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[ शाम्नमानसमुचय स्त. २०६०
कश्चित्तव्यतिरिक्तिाऽव्यतिरिक्तहेतुसंहतिः, निका-कार्योपधायिका, मलाइटा । पूर्व कारणसमुदाये कार्योपधायकवनिपमः साधिता, इदानी तु कार्य कारणममृदायोपाधयत्वनियम इति तु सश्यम् ।
__ननु कालाधकान्तप्रतिक्षेपेऽन्यदृष्टयान्ताऽप्रतिपाइ न साध्यसिद्धिरिति पेत् न, अष्ट्रकान्तवादेऽनिमोझापचे, मोक्षम्य फर्माजन्पत्वान् ।-"आत्मस्वरूपावस्थानरूपो मोक्षः फर्मक्ष येणाभिव्यज्यत एय, न तु जन्यत एये"-ति चेत् ? सत्यम् , कर्ममययन फर्म विना
(कार्य मात्र कालाविकारण सामग्री जन्य है'-सामग्रोदाव) नियति भाविक एक मान से अबत में किसी कार्य को उत्पत्ति नहीं देखी जाती किन्तु कारणसामग्री से ही देखी जाती है मोर कारणसामग्री सत्ता कारण से वंचिद् भिन्नाभिन्न होती है, प्रतः एकक कारण भी सामग्रीविषया कार्य का कारण होता है और प्रग्यनिरपेक्ष एक एक व्यक्ति के रूप में प्रकारण भी होता है। पूर्वकारिका में कारणसमुदायास्मक सामग्री में कार्य की उपधायफसा= अपने प्रध्यहित र अण में कार्यवशा' बतायी गयी है और इस कारिका में कार्य में सामग्री की अपर्षयता सामग्री के प्रष्यहित उशर क्षण में उत्पद्यमालता' बतायी गयी है। यही वोनों कारिकाओं के प्रसिपावन में अन्तर है।
[एकान्त कर्मवाद का निरसन] 'एकमात्र काल मावि की ही एकान्ततः कारणता का लाइन होने पर भी मदृष्टमात्र की एकान्तकारणता का खण्डन न होने से सामपी की कार्योपधायकता नहीं सिद्ध हो सकती. -यह शखा करना उचित नहीं हो सकता क्योंकि केवल प्रहार को कारण मानमे पर मोक्ष का प्रभाव हो जायगा, बयोंकि मोर कर्मजन्म नहीं होता और कर्मबाद में कर्म से मिन किसी को कारण नहीं माना जाता, पत: कारण का सर्वथा प्रभाव हो जाने से मोक्ष का होना सम्भव हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि-'पारमा का अपने विशुद्ध रूप में प्रवस्थान ही मोक्ष है, कर्मक्षय से उस की अभिव्यक्ति मात्र होती है, उत्पशि नहीं होती, अतः कारणाभाव में मी उस का प्रस्तिस्व अण्ण रह सकता है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कारण का प्रभाव होमे पर मोक्ष का भिव्यजक कर्मक्षय ही नहीं हो सकता, क्योंकि कर्मक्षय भी कर्म से होता नहीं और कर्म से मित्र कोई कारण इस मत में मान्य नहीं है।
ज्ञानयोग हो कर्मक्षय का हेतु है) इस सन्दर्भ में मषि मह कहा जाय कि-कर्मक्षय में भी स्थानयोग्य ज्ञानयोग सम्बन्ध से पूर्वकम हो हेतु है, अन्य कोई हेतु नहीं है प्रत. कर्मक्षय के कारण द्वारा कमंडाद का त्याग नहीं हो सकता। प्राय यह है कि-कों का क्षय ज्ञानयोग से होता है और ज्ञानयोग पूर्वकम से होता है क्योंकि मनुष्य के शुभकर्म हो उसे खानयोग के सम्पावन में प्रवृत्त करते हैं, इस प्रकार पूर्वकर्म ही शानयोग के द्वारा कर्मय का हेतु होता है, तो यह कंचन ठीक नहीं है क्योंकि अब शानयोग ये विना कर्मक्षय महीं होता तो उसे सम्बन्ध सना कर पूर्वकर्म को कारण मानने की अपेक्षा सीधे शासयोग को ही कर्मक्षय का कारण मासमा उचित है। अतः कर्ममय में प्रायझेनुक्रवद्धि होने से कार्यमात्र में कममात्र के हेसुत्य रूप कर्मवाव का मङ्ग ध्रव है, और यदि मामयोग का सम्बन्धरूप में ही उपयोग पीपट