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________________ स्वाफ टीका-हिन्मीविवेचन ] नयापिकास्तु-'इष्टसाधनत्यम् , निसाध्यन्यम् , बलबदनिष्टाननुबन्धित्वं च, इति अयमेव विध्यर्थः । तहिंसा साचा निषेधाऽभावान प्रायश्चित्तानुपदेशाचेहसावनस्व-कृतिमापत्यवद् पलवदनिधाननुबन्धित्वमपि विधिना योध्यते, इनि न तस्या अनथहेतुत्वम् । श्यनादेस्त्रभिचारण्य साक्षादेव निषेधात , प्रायश्चिनोपदेशाच्चानहेतुत्वाचगमाव तावन्मात्रं तत्र विधिना न बाध्यते इति मात श्येना-ऽग्नीपोमोलमण्यम्' इत्याहुः । भदप्यसन , स मयमाष भामान्यभिपंधानुरोधेनानियहेतुत्वावश्यकत्वात् । नत्यायश्चित्सबोधकवेदस्याऽपि कन्पनाच । सामान्यनिषध-विधिमकीचे शस्यार्थत्यागेन वेदे उपर्युक्त कारण से बावरापण का वह सूत्र भी निरस्त हो जाता है जिस में भामत का सरलमान कर मसाज सिर को शास्त्रवधान के बल से निष्पाप बताने को बेष्टा की गयी है। [यज्ञोय हिमा के बचाव में न्यायमत] नवापिक लोग अन्य प्रकार से अपनयाय और अग्निष्ठोम में षाम बता कर येन में पापजनकत्व और अक्सिट्रीम में वापसनमायके अभाव का उपपादन करते हैं। उनका कहना है कि-बधिप्रत्यय के तीम अर्थ होते है-इष्टसाधनस्व, कृतिसाध्यव, और बलवदमिण्टननुवाधिस्व अर्थात् इष्ट को अपेक्षा बलवाम अनिष्ट का भजनकस्य । विधिवाक्य जिस कर्म का विधान करता है उसमें सतोत्र मयों का वोधन करता है। जो हिंसा कनु के अडकप में विहित होती , उस हिंसा में भी उसके विषिवाक्य से इन्द्र सरधनस्व और कृतिसाध्यस्थ के साप बलवनिष्टासनश्व का मी बोध होता है। क्योंकि भो साक्षात निषिद्ध न होमे सेत था उस के लिये किसो प्रकार के प्रायश्रिका विधानहोने से अनर्थ का जनक नहीं माना जा सकता। इस प्रकार रिषिवाक्य से कसम हिसा में बलम्वनिष्टाऽजनकाय का बोध होने से यह अनर्थ का सावन माहीं होती, किन्तु श्येम का अनर्थसाधनाव ध्रुव पयोंकि अभिचाररूप होने से यह सामात जिविस है. तथा उस के लिये प्रायश्चित्त का विधान है । अतः षेमयाग विधिमाश्य से उस में ष्ठसाधमत्व और सिसाध्यब हम वोही बातों का बोध होता है. बलानिष्टाऽमनकरप का बोष नहीं होता | अतः विधिवाक्य से बलवान अनिष्ट के अजमकरूप से वोषित न होने के कारण उस समय साधनस्य निवासिद है। (न्यापमत खण्डन) इस कथा को क्यालयाकार श्रीमद पशोविजयजी में मसंगत बताया है। उनका कहना कि-पाकी प्रङ्गभूत हिसा भी 'न हिस्यात स भूतानि इस हिंसासामाभ्य के निविषिका विषय होने से अन का साधन है, और इसी कारण उस के लिये भी प्राप्रितमोषकमेव की कल्पना आवश्यक है। यात अाभूत हिंसा की विधि के अनुरोध से सामा पनिषेध में संकोच करना धित महीं है क्योंकि इसके लिये सामान्यनिषधि कायम करना होगा कि यहीय पा में
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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