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स्या : टीका-हिन्दी विवेचन ]
अत एव कालवादोऽपि निरस्तः, इस्याहमूलम्-कालोऽपि समयादिर्यम्केवलः सोऽपि कारणम् ।
तत एष संभूतः कस्यचिन्नोपपाने ॥७७ ।। कालोऽपि समयादिः क्लुमद्रव्यपायरूपः, अतिरिक्तकालपर्यायो वा; गद्-यस्मादेतो नतः, तत एव अमपादः, हि-निभितम् , कस्यचित् = कस्यापि, असंभूतः अनुत्पत्तेः, सामग्री प्रविष्ट कारणों के विशिषणभावयनिगमना न होमेमोरच अवश्य है किन्तु प्रमाणागुमत होने से यह गौरव तो साह्य हो सकता है। पर प्रमाणशून्य होने से कुदरपत्वको स्वीकार करने का भार वस्सह है। दूसरी बात यह है कि कुर्वपत्वको सिद्धि मावपदार्थ के णिकरण की गिद्धि पर निर्भर है और क्षणिकत्व पूर्कोतर घटादि में 'स एवायं घटः' इस प्रकार की प्रस्पभिशा से बाधित है।
(स्वभावदाद का खण्डम) या भी वातव्य है कि कुर्वपत्म को सता मानकर मी स्वभाववाच की रक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि एकत्र घट कुर्वपत्व से घट की उत्पत्ति होने पर अन्यत्र भी उसो घट की उत्पत्ति की मापति हो सकती है। इस प्रापत्ति का परिहार पवि वेशानियामक प्रतिरिक्त हेतु को कल्पना करके किया जागा सो स्षमान से भिन्न हेतुके सिद्ध हो जाने से स्वभाववाद का परित्याग हो जायगा । बसरा होत यह है कि यदि स्वभाव हो सब कार्यो का जनक होगा तो दग प्रादि में घट आदि को कारणता के प्रमारमशान से समावि के संग्रह में जो घटाशी पुरुष को प्रति होती है वह न हो सकेगी, पोंकि वण्ड प्रावि से घट प्रावि के होने की सम्भावनामात्र से मिष्कम्पप्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता।
[विता हेतु भावोत्पत्ति' पक्ष में बदतो ध्याधात] यदि यह कहा जाय कि-"समस्त भाव विना हेतु केही उत्पन्न होते है। यही स्वभाव वाद का मर्थ है, अतः इस वाव में मताये गये दोषों को कोई अवसर ही नहीं हो सकता" तो यह भी ठोक मही है, क्योंकि 'समस्त भाव बिना हेतु के ही उत्पन्न होते है। इस मत को सिय करने के लिये हेतु का प्रयोग आवश्यक होने के कारण मह मत कायनमात्र से ही स्याहत हो जाता है। जैसे
यह ठीक ही कहा गया है कि-'भाव नितुक हैं। इस प्रतिमा को हेतु के साथ प्रस्तुत करने पर प्रतिज्ञा को प्रस्तुत करने वाले धावा द्वारा हो प्रतिमा का मजा हो जाता है और हेतुहीन प्रतिमा को प्रस्तुत करने पर केवल प्रतिमा निरर्थक हो जाती है।
पति यह कहा जाय कि-'प्रतिमा का साधक हेतु सापक होता है, प्रतः उस से कारक हेतु का खण्डन करने वाले वाबी के पक्ष का उपाघात नहीं हो सकता' तो यह वीक नहीं है, क्योंकि सापक मो वही होता है जो शान का कारक होता है । मतःशापक हेतु मानने पर कारक हेतु भी स्वीकृत हो जाता है, क्योंकि ज्ञान को अनियताधिक मानमे पर उस के काबाचिरकरव का लोप होगा और नियतापधिक मानने पर उस का कारक हेतु सिव हो जायगा । क्योंकि नियतावधि हो कारक होता है इसीलिये 'गर्वमा यूमः' मह व्यवहार नहीं होता ॥५६॥