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________________ [साधार्तासमुक्षय स्त. २-छो०७४ कालहेतुत्वाश्रयणात् । ननु क्षणिकस्वभावे नाऽयं दीप इन्युक्तमेवेति चेत् १ उक्तम् , पन युक्तम् , एकजातीय हेतु विना कार्य कजात्याऽसंभवात । कपपल्यस्य च जातियाभावेन घटे प्रति घटकद्रूपत्वेन हेतुत्वस्य बक्तमशक्यत्वाद, सामग्रीवेन कायंम्पाप्यत्वस्य वास्तविकत्येन गौरवस्याऽदोपत्वात , प्रत्यभिज्ञादियाधन चगिकन्यस्य निपेत्स्यमानत्वाच । किन, एकत्र घटकर्यपसोऽन्यत्र घटानुत्पत्तदेशनियामकहत्वाश्रयणे खभाववादन्यागः, दण्डादी घटादिहैतुन्वं प्रमायैव प्रेक्षावत्प्रवृश्चि, अन्यथा दण्डादिकं विभाऽपि घटादिसंभावनया निष्कम्पप्रवृष्यनुपपत्तरिति विग् । न च नितुका भावा' इत्यभ्युपगमेनाऽपि स्वभावबादसाम्राज्यम् , नत्र हेतूपन्यासे बदतो वाचाना , तदुक्तम् "म हेतुरस्तीगि पवन सहेतुक, मनु प्रतिज्ञा स्वपमेव साधते । अथापि हेतु लगदसौ भवत्, प्रतिज्ञया केवलपाऽस्य किं भवेत् ?" ॥१॥ इति । न च सापकहेतूपन्यासेऽपि कारकहेतुप्रतिक्षेपवादिनो न स्वपक्षाधेति षाच्यम् : शानजनकत्वेनैव ज्ञापकत्वात् , अनियताबधिवे कादाचिन्कत्वन्याघातात् नियतावधिसिद्धी तरवस्पैच हेतुस्मात्मकत्वाब, अन्यथा, 'मर्दभाद् धृमः' इत्यपि प्रमीयतेति । अधिकमग्रे ॥७६।। 'स्वभाव प्रकेला जगत् का कारण नहीं होता किन्तु तत्तत्क्षणाएमक काल के योग से तसत् कार्य का कारण होता है। प्रतः तत्तत् क्षण पेक्रमिक होने से यह कम से ही कार्य को उत्पन्न करता है।' फिन्तु यह अभिप्राय मो स्वभाववाद को जीवित रखने में असमय है क्योंकि ऐसा मानने पर स्वभाव से भिन्न काल में भी कार्य की कारणता सिद्ध हो जाने से-'स्वभाव से ही सबकायों की उत्पत्ति होती है स्वभाव से भिन्न कोई वस्तु कार्य का जनक नहीं होतो-इस स्त्रभाववाव का लोप हो जायगा । "स्वमा क्षणिक होता है, क्षणिक होमे से स्वाध का क्रमिकरव अनिवार्य है, अतः क्रमिक स्वभाव से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति मानने पर स्वभाव से मिल कारण की सिद्धि न होने से स्वभाषचाद सकता-पत्र कथन मी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि यह एक वचनमात्र, इप्स में कोई युमित नहीं है, क्योंकि मित्र भित्र स्वभाव को भिन्नभिन्न कार्य का जनक मानमे पर एकजातीय कारण की सिद्धि न होने से कार्य में एकजातीयता न हो सकेगी। जब कि घट-पट मादि जैसे एक एक जाति के सहस्रों कार्य जगत में देखे जाते हैं। (कुचंदरूपत्व का खण्डन) 'घटोस्पायक समस्त स्वभावों में घट कुर्षपूपत्वनाम की एक जाति मानकर लज्जातीय स्वभावों से होने वाले घों में एकमातीयता की उपसि हो सकती है-यह भी नहीं कहा जा सकता, पयोंकि फुर्व रूपरव जाति में कोई प्रमाण नहीं है। वह जाति तब हो सकती है जब एक हो कारण से कार्य की उत्पत्ति मानी जाय पोर उसीको कार्य का व्याप्य माना जाय, पर एक ही कारण से कार्य का होना असिद्ध है, कार्य की उत्पत्ति कारणसमूहात्मक सामग्री से ही होती है, सामग्री ही कार्य की न्याय होती है । सामग्री-कारणसमूह को एफकारणविशिष्ट प्रपरकारण के रूप में व्याप्य मानने पर काम
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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