति इति प्रधानभूता हिंसाऽनर्थं जनयति न क्रत्वर्था, इति न हिंसामिथितत्येन दृष्टत्यमग्नीषोमादेः कृपालुः । ५० ] मलद्वयं फलतस्तुल्यमेव । दर्यास्तु विशेषो यत्-प्रभाकरमते "चोदनालझणोऽर्थो धर्मः (जैमिनीयसूत्रे १,१४२ । ) इत्यत्रार्थपदव्यान्त्वना श्येनादेः । भामने तु श्येनफलस्यैषाऽभिचारस्याऽनर्थहेतुत्वादधर्मत्वम् श्येनम्य तु विहितस्य समीहितसाधनस्य धर्मस्वमेव अर्धपदव्यावर्त्य (स्यत्वं ) तु कलिजमणादनिषिद्धस्यैव इति फलन हेतुत्वेन तु शिष्टानां रथेनादीन धर्मत्वेन व्यवहार इति , adaयाग से उसकी विषमता स्पष्ट है, इसलिये नाग के समान उसे भी बोषयुक्त बताना नितान्त असंगत है। विधि के विषय में निषेध की प्रवृति उचित नहीं है. यह पहले कहा जा चुका है जो साव है. अन्यथा विधि का विषय होने पर भोक्योसिट्रोम आदि को यदि विशेष का विषय माना जायगा तो नातिराधे बोशनं गुरु णातिः अतिरात्र में शेष का ग्रहण न करें इस निषेधवाक्य का विषय होने के कारण अतिरात्रे षोडशिनं गृह गाति' अतिरात्र में षोडशी प्रण करे इस विधि से घोषित पण मी अनर्थ का साधन हो जायगा अतः 'अग्नीषोमीयं पशुपाल इस निषेध की प्रवृत्ति के पक्ष में 'इस विधि के विषयभूत पाहता में हिस्यात् जो कुछ कहा जाता है वह कुछ के बराबर है। ( यज्ञीय हिंसा में प्रभाकर मत ) प्रभाकर मतानुयायी मोनसकों का कहना है कि जिस प्रकार फल में पुरुष की प्रवृत्ति राग से ही होती है उसी प्रकार फल के साधन में भी पुरुष की प्रवृत्ति रागवश ही होती है अत: विधिवाक्य फलसर में भी प्रवर्तन का जनक नहीं होता इस तय के अनुसार श्येनयागो मस्य प्रवृत्ति काहो होता है, अत विधिवाक्य उस के विषय में तटस्थ रहता है अत एव विधि से उस में अनर्थ हेतुता के अभाव का आक्षेप नहीं होता, इस कारण से नपा को अनहेतुता अक्षुण रहती है, किन्तु अग्निष्टोम में की जानेवाली हिंसा यक्ष का होने से न फल ही है और न फल का साधन हो से। अतः उस में राम न होने के कारण स्वतः प्रवृति नहीं हो सकती किन्तु विधिमय से ही प्रवृति हो सकती है, अल. विधिवाक्य से उस में अमसाधनता के अभाव का आक्षेपक बोध आवश्यक होने से सामान्य निवेषाश्य से उसमें अनर्थसाधनता का बोध बाधित हो जाता है. इसलिये प्रधाना ही अर्थ का साधन हो सकती है, यज्ञ की अगल हिंसा अर्थ का साधन नहीं हो सकती । प्रत: हिंसा से मिश्रित होने के कारण अग्निष्टोम को दोषयुक्त कहना पूर्णतया अनुचित है।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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