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या क टीका हिन्दी विवेमन )
__ सत्र भामतेऽभि वारस मात्रुवधानुकूलव्यापारः पापरूप एक्, इति कथं श्येनस्य नानर्थहेलुन्यम् । इनि विधिविषयेऽपि निषेधायकाश एवापाना, अनर्थप्रयोजकत्यस्पैच लाघवेन शिवप्रयागानुरोधेन च निपेनिर्थवे तु सुना तस्मादिष्टसाधनत्वमात्रमेन विध्यर्थः । फल्ने उत्कटेच्छाविरह विशिष्टदुःखजम कत्रज्ञानमेव च प्रतिप्रतिपन्धकम् , इनि एयन इव क्रन्वङ्गहिमायामपि मामान्यनिपंधवाश्यान् प्रत्यवायजनकल्लवीधेऽपि प्रचलदोपमहिम्ना फल उत्कटेचलाया अविघातात प्रवृत्तिः, इनिन तप कन्वङ्गत्वा-उन हेतुस्त्वयाविरोधः, इति प्रत्यवायजनकेऽपि प्रबर्नकम्मनाशवाक्यम्याऽर्थशास्त्रत्वमेव, न धर्मशास्त्रत्वम्, इति प्रतिपत्तव्यम् ।
(भट्ट-प्रभाकर मत में ऐक्य और अन्तर) वास्तव मष्टि से विचार करने पर भट्ट और प्रभाकर दोनों का म माम ही प्रतीत होता है । अन्तर केवल इतमा हो है कि प्रभाकर के मत में 'बावनालक्षणोडणे धर्मः' अर्थात 'बोसमा विधिधार से बोम्प्र अ धर्म है स लक्षण में अबंपर पर्यन का व्यावतक है. प्रतः उन के मत से इयेम अथम है और भारत में श्येन का फल अभिन्नार ही अनपं का हेतु होम में प्रधम है। मेन तरे पास्त्रविहित पटमाधन सोने के कारण धर्म ही है उक्त ममं लक्षण में 'अप' भट्ट मत के अनुसार कल अभनप आदि निषिद्ध कर्यों का हो ध्यावत हैन कि विहित नयाग का, अत: उपत जानुसार भी दयेस प्रम हो है । धर्म होने पर भी शिष्ट पुरुष जो उसे पमं नहीं कहते उस का कारण सस को प्रथम पता नहीं है सिम्त अनर्थ के सामनमून अमिशार का जनक होने में अधमप्रयोजकता है अर्थात् श्येत स्वयं अधर्म म होने पर भी अधमे का जनक होमे से शिष्टपुरुषों को हरिट में पह धमपन से म्यवहार्य नहीं है।
[विधिविषय में भी निषेध सावकाश-भाट्टमतखंडन] इस सन्दर्भ में यह बातम्प है कि अभिचार भी शवधानुकलण्यापाररूप होने से पाप हो है अत: उस का जमक श्येनयाग भी अनय का हेतु क्यों नहीं होगा! और जन मन का हेतु होगा तो 'पये नेनाभिधान यजेस इस विधि का विषय होने पर भी उस में न हिस्पात सर्वभूतामि' इस निबंध को प्रवृत्त होने का अवसर भाट्टमत में मो मिल ही जामगा। और यदि लापव की दृष्टि से सपा शिष्टव्यवहार के अनुरोध से अनपहेतुत्व के पहले अनर्थप्रयोजकत्व को ही निषेधविधि का अर्थ माना जायगा, तातो शत्रुध से होने वाले पापका प्रनय का प्रयोजक होम से श्येनयाग और भी सरलता से मनधि का विषय बन जायगा । इस स्थिति में यह उचित है कि बलवान ट को मानता को विषि का अर्थ मानकर सामान्यप से अष्टसाधनतामात्र को ही विधि का अर्थ मामा जाय । ऐसा मानने पर यद्यपि या प्रश्न हो सकता है कि- 'यवि विपि का अर्थ सामाम्पत:
रसायनतामात्र होगा और विधिविषय में भी निषेध की प्राप्ति होगी तो श्येनपाग में विधिवाषय से सामान्य टिसाधनता का बोध होने पर भी उस में पुरुष की प्रवत्ति न हो सकेगी क्योंकि निषधतिथि से उस में होने वाला अनसाधनाव का काम प्रवत्ति का प्रतिबन्षक हो सायना ." तथापि इस प्रान से स्थिति में कोई परिचलनमीमतोकिसका अत्यन्त उपयुक्त असा पह है कि भगषप्ताभनव का शान तभी प्रतिवरक होता है जब बिस का प्रतिबम्ब