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[/० वा समुच्चय स्त. २-इलो-७४/७५
स्वभावाश्रयणेऽपि दोपमादमुल-स्वा भावश्च स्वभावोऽपि स्वसत्तव हि भावतः।
तस्यापि भवकामाचे वैगि नापपद्यते । स्वभावोऽपि च स्वो भावः, कर्मधारयाऽऽश्रयणात् , एकपदव्यभिषारेऽपि तस्य बहुलमुपलम्मात् , अन्यभावपदार्थभ्रान्तिनिगसाय विवरण माह-हि-निश्चिनम् , 'भावत:=अध्यक्षविषयतया स्वमत्तेव । तस्याऽपिवमावस्य भेदकामा जात्यामात्रे, चिय-कार्यवैचित्र्यप्रयोजफत्यम् , नोपपद्यते ।। ७४
मूल-ततस्तस्याविशिष्ठम्याद युगपबिश्वसंभवः ।
न बालाचि [च स्यादि] ति सयुकाया नादोऽपि न संगतः ॥७॥ ततः चियाभावात् , सस्य-वभावस्म, अविशिष्ठावात् गरूपत्यात , विश्वजनकल्वे, युगपत् एकदैव, विश्वसंभव: जगत्पादन पक्षः। 'न 'घ स्याद'गपज्जगनियतिप्रमोन्य मामा जायगा तब भी तत्तन फल के प्रति तसात् गुमा अशुभ कमरूप अतिरिक्त कारण सित हो जाने से निर्यातवाद का लोप हो जायगा, क्योंकि उस नियम को नियतिप्रयोज्य मानमे से तत्तत् फल में तत्तत् पुमा प्रशुभ कमों को हारणता का पारिभाषिक हो निषेध होता है और पारि. भाषिक निवेष से वास्तविक कारणता का खण्डन नहीं हो सकता ॥३॥
(स्वभाषयाव में वैचित्र्य को अनुपपत्ति) ७४ वीं और ७५ दी इन दोमों कारिकानों में स्वभाषवाव में वोष बताते हुये कहा गया है कि स्वभाव शष्य में 'खो मायः' इस ध्युत्ति के प्रनुसार कर्मधारय समास है, इसमें भावपद स्वपर के मय से अधिक अर्थ का बोधक होने से यद्यपि स्वपरका व्यभिचारी है, फिर भी स्वपब के साथ उसका कर्मधारयसमास हो सकता है क्योंकि 'शीत जल शोतमल' इस्पानि में जैसे दोनों पक्षों के समक्ष्याप्त होने पर भी कर्मधारय होता है उसी प्रकार 'नोल कमलं नीलकमसम्, पीतम् मम्बरं पीताम्बर' पश्यादि में दोनों पक्षों के परस्पर व्यभिचारी होने पर भी एका सामानाधिकरण्य के प्राधार पर . एवं 'घटन तब वष्यम् च घटदस्यम्' में इश्यपब के घरपद का व्यमिवारी होने पर भी कर्मधारय के मान्य होने से रूम और माय पद का मी कर्मधारय होना मिधि है। इस कर्मधारय के अनुसार स्वभाव गन का अर्थ होता है स्व से पभिन्न भाव भौर यह माय प्रत्यक्षगम्य स्वसत्ता रूप ही है । इसप्रकार 'स्व हो वमाव होता है घोर यह स्वभाव यदि मेवकहोन माना जायगा तो इस में वैचित्र्य न होने से इस से उत्पन्न होने वाले कार्यों में भो वैचित्र्य न हो सकेगा ॥७॥
(एककाल में समस्त विच को उत्पत्ति का अनिष्ट) एकरूप स्वभाव से कार्य का जम्म मानने पर खाल यही दोष नहीं है कि कार्य में वैचित्र्य की उपपत्ति न हो सकेगी, प्रपितु कार्य को उत्पन्न करने में स्वभाव को किसी अन्य को अपेक्षा न होने से स्वभाव से एक कार्य को उत्पत्ति के समय उस के साथ ही समधे जगत की उत्पत्ति की प्रापत्ति होगी, १] 'न घासाविति पाउस्माने 'नव स्पादि' विमूळपादः टीकापसम्म प्रासमाति।