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[ शा० वा० समुच्यत्र ०२
केवल: - अन्यानपेक्षः, सोऽपि कालोऽपि कारणं नोपपद्यते विवक्षितसमये कार्यान्तरस्थाऽप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् । न च तत्क्षणवृत्तिकार्ये तरपूर्वचणहेतुत्या मिश्रानाद न दोष इत्युक्तमेवेति वाच्यं भाविनस्तत्क्षणवृत्तित्वस्यैष फलत आपाद्यत्वात् 'तत्क्षणवृचिकार्य तत्पूर्व क्षणत्वेन हेतुत्वम्, तदुत्तरक्षणविशिष्टे कार्ये तत्क्षणत्वेन वा ?' इति जिनिंगमनाविरहाच्च ॥७७||
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दोपरान्तरमाह
मूलम्-यत काले तु येऽपि सर्वधन सत्फलम् । अमाहेश्वरापेक्षं विशेयं तद् विषक्षणः ॥ ७८ ॥
नव काले समयाद, तुल्येऽपि = अविशिष्टेऽपि समि तत्फल- तत्कालजन्यं पटादि सर्वच न तत्यादी तदनुपपत्ते:, अतस्तत्फलं विश्वक्षण: - योषितः, देभ्पेश= कालातिरिक्त देशादिहेतुजन्यं, विज्ञेयम् । न च मृशेऽन्यत्र घटस्याऽनापतिरेव काले हेतुमको sa देशे कार्यानापनेरिति वाच्यम् मृदजन्यत्वेन मृदन्यस्याऽऽपाद्यत्वात् । मृदजन्य
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(कासवाद का निरसन युगपद सर्वकार्योत्पत्ति का अनिष्ट)
७७ व कारिका में कासवाद का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
काल का अर्थ है समय उसे प्रमाण सिद्ध द्रव्य का पर्याय रूप माना जाय, या अतिरिक्त फाररूप का उपाधिरूप माना जाम, अथवा अतिरिक्स पदार्थरूप माना जाय, किसी भी स्थिति में एक मात्र उस को ही कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि कारणान्तर के प्रभाव में केवल काल से किसी की भी उत्पति नहीं होती और पवि एक मात्र काल से भी कार्य को उत्पत्ति सम्भव होगी तो एक कार्य की उत्पत्ति के समय अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की प्राशि होगी। क्योंकि केवल काल से कार्योत्पत्ति मानने पर किसी भी कार्य की उत्पत्ति के लिये कोई अन्य अपेक्षरणीय न होने से एक कार्य के उत्पादनार्थ उस काल के उपस्थित होने पर अन्यों की मनुत्पत्ति में कोई युक्ति प्रतीत नहीं होती। 'तरवृद्धिकार्य के प्रति तत्क्षण का पूर्वक्षण कारा है' कालबाब के उपपावन में जो य कार्यकारणभाव बताया गया है उस से भी आपति का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि जब काल मात्र हो कारण माना जायेगा तब सभी कार्यों में तत्काल सिर की थापति होगी, श्रतः सभी कार्यो के एकक्षणवृत्ति हो जाने से कार्यतावच्छेवक कोटि में तत्क्षणवृतित्व का प्रन्तर्भाव निश्यक होगा । इसके अतिरिक्त इस बात में कोई विनिगमना नहीं है कि तत्क्षण के वंश को तत्क्षणवृतिकार्य के प्रति तत्क्षणपूर्वक्षणस्वरूप से कारण माना जाय या सत्क्षरगणवृत्तिकार्य के प्रसि तत्त्वरूप से कारण माना जाय | क्योंकि लाघव गौरव दोनों में समान है । व्यवहित तरक्षणोत्तर क्षरणव सिकार्य की उपस्थाप िका परिहार करने के लिये दूसरे कार्यकारणभाव में कार्यतावच्छेदककोटि में जैसे सरक्षराज्यवहितोत्तरत्व का निषेश श्रावश्यक होगा, उसी प्रकार व्यवहित पूर्वक्षण से सरक्षणवृत्तिकार्य की उप के वारणार्थ पूर्व कार्यकारणभाव में कारणता व देवक कोटि में तत्क्षणाव्यवहितपूर्वव का निवेश भी श्रावश्यक होगा ॥७७॥
७८ व कारिका से कालवाद में एक और प्रतिरिक्त योष बताया गया है तथा ७६ वीं का रिका कानादि की स्वतस्त्रकारणता की असंगति का उपसंहार किया गया है