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________________ [ शापा ममुच्चय न. २-इलो०-७ सनः किम् ? इत्यार___ मुलम्-तनो म्याभिनिवृतरार्थ दाहः कार्यस्तु बाधिते । न ततोऽपि न दोषः स्यात् फलोवेशन चोवनात् ॥४॥ Mil='दाही न कार्यः' इत्यनेन मामान्यत गव दाहम्यानिष्टमाधनामिदः, 'व्याधिनिवृत्यर्थ दाहः कार्यः' इति चोदि पि विहितऽपि, तुरयर्थः, न तनाऽपि-दाहात् फलोहेशेन च्याधिनियस्यर्थ चांदमान-विधाना हेतोः, न दोपः तापलक्षण; स्याव , किन्तु स्थादेव ॥४७|| प्रश्न हो सकता है कि-'जिस हिसा या जिस बाहको शास्त्र में इष्ट का साधम बताया गया है. उस से अमिष्ट की उत्पत्ति क्यों होगी? क्यों कि निवेषक पनों को पहुंध उन हिमा और दाह आवि तक हो हो सकती है जिन में इष्ट माधमता का बोधक कोई पास्त्र नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा सकता है कि निषेधवचन उत्सर्ग:सामान होता है और उस में मछ। क्व के सप्रिघान से विधिप्रत्यय को अनिष्टमाघनता में नियुलक्षणा होती है और इस निलक्षणालभ्य अर्थ का अम्ब निषेध्यतावसेवक के सभी आश्रयों में होने का नियम है। अत: 'न निस्यान सर्व मृतानि' इस वाक्य से निवेपसाबमापक हिसाव के आश्रय सभी हिंसा में और बाहो न कार्य:' इस वाष मे निष्यसावाछेवक पाहत्व के आषय सभी बाहों में अमिपटसाधमता का मोष होता है. अत: जिन कर्मों में शास्त्र के किसी विशेष वा से अष्टसाधना का और सामान्य वचन से अनिष्टसामनता का बोध होता है, ऐसे कर्मों से, इष्ट और अनिष्ट दोनों को उत्पत्ति होना हो माय संगत। यहि यह कहा जाय किनिषेधयस्थल में मार्य में लिप्रत्यषार्थ का अन्वय होता है, अतः निषेधाम से निषिष्यमाम कर्म में सिमर्थ धर्मसाधनस्य के अभाव का ही बोष हो सकता है. पायवनकरण का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि उसका बोधक कोई पद नहीं है. नम के निधान में विधिप्रश्यप की पापजनकत्व में निकालक्षणा मानकर भी उसके गोध को उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि इस प्रसार की लमणा में कोई दूसरा दृष्टान्त नही है । इस स्थिति में निषेधवाय से विध्यताबस्वक के सभी माश्रमों में लिक के अभाव का अवय न मानकर उस के कतिपस आश्मयों में ही निर्धाभाव का अवप स्वीकार करने से हिसाविशेष के विधायक तथा हिसासामान्य निषेधकवाक्यों में कोई विरोष म होगा फलत: शत्रविहित हिसाविशेष से पाप की उत्पत्ति का रस नहीं हो सकता - तो यह कमीकमहीं है क्योंकि म हिस्यात सर्वभूतामि' से मिषेषापों के अर्थदोष के समय किसी प्रकार की हिंसा आदि सकर्मक विघातको सम्भावना रहने से उन बाक्यों में निषेधपताबकास धर्म के सभी आपयों में हो लिभाव का अन्वय मानना हो मुक्तिसंगत है। ४६॥ (वाहजनित ताप दोष के समान पापबन्ध अनिवार्य) पूर्व कारिका में निवेमवाक्य से जिस प्रकार के बोध का समर्थन किया गया है, प्रस्तुत कारिका ४७ में उस बोष को फलश्रुति बतायी गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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