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[ शा. पा. समुनय स्त०२-इलो-४८
लक्षणापाश्रयणस्यासिजघन्यत्यान् । अन्यथा 'रात्रौं श्राद्धं न कुर्षीत' इत्यत्रापि नमो भेदयस्परत्वेन गुणविधेः अधिकारविधेया प्रमजान , 'अमात्राम्या पितृभ्यो दयान' इत्यादिविधिः बोधितथाद्धजन्यतावनोदकपुण्यवानान्तरजातिथ्यापकमात्यवछिन्न प्रति गत्रीतरश्राद्धकरणम्य कारणत्वेन रात्रिकृतथाद्धात् फलनुत्पादासमवान् । अथ तत्रापि विशेषनिधे मामान्यविधः तदितरपरत्वन्युत्पत्त्याः प्रस [यज्यनवावपत्ती नमो भेदवापर न स्वीमियत' इति चेत् ? तहि सामान्यविधेरको चानुगो निधविधः विपणना वीकियताम् । विकल्प एवं वा।
भिन्न प्राणियों की हिंसा न करे और इस अथ की प्राप्ति के लिये सामान्यनिधेष विधि के अन्तर्गत आये 'भूत' पद के सपा का स्वाग कर 'यशीमपशुभिन्नमून' में उस को लक्षण्या करनी होगी और लक्षणा एक अधन्यवृति है, अत: वेव से महनीय मामे हए समय में उस पत्ति का अवलम्बन करना अनुचित है।
(गुणविधि-अधिकारविषि) या भी ज्ञातव्य है कि निवेष विधि में लश्नमा का अवलम्बन करने पर रात्री धान करीत रात्रि में पास न इस निनिधि में मी माझ पख की भित्र में लगा मान्य झो सकेगी और तब उस का अर्थ होगा- रात्रि से भिन्न समप में पार करे' और उस स्थिति में यह निबंधविधि न रहकर गुणविधि अथवा अधिकार विधि हो जायगी । आवश्य यह है कि जिस विधि से अजय और प्रधान के सम्बन्ध का मोष होता है उसे गुणविधि कहा जाता है
से 'वना सहोति-बहोशवन करें'इस विधि सेहबम हत्प प्रधान कर्म के साथ उसके अका भूत साधन पथि के सम्बन्धका पोध होने से यह बिभि गुणनिधि होती है, उसो प्रहार रात्री पास मात' यह विधि भी श्रावरुप प्रधान कम के साथ रात्रि मित्रकालरूप ग्रह के सम्परच का बोधक होने में विधिको आयगी । अधिकाबिधिरन की प्रसक्ति सिलिये होगी किहम का पर्यवसान फरपामिरवोपोथन में हो जाता है.जसे-जब विधि विभिन्न समय में प्रातके अनुदानको विहित करेगी तो अमावास्यामा पितृम्पो वयात अमावस्या तिथि में पिरो काधारकरे। इस मादक विधायक बापय से जिस जाति के पुण्य की जनकता बार में विधक्षित है उस जाति के पुष्य के प्रति शत्रिभिन्न काल में किया जाने वाला श्राहकारण है यह बात रात्री बाळून, इस विधि से बाधित होगी. और ऐसा होने पर फलत मह विधि-भावामुष्ठाम के एण्यार्थी में रात्रिभिः अकाल में करणीय श्राद के फलस्वामित्व का बोध कराने में पर्यसित होगी।
प्रतः फलस्वामित्व के धन में पयसित होने से इस में अधिकार विश्व की प्रतिकित अपरिहार्य है. कयोंकि फलामियको बोधक विचित प्रधिकारविधि होती है। इस में गुणवत्व और मधिकारविनिमय की प्रसविल इसलिये मी सम्भव है कि इस प्रतिक्ति का कोई वाधक हो
मूल व्यारया में 'पुण्यत्वाशनर जातिन्यापजारपस्विन्न प्रति' इस अंश में 'ज तिव्यापक शाद अधिक लाता है।