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________________ म्याक टीका-हिन्दी पिवेषन ] दुत्पादः भवनि, इति देतो. सद्युक्त्या प्रवाधिनता, समादोऽपि स्वभावपादोऽपि, न मंगतः । नन स्वभावम्य क्रमस्कार्यजनकत्वमपि स्वभावादेवेनि नानुपपत्तिरिति चेतन, तस्यैव स्वभावस्य पू|सरकार्यजनकरवे पूर्वोतकालयोरुत्तरपूर्वकार्यप्रसङ्गेन क्रमस्यैव व्याहतेः, एकस्यैव भाषा बागालातिनिगामले मरिस तालीमलस्य एफलानीगत्वस्य या प्रसङ्गान् ॥७॥ पराभिप्रायमाशक्य परिहरतिमूल-सकालादिसापेक्षो विश्वहेतुः स धनु । मुक्तः स्वभावधावः स्पाकालपादपरिग्रहात् ॥७॥ ससकालादिसापेक्ष तसवणादिसकतः, सः स्वभावः, विश्वहेतुः, फालकमेण कार्यक्रमोपपत्तेरिति चेत् । 'ननु' इत्यापे स्वभाववादो मुखमः स्यात् , फाख्यादपरिग्रहान् किन्तु जगन की एक साथ उत्पत्ति नहीं होती, प्रत इस प्रसाधित तक से स्वभाषबाव भी प्रसंगत लिद हो जाता है। यदि यह कहा जाम कि -"स्वमाष का केवल कार्यजनकस्व ही स्वभाव नहीं हैं अपित कमवरकार्यजनकरप स्वमाय है प्रतः स्वभाष अपने इस स्वभाव के अनुसार क्रम से ही कार्य को उत्पन्न करेगा, एकसाथ सब कार्यों को उत्पन्न न कर सकेगा, इसलिये एकासाथ समूचे अपक्ष को उत्पति को प्रापति नहीं हो सकती-"तो पह कथन ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि स्वभाष अपने जिस स्वमाष से कमयुक्तकार्य को उत्पन्न करेगा उसो स्वभाव से वह पूर्वोत्तर काल को भी उत्पन्न करेगा, फिर उसी से उसरकाल का पूर्व में और पूर्वकाल का उसर में उत्पावन हो जाने से कम का हो उपपादन असम्भव हो आयगा, क्योंकि जिस काल पर कम पाचारोत होता है- उपतरोति से वह काल होकमहोत हो जाता है। इस वाब में उक्त दोषों से अतिरिक्त एक वोष यह मोहै कि जब स्वभाव ही कार्य को विभिन्न जातियों का प्रयोजक होगा तो भिन्न भिन्न कार्य में मिन भिन्न जाति न रह कर सब कार्यों में समी जातियों का समावेश हो जायगा, क्योंकि सभी जातियों का नियमन अकेले स्वभाव को ही करना है और स्वभाव सम कार्यो का समान कारण है अतः उस से नियम्य सभी आलियों का सम कार्यों में समावेश मायप्राप्त है। यदि यह कहा जाय कि-"सब कार्यों में सब जातियों का समावेश होने पर सब जातियो स्वनिपत होगी और सामने सत्य जातिभेद का बाधक है प्रतः जातिभेद न होने से कार्य में सजातीयरब का मापावन मही हो सकता"तो इस कपन से भी बोष से मुक्ति नहीं मिल सकती क्योंकि उक्सबाधक से आतिमेव न होने के कारण विभिन्न शम्दों से ध्यपवेग होने पर मो सब कार्यो की एक ही जाति होगी, मस: सब कार्यों में एकजातीयत्व होने से कामवेचिश्य का लोप हो जायगा ॥७॥ (काल के प्रबलम्बन में स्वभाववाद का त्याग) ७६ वी कारिका में स्वभाववावि के उस अभिप्राय का निरास किया गया है जो उक्स वोष के तिवारमार्थ उत को ओर से प्रकट किया जा सकता है । वह अमिप्राय यह है कि
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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