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स्या १० टीका-हिन्दी विवेचन ]
ऽनुरूपत्तेः । 'स्वप्रयोज्यज्ञानयोगसंपन्धेन पूर्वकच तत्र हेतुरिति चेत् । न, साक्षादेव तस्य हेतुपौचित्यात , अन्यथा कर्मत्वस्यैव तेन संपन्धेन हेतुल्वप्रसङ्गात् । किश, पृष्टकारणान्यनतिपायाऽष्टस्य कार्यजनकत्वात् नेपामपि तथात्वमनियास्तिम्। तद्विपाकेन तदुपक्षये तैस्तावपाकोपम यस्यापि वक्तु शक्यस्यात् , चलवश्वस्याऽप्युभयत्र "अभंतर-प्रमाणे." इत्यादिना महता प्रबन्धेनाऽन्यत्राऽविशेषेणेच साधितत्वादिति दिन ॥८॥
'अत्र कासादयश्चत्वारोऽपि स्वातन्त्र्येण हेतवः' इत्येके, “कालादृष्टे एव तथा, नियतिस्वभावयोस्त्वष्टधर्मत्वेन न तथास्त्रम्' इत्यन्ये, इति मतभेदमाह
मृतम् सारे नियनिकामनाये गपक्षने ।
____धमायन्ये तु सर्पस्य सामान्ये च पस्तुनः ॥८॥
अन्ये-आचार्याः, स्वभावो नियतिध, एवफारस्प 'कर्मणः' इत्युत्ता बन्धान कर्मण एव धौं-हिति' इत्यध्याहियते-इति प्रबनने 'अभ्युपगमप्रकर्मेण ध्याग्यान्तानि योजना । -.-- हो तब मो कर्मक्षय को कारणता कर्म में नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि मानयोग जैसे कर्मप्रयोज्य है। उसी प्रकार कर्मस्वप्रयोज्य भी है क्योंकि कारण और कारणतावधेयक दोनों ही कार्य के प्रयोजक करे जाते हैं. अत: नाना कर्म को स्वप्रयोज्य शानयोग सम्बन्ध से कारण मानने की अपेक्षा एक कर्मत्व को स्वप्रयोग्यज्ञानयोग-सम्बन्ध से कारण मानने में लायब है। इस प्रकार पुनः कर्मक्षय में कम से भिन्न कर्मस्वरूप हेतु को जम्पसा सिट होने से कालगाव का भङ्ग र होगा।
[अदष्ट को भी दृष्टकारणों को अपेक्षा] यह भी ज्ञातव्य है कि महष्ट जब र.ष्टकारणों की उपेक्षा म कर के ही कार्य का जनक होता है। तो प्रष्ट के समान दृष्ट कारणों में भी कार्य को जनकता का प्रारण नहीं हो सकता, प्रतः कार्यमात्र में कमहतुकरय के सिद्धान्त का धराशायी होना प्रनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि "दृष्ट कारणों के सविधान से कर्म का विपाक होता है अर्थात् कर्म फलोपभाया होने की अवस्था से युग होता है सपा उस के अनन्तर क्षण में कार्य का जन्म होता है । पसः कर्मविपाक से इष्टकारणों का उपाय प्रति उनको प्रश्यथासिसि हो जाने से कारण नहीं हो सकते' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि - कारणों से कर्मविपाक को ही उरमीण-अग्यथासिक कहकर जप्त के कारणव को भी प्रसिहि बतायी आ सकती है ।-'कर्मविपाक प्रारतर पस्नु होने से बाहर रष्टकारणों से पलवान होता है पसः बही से मम्मन्सर-कश्मण स्त्रियाबलियतणं सिजापुछ । नण कयरं अमनास अविसं पा निघेसम्म ॥१५॥
णिस्फत्तिक फाटा परिणययोगी फलेण वा सदि । पंढमे समसामगी बिए पापार वेसम्म ॥४॥ सदए गोण्ड वि समया रउरथपम्यो पुणो असिन्ति । तेण समावेकवान वीष्टवि समयत्ति ठिई ॥४॥
इत्यापि, गामाविल्या 'भव्यात्ममतपरीक्षा' नाम्नि अन्य साधिवं दृष्टव्यम् ।