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________________ स्या क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [१५ च जन्यतासंबन्धेन मृद्धिमत्यम् , अनो न तर्कमृलन्यान्यसिद्धिः । न च तत्स्वभावलादेव तस्य क्वाचिकत्वम् , फत्ततस्तत्स्वभावत्वस्येवाऽऽपाद्यत्वादिप्ति दिम् ||७|| उपसंहारमाहमूलम् - अतः कालापयः सर्वे समुदायेन कारणम् ! गर्भादः कार्यजातस्य विजंया पायवापिभिः ॥७९॥ ARE=Ika कालादरः सर्व सपा सपनत्य सपा समषिः कार्यजासस्य, न्यायवादिभिः, कारणम्-फलोपायकाः, विज्ञयाः ॥७९|| इदमेव स्फुटतरशब्देनाहमूल-न चेककत एवेह क्वचित्किश्चिदपीक्ष्यते । तस्मात्सवय कार्यस्य सामग्रो जनिका मता ८०॥ इस जगति, न च नैव, एककत व नियत्यादे, क्वचितनवापि किशित-किमपि घटादि, ईश्यते-जायमानं प्रतीयते । तस्माद् हेनोः, सर्वस्य घटादेः कार्यस्य, सामग्री (तन्तु प्रावि में घटोत्पत्ति का दोष) प्रतिरिक्त दोष यह है कि यदि केवल काल ही घट प्रावि प्रायों का जनक माना जायगा तो घट को उत्पत्ति मूव मात्र ही में न हो कर तातु प्रादि में भी होगी क्योंकि इस मत में कार्य को देशवृत्तिता का कोई नियामक नहीं है और यदि देशवासिता के नियममार्थ ससस्कार्य में तत्तद्देश को भी कारण माना जायगा तो कालवाव का परित्याग हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि काल तो काल में ही कार्य का उत्पावर है पतः जस से प्रमिष्ट देश में कार्यात्मसि कामापाबममहीं हो सकता"तो मह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त मापसि का तात्पर्य इस आपशि में है कि घट यदि कालमात्र से जन्य होगा तो मब से प्रजन्म होने के कारण मृत् में भी प्रवृत्ति हो जायगा, क्योंकि यह ग्याप्ति है कि जो जिस से मम्य नहीं होता वह उस में प्रवृत्ति होता है. घट में मृद पत्तिय का पापावक मृवअजन्यत्व है उस का अर्थ है जम्यता सम्बन्ध से महास से भिन्नाव, मातः मबजन्यत्वकी प्रसिद्धि से माजन्यस्य को भी प्रसिद्धि होने के कारण उक्त व्याप्ति तथा प्रापारक फा अमाव होने से उबत भापति मसंगत होगी। 'घट प्रादि मुवति स्वभाव होने से मत होते हैं अन्यति नहीं होते-यह कथन भी पर्याप्त नहीं हो सकता क्योंकि फलतः घट प्रादि में मुड्पतिवमावस्त्र के समान अन्यतिस्वभावस्थ ही प्रापाय है ॥७८।। उक्त दोषों का परिहार सम्भव न होने से न्यायवावियों को यही मामना उचित है कि काल पादि प्रम्यनिरपेक्ष हो कर कार्य के उत्पावक नहीं होते अपितु अन्धहेतुनों के साथ सामग्रीघटक होकर कार्योस्पायक होते है ३७६1 ८० वो कारिका में पूर्वकारिका की बात को ही अधिक स्फुट पाम्दों में कहा गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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