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________________ [ सावा समुच्चय-स्त २ रनो०६१ उद्धृतरूपादिवस्तुस्वभावती: स्वभावम्य बड्नेरूत्रज्वलनादिनियमरूपार्थ नियतेबाट एव स्थीकारादित्याशयः । अन्ये त्याचार्या, सामान्येनघ-टा-इष्टसाधारण्येनेय, सर्वम्य पस्तुनः स्वभायो नियनिय धमौ इति 'प्रच नाकाने साता : बरमा भव्यत्वात्मिका जातिः कार्यकजात्याय, नियतिश्चातिशयितपरिणतिरूपा कार्यातिशयाय सर्वत्रीपयुज्यत इति । अधिक्रमन्यत्र 1१८॥ ॥ति श्रीपतिनपविजयसोचरपतियशोधि जयविरविक्षायां स्याद्वादकल्पन तामिधानायां पात्रशमिमुकचीकायां द्विमीयः पनवका संपूर्णः ॥ कारणों का उपाय करेगा'-यह कहना मो युक्त नहीं हो सकता,योंकि 'अरमन्तर-घरमाणं, 'इत्यादि गाथा से प्रान्तर और बाह्य कारणों को समानबल बताया गया है 1100 [नियति और स्वभाव की हेतुता में मतान्तर] ८१ वी कारिका में यह मतमेच बताया गया है कि कुछ विधानों के काल, स्वभाव, निर्यात पौर मचारों को स्वतन्त्ररुप से कार्यमात्र का कारण मानापौर प्रन्य विवानों ने काल तथा पष्ट इन दोनों को ही स्वतन्त्ररूप से कार्यमात्र का कारण मामा है और स्वभाव एवं निर्यात को मरपट का धर्म मान कर उन्हें कारण नहीं माना है। कारिका के पूर्वार्ध में 'एच' शब्द को 'कर्मणः' के उत्तर में पढने पर कारिका का मर्प यह होता है कि प्रश्य प्राचार्यों के कथनानुसार स्वभाव मौर निति कर्म मराट के ही धर्म हैं, क्योंकि कोई वस्तु उमृतरूप ही होती है और कोई वस्तु प्रमुभूतरूप ही होती है, यह नियम उन वस्तुमों के जनक प्ररष्ट के स्वभाव से ही उपपन्न हो सकता है। एवं अग्नि के अध्वंग्वलन का नियम भी मग्नि के मानक निर्याल से ही होता है, और वा निर्यात प्राष्टिगत होती ही है। इसके विपरीत दूसरे माचापों का मत है कि स्वभाव और नियति सामान्यरूप से सम्पूर्ण वस्तु के धर्म है। सामान्यरूप का पर्व है इष्ट भोर परन्ट समी पदार्थ अपने स्वभाव और नियतिरूप धर्मों हारा सभी कार्यों के कारण होते है। इस मत के अनुसार 'तथामय्यत्व' जाप्ति हो स्वभाव है जिस से कार्यों में ऐकमास्य की उपपत्ति होती है और निति कार्यगत ऐसी परिणति है जिससे कायों में पतिशय अर्थात स्वेतरलाग्य को उपपत्ति होती है । प्राशय यह है कि प्रत्येक इष्ट पदार्थ तथा प्रष्ट पार्ष अपने तथानन्यस्वनामक जातिरूप स्वभाव से अपने कार्यों में एकजातीयता का भौर अपभी अतिशयितपरिणति रूप निषति से अपने कार्यों में अतिशयात्मक वैशिष्ठच का सम्पादक होता है ।।१।। द्वितीय स्तबक समाप्त
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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