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________________ शास्त्रयातासमुपचय स्त० ३-रखो० ४८ प्रभाकरमतेऽपि श्वेनस्य विधिना फलसाघनन्यज्ञापनं विना प्रवृत्याविषयत्वात् कथे. रागजपप्रवृत्याविषयत्वम् १ । प्रधानहिंमान्येन नाऽधर्म जनकत्येऽन्यहिमाया अधमंजनकत्वं न स्यात् । रागप्राप्तहिंसात्येन तथान्वेऽपि गगनाम पदि विध्यजन्यछाविषयन्त्रम्, तदा श्येनाऽसंग्रहः, यदि चाङ्गविध्यजन्यच्छाविषयन्यम्, नदा श्यनागाऽसंग्रहः, माग्दं प, इति न किञ्चिदेसन् । पतन भादर्शनमवलम्च्याऽभिहितम् 'अशुद्धमिति येत ? न. शब्दान' इति वावरायणसूत्रमप्यमास्तम् । होता है उस में फल की उत्क- TVा हो। अत: इोमयाग में निषेषवापस से भयापनश्व का शान होने पर मो उस में पुरुष को प्राप्ति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता क्योंकि मो श्येनपाग को भरमा चाहता है उसे येनयाग से होमेवाले वरूप फल की उत्कट बना रहती है। इसी प्रकार अमिष्टोम सावि घन के अजगभूत हिसा में हिसासामाग्म के निबंधकवचन से अनजनकत्व का ज्ञान होने पर भी 'अग्नीषोमीयं पशुमालमेत' इस विधि से अग्निष्टाम के अङ्गभूत हिंसा में होनेवाली प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उपत हिसारा सम्पन्न होने वाले अग्निदोम या को, जो पुरुष करना चाहता है उसे उस पासे होने वाले स्वरूप फल की उत्कट इा। राहतो है जो सुख की प्रबल भातक्तिरूप दोष के कारण अपरिहामं होती है। इस स्थिति में यह मालभ्य है कि उस रीति स यज्ञामस्व और अनहेतुस्व में कोई विरोध न होने से पापजनक कम में भी प्रवर्तक होने के कारण अग्नीषोमीयं प्रयुमाल मेत' जस बाक्य धर्मशास्त्र के रूप में मान्य न होकर अर्थशास्त्र के रूप में हो मान्य हो सकते हैं। [पेनयाग के विषय में प्राभाकर-मत का निरसन] प्रभाकर मत में येनयागको रामध्यप्रवृत्ति का विषय बताकर उस के विषय में बिभिवाक्य को जवासीन कहा गया है। किनु यह स्पष्ट है कि तक विधिपाय से उस में फल साधनमा का शासनहीं होता तसतक उस में प्रगति नहीं होगी अतः उसे रोगजन्य प्रवृत्ति का विवध और उस के सम्बन्ध में विधिवाक्य को वासोन कहमा कसे सम्भव हो सकता है? प्रभाकर मत को यह बात भी कि-"प्रधामहिसा ही पाप की जननी होती है. घर को अगभूत अप्रधानतिमा पाप जमनी कड़ी होती'हीकामही प्रतीत होती, क्योंकि प्रधानहिसा को ही पापजनक मामने पर तो किसी प्रधान हिंसा के मशरूप में जो प्रधान लोकिक हिसा होती हवा, पापका जनक न हो सकेगी। और यदि रागप्राप्त हिसा को पापजनक मानकर प्रधान मनमा ममी प्रकार की गवाह्य शिसा को पापजनक कहा जायगा, तो यह भी ठीक म हो सकेगा, क्योंकि रागप्राप्त का अर्थ ) विधि से अन्य इमा का विद्यम' मामा जापमा लो श्नयाग राग प्रारत के सम्सगेतनभाने से पाप का सनम हो सगा। और (ii)यन अङ्ग विधि से भजम्य भया का विषय' यह अर्थ किया जायमा सो श्येनयाग के अङ्गभूतों का संग्रह न होगा। और iiirver में विधि से प्रधापरव अषमा अनिधि अमायरव का निवेश कर विशिष्ट पछा के विषषभूतहिमा को पारा नमक माना जायगा तो गौरव होगा। अतः साधनको प्रष्टि से हिसास्वरूप से हिंसामानको पापजनक मानमा ही उचित है इसलिये in के मङ्गभूत हि को पापका मजनमा बताने का प्रभाकर का प्रयास. मी कोराप्रपात ही हैं।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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